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बौद्ध धर्म में कला
डॉ. अँगनेलाल
संसार के लोग जिन प्रमुख कारणों
से दुःखी हैं उनमें एक कारण ‘भूख’ है। महामानव बुद्ध ने ‘धम्म
पद’ में भूख को सबसे बड़ा रोग बताया है (जिघिच्छा परमा रोगा)।
इस बड़े रोग की दवा ‘रोटी’ है। अतः रोटी (आहार) मनुष्य की
प्राथमिक आवश्यकता है। उसके बिना कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह
सकता। अस्तु! भोजन, जीवन का आधार है (सब्बे सत्ता
आहारद्वितिका) कदाचित् संसार में महामानव बुद्ध पहले
अर्थशास्त्री थे जिन्होंने रोटी को अर्थशास्त्र से जोड़ा और
भोजन को मनुष्य की पहली आवश्यकता बताया।
प्रश्न यह उठता है कि भूख की दवा रोटी मिले कैसे? उसके लिये
आलस (प्रमाद) त्यागकर कोई उद्योग-धन्धा (कारोबार रोजगार) करना
होगा। महामानव बुद्ध ने सुखी जीवन बिताने और रोजी-रोटी प्राप्त
करने के लिए शिल्प कला को मंगलकारी बतलाया है। उन्होंने अपने
समय में सभी शिल्प उद्यमों को १८ शिल्प संघों (श्रेणियों) में
संगठित करके शिल्प उत्पादन के लिये लोगों को प्रोत्साहित किया
था। भारत में साल के १२ महीनों की अवधि में मुश्किल से मनुष्य
चार महीनों की अवधि के बराबर समय में काम करता है, बाकी समय को
व्यर्थ गँवाता है इसके लिये गृह-शिल्पों का व्यापक प्रचलन और
प्रोत्साहन आवश्यक है, ताकि फालतू समय में लोग उत्पादन करें और
अपनी माली हालत सुधारें। यह आवश्यक है और सरकार का भी कर्तव्य
है कि वह ऐसे नियम कानून बनाये जिससे उनको उत्पादन का समुचित
मूल्य मिले और उनका शोषण न हो सके। शिल्पी संघों का गठन एक
कारगर उपाय सिद्ध हो सकता है।
वर्तमान युग में कुछ लोगों ने दूसरों का शोषण करके इतनी
धन-सम्पत्ति जमा कर ली है कि उसी पर सोते हैं, जागते हैं,
कूदते हैं और उसे ही ओढ़ते और बिछाते भी हैं। वहीं पर कुछ लोग
खाने के लिये भोजन और तन ढकने के लिये वस्त्र भी नहीं पाते
हैं। यह वितरण व्यवस्था और उपभोग प्रथा का दोष है। जैन धर्म के
प्रमुख तीर्थंकर महावीर स्वामी, तथागत बुद्ध के समकालीन थे।
जैन धर्म के पाँच महान सिद्धान्तों (पंच महाव्रतों) में से एक
सिद्धान्त यह भी था कि लोग आवश्यकता से अधिक संचय न करें
(अपरिग्रह महाव्रत) क्योंकि आवश्यकता से अधिक संचय करने का
तात्पर्य है दूसरे लोगों को कमी और अभाव की स्थिति में ढकेलना।
महामानव बुद्ध ने इस विषमता को दूर करने के लिये
‘आवश्यकतानुसार वितरण प्रणाली’
का यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया था।
समान वितरण प्रणाली और आवश्यकतानुसार वितरण प्रणाली दोनों एक
नहीं हैं। समान वितरण प्रणाली में कोई आवश्यकता से अधिक और कोई
आवश्यकता से कम पा सकता है जिससे लोगों में असन्तोष पनप सकता
है। जबकि आवश्यकतानुसार वितरण प्रणाली इस दोष से मुक्त है।
वर्तमान समय में भी सुखी मानवीय समाज के लिये आवश्यकता मूलक
वितरण प्रणाली ही श्रेयस्कर है।
मनुष्य के लिये अर्जन करना जितना जरूरी है उससे भी अधिक जरूरी
है सोच समझकर खर्च करना और फिजूलखर्ची से बचना। लोक नायक बुद्ध
