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संस्मरण

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गाँव में नवदुर्गा
-अजातशत्रु


'नव दुर्गा' की ये रातें। बरसात के बाद की जमीन अब भी थोड़ी गीली है। झाड़ों के तनों पर तरी, और जंगलों में इधर-उधर पड़े लकड़ी के सूखे डंडों पर अब भी काई का हरापन थोड़ा शेष है। सर्वत्र अब भी हरियाली ही हरियाली, ताजगी ही ताजगी, जंगली फूलों की गंध और शाम से, रात भर फैला रहने वाला गीला सन्नाटा...! इधर गाँव में बिजली चली गयी हो, तो अँधियारा निगल लेता है और हमारे अपने होने के और भी तीव्रतर हो चुके बोध के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं देता। ऐसा लगता है कि इस अँधेरे में हमारे पास अपना शरीर भी नहीं रहा। हम बस हैं और कुछ नहीं हैं, एकदम विदेह।

गाँव के ओटले के बगल में 'दुर्गाजी' बैठा दी गयी हैं! यह दुर्गाजी बच्चे और किशोर बैठाते हैं। इधर-उधर जाकर चंदा माँगते हैं, गेहूँ दाना माँगते हैं और अपने 'किरकिट कलब' (क्रिकेट क्लब) का पैसा मिलाकर हर साल मूर्ति ले आते हैं। इन बच्चों के कारण ही गाँव में सामूहिक दुर्गा पूजा जिंदा है। गाँव में राजनीति भी चलती है। कोई कांग्रेस पार्टी का है तो कोई भाजपा का। बड़े-बड़ाते आपस के गुटों के कारण, पुराने छोटे-मोटे झगड़ों के कारण एक दूसरे से कुर्र रहते हैं। बच्चों को चंदा देने में आनाकानी करते हैं। एक पटेल साहब सारे गाँव से अलग हैं। रात दिन नाराज रहते हैं। हर किसी से नाराज, हर काम पर नाराज। सतत् असंतुष्ट रहने की ताकत के कारण ही दीर्घायु हैं। गाँव में कोई भी भला काम हो, सामूहिक काम हो, वह उन्हें चुनौती लगने लगता है.....उन्हें कोई नहीं पूछता। मगर महसूस होता है कि 'मेरी पूछ' गई! यह मौत है अब जिंदा कैसे हों? तो वे चलते काम को रोकने का प्रयास करते हैं। उसकी टीका-टिप्पणी करते हैं। चंदा देते वक्त शर्त लगाते हैं कि माता जी की आरती में हमारा बच्चा बैठेगा या अमुक-अमुक का बच्चा नहीं बैठेगा.....। माताजी का मुँह घर की तरफ होना चाहिये। वगैरह....वगैरह....! बच्चे गुस्से के कारण अक्सर उनसे चंदा नहीं लेते और फिर वे पटेल दद्दा ही गाँव-भर में कहते फिरते हैं-'भाई, दुर्गाजी बिठाली है तो मन में पाप नहीं होना चाहिये। सबसे प्रेम से बोलो। बड़े-बड़ातों का 'सनमान' करो। वो देखो मैंने चंदा देना चाहा, तो लेने ही नहीं आये ! ओ दुर्गा, मैया, तू देखना।'

हर साल ऐसा ही होता है।
एक मैया और तरह-तरह के लोग।
'कौन हैं ये?'
अंधा रतीलाल कहता है- भैया, ये भी मैया के रूप हैं। 'तुम तो सबका भला चेतो' और मैया की आरती करो 'दुनिया को काई'?
कम पैसे की दुर्गा जी, क्या करें चंदा ही इतना ज्यादा नहीं बटुरता...कि बड़ी वाली मैया, मंहगी वाली मैया ले आयें' तो जैसा चंदा, उस साइज की माता। मेरी नजर में, ये भोले भोले/ और दिनों के शरारती बच्चे/उनके समझदार बुजुर्गों से ज्यादा आदरणीय हैं। गाँव में किसी तरह ये मात्र नौ रोज के लिए सही, भारतीय संस्कृति की मंद होती 'जोत' तो हैं! क्षमा करें। गाँवों में बड़े-बड़ातों का अब कोई काम नहीं उनका काम बस, बच्चों, नौजवानों पर टीका टिप्पणी करना, गिरते हुए समय का रोना रोने का मजा लेना और कुछ भी खास और भला होता हो, तो उसकी आलोचना करके निरुत्साहित करना, जैसे दुनिया में सबसे बड़ा काम यही है कि कहीं कुछ न हो....

