सारी दुनिया में शिव के लाखों मंदिर हैं।
लेकिन गढ़वाल के सुरम्य पर्वतांचल में स्थित पंचकेदार सर्वोपरि
हैं। ये पंचकेदार हैं- सुप्रसिद्ध विश्वतीर्थ केदारनाथ,
मदमहेश्वर, रुद्रनाथ, तुंगनाथ और कल्पेश्वर। इन पाँच केदारों
में शिव के अलग-अलग अंगों की पूजा की जाती है। केदारनाथ में
शिव के पृष्ठ भाग की, तुंगनाथ में उनकी भुजाओं की, रुद्रनाथ
में उनके मुख की, कल्पेश्वर में जटाओं की और मदमहेश्वर में
उनकी नाभि की पूजा होती है। इन पंचकेदारों की दुर्लभ शृंखला
में अनोखी प्राकृतिक दृश्यावलियाँ हैं, जो बरबस ही पर्यटकों के
मन को मोह लेती हैं।
शिवपुराण के अनुसार महाभारत के युद्ध के बाद पांडव अपने
कुल-परिवार और सगोत्र बंधु-बाँधवों के वध के पाप का प्रायश्चित
करने के लिए यहाँ तप करने आये थे। यह आज्ञा उन्हें वेदव्यास ने
दी थी। पांडव स्वगोत्र-हत्या के दोषी थे। इसलिए भगवान शिव उनको
दर्शन नहीं देना चाहते थे। भगवान शिव ज्यों ही महिष (भैंसे) का
रूप धारण कर पृथ्वी में समाने लगे, पांडवों ने उन्हें पहचान
लिया। महाबली भीम ने उनको धरती में आधा समाया हुआ पकड़ लिया।
शिव ने प्रसन्न होकर पांडवों को दर्शन दिये और पांडव गोत्रहत
के पाप से मुक्त हो गये। उस दिन से महादेव शिव पिछले हिस्से से
शिलारूप में केदारनाथ में विद्यमान हैं। उनका अगला हिस्सा जो
पृथ्वी में समा गया था, वह नेपाल में प्रकट हुआ, जो पशुपतिनाथ
के नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार उनकी बाहु तुंगनाथ में, मुख
रुद्रनाथ में, नाभि मदमहेश्वर में और जटाएँ कल्पेश्वर में
प्रकट हुईं।
पंचकेदार पुराणकथा की सत्यता-असत्यता के विषय में तो अलग-अलग
तथ्य हैं, पर इतना अवश्य है कि श्रद्धालु तीर्थयात्री भक्ति
भावना से जुड़ कर यहाँ आते हैं। इन पाँचों तीर्थस्थलों तक कठिन
चढ़ाई चढ़ने के बाद पहुँचा जा सकता है। रास्ता कठिन है, किंतु वह
नैसर्गिक सुंदरता से भरा हुआ है। इसलिए पर्यटक भी ट्रैकिंग के
उद्देश्य से इन स्थानों तक रुचिपूर्वक जाते हैं। यानि तीर्थ का
तीर्थ, पर्यटन का पर्यटन।
हमारे सामने रुद्रनाथजी का मंदिर था। छोटा-सा गुफा मंदिर। एक
सीधी खड़ी चट्टान की उपत्यका में यह गुफा बनी हुई है। आसपास
चारों ओर मनोरम पर्वत शृंखलाएँ। ये शृंखलाएँ मई-जून में भी
बर्फ से ढकी रहती हैं। अगस्त-सितम्बर में तो कहने ही क्या?
सैकड़ों तरह के फूलों की सुगंध से पूरी घाटी गमकती रहती है।
हरे-भरे घास के मैदान (बुग्याल) गलीचे से बिछे दिखायी देते
हैं। ब्रह्मकमल और फेन कमल सरीखे दुर्लभ पुष्पों के साथ ही
अनेक तरह की जड़ी-बूटियाँ इस घाटी की दुर्लभ संपदा हैं।
सालमपंजा, अतीस, कुटकी, जटामासी, गुग्गुल, वज्रदंती पर्याप्त
मात्रा में यहाँ मिलती हैं।
सामने भोजपत्र का वनखंड है। मंदिर के दक्षिणी छोर पर सूरजकुंड
है। उत्तर-पश्चिम में सरस्वती कुंड। इसी दिशा में एक कि.मी.
