वृहद आकाश
—शैल अग्रवाल
विदेश की भूमि पर जब
भी कोई अपना घर बनाता है तो नींव की पहली ईंट जहाँ
सपनों की मिट्टी से रची और महत्वाकांक्षा की आँच
में तपी होती है, दूसरी निश्चय ही यादों से बनी
होती है– यादों की मिट्टी में रची, यादों की आँच
में तपी – और आँसुओं से बुझी व तरी।
जमीं पर खड़े घरों को शायद समय और प्रकृति तहस–नहस
भी कर दे पर मन के अन्दर गुनी–चुनी ये इमारतें समय
के साथ–साथ हमारी आदतों, तौर–तरीकों और संस्कारों
का संग्रहालय बनती चली जाती हैं और पीढ़ी–दर–पीढ़ी
भाषा और संस्कृति को सुरक्षित रखती हैं।
हिन्दी हजारों साल–मन की धरती को छाँव देता
विस्तृत एक आकाश – ऐसा ही कुछ नज़ारा था गत पाँच
जून को जब पारामारी में सूरीनामी नदी के किनारे ९१
वर्षीय इतवारी देवी ने देश–विदेश से आए अतिथियों
के आगे अपने देश की धरती को चूमते हुए भावातिरेक
से अपना आभार प्रकट किया था – आभार इस आज को –
आभार उस अतीत को जो १५० साल पहले इसी पाँच जून को,
मात्र एक रामायण और हनुमान चालीसा में अपना सारा
साहस, सबकुछ लपेटे यहाँ आ पहुँचा था। सामने खड़ी
माई–बाप की प्रतिमा इसकी साक्षी थी और वातावरण को
तरल करते हवाओं में गूँजते भावभीने लोकगीत के स्वर
भी इन्हीं भावों की गवाही दे रहे थे –
नाना नानी बइठल हमार पवनिया धीरे बहो – कलकत्ता से
आइल जहाज पवनिया धीरे बहो।'
बहुत साल पहले कहीं पढ़ा था कि हिन्दू एक परशियन
शब्द है जिसका अर्थ है हिन्द में रहने वाला – और
उनकी भाषा का नाम हिन्दी होना एक स्वाभाविक सा ही
निष्कर्ष था, पर वक्त के साथ परिभाषाएँ भी तो बदल
जाती हैं। आज हिन्दू या हिन्द के रहने वाले विश्व
के कोने–कोने में जा बसें हैं और हिन्दी बस हिन्द
में ही नहीं, विश्व के हर कोने में बोली जा रही
है। अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति हमारा यह गहन
लगाव दूसरों की कौन कहे खुद अपने मन को भी गौरव और
श्रद्धा से भर देता है। भारतीय दूतावास के हिन्दी
और संस्कृति आधिकारी श्री अनिल शर्मा जी से जब
मैंने उस सम्मेलन की सफलता और असफलता के बारे में
पूछा तो उन्होंने बताया कि इस सम्मेलन की सर्वाधिक
सफलता यह थी कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की
भाषा बनाने का प्रस्ताव जो अभी तक मात्र
ड्राइंगबोर्ड पर था, अब पार्लियामेंट में पहुँच
गया है और हमारी सरकार व अन्य प्रभावशाली लोग भी
अब इस प्रयास में कृत संकल्प नज़र आ रहे हैं।
यूरोपीय स्तर पर भी
हिन्दी का भविष्य कुछ और प्रखरित हुआ है – ब्रिटेन
को केन्द्र में रखकर एक यूरोपीय हिन्दी–समिति का
गठन और यूरोप के अन्य देशों में भी ब्रिटेन की ही
तरह कवि सम्मेलनों व हिन्दी ज्ञान प्रतियोगिता का
आयोजन इसी दिशा में कुछ अन्य सफल कदम हैं। सूरीनाम
ने तो हिन्दी महोत्सव को एक राष्ट्रीय महोत्सव की
तरह ही मनाया। हर छोटे बड़े आयोजन में वहाँ के
प्रधान–मंत्री श्री आर॰आर वैनेतिश्यान व श्री रतन
कुमार अयोध्या उपस्थित थे और अपनी सूरिनामी हिन्दी
के साथ जो कि भोजपुरी, हिन्दी और डच भाषा का मिला
जुला रूप है अतिथियों का उत्साह वर्धन कर रहे थे।
अनिल जी को लगा कि जितने हिन्दी के भाषा विद और
ज्ञानी वहाँ मौजूद थे और उनसे जितना जाना और सीखा