गाँव की दुर्गा मैया का दूसरा करुण पक्ष यह है कि पन्द्रह-सत्रह सालों से वे शहर की एक छोटी सी दुकान से आती हैं। एक ऐसी ब्राह्मणी विधवा की दुकान से, जो साल भर गोली-बिस्कुट बेचती है, सिलाई करती है और सीजन में गनपति जी, दुर्गाजी बेचती है। बाजार से पचास हजार रुपया कर्ज पर उठाती है और सीजन के बाद खुद जाकर चुका आती है। साहूकार और कर्जदार के बीच कोई लिखा पढ़ी नहीं। इतना अच्छा स्वभाव है कि एक-दो सराफ मात्र पाँच-पाँच सौ रुपये ब्याज पर उन्हें पच्चीस-पच्चीस हजार रुपये दे देते हैं....। एक जमाने में बहुत रईस थीं। मगर समय ने पलटा खाया, पति हार्ट अटेक में जाते रहे और घर पर दुःख की बिजली टूट पड़ी।

अजब होते हैं लोग जीवन में बहुत धोखा खाया पर अब भी इंसान पर ही भरोसा। जिस भगवान ने इतना कष्ट दिया, उसी की गहन भक्ति! बच्चे-बच्चियाँ शादी करने को पड़े हैं। कहती हैं-'चिंता है। पर हो जायेगा! इतने साल भी तो परमात्मा ने जिंदा रख दिया और भूखा नहीं सोने दिया।' बच्चों को जमाने में भी एक ही बात सिखाती है- झूठ मत बोलना। किसी का दिल मत दुखाना, अपने ईमान पर कायम रहना।
मैं हैरान। अजब है। आजकल झूठ, छल और खुशामदगिरी के बिना जिया नहीं जा सकता और ये हैं कि...
मैं प्रश्न उठाता हूँ।
वे कहती हैं-'नहीं, नहीं, मुझे भी यह सब दीखता है मगर धरम भलमनसाहत से भला ही होता है, यह बात और है। रहा दुःख कष्ट, तो वह सीखने, मन माँजने और विनम्र बनाने की चीज है, इससे आगे चलकर भला अवश्य होता होगा।'
मैंने कहा-'प्रमाण?'
वे कहती हैं-'आस्था का प्रमाण नहीं होता।'
यह बात उन्होंने शांत होकर इतनी सख्त और सौम्य फुसफुसाहट के साथ कही कि आगे मुझे अपना प्रतिवाद व्यर्थ का शोर लगने लगा।

सोचता हूँ, अंधविश्वास और आस्था में बहुत अंतर है। अंधविश्वास सुरक्षा चाहता है। मगर आस्था पहले ही सुरक्षितता को लेकर आश्वस्त होती है। वह तर्क नहीं करती, कुतर्क नहीं करती, अतितर्क नहीं करती, बल्कि भाषा को ही फलाँग चुकी होती है, जिसमें सारे तर्क, कुतर्क ओर अतितर्क की स्थिति है। कई बार अनदिखते ईश्वर की अनसुनी वाणी होती है जो इंसान के मन की बाँसुरी से उसके कान में बोलती है।
"कुल मिलाकर सब ठीक ही होगा"-ऐसा कोई यूँ ही कैसे बोल सकता है?
बच्चे उन्हीं माताराम की दुकान से मूर्ति लाते हैं। चिबिल्ला हरिप्रसाद कहता है-"दादाजी, सस्ती मूर्ति तो 'गंज जिगो' (कई जगहों) मिल जायेगी। पर जाने क्यों उन 'ब्रह्मन्नी माय' के यहाँ से ही मूर्ति लाना अच्छा लगता है। पाँच पचास कम पड़े तो कहती हैं- बाद में दे जाना। और हमें देने जाना पड़ता है।"