दूर मानसकुंड भी है। मंदिर के नीचे पूर्व की ओर वैतरणी कुंड
दिखायी देता है। दक्षिण-पश्चिम में एक विस्तीर्ण मैदान है जो
खूब हरा-भरा रहता है। पुजारी ने बताया कि यह देवांगनी है। यानि
यहाँ देवताओं की बैठक होती है। देवांगनी, यानि देवताओं का
आँगन। कामेट, त्रिशूल, नंदाघुंटी, नीलकंठ की पर्वत-चोटियाँ इस
घाटी के चारों ओर बहुत ही भव्य सौंदर्य की सृष्टि करती हैं।
देवांगनी के नीचे नारदकुंड दिखायी देता है।
मंदिर में एकानन रुद्र की स्वयंभू प्रतिमा है। यह अत्यंत
दुर्लभ प्रतिमा मानी जाती है। शिव के एकानन रूप की पूजा केवल
रुद्रनाथ में ही होती है। जबकि शिव के चतुरानन की पूजा
काठमांडू में और पंचानन की पूजा मानसरोवर में होती है। इस
आकर्षक एकानन स्वयंभू मूर्ति की पूजा यहाँ श्रावणमास में
जय-विजय पुष्पों से और शेष समय में ब्रह्मकमलों से करने का
विधान है। ज्येष्ठ संक्रांति के दिन से मंदिर के पट खुलते हैं
और कार्तिक संक्रांति को बंद हो जाते हैं। उन दिनों यहाँ कुछ
स्थानीय श्रद्धालु पूजा के लिए आते हैं तथा कुछ साहसी पर्यटक
भी। जब मंदिर के पट बंद हो जाते हैं तब रुद्रनाथ की पूजा
गोपेश्वर के शिव मंदिर में होती है। रुद्रनाथ मंदिर में एकानन शिव के अतिरिक्त शेषशायी विष्णु तथा
शिव-परिवार की अत्यंत दुर्लभ मूतियाँ रखी हुई हैं। पुजारी इन
दुर्लभ मूर्तियों को चोरी के भय से कहीं गुप्त स्थान पर रख
देते हैं। रुद्रनाथ शिव के इस मंदिर का महत्व इस प्रकार बताया गया है-
"शिवमुखं तत्र सर्वाभरण भूषितम्। एतस्य दर्शनादेव मुक्तो भवनि
मानवः।" पौराणिक कथा है कि अंधक नामक दैत्य ने सभी
लोकपालों-सहित इंद्र को भी परास्त कर दिया और अमरावती को जीत
लिया। देवता पृथ्वी पर भटकने लगे। तब देवताओं ने यहाँ रुद्रालय
में तपस्या की। शिव ने उनके तप से प्रसन्न होकर उन्हें अभयदान
दिया। तब से शिव पार्वती-सहित यहाँ रहते हैं। उन्हें यह स्थान
अत्यंत प्रिय है। प्रकृति का इतना नयनाभिराम दृश्य और भला कहाँ
होगा?
