नोटः
हिमाचल प्रदेश के जिला कुल्लू के दुर्गम आनी क्षेत्र में
११५०० मीटर की ऊँचाई पर स्थित जलोरी पास से लगभग ५ किलोमीटर
दूर सरेऊलसर झील के निर्मल जल को सदियों से ‘आभी' नामक एक
चिड़िया निर्मल रखे हुए है जो झील में किसी भी तरह का तिनका
पड़ने पर उसे अपनी चोंच से उठा कर दूर फेंक देती है। इस चिड़िया
के इस कारनामे को यहाँ आने वाले विदेशी तथा अन्य पर्यटक देखकर
आश्चर्यचकित रह जाते हैं। इस झील के किनारे बूढ़ी नागिन माँ का
प्राचीन मन्दिर स्थित है। स्थानीय लोग इस चिड़िया को ‘आभी' के
नाम से पुकारते हैं। यह कहानी उसी ‘आभी' के लिए।
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आभी सदियों से व्यस्त है। कितनी सदियाँ बीत गई हैं पर आभी का
काम खत्म नहीं हुआ है। इक्कीसवीं सदी में तो और बढ़ गया है।
सूरज उगने से पहले वह उठ जाती है। झील के किनारे पड़े शिलापट्ट
पर बैठ कर पानी में कई डुबकियाँ लगाती है। फिर अपने छोटे-छोटे
रेश्मी पंखों को फैलाकर झाड़ती है। नहा-धोकर फारिग होती है तो
कई पल कुछ गाती रहती है। गीत का मीठा संगीत झील के नीले निर्मल
जल में कहीं बहुत गहरे उतरता है। गोते लगाता हुआ पानी की
सलवटों में घुलता-मिलता रहता है, जैसे सोई हुई झील को जगा रहा
हो। आभी को लगता है कि झील अब धीरे-धीरे उनींदी सी जाग रही है।
वह झील के किनारे स्थित प्राचीन मन्दिर के किवाड़ की दहलीज पर
जाकर कई बार अपनी चोंच मारती हुई चहचहाती है, मानो गहरी नींद
भीतर सोई बूढ़ी नागिन माँ को जगा रही हो। उसके मधुर संगीत की वे
चहचहाहटें जैसे पूरे जंगल में फैल जाती हैं और दूसरी आभियाँ और
पंछी भी उसके स्वर में स्वर मिलाते हुए भोर के गीत गाने लगते
हैं।
इतने कामों को जितने में आभी निपटाती है, सूरज हिमखण्डों से
सरकता हुआ झील में उतरने लगता है। उसकी किरणें पानी में कुछ इस
तरह घुल-मिल जाती हैं मानों असंख्य हीरे झील में तैरने लगे
हों। इस चकाचौंध से आभी भ्रम में पड़ जाती है। वह बार-बार उड़ कर
उन हीरों को अपनी चोंच से उठाने का प्रयास करती है पर पानी की
बूँदों के सिवा उसके मुँह कुछ नहीं लगता। यह खेल उस वक्त तक
चलता है जब तक सूरज झील से निकलकर जंगलों और धारों से अपनी
किरणें समेटता हुआ हिम-शिखरों के उस पार न चला जाए। आभी की
साँस में साँस आती है और अपनी झील की निर्मलता को पुनः पाकर
सुस्ताने लगती है। अचानक फिर कोई तिनका या पत्ता सरसराती हवा
के साथ झील में आ गिरता है और आभी फौरन उसे उठा कर किनारे फेंक
देती है।
आभी के लिए इतने काम तभी संभव होते हैं जब पहाड़ों और झील पर
जमी बर्फ पिघल जाती है। अन्यथा आभी को बर्फ के मौसम से बहुत
चिढ़ है। आभी झील और बूढ़ी नागिन माँ के साथ जहाँ रहती है,
समुद्रतल से वह जगह दस हजार फुट से ज्यादा की ऊँचाई पर है।
मीलों दूर तक कहीं गाँवों का नामोनिनिशान नहीं। बर्फ से सड़कें
जम जाती हैं। झील जम कर आईस स्केटिंग रिंक हो जाती है, जिस पर
