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जिसने लन्दन को नहीं जिया उसने जीवन को नहीं जिया
— शरद आलोक
चित्र में बाएँ
से दाएँ : बालकवि बैरागी, कुँअर बेचैन, लेखक, डा लक्ष्मीमल
सिंघवी, पद्मेश गुप्त, दाऊ जी गुप्त, डा कृष्ण कुमार बर्मिंघम
में
लन्दन में मैने एक कार्ड खरीदा था जिसमें अंग्रेजी में लिखा था
उसका हिन्दी रूपान्तर है 'जिसने लन्दन को नहीं जिया उसने जीवन
को नहीं जिया'। मुझे यह बात बहुत खरी लगी। ब्रिटेन में बसे डा.
निखिल कौशिक के काव्यसंग्रह 'तुम लन्दन आना चाहते हो' का स्मरण
हो आया। यहाँ का आकर्षण ही ऐसा है। यही कारण है कि अनेकों बार
लन्दन जा चुका हूँ। लन्दन हमेशा हर तरह के सैलानियों को अपने
वक्ष से लगाये रहता है। गरीबों से लेकर अमीरों तक किसी भी
विचारधारा व शौक रखने वालों की संस्थाएँ और गतिविधियाँ हों
पूरे वर्ष चलती रहती हैं। आठ बार लन्दन जाने का अवसर मिला है
मुझे। इस संस्मरणात्मक लेख में अपनी यात्रा से सम्बन्धित कुछ
महत्वपूर्ण लोगों और कुछ घटनाओं को प्रस्तुत करूँगा जिससे
लन्दन जाने वाले व्यक्ति को एक पूर्व झलक मिल जाए।
ब्रिटेन में
हिन्दी की साहित्यिक गतिविधियाँ बढ़ी हैं
भले ही दिन पर दिन ब्रिटेन के स्कूलों में हिन्दी पढ़ने वालों
की संख्या कम हो रही है क्योंकि माता–पिता अपने बच्चों को
हिन्दी पढ़ने के लिए प्रोत्साहन नहीं देते थे लेकिन वही माता–पिता
अब अधेड़ आयु की अवस्था में स्वंय हिन्दी पंजाबी व अन्य भारतीय
भाषाओं की तरफ मुड़े हैं ठीक उसी तरह जैसे लोग भारत में बुढ़ापे
में भक्ति की तरफ अधिक अग्रसर होते हैं। इनमें कुछ लोग तो लेखन
से भी जुड़ गये हैं जो हिन्दी के लिए सुखद है।
लन्दन में नेहरू सेन्टर है जिसके निदेशक सुप्रसिद्ध नाटककार एवं
रंगकर्मी गिरीश कर्नाड तथा कवि और कहानीकार दिव्या माथुर वहाँ
कार्यरत हैं। नेहरू सेन्टर और भारतीय विद्या भवन में आये दिन
सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं। लन्दन में हिन्दी,
पंजाबी, उर्दू, गुजराती और अंग्रेजी की अनेक साहित्यिक संस्थायें
मिल जायेंगी। इन भाषाओं में आपको अनेक पत्रिकायें मिल जायेंगी।
इन सभी भाषाओं में अनेक रचनाकार मिल जायेंगे। लन्दन की कुछ
संस्थाओं में इन्डिया वेलफेयर सोसाइटी यू. के., हिन्दी समिति
हिन्दी सेन्टर यू. के., हिन्दू सेन्टर आदि, जिनके कार्यकर्ताओं
के सम्पर्क में आने का मुझे अवसर मिला है। रूपर्ट स्नेल लन्दन
विश्वविद्यालय में सत्येन्द्र श्रीवास्तव कैम्ब्रिज
विश्वविद्यालय में हिन्दी का अध्यापन करते हैं और दोनो कवि भी
हैं।
लन्दन के डा. श्याम मनोहर पाण्डेय जी हिन्दी के बहुत बडे.