लौटते हुए पितृधार से समूची घाटी स्वर्ग के समान लग रही थी।
आने का मन नहीं हो रहा था, लेकिन हमें अभी और यात्रा करनी थी।
इसी तरह की नीलम घाटी में। यहाँ से उतरते हुए तोलीताल और बगुवा
बुग्याल तथा सुनार बुग्याल के मनमोहक दृश्यों ने बहुत देर तक
हमें बाँधे रखा।
केदारनाथ तो कई बार गया था। बहुत से तीर्थयात्री यहाँ
प्रतिवर्ष आते हैं। ऋषिकेश से गौरीकुंड तक सड़क है। दूरी होगी
करीब २२५ कि.मी.। गौरीकुंड से १४ कि.मी. पगयात्रा के बाद यहाँ
पहुँच सकते हैं। मई-जून में यात्रियों की अपार भीड़ रहती है।
पिघली चाँदी-से ग्लैशियर, नीचे बहती मंदाकिनी की पतली धार,
हरे-भरे छायापथ से गुजरते हुए हर यात्री को अपूर्व सुख देते
हैं। यहाँ की प्रकृति की सुषमा सचमुच न्यारी है। इसीलिए तो यह
धर्मधाम सतयुगीन साधकों की साधना-भूमि, भगवान शिव की
आराधन-भूमि, पांडवों की तपोभूमि और कवियों-सैलानियों की
भावभूमि है।
गंगनाकुल शिखरों की छाया में ही खड़ा है केदारनाथ मंदिर। विश्व
के बारह ज्योर्तिलिंगों में से एक। कहा जाता है कि इस मंदिर का
निर्माण पांडवों ने किया था। कल्यूर शैली का यह मंदिर समुद्रतल
से ३५८४ मीटर की ऊँचाई पर है। कुछ लोग यह जानकारी देते हुए भी
मिलेंगे कि यह मंदिर पांडवों ने नहीं, उनके वंशज जनमेजय ने
बनवाया था। कुछ लोगों का विचार है कि इसे जगत्गुरु शंकराचार्य
ने बनवाया था। मंदिर प्राचीन है, और इसके पीछे शंकराचार्य ने
मुक्ति प्राप्त की थी। ३२ वर्ष की अल्पायु में ही उनका
देहावसान यहाँ हुआ था। उनकी समाधि इस मंदिर के पीछे बनी है।
मंदिर में कोई निर्मित मूर्ति नहीं, अपितु स्वयं निर्मित एक
त्रिकोण प्रस्तर प्रतिमा है। इसी की पूजा का विधान है। शिव की
श्रृंगारमूर्ति भी मंदिर में है। यह पंचमुखी है। इस
उत्सवमूर्ति को सर्दियों में पट बंद होने पर समारोहपूर्वक
ऊखीमठ ले जाया जाता है। और पट खुलने तक उसकी पूजा यहीं की जाती
है। इस मंदिर में ही उषा, अनिरुद्ध, पंचपांडव, श्री कृष्ण, तथा
शिव-पार्वती की सौम्य मूर्तियाँ हैं। मंदिर के बाहर उद्क कुंड
या अमृत कुंड, ईशानकुंड, हंसकुंड, रेतसकुंड आदि हैं।
ऋद्धालु तीर्थयात्रियों के अतिरिक्त घुमक्कड़ पर्यटकों के लिए
भी यहाँ आकर्षण है। उनके लिए पास ही भृगुपंथ, क्षीर गंगा,
वासुकी ताल, चौखारी या गाँधीताल और भैरव शिला हैं। चौखारी ताल
में महात्मा गाँधी की अस्थियाँ विसर्जित की गयी थीं। तब से इसे
गाँधीताल कहा जाता है।
मदमहेश्वर पंचकेदार का एक और महत्वपूर्ण मंदिर है। केदारनाथ से
लौटकर ऊखीमठ आयें। ऊखीमठ से १० कि.मी. पर है मनसूना। मनसूना तक
सड़क है। यहाँ से पैदल चलना होगा। कुछ दूरी तक चलकर अच्छा पथ
मिल जाता है। राँसी गाँव में राकेश्वरी देवी का प्राचीन मंदिर
देखते हुए हम गोंढार गाँव आये। यह इस छोर का अंतिम गाँव है। एक
कि.मी. पर है वनतोली। रात्रि-विश्राम यहीं करना ठीक रहेगा।
यहाँ तक कोई परेशानी नहीं है। सुबह यहाँ से अपनी यात्रा शुरू