ने अर्जन और खर्च के लिये अतीव उपयोगी सिद्धान्त बनाया।
उन्होंने कहा कि अपनी आमदनी को चार समान भागों से बाँटना
चाहिए। पहले भाग से रोजमर्रा की रोटी-दाल चलाना चाहिए। दूसरे
और तीसरे भाग से कोई उद्योग-धन्धा, रोजगार करना चाहिए और चौथे
भाग को भविष्य के लिये सुरक्षित रखना चाहिए ताकि अचानक जरूरत
पड़ने पर लोगों के सामने हाथ न फैलाना पड़े और कर्ज न लेना पड़े।
इस प्रकार गौतम बुद्ध ने रोटी की समस्या का हल लोगों को
बतलाया। उस मार्ग पर चलना हमारा आप सबका कर्तव्य है। तथागत
बुद्ध वे कुशल वैद्य (महाभिषक) थे, जिन्होंने रोगी समाज के
लोगों को दवा बतला दी। अब उसका सेवन करना या न करना तो मरीज का
काम है। यदि वह दवा खायेगा, बताई हुई रहनी सहनी पर चलेगा तो वह
स्वस्थ, तन्दुरूस्त और रोग मुक्त होगा अन्यथा नहीं। अतः हम उस
औषधि पत्र (नुस्खे) को जन-जन को बताकर उन्हें सजग करना चाहते
हैं।
इसके अलावा बुद्ध-युग ने भारत को वह गौरवमयी कला प्रदान की है।
जिसके अन्तर्गत स्थापत्य अर्थात भवन निर्माण कला, मूर्ति कला
और चित्र कला विशेष रूप से उल्लेखनीय है। भवन बनाने वाले कुशल
कारीगरों को राजगीर, वास्तुविद और स्थपिक कहा जाता था। बौद्ध
स्थापत्य कला मुख्यतः धार्मिक स्थापत्य है। स्तूप, चैत्य एवं
विहार बौद्ध धर्म की देन है। साँची, भरहुत, अमरावती, सारनाथ
एवं कुशीनगर के प्राचीन स्तूप प्रसिद्ध हैं। नवीन स्तूपों में
धौली (उड़ीसा), राजगृह (बिहार), वैशाली (बिहार) आदि के विश्व
शान्ति स्तूपों का निर्माण, जापान के सुप्रसिद्ध बौद्ध साधक
फ्यूजी गुरुजी ने करवाकर बौद्ध भारत के लिये समर्पित किये हैं।
महाबोधि महाविहार बोध गया (बिहार प्रदेश) को "वर्ल्ड हेरिटेज"
के रूप में दिनाँक १९ फरवरी २००४ को अंगीकार कर लिया गया है
जिसका तात्पर्य है कि यह महाविहार अब विश्व के बौद्धों की निधि
बन गया है। चैत्यों में कार्ल भाजा के चैत्य विश्व प्रसिद्ध
हैं। एलोरा में पर्वत को कोरकर तीन-तीन मंजिल वाले बनाये गये
चैत्य, गुहा विहारों को देखने के लिये दुनिया के बौद्ध पर्यटक
दर्शनार्थी आते हैं। सारनाथ, श्रावस्ती, कुशीनगर, वैशाली,
नालन्दा आदि की पुरातात्विक खुदाई में विहारों और महाविहारों
के अवशेष प्राप्त होते हैं। भवन निर्माण में जिस-जिस सामग्री
का प्रयोग और निर्माण बुद्ध-युग में किया जाता था उनके नाम आज
भी लगभग उसी रूप में प्रचलित हैं, जिसके कुछ उदाहरण ही
पर्याप्त होंगे- मोरम्ब = मौरम या मौरंग, पस्साब = पेशाब,
पस्साब कुटी = पेशाब घर, पस्साब दोणी = पेशाब करने का गहरा
पात्र या यूरिनर, पदर सिला = क्रेजी या कलेजी या पत्थर के
टुकड़े।
यहाँ पर विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि पहाड़ों में कुएँ नहीं
होते हैं। बरसात के पानी को एकत्रित और शुद्ध करके उस पानी को
साल भर पीने के लिये प्रयोग किया जाता था। इसके लिये प्रत्येक
गुफा विहार में पहाड़ी को कोर-कोर कर गहरा हौज बनाया गया है।
जिसके ऊपर पत्थर का ही ढक्कन भी होता था ताकि पानी में