जंगली जानवर कई बार आर-पार विचरते जाते हैं। आभी ने देखा है कि
बर्फानी चीते अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ उसे खेल का मैदान
बनाए रखते हैं। वे जाते हैं तो कस्तूरी मृग और जंगली बकरे
कतारों में जमी झील के ऊपर से आर-पार दैाड़ते-भागते रहते हैं।
एक आध बार उसने लम्बे-लम्बे सींगो वाला बारहसिंगा भी अपने
साथियों के साथ उसकी सतह पर से दूसरे छोर पर भागते देखा है।
आभी को उसके सींगो पर चुपचाप बैठना खूब जचता है। बर्फानी भालू
के तो मजे रहते हैं। मादा भालू अपने रुई के फाहों जैसे
सफेद-सफेद बच्चों को लेकर कई घण्टों जमी झील पर सोई रहती है और
बच्चे झील के आँगन में अठखेलियाँ करते नहीं थकते।
सर्दियों में कई बार बर्फ के तूफान में झील पूरी तरह गुम हो
जाती है। आभी हैरान-परेशान। जाए तो जाए कहाँ। कहे तो कहे
किससे। सोचती है कि उसकी झील कहाँ गुम हो गई है। पर वह वहीं
डटी रहती है। बूढ़ी नागिन माँ का मंदिर फिर एकमात्र सहारा है।
मंदिर के ऊपर लगे एक लकड़ी के नुकीले शहतीर पर बैठ कर खूब कुढ़ती
है। फड़फड़ाती है। चहचहाती है। पर उसकी आवाजें कोई नहीं सुनता। न
झील के जमे पानी में कोई हलचल, न देवदार और बान के पतों में
सरसराहटें। और न बूढ़ी नागिन के मंदिर में घण्टियों की
टनटनाहटें।
वह कुदरत के इस श्वेत साम्राज्य को सदियों से ढोती आई है। बरस
के लगभग छः महीनों तक बर्फ की यह सल्तनत जीवन की गति को रोके
रखती है। जिधर देखो बर्फ की विशाल वितानों में पहाड़ और जंगल
सिमट जाते हैं। भारी बर्फबारी से मन्दिर भी डूब जाता है। जंगल
के देववृक्ष तक सर झुकाए ऐसे खड़े दिखते हैं मानों किसी भयंकर
श्राप से त्रस्त वे अपने किए की सजाएँ काट रहे हों। आभी के लिए
ये सबसे बुरे दिन हैं। अपने साथियों के साथ वह निराश-उदास कभी
झील के ऊपर तो कभी मन्दिर के चारों तरफ चक्कर काटती रहती है।
जब कभी बादल आते हैं तो उस सफेद चकाचौंध के बीच पेड़ों की
टहनियाँ आँखें खोलने लगती हैं। बर्फ झरती है तो जैसे वे साँस
लेने लगते हों। तेज धूप के साए में भी चारों तरफ की हलचलें आभी
को परेशान किए रहती हैं। तरह-तरह की आवाजें, जैसे एक साथ
हजारों सैनिकों ने युद्ध का बिगुल बजा दिया हो। यह बर्फ झरने
और पिघलने का मौसम होता है, पर आभी की कोई नहीं सुनता। वह झील
के बिछोह में कभी गुम-सुम, तो कभी चीखती-चिल्लाती रहती है।
उसके गीतों में विरह का गहरा दर्द छुपा रहता है, पर उस दर्द को
पहचाने कौन। वह फिर बूढ़ी नागिन के दरवाजे फरियाद करती है, पर
वहाँ भी उसकी मिन्नतें कोई नहीं सुनता। बूढ़ी नागिन भी नहीं।
जैसे वह भी शीत लहरों से बच कर कहीं मंदिर के गर्भगृह में
दुबकी पड़ी हो।
बर्फ पिघलती है तो झील पर जमी तहें उधड़ने लगती हैं। आभी को
लगता है जैसे झील उन लम्बी परतों के बीच से अपने होने का एहसास
दिला रही हो। वह गहरी नींद से जाग गई हो। सफेद जमी बर्फ की