विद्वान हैं जो इटली में प्रोफेसर हैं। पाण्डेय जी से लन्दन
में हिन्दी की गतिविधियों पर घंटो कई दिनों तक बातचीत की। मुझे
स्मरण है पाण्डेय जी ने मुझसे स्व. रमानाथ अवस्थी के गीतों को
सुनाने का आग्रह किया था जो लन्दन के कवि सम्मेलन में उनके साथ
बैठकर टेप किया था। बाद में उसकी एक प्रति उन्हें भेज दी थी।
सादगी में अपना जीवन व्यतीत करने वाले मस्तमौला कवि रमानाथ
अवस्थी की स्मृतियाँ शेष रह गयी हैं।
इसके अतिरिक्त लन्दन में ही लेखिका उषा राजे सक्सेना हैं जिनके
आरम्भिक लेखन से आज तक के लेखन का साक्षी हूँ जिनका कहानी
संग्रह 'प्रवास में' का विमोचन लन्दन में हुआ है। कविता के
प्रति उनकी जिज्ञासा और प्रारम्भिक रचनाकाल में उनके ज्ञान
वर्धन में मैंने उनकी जितनी अल्प सहायता की थी उसके बाद बहुत
ज्यादा तरक्की की है उन्होंने, जिसकी मुझे बेहद खुशी है। लन्दन
में 'कथा' नामक संस्था कथा साहित्य और साहित्यकारों को
प्रोत्साहित कर रही है। कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा कथा के सचिव
हैं। १६ अग्स्त को 'कथा' सुप्रसिद्ध कथाकार ज्ञान चतुर्वेदी को
पुरस्कृत कर रही है। ओंकारनाथ श्रीवास्तव जी एक अच्छे
साहित्यकार हैं तथा उन्होंने वर्षों बीबीसी हिन्दी की बहुत सेवा
की है। उनकी पत्नी कीर्ति चौधरी जी का नाम नयी कविता आन्दोलन
की प्रथम पंक्ति में लिया जाता है। कीर्ति जी खाना भी अच्छा
बनाती हैं।
बर्मिंगम में डा कृष्ण कुमार जी एक गंभीर लेखक एंव हिन्दी सेवी
हैं। गीतांजलि साहित्यिक संस्था में डा. कृष्ण कुमार के साथ
अनेक रचनाकार जुड़े हुए हैं। एक लेखिका का जिक्र करना नहीं
भूलूँगा वह हैं शैल अग्रवाल जिन्होंने स्नेहवश लिखा था कि कब
चपत लगाने आ रहे हैं। बर्मिंगम में बहुत अच्छा साहित्यिक
वातावरण बन गया है।
मैनचेस्टर में कानपुर के राम पाण्डेय 'भ्रमर' को कौन नहीं
जानता जो एक अच्छे कवि के साथ–साथ एक अच्छे संगीतकार हैं जिनके
घर पर आये दिन मैंने लेखकों, फिल्मकारों, संगीतकारों और
कलाकारों का आना जाना देखा है। इसके अतिरिक्त भाभी मालती
पाण्डेय जी मृदुभाषी और सेवा में उनका जवाब नहीं हैं। यही हाल
है डा. रंजीत सुमरा का जो अहिंसम भारतीय के अध्यक्ष हैं उनके
अतिरिक्त इंडियन एशोसिएशन के डा. सतीश एंव डा. लता पाठक हैं ।
अहिंसम भारतीय और इंडियन एसोसिएशन संस्थाओं ने ब्रिटेन में
यूरोपीय हिन्दी सम्मेलनों का सफल आयोजन किया था। मैनचेस्टर में
ही लेखिका श्यामा कुमार हैं जो बड़े मनोयोग से कवितायें लिखती
हैं। औद्योगिक नगर मैनचेस्टर साहित्यिक गतिविधियों का मुख्य
केन्द्र हो गया है। मैनचेस्टर विश्वविद्यालय में हमारे
लोकप्रिय कवि हरिवंश राय बच्चन के नाम पर पीठ है।
लन्दन में क्रिसमस
सन १९८४ की बात है। मेरी पहली ब्रिटेन यात्रा थी। दिसम्बर
महीने का चौथा और वर्ष का अन्तिम सप्ताह था। सात दिनों के लिए
लन्दन आया था। नार्वेजीय सैलानियों के साथ। जिस होटल में मैं
ठहरा था वह लदन के मध्य में और “यूनिवर्सिटी आफ लन्दन” के बहुत