ये हैं गाँव-कस्बे के छोटे-छोटे लोग! बहुत पढ़े और घूमें नहीं हैं, मगर काम की स्थायी बात पकड़े हुए हैं। ये लड़के, जो शरारती हैं, छिपकर गाँजा-दारू का सेवन करते हैं, चोरी से घर का दाना बेचते हैं। पर जाने किस प्रेरणा से यहाँ दुर्गाजी बिठाते हैं। उपवास करते हैं, किराये से पंडित बुला लेते हैं और सबको प्रसाद बाँटकर बाद में खुद ग्रहण करते हैं। क्या यह सारा धार्मिक आयोजन नौ दिनों तक मन बहलाव करने के लिये हैं, जैसे वे आये दिन खो-खो, कबड्डी खेलते हैं या इनमें भगवान उतर आता है-नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। मगर प्राचीन भारतीय संस्कृति का असर जरूर है। जाने कब से, चलते-फिरते, जाने अनजाने, देवी-देवताओं के बारे में सुनते आये हैं, सो उसी की भूली-बिसरी या चटक याद है। नये जमाने ने इन्हें लाख बिगाड़ दिया हो। पर देश की संस्कृति की पावन याद इनमें इतनी गहरी बैठी हुई है कि भारत इनमें मर नहीं पाया और इसी तरह से सदियों दर सदियों जिंदा रहता चला आया है। संस्कृति इसी तरह लोक में बचती है और लोक को बचाती है। वो पटेल साहब जो इन बच्चों को चंदा देने से मुकरते हैं, वे भी बेधड़क रात की आरती में शामिल हो जाते हैं और बगैर झेंपे-शरमाये, सचमुच बड़ी श्रद्धा से, आरती गाते हैं। ताली बजाते रहते हैं। यह सब क्या है? एक तरफ कनमटेरी और एक तरफ सचमुच मैया के भजन में लग जाना ।

यही भारत है, यही पुरखों की देन है। अखंडित व्यापक लोक संस्कृति का असर है। भूल-भालकर ऐनवक्त पर एक हो जाना-यही भारत है, आतंकवाद बम पटक सकता है। पर भारत की आत्मा को कभी नहीं मिटा सकता। याद आता है, जब भारत-पाक युद्ध बंद हो गया था और कागज पर दस्तखत हो चुके थे, तब इन्हीं भारतीय सैनिकों ने पाक सैनिकों को गले लगाकर बिदा किया था उन्होंने पाकिस्तान में जाकर कहा कि हम सब भूल सकते हैं पर हिन्दुओं की फराखदिली को नहीं भूल सकते। यह इस देश की संस्कृति का असर था। देवी देवता, पूजा-पाठ, व्रत त्यौहार, होली-दीवाली, मेले-ठोले, भजन-जस, लोकगीत केवल आयोजन नहीं हैं। प्रेम-मोहब्बत का पैगाम हैं। 'आओ, खुशी मनाएँ और सब कुछ भूल जायें' यही इस संस्कृति का प्राणस्वर है। आदमी मरता है पर लोक, दिल, परंपराएँ और उन परंपराओं का प्राण रस कभी नहीं मरता। उसी के दम पर एक विधवा ब्राह्मणी कह जाती है-'अच्छा किया है तो अच्छा ही होगा। बस धीरज रखो।' कोई प्रमाण नहीं। कोई आश्वासन नहीं अनुभव सब उल्टे ही उल्टे। किन्तु सकारात्मक आस्था है कि बुलंदी से अपनी जगह कायम है। क्या मरेगा ऐसा भारत, जिसे ऋषि, मुनि, वेद-पुराण और गीता-भागवत पुरखे खड़ा कर गये भारत दोगला है, साहब! नहीं, नहीं भारत शांतिप्रिय, उदार और सदाशयी भी है। बढ़ाओ दोस्ती का हाथ, हम दस कदम आगे।