चादर धीरे-धीरे उसके ऊपर से सिमटती-खिसकती चली जा रही हो। जमी
बर्फ के शीशेनुमा थक्के पानी पर टहलने लगते हैं। आभी एक-आध पर
उड़ कर बैठ जाती है तो उसे असीम आनंद का एहसास होने लगता है। वह
कई पल झील की सतह पर हिलोरें लेती चहचहाती रहती है। देवदारू,
बान और बुरांश भी जैसे अपनी तपस्या पूरी करते हुए आसपान की ओर
गर्दन किए भगवान का शुक्रिया अदा कर रहे हों। जब अचानक किसी
सुबह मन्दिर की घण्टी बजती है या सड़क पर किसी वाहन के हॉर्न का
तीखा शोर उसके कानों तक पहुँचता है तो वह अपना काम शुरू करने
के लिए मुस्तैद हो जाती है।
आभी को कभी लगता है कि बूढ़ी नागिन माँ उसके आराम के लिए यह
ताना-बाना बुनती है। वही है जो बर्फ लाती है। वही है जो झील के
पानी को जमाकर उसे किसी बर्फ के रिंक जैसा बना देती है ताकि छः
महीनों तक झील में कोई तिनका न जाए। कोई झील में कूड़ा-कर्कट न
फेंके। झील, देवदारूओं और जंगल के बाशिंदो के एकान्त में खलल न
डाले। वही दूर-दूर तक इतनी बर्फ गिराती है कि सड़कें बंद हो
जाएँ और वहाँ तक कोई न पहुँचे। बूढ़ी माँ भी चैन से अपने दिन
गुजारे। कोई उसके द्वार आकर अपने-अपने स्वार्थों के बाजारों को
सम्पन्न करने की दुआएं न माँगे।
आभी नहीं चाहती उसकी झील को कोई गंदा करे। उसमें कोई ऐसी-वेसी
चीज फेंके जो पानी को गंदला खराब कर दे। वह बरस के इन छः
महीनों में सूर्य से सूर्य तक व्यस्त रहती है। वहाँ आए
पर्यटकों से लड़ती है। हवा से झगड़ती है। जंगलों के पेड़ों से
लोहा लेती है। झील के पानी को पानी की तरह साफ रहने देना चाहती
है। जैसे ही उसमें कोई तिनका जाए वह झट से अपनी चोंच से उठा कर
किनारे फेंक देती है। लोग तरह-तरह की चीजें झील में फेंकने लगे
हैं। वे नहीं जानते नदियों, झीलों के पानी का मोल। उन्हें नहीं
पता हवाओं की ताजगी। उन्होंने नहीं देखी है देवदारूओं की
तपस्याएँ। वे नहीं महसूस पाते बुरांश के लाल फूलों की सुगन्ध।
उन्हें नहीं पता कि वे अपने साथ मैदानों से लाए इस कचरे को
फेंक कर कितना अनर्थ कर रहे हैं।
आभी अब झील में गिरते तिनकों और पत्तों से ज्यादा इंसानों से
डरने लगी है। उनके व्यवहार को लेकर परेशान होती है। दिन भर
कितने लोग यहाँ घूमने आते हैं। कोई पेड़ों की ओट में बैठे
खाते-पीते हैं और वहीं प्लास्टिक के लिफाफें, चिप्स और पानी की
खाली बोतलें फेंक कर चल देते हैं। कोई मन्दिर से दूर नीचे
झाड़ियों में गंदी-गंदी हरकतें करते हैं और कई तरह के कचरे वहाँ
डाल के चल देते हैं। वे देवदारुओं की वरिष्ठता से नहीं डरते।
उन्हें बान के पेड़ों की राष्ट्रीयता से कोई लेना-देना नहीं।
उन्हें बूढ़ी नागिन माँ से भी शर्म महसूस नहीं होती। आभी सबकुछ
देखती रहती है। उसके लिए इन बातों का समाधान नामुमकिन है। यह
नई दुनियादारी उसे हैरान-परेशान किए रखती है। उसके एकान्त में
यह बाहरी दखल बरदाश्त से बाहर है। पर वह कर भी क्या सकती है?