समीप था। क्रिसमस के दिनों में लन्दन नगर सूना हो गया था। आम
दिनों में जिन सड़कों पर बहुत चहल–पहल होती थी वे सूनी लग रही
थीं। यदा–कदा लोग दिखायी देते थे। क्रिसमस के दिनों में अधिकतर
गैर ब्रिटेनवासी ही चहुँ ओर दिखायी देते थे। पिकाडिल्ली पर
चहलपहल अधिक दिखायी देती थी। सभी चर्चों को सजाया गया था।
अधिकांश बाजारों की बहुत सी दुकानें सजायी गयी थीं जैसे भारत
में दीपावली के समय दुकानों की सजावट होती है। इसके अतिरिक्त
चर्चों के बाहर क्रिसमस के वृक्षों को विभिन्न छोटे–छोटे
लट्टुओं और खिलौनों से सजाया गया था जैसे जन्माष्टमी में भारत
में विभिन्न मन्दिरों और अनेकों घरों में झाँकियाँ सजायी जाती
हैं।
क्रिसमस की पूर्व सन्ध्या पर लन्दन में स्थित नार्वेजीय
नाविक–गिरजाघर गये। वहाँ क्रिसमस के कार्यक्रम में सम्मिलित
हुए। इस अवसर पर अनेक पश्चिमी देशों में उपहारों के आदान
प्रदान की परम्परा है। क्रिसमस पेड़ के नीचे उपहारों को रखा गया
था। क्रिसमस पेड़ के चारों तरफ घूमकर चक्कर लगाते रहे। एक ओर दो
युवतियाँ वायलेन पर नार्वेजीय लोकधुनें बजाती रहीं। सभी एक
दूसरे का हाथ पकड़कर क्रिसमस पेड़ को घेरे में लेकर नाचते जा रहे
थे। बाद में एक दूसरे का परिचय हुआ। खाने की मेज सजी थी। एक
तरफ तरह–तरह के सलाद चीज व अन्य खाद्य सामग्री थी तो दूसरी तरफ
नार्वेजीय घरों में क्रिसमस के दिन परोसा जाने वाला मांसाहारी
भोजन उपलब्ध था। मेरे सिवाय एक व्यक्ति और भी शाकाहारी था।
जगह–जगह भारतीय और दक्षिण एशियाई लोग प्रायः दिखायी पड़ते थे।
जिन्हें देखकर मुझे बहुत सुकून मिलता था कि यहाँ अपने लोग भी
हैं।
सिटी
आफ लन्दन
जब आप सिटी आफ लन्दन जायेंगे जहाँ आम दिनों में इतनी चहल–पहल
रहती है कि साँस लेने की फुरसत नहीं मिलती। सार्वजनिक स्थानों
पर पेशाब करना मना होता है जो नई बात नहीं है। परन्तु सिटी आफ
लन्दन में आप गाना भी नहीं गा सकते। थूक नहीं सकते। गाना गाना
और थूकना दण्डनीय है। यहाँ पर अनेक महत्वपूर्ण कार्यालय हैं।
यहीं हिटलर के नार्वे पर तानाशाही–नाजी साम्राज्य के समय सन्
१९४० से १९४५ तक नार्वे के रेडियो का प्रसारण यहाँ से ही होता
था। नार्वे के राजा ने यहाँ शरण ली थी। नार्वे के साथ ब्रिटेन
के सौहार्द्र पूर्ण सम्बन्धों के कारण और अहसान के बदले नार्वे
के राजा की तरफ से हर वर्ष एक बड़ा वृक्ष क्रिसमस के समय में
ब्रिटेन को नार्वे से भेजा जाता है जिसे हर वर्ष लन्दन के
मुख्य स्थान पर लगाया जाता है। इस स्थान पर गये तो थोड़ी चहल
पहल थी। सामने ही संग्राहलय था जहाँ भारतीय कृतियाँ भी उपलब्ध
थीं। ओपेरा और थिएटर को अन्दर जाकर देखा। उस समय तक मैने
नार्वे में भी ओपेरा नहीं देखा था। टूरिस्ट बस में घूमने का
अपना ही आनन्द था। लन्दन के अनेक हिस्सों से परिचित हुआ।
ऐतिहासिकता का भी भान हुआ। तत्पश्चात टूरिस्ट बस द्वारा पुराने
भवनों से परिपूर्ण आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय देखने का अपना
आनन्द था। अनेक भारतीय राजनीतिज्ञों ने यहाँ से ही शिक्षा