गाँव के साधनहीन, बिटमाये और उपेक्षित बच्चों-किशोरों की यह छोटी सी, सहमी, सकुचाई दुर्गा माता! इन बच्चों का कोई नहीं, इस माता का कोई नहीं। चंदा भी ज्यादा करके गरीब लोगों और मजदूरों ने दिया है, बड़ों के घर में अनाज भरे पड़े हैं। मगर, इस आयोजन के साथ, कोई विधायक या सांसद तो है नहीं कि इफरात में दाना-पैसा आ जाये। बच्चे आयोजन कर रहे हैं तो यह मजाक सा ही है। दे दियो, दे दिया, नहीं तो ना ना करके थोड़ा ज्यादा देकर टरका दिया। हर साल ऐसा लगता है कि मैया अबकी नहीं बैठेगी पर, लो, बैठ ही जाती है और इसी तरह न बैठते-बैठते बैठने के इतने साल गुजर गये। सब मैया जी की किरपा ही है, चाहें तो हजारों साल बैठने का यह सिलसिला नहीं रुकेगा। पर वाह री मैया रुलाती भी खूब हो 'दुर्गा मैया की॰ ॰ और फिर गगनभेदी स्वर-'जय'।

चंदा कम आता है। सो बच्चे जिस तिससे एक एक टिन माँगकर आड़ करते हैं। किसी से तखत माँग लाते हैं। भाभी, बुआ, मामी, मौसी से साड़ियाँ माँग लाते हैं और मंडप सजा देते हैं। इस साल रमरजिया ने साड़ी नहीं दी। बोली-नासपीटो पिछले साल मेरी साड़ी जला दी थी। इस साल हरगिज नहीं दूँगी। और फिर दिल भर आया तो दूसरे रोज पटक गई और मैया के हाथ जोड़ती गयी। 'क्या करूँ, मैया, हम गरीब हैं। बुरा मत मानना। और जाते-जाते बच्चों को फटकार गई-खबरदार, इस साल मेरी साड़ी बरबाद हुई, तो अगले साल अँगना में पैर भी नहीं धरने देऊँगी और हाँ, मेरा नाती आये तो ढंग से चन्नामृत देना। ये नहीं कि उसको एक चम्मच और खुद कटोरी भरकर पी रहे हैं।' बच्चों की आँखे डबडबाई हैं। आखिर काकी ने मदद कर ही दी। अरे बड़ी सरधालु हैं रे पोरयाहुन (बच्चे लोगों) ऐसी एक हजार साड़ी जल जाये, तो मन्ना नहीं करेगी। बस मुँह की भड़भड़ी है।

मगर पूजा पर कौन बैठे? उपवास कौन करे? तो हर साल भंगड़ यादव ही बैठता है। वही भंगड़ यादव, जो चटोरा है और गुड़ चुराकर खाता है। खुराकी इतना कि पंगत में बैठे, तो तीन मनई की खुराक पट्ठा अकेला खा जाये। गाँव में कथा-भागवत हो और किसी के जूते-चप्पल चोरी चले जायें-यहाँ तक कि पंडित जी के भी । तो सब फुसफुसाकर कह देते हैं- वही भंगड़वा ले गया होगा। इधर 'भंगड़वा' का यह हाल है कि कोठी भर जूते-चप्पल चुराकर घर में रखा होयगा। मुदा नंगे पाँव ही ज्यादा चलता है। असल में वह चोरी करता ही नहीं। बात यह है कि बचपन में माँ मर गयी और सौतेली माँ भूखा मार मारकर सताती रही है, तो मन की भूख को इस तरह जूता-चप्पल चुराकर शांत करता है....वही चटोरा और भुक्खड़ भंगड़ हर नौरात में पूजा पर बैठता है और वही उपवास भी साध लेता है। इन दिनों वह जूता-चप्पल नहीं चुराता। गोरा-नाटा, मुस्टंडा। बारह महीने नहाने से 'किचुवाने वाला' जब सुबह सुबह नहाकर, सफेद धोती काँधे पर डालकर, पूजा करने बैठता है, तो एकदम बनारस के पंडित जैसा नजर आता है। बाहर का मनई तो उसको एकदम बामन समझ ले। पंडित कहता है-भंगड़ जी आचमन कीजिये और यह दुर्गा भक्त बड़ी नफासत से आचमन करता है। मैया को सिराने के तुरंत बाद घाट पर से ही किसी का जूता अंटा लायेगा।