वह तो बस अपना काम जानती है।
आभी के लिए यह प्लास्टिक का कचरा आफत बन गया है। झील की निर्मल
तहों पर तैरते खाली लिफाफे और बोतलें तिनके और पत्ते नहीं हैं।
ये उसके अपने जंगल के किसी पेड़ में नहीं उगते। ये देवदार, चीड़,
बान या बुरांश की टहनियों से नहीं झरते। ये वहाँ की धारों में
बिछी घासणियों में लहराते घास के भी तिनके नहीं हैं जिनके
खोहों में आभी घोसले बना कर बच्चे जनती है। यह किसी अजनबी जंगल
का कचरा है जो इंसानों के झोलों से निकलता है।
वह जोर-जोर से चहचहाती है। तड़फती है। कई आभियाँ फिर उसकी
चहचहाहटें सुन कर वहाँ पहुँच जाती हैं। वे जानती हैं उसने
उन्हें क्यों बुलाया है। हालाँकि वे सभी यहाँ-वहाँ वही काम
करती हैं पर अब उन्हें पता है कि मिलकर काम करना है। वे दो,
चार-चार के झुण्डों में झील के पानी पर उड़ती हैं। एक-दूसरे से
पंख सटाए वे उस कचरे को उठाना चाहती हैं पर लाख कोशिशों के
बावजूद भी नहीं उठा पातीं। वे मन्दिर के गुम्बदों पर कतारों
में बैठ कर चहचाहाने लगती हैं। यह चहहाचाना आम नहीं है। इसमें
झील की निर्मलता को प्रदूषित करने का दर्द है।
यहाँ आए लोग नहीं जानते कि ये छोटी-नन्ही आभियाँ कितनी बीती
सदियों से इस झील और बूढ़ी नागिन माँ की सेवा में हैं। वे नहीं
जानते कि उनकी इन हरकतों से जंगल और पहाड़ बर्वाद हो रहे हैं।
वे नहीं जानते कि उनकी गाड़ियों के शोर से जंगली जानवरों के
एकान्त खत्म हो गये हैं और वे दूर कहीं अपनी-अपनी खोहों में डर
के मारे दुबके पड़े हैं। उन्हें नहीं पता कि बूढ़ी नागिन माँ की
आँखें डीजल और पैट्रोल के धुएँ से बैठने लगी हैं। वे नहीं
जानते ये देवदारू अपनी उम्र के आखरी पड़ाव में हैं और कब अपना
जीवन खत्म कर जमींदोज हो जाएँगे। उन्हें नहीं पता बान अब वैसा
हरियाता नहीं है जैसे पहले सजता-सँवरता था। उन्हें नहीं मालूम
कि अब बुरांश भी नहीं खिलता। उन्हें नहीं पता कि गाँवों की
ग्वालिनें भी अपनी पीठ पर किल्टा लिए बुरांश के फूल तोड़ने नहीं
आतीं। वे डरने लगी हैं कि कहीं वे आदमीनुमा जानवरों के वहशीपन
का शिकार न हो जाएँ।
आभी की परेशानियाँ अब और बढ़ने लगी है। झील से तिनके और पत्ते
उठाने तक तो ठीक था, पर उन अजनबियों का क्या करे जो अब जंगल के
अंधेरे में लम्बी-लम्बी रोशनियों में आते हैं। उनके कन्धों पर
तेज-तीखे कुल्हाड़े पूरे जंगल को डरा देते हैं। पेड़ कुल्हाड़ों
की चमक और उन वहशी जंगल माफियाओं के मन के घोर पाप से थर्थराते
रहते हैं। हवाएँ कहीं दुबक जाती हैं। चाँदनी घाटियों में सिमटी
बादलों की ओट में गुम। भयंकर अँधेरा जैसे तमाम जंगलों को खत्म
कर देगा। वहाँ तब कोई नहीं होता। ईश्वर आसमान में कहीं
स्वर्गलोक में छुप जाता है। बूढ़ी नागिन माँ, जो हजारों नागों