जा सकता था वह समय के अभाव की वजह से प्रायः ऐसे
सम्मेलनों में संभव नहीं हो पाता। पर शायद कुछ न
होने से जितना हो जाए वही ज्यादा अच्छा है।
वैसे भी अक्सर शब्दों में इतनी सामथ्र्य नहीं होती
कि भावों को पूर्णतः अभिव्यक्त कर सकें और ना ही
कर्म इतने सक्षम कि हमेशा ही अभीष्ट तक पहुँचा
सकें – इसी संदर्भ में बार–बार मन को विचलित और
क्षुब्ध कर रही है हाल ही में सुनी हांगकांग
निवासी सियामी बहनों की असामयिकी मौत की खबर।
उन्तीस वर्षीय ये दोनों बहनें जन्म से ही मस्तिष्क
से जुड़ी हुई थीं। पेशे से वकील और अपनी
परिस्थितियों में हर संभव सफल व सामान्य जीवन जीने
की कोशिश करने वाली यह बहनें अपने अपने अलग–अलग
अस्तित्व को तलाशती चिकित्सकों के पास पहुँच गईं
और इन्हें अलग करने की कोशिश में डॉक्टर एक को भी
न बचा पाए। पर जब तक कुछ भी करने का साहस न करो तब
तक सफलता या असफलता का पता कैसे चले। वैसे भी
हमारे धर्म–ग्रन्थ तो हमें कर्म का ही मंत्र
सिखलाते हैं। बस कर्म ही हमारे हाथ में हैं फल
नहीं। "कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्"
अपने भाई बान्धवों के आगे किंकर्तव्य विमूढ़ अर्जुन
को भी तो योगेश्वर कृष्ण ने यही संदेश दिया था।
फिर जो बस में ही नहीं उसके बारेमें सोचने से भी
क्या फायदा। मन का क्या, स्थितियों से आह्लादित या
क्षुब्ध होना तो इसका स्वाभाविक गुण है। चलिए हम
भी भटकें नहीं और वापस अपने आजके मुख्य मुद्दे पर
आ जाएँ।
अधिकांशतः परवाज के पहले ही पक्षी तक जानते हैं कि
गंतव्य क्या है, कितना समय लगेगा और उनकी सामर्थ्य
क्या है और फिर एक झुंड बनाकर वे निकल पड़ते हैं
साथ–साथ अपनी अभीष्ट की उपलब्धि में। सालों से ऋतु
के बाद ऋतु आती और जाती रही है और यही सिलसिला
चलता रहा है क्योंकि हमारी तरह इन्हें जवाबों को
सवाल बनाकर पूछते रहने की एक कायर और बेईमान आदत
नहीं है। ये बदलते परिवेश में भी अपने अस्तित्व और
अस्मिता को सुरक्षित रखना जानती हैं। पर क्या हर
अस्तित्व की अपनी एक निश्चित अस्मिता नहीं? दूसरे
शब्दों में पूछना चाहूँगी क्या बिना अस्मिता के
अस्तित्व संभव है? अगर आप जवाब नहीं ढूँढ पा रहे
हैं तो याद करिए कभी न कभी जब किसी भी वजह से आपने
एक नन्हें कीड़े को मारने की कोशिश की होगी तो कैसे
वह अपनी परिस्थिति और बुद्धि के अनुसार अपने
अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ा था और आखिरी साँस तक
हार नहीं मानी थी। हम चाहें माने या ना मानें,
खुदको, अपनी जाति को सुरक्षित और जीवित रखने के
प्रयास में भी यही वास्तविक अस्मिता पनपती है। उस
महायज्ञ या आंदोलन से ही व्यक्तिगत और सामूहिक
अस्मिता का जन्म होता है। ठीक से सोचा जाए तो भाषा
और संस्कृति को बचाने का प्रयास वास्तव में खुदको
बचाने की ही एक कोशिश है।
मानव इतिहास के आदिकाल में ही विचार–विनिमय के
तरीके ढूँढे गए होंगे क्योंकि यह कोई मात्र एक शगल
या मनोरंजन नहीं अपितु अस्तित्व और अस्मिता की
लड़ाई में एक सशक्त औजार और कवच दोनों ही बना है।
फिर इन्हीं संकेतों और ध्वनियों को संकलित कर
बार–बार प्रयोग करना ही तो उस समूह की भाषा है। और
इस क्रम को सुचारू व ग्राह्य बनाकर रखा जा सके