दुर्गा जी रामसुमेर के टप के पास, नीम के झाड़ के नीचे बैठती है। टप पर गुटखा बिकता है। पर इन दिनों बच्चे गुटखा नहीं खाते, गाँजा-दारू भी बंद है, क्योंकि गाँजा-दारू पीने वाले ही तो इस वक्त बैलंटर (बालंटियर) हैं। सब रात में मैया के मंडप के आसपास सो जाते हैं। किसी ने बताया न जाने कैसे जानते हैं कि मैया को अकेले नहीं रहने देना चाहिये। भैंसासुर मर्दिनी की ये रात भर रक्षा करते हैं। रक्षा क्या? बस अकेली न रहे। कैसा तो लगता है...

नौरात के ये नौ रोज। मोहल्ला जगमग जगमग। बिजली चली जाये, तो पेट्रोमेक्स जलते हैं। मैया अँधेरे में नहीं रह सकती। देवी के पास उजियारा रहना चाहिये। बेजान मूर्ति है तो क्या हुआ। अँधेरा रहे तो 'दोख' (दोष) लगता है। यह सब किसने बताया? किसी ने नहीं। बस मन ही मन। मंतक ही मंतक....आगे अजब यह कि ये शोर रात बारह-एक बजे बाद (मिट्टी की) मैया को सुलाकर, खुद बारी-बारी से जगते हैं और मैया को अकेली नहीं रहने देते उनके लिए मैया मिट्टी की निर्जीव मूर्ति नहीं है जाग्रत है। जीवंत है। यह सोच शायद इस परंपरावादी 'कनसुनी' से आया कि सारा चराचर चेतन है। मिट्टी-कचरा भी जागते हैं। नहीं, नहीं मैया को सोती छोड़कर तुम भी मत सो जाओ। जागते रहो। किसी की कभी जाग चूकने से ही फैला होगा ऐसा प्रचार, ये बच्चे हजारों साल पुराने हैं।

आरती-परसादी के बाद गाँव की स्त्रियों की ओर से मैया के जस गाये जाते हैं। तब तक रात के दस-साढ़े दस बज चुकते हैं। ये 'जस' माइक्रोफोन में गाये जाते हैं और नीम तथा पीपल पर दो विपरीत दिशाओं में बँधे ध्वनि-विस्तारक यंत्र इन भजनों को गाँव में तथा आसपास के गाँवों में फैलाते हैं। ढोलक के सिवा इन के पास कोई वाद्य नहीं। मगर ताल-ठप्पे ऐसे सटीक आते हैं कि सुनने में आनंद आता है।

आज भी वही एक रात। वही ठंडक। गाँव से लगा हुआ जंगल। उत्सव की रोशनाई से आलोकित आसपास के वृक्ष और फिर दूर जंगल के वृक्ष सघन अंधकार में डूबे हुए। मैं जिस खले (खलिहार) में रहता हूँ, वहाँ प्रकाश और अँधेरा मिल जाते हैं और मैं इसी संधि-भूमि से ओटले पर चलते मैया के भजन सुनता रहता हूँ। ओटले और सघन प्रकाश में कभी नहीं जाता। अँधेरे में गायन सुनना भला लगता है। इससे गायन के शब्दार्थों का भाव और भी स्पष्ट होकर आत्मा में चमकता है और गाने वाले के लय, ताल और मुरकियों पर, बल्कि गायन के रेशे-रेशे पर गहराई से ध्यान जाता है, इतना ही नहीं, गाने वाले की शख्सियत, मिजाज और चेहरे को लेकर निजी कल्पनाएँ बनती हैं और कभी-कभी किसी गाने से प्रभावित होता हूँ, तो खले से चलकर स्टेज की रोशनी में उसका चेहरा भी देख आता हूँ। ऐसा-ऐसा गाता है, तो चेहरा ऐसा होना चाहिये। मगर जाकर देखिए तो चेहरा कुछ और तरह का होता है। कल्पना द्वारा ठगे जाने और यथार्थ द्वारा मोह भंगित होने का जो खटमिठा सुख होता है, उसका आलम ही अलग है।

