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आज सिरहाने


लेखक
उषा राजे सक्सेना

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प्रकाशक
ज्ञान गंगा
(प्रभात प्रकाशन)
२०५ चावड़ी बाज़ार दिल्ली

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पृष्ठ १५५

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मूल्य १५० रूपये

प्रवास में (कहानी संग्रह)


'प्रवास में' उषा राजे सक्सेना का पहला कहानी-संग्रह है, लेकिन वे हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में अपना नाम बना चुकी हैं। उनकी रचनाएँ भारत, अमेरिका, और यूरोप की प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। विदेशों में हिन्दी प्रचार-प्रसार के लिए भी वो सम्मानित और पुरस्कृत हो चुकी हैं। इसमें पूर्व उनके दो काव्य–संग्रह, 'विश्वास की रजत सीपियाँ' एवं 'इंद्रधनुष की तलाश में' तथा 'मिट्टी की सुगंध' कहानी संकलन (यू.के. के कथाकारों का प्रथम कहानी संकलन प्रकाशित हो चुके हैं।)

'प्रवास में' शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इस संग्रह की कहानियाँ भारतीय मन की संवेदना को व्यक्त करती है। प्रवासी भारतीय का गोरे मुल्कों में जिस सूक्ष्म प्रच्छन्न रंगभेद से सामना होता है, उसे वह आसानी से नहीं समझ पाता। ब्रिटेन जैसे देश में लोग प्रगट रूप से विनम्र, उदार, और योग्यता की कद्र करने वाले हैं, वहाँ की व्यवस्था भी रोज़गारी भत्ता, रोगियों की सहायता, बच्चों के प्रति सदयता आदि के कारण उदार प्रतीत होती है, लेकिन यह उदारता तभी तक रहती है जब तक कोई भारतीय, दूसरे शब्दों में एशियाई या अफ्रीकी, अपनी योग्यता से उन पर भारी नहीं पड़ता। जैसे ही ऐसा होता है, उनकी प्रगट उदारता ऐसा प्रच्छन्न वार करती है कि योग्यतम व्यक्ति भी निकृष्ट रूप में दिखाई देने लगता है। शीर्षक कहानी 'प्रवास में' का शशांक इसी नियति को प्राप्त होता है।

प्रवासी मन की एक प्रमुख दुश्चिंता अपनी संतान के जीवन–मूल्यों से संबंधित है। प्रवासी माता-पिता अपने युवा बेटे-बेटियों को उनका मनचाहा जीवन जीने से रोकने की स्थिति में नहीं होते। बेटे-बेटियाँ पश्चिम में पल-बढ़ कर उन्मुक्त जीवनशैली अपनाते हैं तो माता-पिता भीतर ही भीतर घुटते हुए उन्हें एक ठहराव भरा जीवन अपनाने की दबी-दबी सलाहें देते रहते हैं। 'तान्या दीवान' में तान्या और उसके माता–पिता के बीच इसी तरह की दबी-दबी रस्साकशी चलती रहती है। लेखिका ने तान्या को अन्त में विवाह की स्थिरता की ओर बढ़ते हुए दिखा कर विवाह संस्था की प्रासंगिकता की ओर संकेत किया है।

कई दशकों विदेश में रहने और स्वयं को बहुत उदार बना लेने के बावजूद प्रवासी भारतीय बातचीत में और दूसरों को राय देने के मामले में तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता की बातें बघार लेते हैं, लेकिन जब बात अपने घर-परिवार पर आ जाए तो मापदंडों में दोहरापन सामने आने लगता है।'यात्रा में' की समाज सुधारक माँ अपने बेटे की विवाह के बिना पैदा हुई बेटी को स्वीकार नहीं कर पाती, हालाँकि इंग्लैंड में ऐसा होना कोई असाधारण घटना नहीं हैं। परिणाम स्वरूप अपने इकलौते पुत्र से संबंध तोड़कर अपने लिए जीवन भर की पीड़ा को अपना लेती है।