प्राप्त की थी।
शेक्सपियर की जन्मस्थली पर गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की
प्रतिमा-
टूरिस्ट बस द्वारा शेक्सपियर के जन्मस्थान गये। इतना आकर्षक,
शेक्सपियर की वस्तुओं, उनके जीवन से सम्ब्न्धित सूचनाओं को
सँभाल कर रखा गया है। काश भारत में भी लेखकों की स्मृतियों को
सँभाल कर रखा जाता। अभी दो सप्ताह पूर्व एक वेब पत्र में पढ़ा
था कि दिल्ली में एक लेखक ने गरीबी और इलाज के अभाव में
आत्महत्या कर ली। भारतीय लेखकों की गरीबी और अभाव नयी बात नहीं
है। मुंशी प्रेमचंद और निराला जी की गरीबी जग जाहिर है। भारतीय
लेखकों पर कुछ कार्य शुरू किया गया है परन्तु उनकी सामाजिक
सुरक्षा और इलाज का उचित प्रबन्ध नहीं है। ब्रिटेन में लेखकों
की सामाजिक सुरक्षा का भरपूर ध्यान रखा गया है।
ब्रिटेन के अनेक लेखकों की स्मृति को जीवन्त बनाने में हमारे
सुप्रसिद्ध विधि एंव संविधान विशेषज्ञ, राज्यसभा सदस्य एवं
ब्रिटेन में ९ वर्षों तक रहे हमारे राजदूत डा लक्ष्मीमल सिंघवी
जी ने अनेक ऐतिहासिक कार्य किये हैं। जब मैं सातवीं बार
ब्रिटेन गया तब डा .लक्ष्मीमल सिंघवी जी राजदूत थे। वे हम
लेखकों को शेक्सपियर की जन्मस्थली ले गये थे। उस समय हमारे साथ
अनेक लेखक थे। जगदीश चतुर्वेदी, रामदरस मिश्र, बालकवि बैरागी,
उपकुलपाति वाचस्पति उपाध्याय, कुअँर बेचैन, दाउदजी गुप्त और
अन्य थे। सिंघवी जी ने शेक्सपियर की जन्मस्थली में गुरूदेव
रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रतिमा लगवायी है जहाँ स्वयं शेक्सपियर
की मूर्ति भी नहीं है।
इतने से ही तृप्ति नहीं हुई। भारतीय लोगों से मिलने की चाह और
भारतीय मसालों के अभाव में यात्रा में एक कमी का आभास हो रहा
था। अतः साउथहाल जाने का कार्यक्रम बनाया। लन्दन के इस हिस्से
में भारतीय मूल के लोगों और दक्षिण एशियायी लोगों को देखकर ऐसा
लगा कि जैसे हम भारत आ गये हैं। साउथ हाल में मेरी मुलाकात
अनेक लोगों से हुई जिनमें विष्णुदत्त शर्मा को नहीं भूल सकता।
शर्माजी मजदूर नेता थे। उनके साथ मैं अनेक स्थानों पर गया।
मजदूर यूनियन के कार्यालय गया। दो गुरुद्वारों के दर्शन भी
किये। एक गुरुद्वारा नीची जात वालों का था। उन्होंने ही लन्दन
से प्रकाशित एकमात्र साप्ताहिक अमरदीप के संपादक जगदीश मित्र
कौशल को फोन किया। कौशल जी अपने परिवार के साथ मिलकर बड़ी
कुशलता से हिन्दी की पत्रिका प्रकाशित करते हैं। एक और सिख भाई
मिले जो कभी पंजाबी में पत्रिका प्रकाशित करते थे। वह शर्माजी
के साथ मुझे भी अपने घर ले गये थे। मजदूर यूनियन में एक सिख
नेता मुझे मिले थे शर्माजी और मुझे उन्होंने चाय पिलायी थी।
बाद में वह सिख नेता एम पी बन गये थे। जगदीश मित्र कौशल की
हिन्दी सेवा से मैं बहुत प्रभावित हुआ था। भारतीय विद्या भवन
और दो मन्दिरों के दर्शन किये।
प्रेमी की प्रतीक्षा में प्रेमिका ने वर्षों फुटपाथ पर गुजारे-
सन् १९८८ में ओसलो में आयोजित एक मुशायरे में मेरी मुलाकात
साउथ हाल लन्दन में रहने वाले केन्या से आकर बसे शायर एजाज़