करें। एकदम चढ़ाई चढ़ कर एक सघन वन से गुजरते पथ पर चलते चलें।
कठिन मार्ग से ११ कि.मी. चलकर पहुँचेंगे एकदम अनूठे प्राकृतिक
परिवेश में बने मदमहेश्वर के मंदिर के सामने। समुद्रतल से ३२८९
मीटर की ऊँचाई पर बना यह मंदिर अत्यंत आकर्षक है। मंदिर से
कहीं अधिक आकर्षक है यहाँ का प्राकृतिक परिवेश। एकदम हरी-भरी
घाटी।
दाहिनी ओर बर्फ से ढकीं पर्वत शृंखलाएँ। बायीं ओर लगभग एक
कि.मी. चढ़कर देखें तो फूलों की छोटी-सी मनोरम घाटी या कह लें
छत। उसके सामने चौखंभा पर्वत ऐसे दिखायी देता है मानो हम अपने
हाथ थोड़े-से आगे बढ़ा लें तो उसे छू लें। धुएँ-से उठते बादलों
की महीन चादर। गाढ़े श्वेत होते बादल। दूर तक चली जाती हरी-भरी
धरती। धरती और आकाश का मिलना एक नये उत्सव की सृष्टि करता लगता
है। इसी उत्सवी सौंदर्य के बीच ही शिव की इच्छा जगी होगी,
हिमवान् की पुत्री पार्वती के साथ इस स्थान पर अपनी
मधुचंद्ररात्रि मनाने की।
ऐसा माना जाता है कि मदमहेश्वर में
शिव ने अपनी मधुचंद्ररात्रि मनायी थी। प्रकृति से बड़ा कोई
तीर्थ क्या होगा? इस तीर्थ के विषय में यह कहा गया है कि जो
व्यक्ति भक्ति से या बिना भक्ति के ही मदमहेश्वर के माहात्म्य
को पढ़ता या सुनता है उसे शिवलोक की प्राप्ति होती है। जो
व्यक्ति इस क्षेत्र में पिंडदान करता है, वह पिता की सौ पीढ़ी
पहले के और सौ पीढ़ी बाद के तथा सौ पीढ़ी माता के तथा सौ पीढ़ी
श्वसुर के वंशजों को तरा देता है- "शतवंश्या: परा: शतवंश्या
महेश्वरि:। मातृवंश्या: शतंचैव तथा श्वसुरवंशका:।। तरिता:
पितरस्तेन घोरात्संसारसागरात्। यैरत्र पिंडदानाद्या: क्रिया
देवि कृता: प्रिये।।" (केदारखंड, ४८,५०-५१)।
अब लौटते हुए देखें तुंगनाथ। शिव का सर्वाधिक ऊँचाई (३७५०
मीटर) पर बना मंदिर। मदमहेश्वर से लौटें ऊखीमठ। ऊखीमठ से सड़क
मार्ग गोपेश्वर की ओर जाता है, जो आगे चलकर
ऋषिकेश-बद्रीनाथ-मार्ग से चमोली में जुड़ जाता है। इसी हरीतिमा
से भरपूर मार्ग पर ऊखीमठ से २८ कि.मी. की दूरी पर है चोपता।
बहुत ही खूबसूरत छोटा-सा पर्यटन-स्थल। यहाँ से तीन-चार कि.मी.
की ऊँची चढ़ाई चढ़कर तुंगनाथ पहुँच सकते हैं। रास्ते में मिलता
है हरा-भरा बुग्याल। यह समूचा-स्थान दिसंबर के बाद से
मार्च-अप्रैल तक बर्फ से ढँका रहता है। फिर मौसम के साथ इसकी
सूरत बदलती है। सोये नन्हें पौधे अपनी आँखें खोलते हैं। फूल
मंत्रों की तरह खिल उठते हैं। और बेआवाज तालियाँ बजाने लगते
हैं। बादलों के ढेर आकाश की ओर खींचने लगते हैं और हमारे पैर
किसी अदृश्य जादू में बँधे एक-एक सीढ़ी चढ़ाते हुए हमें ले चलते
हैं तुंगनाथ मंदिर के प्रांगण में।
यह मंदिर भी छोटा ही हैं। लेकिन इसका परिवेश आत्मा को विस्तार
देता है। मंदिर के बाहर कई देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं।
मंदिर के भीतर पंचकेदारों की मूर्तियाँ, गणेश और शिव-पार्वती