की अकेली माँ है, भी उन कुल्हाड़ों की पैनी धार के डर से मन्दिर
के गर्भगृह में साँसें रोके चुप बैठी रहती है।
आभी देखती है घने अँधेरों में यह माफिया राज। पल भर में जंगल
कुल्हाड़ों और भयंकर आरों की आवाजों से सहम जाता है। तभी कई
देवदारुओं की एक साथ मौत हो जाती है। बान टुकड़े-टुकड़े कट कर
तड़फता जाता है। मौत की इन भयंकर चीखों से दूर-पार कभी गीदड़
हूहुआते हैं। कभी बर्फानी चीते भयंकर गर्जना करते हुए ऐसे लगते
हैं जैसे कैलाश पर्वत पर विराजमान भगवान शिव से गुहार लगा रहे
हो कि है शिव! कहाँ है तुम्हारा त्रिशूल, अब क्यों नहीं आता
तुम्हें क्रोध! क्यों नहीं करते तांडव और संहार इन दुष्ट
वन-माफियों का।
जंगल के वीरानों में आभी सुनती है मन को चीर देने वाले ठहाकों
की गूँज। उन ठहाकों के साथ हवाओं में एक अजीब सी दुर्गन्ध
फैलती जाती है। बारूद, भाँग और सुल्फे की गंध। देसी जहरीली
शराब की गंध। नोटों की सरसराहटों की गंध। इस गंध से बचने के
लिए आभी इधर से उधर भागती है। पर वह दुर्गन्ध उसका पीछा नहीं
छोड़ती। घने अँधेरे में बूढ़ी नागिन के मन्दिर की दहलीज पर
बार-बार चोंच मारती है। चहचहाती है, पर बूढ़ी नागिन नहीं सुनती।
वह गहरी नींद में कहीं है। या उसकी बाहें कमजोर हो गई हैं। या
उसकी देवी-शक्ति छिन्न-भिन्न हो गई है। फिर उस अँधेरे में झील
के ऊपर कई चक्कर काटती है आभी। अचानक लगता है जैसे असंख्य
जुगनू झील में उतर आए हैं। वह जुगनुओं को जानती है। वह उनके
साथ रहती-बसती है। भ्रम होता है कि ये इतनी रात झील में क्यों
हैं। पास जाती है तो देखती है ये जुगनु नहीं हैं, सिगरट और
बीड़ी के अधजले टुकड़ें हैं। वह घने अँधेरे में उन्हें उठाने का
प्रयास करती है और अपनी चोंच को झुलसा बैठती है।
वह देखती है कई अजनबी लोग झुण्डों में देवदारों की ओट में
मस्ती में झूम रहे हैं। अपने कन्धों पर मृत देवदारूओं और बान
के कटे मोटे और लम्बे टुकड़े लिए सड़क तक पहुँचा रहे हैं। ट्रकों
में लाद रहे हैं। आभी रात भर नहीं सोती। झील भी नहीं सोती।
देवदारू, बान और बुरांश भी नहीं सोते। जंगली भालू, बकरे,
बर्फानी चीते, मोर, तीतर, मुर्ग और मोनाल भी नहीं सोते। वे
कहीं दूर-पार चले दुबके रहते हैं। पर लंगूरों और बंदरों की
टोलियाँ जैसे सुबह होने की तलाश में रहती हैं। वे शराब की खाली
बोतलों के साथ पड़ी-बची कुछ खाने की चीजें तलाश रहे होते हैं।
आभी अर्जी लिखना नहीं जानती। शिकायत करना नहीं जानती। उसे नहीं
पता इस जंगल का गार्ड - चौकीदार कौन है? उसे नहीं मालूम इस
आरक्षित वन क्षेत्र का रेंज अफसर कौन है? उसे पंचायत के प्रधान
का भी नहीं पता। वह किसी दरोगा या थानेदार को भी नहीं जानती।