'प्रवास में' की कहानियों का दूसरा थीम नारी अस्मिता से संबद्ध है। 'अभिशप्त' 'दायरें' 'सफर में . . .' और 'शन्नो' स्त्री की पीड़ा, उसके संकल्प और आस्था की तलाश की कहानियाँ हैं। 'अभिशप्त' और 'शन्नों' की नायिकाएँ अपने परपीड़क तथा गैरजिम्मेदार पतियों के साथ झेली यातना के दौर को लाँघ कर अपने लिए आश्वस्तिदायक और सुखद जीवन का विकल्प चुन लेती हैं जबकि 'सफर में' की नायिका अपने पति के जुल्मों के कारण आत्महत्या पर मज़बूर होती है। 'दायरें' पश्चिमी परिवेश में भारतीय मन लिए अपनी सार्थकता तलाश करती स्त्री के समक्ष प्रस्तुत नैतिक द्वन्द्व की कहानी है। इसकी नायिका काव्य-रचना में अपनी सार्थकता पाती है और अपने मानसिक क्षितिज का विस्तार करना चाहती है। वह अपनी पुस्तक प्रकाशित करने के लिए प्रकाशक से मिलने जाती है तो उसके व्यक्तित्व और विस्तृत ज्ञान से प्रभावित होती है और उसका साथ उसे अच्छा लगता है लेकिन उस पुरुष की दृष्टि में वह मादा ही है। वह मादा रूप को केवल अपने पति तक ही सीमित रखते हुए उसके साथ मित्रता चाहती है। उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर देने पर प्रश्न यह है कि 'मेज़ पर पड़ा नज़्मों का मसविदा छपता है या नहीं।'

'समर्पिता एक सहज मानवीय स्नेह, प्रेम, संवेदना और प्रतिबद्धता की कहानी है जो पूर्व और पश्चिम की मानसिकता के झमेले से अलग शुद्ध मानवीय भावनाओं पर आधारित है। इसकी नायिका भारतीय और नायक अंग्रेज़ है, लेकिन दोनों के बीच प्रेम की गहरी प्रतिबद्धता है जो कभी मानसिक अवसन्नता की स्थिति से नायिका को निकाल लाई थी और कहानी में इस प्रेम का विस्तार मानव मात्र के प्रति करुणा और स्नेह के रूप में होता है। कहानी का अंत कुछ नाटकीय प्रतीत होता है, लेकिन प्रेम की शक्ति को दर्शाने में सफल है।

'प्रवास में' की कहानियाँ शिल्प में सहज हैं। अधिकांश कहानियों में लेखिका स्वयं नैरेटर है। इन कहानियों में लेखिका को यात्रा में कोई ऐसा सहयात्री मिलता है जो अपने जीवन की कहानी उससे कहता है। इस प्रकार ये कहानियाँ किस्सागोई की सीमा को छूती हैं। संभवतः इसीलिए बेहद रोचक और संप्रेषणीय हैं, पाठक को अपने साथ ले चलती हुई। उषा राजे सक्सेना ने कहानियों की भाषा में शब्दावली के विविध रंगरूपों का प्रयोग किया है। जहाँ पात्र मुसलमान है वहाँ भाषा ने उर्दू का रूप लिया है –
'मैं बरतानिया में रहनेवाली एक 'हाउस वाइफ हूँ'। तनहाई में अल्फाज़ से खेलने की आदत है। और अब आप लोगों ने मुझे शाइरा बना दिया है, जिसकी मुझे आदत नहीं है। मुझमें यूँ कोई खसूसियत नहीं हैं जो मैं आपको बताऊँ।' (दायरे)और जब संस्कृत जानने वाले संस्कारी हिन्दू पात्रों की बात होती है तो भाषा तत्समनिष्ठ हो जाती है – 'लगा, मेरे शीश पर चाँद और तारों का झिलमिलाता वितान तन गया है। मैं किसी कानन-वन में लताओं और द्रुमों के बीच खड़ी हूँ। मेरे चारों ओर सुवासित रंग-बिरंगे सुमन खिल उठे है। फूलों से लदे विशाल वृक्षों की गुलाबी पंखुड़ियाँ झर-झर मुझ पर फूलों की वर्षा कर रही हैं। (अभिशप्त)

इसके अतिरिक्त प्रवासी जीवन में हिन्दी के साथ घुल-मिल गए अंग्रेजी शब्द भी इन कहानियों में खुल कर प्रयुक्त हुए हैं जो भाषा का सहज अंग प्रतीत होते हैं।

कुल मिला कर 'प्रवास में' प्रवासी भारतीय मन के प्रश्नों और दुविधाओं को सामने रखता एक रोचक और पठनीय कहानी-संग्रह है। इसमें लेखिका का झुकाव भारतीय जीवन मूल्यों की ओर होते हुए भी पश्चिमी सभ्यता के सकारात्मक पक्ष को स्वीकार करने की ओर उन्मुख दिखाई देता है। यह संग्रह पश्चिमी परिवेश से परिचित कराने वाले साहित्य के सिलसिले की एक और कड़ी है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।

डॉ कैलाश गौतम

 
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