अहमद से हुई। जब पुनः लन्दन नार्वेजीय टूरिस्ट दल के साथ गया
तब एजाज़ अहमद को फोन किया जिन्होंने मुझे अपनी टैक्सी से लन्दन
घुमाया। उन्होंने सड़क के किनारे बनी एक दुकाननुमा झोपड़ी दिखाई
जिसके सामने एक अधेड़ आयु की औरत सड़क पर आने–जाने वाले लोगों को
निहार रही थी। उन्होंने बताया कि यह औरत अनेक वर्षों से अपने
प्रेमी के विरह में पागल प्रतीक्षा कर रही है। जब दो वर्ष बाद
गया तब वहाँ न तो वह औरत दिखी न ही उसकी झोपड़ी। मुझे ओसलो
विश्वविद्यालय के बाहर एक पागल विद्वान की स्मृति आ गयी जो
गिरती बरफ में भी साधारण वस्त्र पहने वहाँ टहला करता था।
मेयर वीरेन्द्र शर्मा ऐतिहासिक पुरुष-
जब कौशल जी से पता चला कि ईस्ट ईलिंग के मेयर वीरेन्द्र शर्मा
ने अपने कार्यकाल में ऐतिहासिक परिवर्तन किये हैं तब मेरी
इच्छा उनसे मिलने की हुई। मैं नार्वे में श्रमिक पार्टी में
सक्रिय कार्यकर्ता था और वीरेन्द्र शर्मा ब्रिटिश लेबर पार्टी
में सपरिवार सक्रिय कार्यकर्ता थे। उन्हें मैंने अपनी पत्रिका
परिचय और स्वरचित काव्य सग्रह भेंट किये। ऐसे ऐतिहासिक पुरुष
से डेढ़ घंटे बातचीत कर मुझे बहुत प्रेरणा मिली। एक ब्रिटिश
समाचारपत्र ने शर्मा जी और मेरा संयुक्त चित्र खींचा था जो
उक्त ब्रिटिश पत्र में प्रकाशित हुआ था।
शक पर पत्नी से अलग हुए शायर-
एक हिन्दी के शौकिया कवि जिनका कविता– प्रेम तो ठीक है परन्तु
लेखन में हल्कापन है। पहली बार उनके घर गया तब वह सपरिवार रहते
थे। जब दोबारा उनसे हालचाल पूछा तब उन्होंने बताया कि मेरी
पत्नी बेवफा निकली। स्वयं ही उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी को
कार्यालय के एक साथी का घर भेजने आना शक का कारण बना। कारण
हल्का था। पर यहाँ यह आम बात है। कुत्ते बिल्ली को लेकर अक्सर
तलाक हो जाते हैं।
यार्क के महेन्द्र वर्मा के साथ-
मारीशस में आयोजित चतुर्थ विश्व हिन्दी सम्मेलन में यार्क
विश्वविद्यालय के प्रोफेसर महेन्द्र वर्मा जी से पहली मुलाकात
हुई। उन्होंने दक्षिण भारतीय भाषाओं का सम्मेलन 'साला' यार्क
विश्वविद्यालय में आयोजित किया था। यह सम्मेलन भाषाविदों और
शोधकर्ताओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जो हर दूसरे वर्ष आयोजित
किया जाता है। इस वर्ष भारत में आयोजित हो रहा है। यार्क
सम्मेलन के दूसरे दिन शाम को तीन महिला विद्वानों नें मुझे
फिल्म दिखाने का प्रस्ताव रखा और मैं उनके साथ चला गया। सिनेमा
के टिकट खरीद चुके थे। मैंने सोचा कि भाभी उषा वर्मा जी को फोन
पर सूचित कर दूँ। उषा वर्मा जी बहुत अच्छी वैचारिक कवितायें
लिखती हैं। उन्होंने मजाक और मनोविनोद में कुछ बाते कहीं। आधे
घंटे फिल्म देखने के बाद मैं महिला विद्वान साथियों को बिना
बताये टैक्सी लेकर वर्मा जी के घर आ गया था। जब कभी उन सभी
लोगों के मध्य बातचीत होती हास्यपुट बना रहता।
वर्मा जी से अनेक बातें सीखने को मिलीं। मैने महेन्द्र वर्मा
जी से कहा वर्माजी क्यों न मैं आपके सानिध्य में शोध करूँ?