उसे नहीं पता कि प्रदेश का वन मन्त्री कौन है? वह केवल इतना
जानती है कि सुबह से पहले उसे झील के निर्मल जल में स्नान करने
हैं। नहा-धोकर बूढ़ी नागिन के दरवाजे बैठकर गीत गाना है और फिर
दिन भर उसे झील के पानी के ऊपर से तिनके और पत्ते उठाने हैं
ताकि झील का पानी गंदा न हो जाए। बूढ़ी नागिन माँ को प्यास लगे
तो वह निर्मल शीत जल पी सके। सूरज अपने हीरे-जवाहरात भोर के
साथ उसमें छुपा सके। चाँद आकर उसमें डुबकियाँ लगा सके। आसमान
के असंख्य छोटे-बड़े तारे उसमें नहा सकें। बाघ, जंगली भालू और
दूसरे जानवर आएँ तो उन्हें और उनके नन्हों को जी भर पानी पीने
को मिले।
बूढ़ी नागिन माँ असहाय है। वह अपने को असंख्य जंजीरों में जकड़ी
महसूस करती है। उसे धूप के धुएँ और दियों से चिढ़ होने लगी है।
लोगों की जय जयकार से कुढ़न होने लगी है। उनकी मिन्नतों से
खिजलाहट होने लगी है। वह अपने ही भक्तों के मन के भीतर छिपे
शैतानों से घबराई हुई है। वह रात के सन्नाटों से डरने लगी है।
पर एक आस अवश्य है कि ये ‘आभियाँ' उसकी जनता हैं जो कभी हार
नहीं मानेंगी। वे झील की निर्मलता नहीं खोने देंगी। वे
तिनका-तिनका उठाकर उसे साफ रखेँगी।
आभी आज बहुत परेशान है। उसने बूढ़ी माँ के मन्दिर के साथ डरावना
मंजर देखा है। वह रात भर जागती रही है। उसने देखा है कुछ लोगों
ने एक बर्फानी मादा चीते पर किसी चीज से वार किया है। रात के
सन्नाटे में इस वार के धमाके देवदारूओं ने भी सुने हैं। उसकी
साथी आभियों ने भी सुने हैं। बाघ, भालु और कस्तूरे ने भी सुने
हैं। मोर, मोनाल और जुजुराणा ने भी सुने हैं। घाटियों और
पहाड़ों ने भी सुने हैं। वे भी उसकी तरह हैरान-परेशान हैं।
जागते हुए सहमे-सहमे भयाक्रान्त। आभी जानती है कि आज नहीं तो
कल यह आफत सभी पर आने वाली है।
मादा चीता कहराती-छटपटाती, घिसटती-लुढ़कती झील के किनारे तक आ
पहुँची है। यह ऐसी जगह है जहाँ धुप्प अँधेरा है। आभी देखती है
वह मादा हल्की-हल्की साँसे ले रही है और उसके चार-पाँच नन्हें
उसके दूधुओं में लिपटे दूध पी रहे हैं। वे नहीं जानते उनकी माँ
पर इंसानों का हमला हुआ है। उन्हें नहीं पता उनकी माँ चंद
लम्हों की मेहमान है। उसकी पीठ की एक जगह से खून की धारा बहने
लगी है। कुछ बच्चे उस खून में लथपथ है पर माँ के आँचल का एहसास
उन्हें भयमुक्त किए हुए हैं। आभी चुपचाप मादा चीते के पास आकर
उसकी सांसे परखती है। उसकी आँखों में अथाह दर्द भरा पड़ा है। यह
पीड़ा अपनी मौत के भय की नहीं है, अपने नन्हें बच्चों के जीवन
की है। आभी इस मौत और जीवन के बीच बैठी है। असहाय और निराश।
कई लोग उस मादा की तलाश में लग गये हैं। उनके कन्धों पर
कुल्हाड़े और बंदूके हैं। घना अँधेरा होने की वजह से वह उस ओर