मैं खले में बूँच की खटिया पर लेटा एक जस सुन रहा हूँ। गायन को गहराई से सुन सकूँ, इसलिये उजाले के विरुद्ध पीठ कर रखी है और अँधेरे में डूबी बागुड़ को घूरता हुआ गाना सुन रहा हूँ। कोरस में गाती ग्राम्याएँ। ठपक-ठपक चलती ढोलक। अंतरों के बाद होता ताल परिवर्तन और मुखड़े पर लौटती आवाज! एक-एक ध्वनि-चित्र कान की आँखों को साफ नजर आ रहा है वह औरत, जो मुख्य गायिका के बतौर, इस गीत को गा रही है, सहज आवाज में बदल चुकी है, बदन उसका जैसे रहा नहीं। इस, करुणा में डूबा, शुन्य ही गा रहा है। एक अजब सी बिलख गाँव के सन्नाटे को निगल चुकी है। आकाश में फैले अँधेरे के पटल पर एक-एक शब्द चमकते अक्षर सा 'एम्बास' होता हुआ मन की नजर के सामने उठ रहा है। वह स्त्री जो इस 'जस' को गा रही है, अर्से तक बाँझ रही है। विवाह के दस साल बाद उसने संतान का मुख देखा....।

परिवार की ताना-मसली से घायल होकर, कभी स्वप्रेरणा से, उसने एक गीत लिखा था और उसे ही गाते हुए वह आँसू बहाया करती थी। जीवन में उसने कभी कुछ नहीं लिखा। लिखा तो बस यही एक गीत कहती है- 'मैया के इसी एक गीत ने उसकी कोख हरी की।' इस वक्त वह अपने इस अकेले गीत को, प्रथम और अंतिम गीत को, गा रही है, सुना तो बहुत है मैंने गीत-संगीत। मगर ऐसी करुणधुन का गीत कभी नहीं। यह औरत, जिसने बेगम अख्तर का नाम भी नहीं सुना होगा, आज उनसे भी बढ़कर एक दर्दीली चीज गा रही है।

वह गा रही है-
मैया के भवन एक सुंदर नारी, अँसुवन भीगे गुलसाड़ी हो माय
घर के ससुर मोहे बाँझ कहत हैं, बाँझ को नाव मिटा दो माय
देव देव ललना, झुलायदेव पलना, बँझुलिया को नाव मिटे हो माय।।। मैया के...।।
घर के जेठ मोहे बाँझ कहत हैं, बाँझ को नाव मिटा दो माय
देव देव ललना, झुलायदेव पलना, सूखी ये कोख हरयाय देव माय।। मैया के भवन...।।
(और एक लोक नारी की कलम दवात से सहज उपजा यह गीत क्रमवार, सास, ननद और कुएँ पर पानी भरती अन्य ग्राम नारी का जिक्र करता जाता है और स्थायी में एक ही बात को दुहराता है-'बाँझ को नाव मिटा दो माय।' और हद तो तब है, जब उसके पति भी उसे ताना मारते हैं। मगर, देखिये, गाने में वह पति के लिए 'राजा' शब्द इस्तेमाल करती है। वाह रे भारतीय नारी! तुम लाख मुझे बाँझ कहो। मेरा सीना छलनी करो। मगर केरे लिए तुम मेरे राजा हो। यही तो हम सदियों से सीखती आई हैं।)

भगवती बाई दुनगे, ग्राम-पलासनेर, तहसील व जिला हरदा (मध्यप्रदेश) इस गीत की लेखिका, आगे गाती है-
घर के राजा मोहे बाँझ कहत हैं, बाँझ को नाव मिटा दो माय
देव देव ललना, झुलायदेव पलना, अँसुवन भीगे गुलसाड़ी हो माय
देव देव ललना....
(गुलसाड़ी का मतलब होता है- 'फूलों की छापवाली साड़ी।' देवी मैया के भवन में एक सुन्दर नारी आई है। फूलों के चित्रों से छपी उसकी साड़ी आँसुओं से भीग गयी है। मैया, एक बच्चा दे दो और घर का सूना पलना हिला दो, बस उस कलंक को मिटा दो, जिसे सुहागिन का बाँझ होना कहते हैं।)

 

३० सितंबर २०१३

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