कूड़ा-करकट न जा सके। यही नहीं पीने के पानी और हाथ-पैर धोने और
नहाने के पानी की अलग व्यवस्था रहती थी। सद्धम्म यात्रा के
दौरान एलोरा में जब मैंने जिज्ञासावश इस विषय में पूछा तो
लोगों ने बताया कि पहली दूसरी बरसात के बाद के पानी को एकत्रकर
उसे किसी प्रकार पीने योग्य रखते थे। क्योंकि दो बरसातों में
पहाड़ धुलकर साफ हो जाता था और उसके बाद का स्वच्छ जल मिलता था।
एलोरा पहाड़ी को कोर-कोर कर बनाये गये तिमंजिला महाविहार में
प्रत्येक तल पर लगभग एक एक हजार लोग बैठ सकते हैं। इसमें
त्रिपिटक की उच्च शिक्षा दी जाती थी। एक तल पर सुत्त पिटक की,
दूसरे तल पर विनय पिटक की और तीसरे पर अभिधम्म पिटक की (तलों
का क्रम अनुमानित है)। एलोरा बौद्ध, जैन और शैव तीनों धर्मों
का संगम है। एलोरा की भाँति औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में भी
पहाड़ी को कोर कर विहार, चैत्य तथा विशाल बौद्ध मूर्तियाँ बनाई
गईं हैं।
मूर्तिकला के क्षेत्र में भगवान बुद्ध की मूर्तियाँ
विश्व में सर्वश्रेष्ठ मानी गयी हैं। बुद्ध की जो तीन सर्वश्रेष्ठ मूर्तियाँ हैं,
वे तीनों भारत की ही बनी हुई हैं। इनमें सारनाथ की "धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा"
वाली उपदेश देती हुई तथागत की मूर्ति है जो इस समय सारनाथ के भारतीय पुरातत्व
संग्रहालय में दर्शनार्थ सुरक्षित है। दूसरी खड़ी तथागत की 'अभय मुद्रा' की मूर्ति
मथुरा के राजकीय संग्रहालय में रखी है और तीसरी खड़ी हुई 'पूर्णकाय बुद्ध मूर्ति' जो
भारत के राष्ट्रपति भवन की शोभा बढ़ा रही है। ये तीनों ही बुद्ध मूर्तियाँ गुप्त काल
में मथुरा कला केन्द्र में निर्मित हुई थीं। मथुरा उस समय का प्रसिद्ध बौद्ध कला
केन्द्र था जहाँ पर तथागत कम से कम दो बार अवश्य गये थे। मथुरा में विभिन्न स्थलों
पर पुरातात्विक उत्खनन में अब तक २८ बौद्ध विहारों के अभिलेखों सहित खण्डहर प्राप्त
हो चुके हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि अब से लगभग १३०० वर्ष पहले भारत यात्रा पर आये
चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनसाँग ने भी इनमें से अधिकाँश बौद्ध विहारों का वर्णन किया
है। उपर्युक्त बुद्ध मूर्तियों के अलावा कुशीनगर में भगवान बुद्ध की विशालकाय लेटी
हुई मूर्ति है जिसे महापरिनिर्वाण मुद्रा वाली मूर्ति कहते हैं। वह भी मथुरा बौद्ध
कला केन्द्र की ही बनी हुई है। अभी कुछ वर्ष पहले मथुरा शहर के गोविन्द नगर कालोनी
में भवन-निर्माण के लिये नींव खोदते समय बौद्ध मूर्तियों का भारी भण्डार मिला था।
साथ ही आस-पास मूर्ति बनाने के पत्थर के छीलन चिप्स फैले हुए मिले थे। यही नहीं एक
अभिलेख युक्त बुद्ध मूर्ति भी मिली थी जिस पर 'यशः विहार' नाम अंकित है, यह मूर्ति
कुषाणकालीन है।
इस प्रकार तथागत बुद्ध और उनके अनुयायियों ने भारत को
ऐसी अतीव उत्कृष्ट और गौरवशाली मूर्तिकला की देन दी है जिस पर प्रत्येक बौद्ध को
गर्व है। बौद्ध चित्रकला की विशिष्टता का सहज अनुमान अजन्ता (महाराष्ट्र) के गुफा
