|
बाप जहाज का
मास्टर था। माँ एक अफ़सर की बेटी। दोनो का संयोग विवाह में
बदला। दोनो बंदरगाह–बंदरगाह घूमे। समुद्र के साथ एक और सागर
बहता चलता था। मदिरा का।
1
जहाज़ पति चलाता पत्नी
टावर में साथ बैठकर धीरे–धीरे चुस्की लेती। बीच–बीच में मास्टर
भी गुटक लेते थे, प्यार में डुबकी लगा लेते थे। समुद्र की
लहरों पर सूरज अपनी किरणों का सुनहरा चूरा बिखेर देता और रात
को जब जहाज़ जंबो लाइट में समुद्र को काटता चलता तो लगता जैसे
कोई अनंत अजदहा पलटा लेकर समुद्र को बिलो रहा हो।
1
बच्चे की माँ, हालाँकि बच्चा हुआ नहीं था, कहती कि समुद्र के
बीचोबीच मदिरापान का सुख एक विचित्र प्रकार की दिव्यता में
उतार देता है। उसे लगता समुद्र के गर्भ में तैरती मत्स्य
अप्सराओं की तरह वह स्वयं ही विचरण कर रही है। वहाँ उसे एक
दूसरा ही नीम–रोशन संसार दिखाई पड़ता था जिसमें उसका मास्टर भी
दिव्य रूप रखकर उसके साथ जल विहार कर रहा है। जब वह उस सुख में
डूब जाती और अपने को विस्मृत कर देती तो उसका मास्टर मुस्कराता
और उसे एक जहाज़ की तरह ही निर्देशित करके कैबिन में पहुँचा
देता। वह बच्चे की तरह पलंग से चिपटकर सो जाती। उसका पति फिर
लौटकर उस अकेले जहाज़ को उस उलटती–पलटती धारा के बीच से खेता
हुआ बढ़ने लगता। मास्टर सोचता जाता क्या यह ठीक हो रहा है।
|