की प्रतिमाएँ हैं। इस मंदिर में स्थित शिवलिंग का माहात्म्य
बहुत अधिक है। कहा गया है कि जो व्यक्ति शिव की पूजा इस
शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ा कर करता है वह हजार वर्षों तक शिवलोक
में ऐश्वर्य भोगता है। तुंगनाथ का यह संपूर्ण क्षेत्र सकल
कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। संपूर्ण पापों का नाशक है।
स्वयं शिव अपनी प्रिया पार्वती से कहते हैं कि मेरा यह क्षेत्र
सत्यतारा पर्वत पर स्थित है। यहाँ पूर्वकाल में तारागणों
(सप्तऋषियों) ने उच्चपद-प्राप्ति के लिए घोर तप किया था। सत्व
भाव गुणों के द्वारा आराधना करने के कारण इस पर्वत का नाम भी
सत्यतारा हो गया। मैंने प्रसन्न होकर उन्हें तुंगपद दे दिया।
अतएव इस क्षेत्र का नाम तुंगक्षेत्र हो गया। जिस स्वयं भू लिंग
की उन्होंने आराधना की उसे तुंगनाथ कहा गया। यह परम क्षेत्र
देवताओं को भी दुर्लभ है। इसके दर्शनमात्र से ही पाप का क्षय
होकर परम पद की प्राप्ति होती है। जो भी हो, इस अनूठे तीर्थ की
यात्रा कर हम प्रकृति के अत्यंत भव्य रूप के दर्शन पा अपनी
यात्रा को सार्थक बना सके।
इसी क्रम में है कल्पेश्वर। यानि, पंचकेदार शृंखला के अंतिम
बिंदु तक। चोपता से मंडल होते हुए गोपेश्वर। गोपेश्वर से चमोली
होते हुए पीपलकोटी से आगे हेंलग तक आते हैं। बद्रीनाथ-यात्रा
को जाने वाले यात्री इस मार्ग से अच्छी तरह परिचित हैं। बस
यहीं हेंलग से पैदल चलना होगा। अलकनंदा की इस धार के पार चलें,
१० कि.मी., दूर गाँव हैं, उर्गम। पुराणकार कहते हैं कि इस
स्थान पर इंद्र ने दुर्वासा ऋषि के श्राप से मुक्ति पाने के
लिए शिव की आराधना की थी और कल्पतरु प्राप्त किया था। तभी से
इस स्थान पर शिव ‘कल्पेश्वर’ नाम से प्रसिद्ध हुए।
समुद्रतल से २१३४ मीटर की ऊँचाई पर कल्पेश्वर अथवा कल्पनाथ का
यह छोटा-सा गुफा मंदिर है, रुद्रनाथ की भाँति। लेकिन यहाँ शिव
की जटाओं की पूजा होती है। बेशक इस स्थान की ऊँचाई अन्य
केदारों से कम है, लेकिन फिर भी यहाँ आसपास प्रकृति का अनुपम
सौंदर्य बिखरा पड़ा है। यह सौंदर्य अन्य चार केदारों से कम भले
ही हो, लेकिन उतना ही पवित्र और आत्मीय है।
तो आइए इस बार अनूठे धामों पंचकेदार की तीर्थयात्रा करें।
निश्चय ही यह ‘तीर्थयात्रा’ तीर्थ कम, पर्यटन अधिक लगेगी।
विश्वास है कि आप अपने को मुक्त सैलानी अनुभव करेंगे जो
प्रकृति के अछूते सौंदर्य को छू कर लौट रहा है। महानगरों की
मशीनी जिंदगी और कोलाहल तथा भागमभाग से दूर यह निरभ्र एकांतिक
सौंदर्य आपके भीतर किसी मद्धिम संगीत की तरह बस जाएगा। बस
थोड़ा-सा पैदल चलने का साहस कर लें। केदारनाथ की यात्रा से ही
संतोष न कर लें। फिर देखें ये पंचकेदार आपको पथारोहण
(ट्रैकिंग) के स्वर्गिक आँगन लगने लगेंगे।
पंचकेदार-शृंखलाएँ- संक्षिप्त जानकारी
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केदारनाथ- ऊँचाई समुद्रतल से ३४८४
मीटर। ऋषिकेश तक कहीं से भी सड़क अथवा रेल-मार्ग