चित्रों को देखकर किया जा सकता है। बाघा नदी के किनारे अर्द्ध वृत्ताकार स्थित
अजन्ता पहाड़ी को कोर कर बनाई गई गुफाओं (गुफा विहारों) में जो बौद्ध धर्म से
सम्बन्धित तथा लौकिक चित्र बनाये गये हैं उनकी गणना दुनिया के सात आश्चर्यों में की
जाती है। यहाँ पर एक दो उदाहरण ही पर्याप्त होंगे। एक गुफा में प्रवेश करते ही
दाहिनी दीवार पर चार मृग बैठे हुए बनाये गये हैं। चारों हिरनों का मुँह एक है। जिस
हिरन के साथ उसे देखेंगे वही उसी का मुँह दिखाई पड़ेगा। इसी गुफा की छत में सफेद और
लम्बे बालों वाला एक पिल्ला (कुत्ते का बच्चा) चित्रांकित है। उसका छोटा मुँह और
काली-काली आँखें हैं। इस चित्र की विशेषता यह है कि इसे आप आगे, पीछे, दायें और
बायें किसी भी ओर से देखेंगे तो यह पिल्ला आपको देखता हुआ ही नजर आयेगा। इसी गुफा
में सामने एक बैठी हुई बुद्ध मूर्ति है। सामने, दायें और बायें से देखने पर यह
ध्यानमग्न अवस्था में, प्रसन्न मुद्रा में और महा करुणा में डूबी हुई मूर्ति दिखाई
पड़ती है। आठ नौ सौ साल पुराने बने हुये ये चित्र ऐसे लगते हैं मानों कुछ ही दिन
पहले बनाये गये हों।
अजन्ता की यह बौद्ध चित्रकला एशिया और यूरोप के सामान्त प्रदेशों तक पहुँची थी जहाँ
तुन्हवाँग में अजन्ता से प्रभावित चित्र कला के भण्डार मिले हैं। विभिन्न भाषाओं
में रचित बौद्ध साहित्य एवं आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ मिले हैं। यह नालन्दा के
महाविहार की देन है। यह सब विश्व बौद्ध सम्पत्ति है।
चीन और रूस की सीमा के समीप तुन्हवाँग नामक एक सुन्दर पहाड़ी स्थान था। वहाँ पर
बौद्ध भिक्षुओं ने अजन्ता की चित्रकला और नालन्दा जैसा बौद्ध विश्वविद्यालय स्थापित
किया था। जहाँ से विद्वानों को कपड़े पर हस्त लिखित बौद्ध शास्त्र और आगम
आयुर्विज्ञान के ग्रन्थ विपुल मात्रा में प्राप्त हुए हैं। ये पाण्डुलिपियाँ विश्व
की विभिन्न लिपियों में लिखी हुई हैं जिनके अध्ययन में अन्यान्य भाषाओं के विद्वान
लगे हैं।
बौद्ध तीर्थों में, लुम्बिनी (बुद्ध जन्म भूमि) बोधगया (बुद्धत्व ज्ञान प्राप्ति
स्थल) सारनाथ (धम्म चक्र प्रवर्तन स्थल) और कुशीनगर (महापरिनिर्वाण स्थल), ये चार
महातीर्थ हैं। इसके अलावा संकिसा (जिला फर्रूखाबाद), कौशाम्बी (इलाहाबाद के पास),
वैशाली (बिहार प्रदेश), श्रावस्ती (उत्तर प्रदेश), नागपुर (महाराष्ट्र) में भी
प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ हैं जहाँ पर देश-विदेश से हजारों यात्री इनके दर्शनार्थ आते
हैं। इन बौद्ध तीर्थों (स्थानों, विहारों एवं चैत्यों) में सभी जाति-वर्णों के लोग
जाकर दर्शन करते और श्रद्धा सुमन समर्पित करते हैं।
बौद्ध धर्म केन्द्रों के समान
ही बौद्ध स्मारक भी बिना किसी भेद-भाव के सबके लिये खुले हैं। साँची, सारनाथ,
राजगृह, अमरावती, नागार्जुनी कोण्डा, अजन्ता, एलोरा, दीक्षा-भूमि (नागपुर) शान्ति
वन (चिचोली) तथा चैत्यभूमि (बम्बई) के दरवाजे मानव मात्र के लिये खुले रहते हैं।
२३ सितंबर
२०१३ |