नहीं आते जहाँ मादा चिता पड़ी है। आभी जानती है वे इस मादा को
घसीट कर ले जाएँगे। उसका कलेजा बैठ रहा है। वह चीखना चाहती है
पर जैसे चोंच किसी चीज ने जकड़ ली है। वह फड़फड़ाना चाहती है पर
जैसे पंख किसी ने नोच लिए हैं। परेशान है कि उस मादा को कैसे
बचाएँ। उन नन्हों को जीवन कैसे दें। वह हिम्मत जुटाती है।
मुश्किल से चोंच खोलती है। पंख पसारने लगती है। पंखों की
फड़फड़ाहट उसकी मौन भाषा है जिसमें दर्द भरी गुहार है। धीरे-धीरे
असंख्य आभियाँ वहाँ पहुँच रही हैं। आभी पहल करती है। वह उस
मादा को झुपाना चाहती है। वह एक तिनका अपनी चोंच में लाकर उस
पर फेंकती है और देखते ही देखते असंख्य तिनके मादा चीते पर जमा
होने लगते हैं। कुछ देर में वहाँ एक तिनके का ढेर जमा हो जाता
है। पर आभी उन नन्हों का क्या करे। वे इधर-उधर दौड़ रहे हैं।
आभी की आँखें रात को भी देख लेती हैं। वह देख रही है कि दो-तीन
लोग वहाँ चक्कर काट कर पीछे चले जाते हैं। उन्हें मादा चीता
नहीं दिखती। एक मोटा-काला आदमी लड़खड़ाता हुआ आगे बढ़ने लगता है।
उसकी पीठ में एक मैला-कुचैला पिठ्ठु टंगा है और कन्धे पर
कुल्हाड़ा है। सिर के बाल ऊपर की तरफ बेढबे तरीके से ऐसे खड़े
हैं जैसे कोई हरी झाड़ी आग में झुलस कर काली हो गई हो। आँखें
काली-सफेद भौंहों के नीचे कुछ-कुछ भीतर धँस कर ऐसे दिखती है
मानो ये आदमी की नहीं किसी बुत की आँखें हों। लम्बे-बेढंगे
बालों को माथे पर एक भद्दे काले मफलर से पीछे की तरफ बाँध रखा
है। दाड़ी-मूछों के बीच मुँह नहीं दिखता। जब वह साँस अंदर-बाहर
छोड़ता है तो मूछों के बाल हल्के-हल्के ऊपर-नीचे उठते-बैठते
हैं। पेट बाहर को निकला है। अनधोई जीन को उसने बैल्ट की जगह एक
मोटे नाड़े जैसी चीज से ऐसे कसा है कि पेट के दो हिस्से हो गये
हैं। पैंट की जेबें बाहर को फूली हुई हैं जिनमें कई-कुछ चीजें
रखीं लगती हैं। पाँव में रब्बड़ के काले जूते पहने हैं। उनके
खुले मुँह के भीतर उसने पैंट की मुहरियाँ ठूँस दी हैं।
थोड़ा आगे बढ़ता है तो पाँव सूखे पत्तों पर पड़ते हैं। अजीब तरह
की चरमराहट होने लगती है मानो भारी-भरकम जूतों के नीचे सूखे
पत्ते न होकर कोई जीव अथाह दर्द से कराहने लगे हों। वह एक टाँग
ऊपर उठाकर जूते में फँसे पत्तों और सूखी घास को जैसे ही झाड़ने
लगता है, फिसल कर गिर जाता है। कुल्हाड़ा छिटक कर दूर गिर जाता
है। टॉर्च नीचे गिर कर ढलानों पर से लुढ़कती हुई ऐसे लग रही है
जैसे कोई रोशनी को चुरा कर भागा जा रहा हो। अब उसके पास न
कुल्हाड़ा है और न रोशनी है। आभी की तरह वह निहत्था हो गया है।
थोड़ा सँभलता है। फिर फिसलकर गिर पड़ता है और पीठ के बल घिसटता
हुआ झील के किनारे चला जाता है। दोबारा अपने शरीर को सँभालता