(जौलीग्रांट हवाई पट्टी भी। ऋषिकेश से गौरीकुंड तक २२५
कि.मी. सड़क मार्ग। गौरीकुंड से सात कि.मी. रामवाणा।
रामवाणा से सात कि.मी. केदारनाथ। बीच में जलपाल की
सुविधाएँ उपलब्ध। केदारनाथ में ठहरने की अच्छी सुविधाएँ।
केदारनाथ-बद्रीनाथ मंदिर समिति का विश्रामगृह। गढ़वाल मंडल
विकास निगम का टूरिस्ट लॉज। कुछ धर्मशालाएँ भी। |
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मदमहेश्वर- ऊँचाई ३२८९ मीटर। ऋषिकेश से
ऊखीमठ १८० कि.मी तक अच्छा सड़क मार्ग। ठहरने की सामान्य
सुविधा ११० कि.मी. तक मनसूना तक सड़क मार्ग सामान्य। यहाँ
से पैदल लगभग ३६ कि.मी.। बीच में जलपान की सुविधाएँ।
मदमहेश्वर में केदारनाथ-बद्रीनाथ मंदिर समिति की एक
धर्मशाला। |
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रुद्रनाथ- ऊँचाई २२८६ मीटर (ऋषिकेश से
गोपेश्वर होते हुए मंडल तक लगभग २१० कि.मी. का सड़क मार्ग।
मंडल से अनुसूया (छह कि.मी.) होते हुए लगभग ३२ कि.मी. का
कठिन पगमार्ग। दूसरा मार्ग गोपेश्वर से तीन कि.मी. सगन
गाँव होते हुए। ३१ कि.मी. कठिन पगमार्ग। मार्ग में चायपान
की कोई व्यवस्था नहीं है। मंदिर के पास दो-तीन झोंपड़ियाँ
जिनमें अपने साधनों से ठहरा जा सकता है। |
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तुंगनाथ- ऊँचाई ३७५० मीटर। ऋषिकेश से
ऊखीमठ १८० कि.मी.। ऊखीमठ से चोपता २८ कि.मी. सड़क-मार्ग।
चोपता से तीन-चार कि.मी. चढ़ाई वाला पगमार्ग। |
|
कल्पेश्वर अथवा कल्पनाथ- ऊँचाई २१३४
मीटर। ऋषिकेश से बद्रीनाथ मार्ग पर पीपलकोटी से २० कि.मी.
आगे हेलंग। हेलंग से १० कि.मी. पैदलमार्ग। |
|
केवल केदारनाथ-यात्रा में उचित किराया
देकर अशक्त श्रद्धालु तीर्थयात्री घोड़े-खच्चरों या
डोली-पालकी पर सवार होकर यात्रा कर सकते हैं। शेष केदारों
की यात्रा में यह सुविधा नहीं है।
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अन्य दर्शनीय परिदृश्य: ऊखीमठ और
तुंगनाथ के बीच लगभग ८ कि.मी. पैदल चलकर देवरियाताल,
चोपता, चोपता से मंडल के बीच लगभग १५ कि.मी. दूरी पर सड़क
के किनारे ही बना कस्तूरा मृगविहार भी देखा जा सकता है। |
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पथारोहियों (ट्रैर्क्स) के लिए
पंचकेदार शृंखला १०-१२ दिन में एक साथ पूरी करने की
सामर्थ्य। पहले केदारनाथ, फिर मदमहेश्वर, तुंगनाथ और
रुद्रनाथ, वहीं से कल्पनाथ निकला जा सकता है। सुविधा के
लिए पर्यटक गोपेश्वर पहुँच सकते हैं। गोपेश्वर में खोजने
पर गाइड मिल सकता है। |
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उचित मौसम- पंचकेदार-यात्रा तो मई से
आरंभ हो जाती है। लेकिन प्रकृति का भरपूर आनंद लेने के लिए
अगस्त-सितंबर सर्वोत्तम। उन दिनों यहाँ अनेक प्रकार के फूल
खिले होते हैं। चारों ओर हरियाली रहती है। फूलों की
घाटियों के मनोरम दृश्य देखने को मिलते हैं। |