इसीलिए तो नियम व व्याकरण बने होंगे। फिर वही सब
जब आने वाली पीढ़ियों की जरूरत समझ लिपिबद्ध और
चित्रित किया गया होगा तो भूगोल और इतिहास बने,
वेद और कुरान बने। भौतिक शास्त्र हो या रसायन
शास्त्र या फिर अणु और अंतरिक्ष विज्ञान, सभी
हमारी अस्तित्व की लड़ाई की ही तो कड़ियाँ हैं।
परिस्थितियों के साथ–साथ नई–नई कड़ियाँ और नए
शास्त्र व विज्ञान जुड़ते चले जाते हैं, नई–नई
अस्मिता उभरती आती है और हम सभी जानते हैं कि इनकी
शक्ति और सामर्थ्य तभी तक है जब तक ये कड़ियाँ आपस
में जुड़ी हुई हैं फिर अक्सर ही सब कुछ बिखर क्यों
जाता है? यदि हिंदी को अपनी अस्मिता को जिंदा रखना
है तो जवाब हमें खुद ही अपने अंदर ही ढूँढने
होंगे।
इसी संदर्भ में हाल ही में एक स्थानीय कवि सम्मेलन
के अन्त में भारत से आए और हिन्दी के अथक सेनानी
श्री विजय कुमार मल्होत्रा जी ने एक बहुत ही सरल
और सशक्त सुझाव प्रस्तुत किया कि आनेवाली पीढ़ी में
हिन्दी जीवित रखने के लिए अन्य तरीकों के साथ एक
यह भी बहुत ही सहज तरीका है कि बच्चों के साथ
मिलकर सरल बाल नाटिकाएँ प्रस्तुत की जाएँ। मेरे
ख्याल से तो यह एक बहुत ही प्रभावशाली और
महत्वपूर्ण माध्यम सिद्ध होगा, क्योंकि इसके सहारे
न सिर्फ वे अपने विचारों को अभिव्यक्त करना सीख
पाएँगे वरन धीरे–धीरे रोचक तरीके से भाषा और भावों
की सूक्ष्मता और गहनता से भी परिचित हो सकेंगे।
आश्चर्य नहीं कि आज भी अपनी भाषा और संस्कृति के
विकास में अच्छा और बुरा सबसे बड़ा योगदान हमारी
अपनी फिल्मों और फिल्मी गीतों का ही है। अक्सर
हमारे अपने प्रश्नों में ही जवाब छुपे हैं, जरूरत
बस इतनी होती है कि हम उन्हें थमकर और ईमानदारी से
सुनें। याद आ रही है अपनी कविता की दो पंक्तियाँ–
सवालों को जवाब बनाकर पूछते गए हम बारबार
मिलता रहा बार बार हमें वही एक पुराना जवाब
हर सवाल का जरूरी नहीं निश्चित सा उत्तर होना
जैसे साथ खड़ी भीड़ के आदमी का अपना होना।
यानि कि दो बातें साफ हैं सफल होने के लिए
उद्देश्य और सामथ्र्य का सही ज्ञान व निरपेक्ष
होना बहुत ही ज़रूरी हैं और जहाँ पूरे समूह या समाज
का सवाल हो वहाँ लोगों को उनकी ज़रूरतों को उन्हें
साथ लेकर चलना भी जरूरी है, उनके दाव पेंचों में
फँसे बगैर, वर्ना हम लक्ष्यहीन हो भटकते ही रह
जाएँगे।
भारतीय समाज चाहे विदेश में हो या भारत में ऐसे ही
जुड़ने की एक सफल कोशिश कर रहा है। विश्व के एकीकरण
के साथ लोगों की ज़रूरतों का, लक्ष्यों का यह
एकीकरण स्वाभाविक और सुखद परिणति है बशर्ते हम इसे
चन्द स्वार्थी और सत्तारूढ़ी लोगों के चंगुल से
बचाकर जन साधारण से जोड़ सकें। एक राजनीति और
रणनीति ना समझ लोगों के घरों और मनों तक ले जा
पाएँ। अक्सर देखा गया है सफलता के मद में सहृदयता
और निष्ठा अपने लक्ष्य का हाथ छोड़ स्वार्थ के पीछे
दौड़ जाती है। हम भी कहीं जातिवाद और धर्मवाद की
तरह हिन्दी को हिन्दीवाद का बाना पहनाकर डरावना और
घिनौना ना कर लें और तालियों और तमगों की आँधी
में, भारी–भारी कुरसियों के नीचे दबी हमारी बीमार
हिन्दी असुरक्षित, असहाय लाइलाज दम तोड़ दे।
जुलाई
– २००३
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