उन्होंने कहा 'सुरेशजी आप अपने लेखन में लगे रहिये। लोग आपपर
स्वयं शोध करेंगे।' पिछले वर्ष दो हिन्दी शोधकर्ताओं नें मेरी
रचनाओं पर शोध करने के लिए सामग्री माँगी तब वर्मा जी का स्मरण
हो आया।
बर्मिंगम यार्क और मैनचेस्टर में हर वर्ष कवि सम्मेलन
लन्दन बर्मिंगम यार्क और मैनचेस्टर में हर वर्ष कवि सम्मेलन
होते हैं। यह सिलसिला डा. लक्ष्मीमल सिंघवी जी ने शुरू कराया
था जिसे लन्दन में हिन्दी समिति यू. के. ने जारी रखा है। इन
कवि सम्मेलनों में कई बार कवितायें पढ़ चुका हूँ जिनमें बहुत से
साहित्यकारों का सानिध्य मिला जिनमें सुप्रसिद्ध गीतकार
गोपालदास नीरज, मजरूह सुल्तानपुरी, हजरत जयपुरी, स्व. रमानाथ
अवस्थी, छायावादी कवि शिवमंगल सिंह सुमन, नयी कविता के कवि
जगदीश चतुर्वेदी, कन्हैया लाल नन्दन, कैलाश बाजपेई, गंगाप्रसाद
विमल, डा. उदयभानु हंस, पदमा सचदेव, अशोक चक्रधर, किशन सरोज,
बेकल उत्साही, लल्लन प्रसाद व्यास और बहुत से ब्रिटेन में बसे
योग्य कविगण थे।
कुछ वर्ष पूर्व मैं भी इन्हीं कवि सम्मेलनों में गया हुआ था।
नार्वे में हमारे राजदूत को लन्दन हाईकमीशन से आमन्त्रण मिला
था। ओसलो से मेरा नाम भेजा गया और वहाँ स्वीकृत कर लिया गया।
लन्दन में मेरे आवास की व्यवस्था नहीं हो पायी थी। लन्दन में
ब्रिटिश हाईकमीशन में सुरेन्द्र अरोड़ा जी हिन्दी और सांस्कृतिक
अधिकारी थे जो एक कहानीकार भी हैं। मैंने उनसे ठहरने की
व्यवस्था पूछी उन्होंने टाल दिया और आनाकानी की। पता नहीं
क्यों उनका व्यवहार पहली बार बहुत रूखा था। मैने निजी तौर पर
व्यवस्था कर ली। दूसरी बार जब हाईकमीशन में सुरेन्द्र अरोड़ाजी
से मिलने गया तब उन्होंने अच्छी खातिरदारी की शायद इसलिए
क्योंकि इसबार उनके उच्च अधिकारी के घर पर ठहरा था।
आखिरी बार अरोड़ाजी ५ जनवरी १९०१ प्रधानमन्त्री अटलबिहारी
बाजपेई के निवास पर स्व. प्रकाशवीर शास्त्री जी की कृतियों के
लोकार्पण–कार्यक्रम में मिले थे जहाँ डा. वेदप्रताप वैदिक,
विश्वम्भर शर्मा शर्मा, अजय कुमार गुप्ता जी मेरे साथ थे। कवि
विश्वम्भर शर्माजी का २७ जनवरी २००२ को दिल्ली में देहान्त हो
चुका है। तीन वर्ष पूर्व तत्कालीन केन्द्रीय मन्त्री
मुरलीमनोहर जोशी के निवास पर आयोजित विश्वम्भर शर्माजी के दो
काव्यसंग्रहों के विमोचन कार्यक्रम में मुझे भी सम्मिलित होने
का अवसर मिला था। स्व. विश्वम्भर शर्माजी एक अच्छे कवि होने के
साथ–साथ एक अच्छे राजनेता भी थे। ब्रिटेन से सम्बन्धित अनेक
अनुभव और अनेक यादें हैं जिन्हें दोबारा लिखेंगे। लन्दन में
१९९९ में छठा विश्व हिन्दी सम्मेलन बहुत सफलता के साथ सम्पन्न
हुआ था जिस पर एक अलग लेख लिखा जा सकता है। लन्दन आप भी जायें
और आनन्द लीजिये आप जरूर कहेंगे जिसने लन्दन को नहीं जिया उसने
जीवन को नहीं जिया।
२ सितंबर २००२ |