समकालीन
कहानियों में
भारत से अमर स्नेह की कहानी
माँ
त्रिवेणी तट लोगों से अटा पड़ा
है। मानवी सैलाब थमने का नाम ही नहीं लेता। जहाँ तक दृष्टि
जाती है छाजन, गुमटियाँ, तम्बू, पंडाल, लहराते झंडे-झंडियाँ,
धर्म पताकाएँ। हर तरफ धर्माचारी, भाँग, चरस, सुलफे में लीन।
कहीं भी पैर रखने तक की जगह नहीं। दानी-धर्मी, निरंकारी,
सेठ-साहूकार, भिखारी, योगी, नागा, साधु-संन्यासी, गृहस्थ,
फक्कड़, बाल-वृद्ध, नर-नारी की आवाजाही, रेलमपेल। स्नान-ध्यान,
कीर्तन-आरती, हवन-यज्ञ, प्रवचन-भंडारे, घंटे-घड़याल,
झाँझ-मंजीरे, धौंसे-डफ-डमरू-ढोल, बिगुल-शंख-करतालों की ध्वनि,
जयकार करता जनसमूह और नदी का कोलाहल। कुल मिलाकर इतना शोर कि
अपनी भी आवाज सुनाई नहीं देती। ऐसे में एक बूढ़ी औरत भीड़ के बीच
एक टीले पर खड़ी दूर तक पास से गुजरते एक-एक चेहरे को गौर से
देखती है और निराश होकर पुकारना शुरु कर देती है। जब वह थक
जाती है तो वहीं बैठ जाती है और फिर वही क्रम दोहराने लगती है।
उसे देखकर लगता है, जैसे बाँस के बीहड जंगल में कोई पक्षी
फँसकर चीख-चिल्ला रहा हो। मैं उसे काफी दूर से देखता आ रहा था।
एक क्षण रुका तो भीड़ का ऐसा रेला आया कि मैंने कुछ देर बाद खुद
को एक घाट पर पाया।
आगे-
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ज्योति जैन की
लघुकथा- देवी
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अनंत आलोक का आलेख
माता बाला सुंदरी
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अजातशत्रु की संस्मरण
गाँव में
नवदुर्गा
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पुनर्पाठ में- देव प्रकाश का आलेख
दुर्गा पूजा का सांस्कृतिक विश्लेषण |