है। ऊपर चढ़ने लगता है। साँस फूल रही है। मुँह से तीखी-कसैली
बदबू हवा में फैल रही है जिससे आभियों की साँस घुटने लगी है।
दो-चार कदम चलने के बाद देवदार के तने के सहारे एक जगह खड़ा हो
जाता है।
अब जेब से बीड़ी और माचिस निकालता है। नशे में इतना बेबस है कि
बार-बार तिल्लियों को माचिस के मसाले पर रगड़ता है पर वे नहीं
जलतीं। बहुत देर बाद एक डरावनी आवाज के साथ नीली लपलपाहट तिनके
के ढेर पर बिखर जाती है। इस रोशनी में उसका चेहरा ऐसे दिखता है
जैसे बान का कटा ठूँठ आग से जल कर काला हो गया हो। बीड़ी के कई
कश एक साथ लेकर वह अधजला टुकड़ा नीचे फेंक देता है और उस मादा
चीता को तलाशने लगता है। दो-चार कदम आगे देता है तो अचानक
चड़चड़ाहट की आवाजें उसके कानों में घुसती है।
सूखे पत्तों और घास में आग लग गई है। वह पीछे दौड़ना चाहता है
पर नशा जैसे टाँगों में उतर आया है। मुश्किल से पीछे जाकर
दाहिने पाँव से आग को मसल कर बुझाने का प्रयास करता है। पर आग
नहीं बुझती। उसकी लपटें धीरे-धीरे हवाओं से बाते करने लगती है।
वह फिर बुझाने का प्रयत्न करने लगता है और गिर जाता है। पल भर
में आग उसके कपड़ों में फँस जाती है। उसके साथी उसकी चीखें सुन
उस तरफ भागते हैं। आग बुझाने का प्रयास करते हैं पर आग की
भयानकता देखकर उल्टे पाँव दौड़ पड़ते हैं। वह आदमी सहायता के लिए
चिल्लाता है पर सब नदारद है। हवा का रुख उनकी तरफ है। आदमी
एकाएक आग के गोले में तब्दील हो गया है। बदहवास सा वह छपाक की
आवाज के साथ झील में गिर जाता है। झील में जोर की हलचल होती
है। बूढ़ी नागिन माँ गहरी नींद से जाग पड़ती है और दरवाजे की ओट
से झील में तैरते-डूबते उस आदमी को देख रही है। आग की लपटें
कुछ देर झील के ऊपर तैरती रहती है। आभियाँ देखती हैं कि जलता
हुआ आदमी झील की गहराईयों में कहीं बहुत नीचे चला गया है और
झील के बीच एक छेद से असंख्य वर्तुल आर-पार दौड़ रहे हैं। कुछ
देर बाद उसके जले कपड़ों के छोटे-छोटे टुकड़े झील पर तैरने लगते
हैं।
उस आदमी के साथी अभी भी दौड़ रहे हैं। उन्हें उस मरते साथी की
परवाह नहीं है, अपनी जान की है। वे हर हालत में बचना चाहते
हैं। जीना चाहते हैं। पर उन्हें लगता है कि आग की अनगिनत लपटें
उनके पीछे भागती आ रही हैं जिनसे
बचना
मुश्किल है।
अचानक आभी चहचहाती है। फिर उसकी साथी आभियाँ भी चहचहाने लगती
हैं। देवदारू, बान, चीड़ और बुरांश जागने लगते हैं। जानवर अपने
खोहों से बाहर निकल पड़ते हैं। पक्षी अपने घोंसलो को छोड़ देते
हैं। उन्हें लगता है कि भोर हो गई है। वे सभी सुबह के गीत गाने
लगते हैं।
आभी झील पर फैले उन जले हुए कपड़ों के टुकड़ों को उठाने में
व्यस्त हो गई है। |