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दुर्गा पूजा का सांस्कृतिक विश्लेषण
देव प्रकाश
दुर्गा पूजा का पर्व भारतीय सांस्कृतिक पर्वों में
सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है। लगभग दशहरा, दीवाली और होली
की तरह इसमें उत्सव धार्मिकता का पुट आज सबसे ज़्यादा
है। बंगाल के बारे में कहा जाता है कि बंगाल जो आज
सोचता है, कल पूरा देश उसे स्वीकार करता है। बंगाल के
नवजागरण को इसी परिप्रेक्ष्य में इतिहासकार देखते हैं।
यानि उन्नीसवीं शताब्दी की भारतीय आधुनिकता के बारे
में भी यही बात कही जाती है कि बंगाल से ही आधुनिकता
की पहली लहर का उन्मेष हुआ।
स्वतंत्रता का मूल्य बंगाल से ही विकसित हुआ। सामाजिक
सुधार, स्वराज्य आंदोलन, भारतीय समाज और साहित्य में
आधुनिकता और प्रगतिशील मूल्य बंगाल से ही विकसित हुए
और कालांतर में पूरे देश में इसका प्रचार-प्रसार हुआ।
नवजागरण
का प्रयोग दुर्गा पूजा
संयोग से दुर्गा पूजा पर्व की ऐतिहासिकता बंगाल से ही
जुड़ी है। आज पूरा देश इसे धूमधाम से मनाता है। दुर्गा
पूजा की परंपरा का सूत्रपात यदि बंगाल से हुआ है तो
इसका बंगाल के नवजागरण से क्या रिश्ता है? क्योंकि
नवजागरण तो आधुनिक आंदोलन की चेतना है, जबकि दुर्गा
पूजा ठीक उलट परंपरा का हिस्सा है। पर ग़ौर करने की
बात है कि बंगाल दुर्गा पूजा को परंपरा की चीज़ मानकर
उसे पिछड़ा या आधुनिकता का निषेध नहीं मानता है। बल्कि
दुर्गा पूजा की लोकप्रियता को देखकर आज लगता है, यह भी
बंगाल के नवजागरण का एक बहुमूल्य हिस्सा है। बंगाल के
आधुनिक जीवन में दुर्गा पूजा की परंपरा का चलन दरअसल
आधुनिकता में परंपरा का एक बेहतर प्रयोग है। सूक्ष्म
दृष्टि से देखा जाए को परंपरा में प्रयोग की आधुनिकता
है।
यह
पाखंड नहीं
बंगाल में आज जो दुर्गा पूजा है वह अपने ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य में 'शक्ति पूजा' नाम से प्रचलित है,
जैसे महाराष्ट्र के नवजागरण में लोकमान्य तिलक द्वारा
प्रतिष्ठित गणेशोत्सव का पर्व और बीसवीं शताब्दी में
प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा
चित्रकूट में रामायण मेला की स्थापना। देखा जाए तो
तिलक और लोहिया भारतीय स्वराज्य और समाज के प्रखर
प्रहरी थे। भारतीय आधुनिकता के विकास के ये दोनों
प्रखर प्रवक्ता थे, लेकिन सांस्कृतिक स्तर पर ये दोनों
कहीं गहरे स्तर पर पारंपारिक भी थे। तिलक द्वारा
प्रतिष्ठापित 'गणेशोत्सव' और उत्तर भारत में लोहिया
द्वारा 'रामायण मेला' का शुभारंभ परंपरा में आधुनिकता
की खोज के दुर्लभ उदाहरण हैं।
दुर्गा पूजा बंगाल में आज भी शक्ति पूजा के रूप में
प्रचलित है। अगर उसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य पर विचार करें तो आपको कई दिलचस्प परिणाम
दिखाई पड़ेंगे। पहला परिणाम तो यह निकलता है कि बंगाल
की सांस्कृतिक जड़ें अत्यंत गहरी और अपनी आस्थाओं के
प्रति बेहद सचेत भी हैं। बंगाल एक छोर पर बेहद आधुनिक
है तो दूसरे छोर पर अत्यंत पारंपारिक अपनी सांस्कृतिक
चेतना की विरासत के प्रति सचेत है। बंगाल में शक्ति
पूजा का प्रचलन आदिकाल से चला आ रहा है। शक्ति पूजा की
प्रतीक देवी अपने चमचमाते खड्गशस्त्र से महिषासुर का
संहार कर महिषासुरमर्दिनी कहलाई। त्रिमंग देवी दुर्गा
शक्ति की अधिष्ठाती है। उनके साथ पद्महस्ता लक्ष्मी,
वाणी पाणि सरस्वती, मूषक वाहन गणेश और मयूर वाहक
कार्तिकेय विराजमान हैं।
ये
जितनी मूर्तियाँ हैं, सब हमारे जीवन में सामाजिक न्याय
की प्रतीक हैं। महिषासुर यदि अन्याय, अत्याचार औऱ
पापाचार का प्रतीक है तो दुर्गा शक्ति, न्याय और हर
अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार की प्रतीक है। उसकी आँखों
में सिर्फ़ करुणा और दया के आँसू ही नहीं बहते, बल्कि
क्रोध के स्फुलिंग भी छिटकते हैं। यह आकस्मिक नहीं है
कि सन १९७१ में भारत-पाक युद्ध के दौरान तत्कालीन
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अचूक राजनीतिक
बुद्धिमत्ता को देखकर अटल बिहारी वायपेयी ने उन्हें
दूसरी दुर्गा कहा था। यह 'दुर्गा' कोई सांस्कृतिक मिथ
नहीं, बल्कि हर औरत के भीतर अन्याय के विरुद्ध
प्रतिकार का एक धधकता लावा है। भारतीय स्त्री की छवि
में एक ओर देवदासी का असहाय चेहरा कौंधता है तो दूसरी
तरफ़ उसकी आँखों में दुर्गा का शक्तिशाली तेवर भी
चमकता है। दुर्गा जैसी महास्त्री जिसे हमारे लोक जीवन
और सांस्कृतिक जीवन में 'देवी' कहा जाता है, दरअसल
अन्याय के विरुद्ध एक सार्थक हस्तक्षेप का प्रतीक है।
दुर्गा के सान्निध्य में आसन ग्रहण करती हुई देवियाँ
लक्ष्मी, सरस्वती, धन और विद्या की प्रतीक हैं। गणेश
हमेशा से विघ्न का विनाश करनेवाले एक शुभ देवता हैं,
जबकि कार्तिकेय जीवन में विनय और सृजन के प्रतीक हैं।
इनकी उपस्थिति से ही सामाजिक सृजन संभव है।
स्त्री
के स्वाभिमान की पूजा
दुर्गा पूजा सिर्फ़ मिथ की पूजा नहीं, बल्कि स्त्री की
ताक़त, सामर्थ्य और उसके स्वाभिमान की एक सार्वजनिक
'पूजा' है। क्या विडंबना है कि आज दुर्गा पूजा,
दुर्गाशप्तशती, दुर्गा स्त्रोत का पाठ उन धर्मभीरू
घरों में ज़्यादा किया जाता है, जिन घरों में आज
स्त्रियाँ ज़्यादा डरी और असुरक्षित हैं। वहाँ पुरुषों
के रूप में महिषासुर रोज़ उनका मर्दन करता है। उन पर
अत्याचार, ताड़ना और यातना के कोड़े बरसाता है। इस
कारण हमारे समाज में आज दुर्गा के चेहरे कम दिखते हैं।
देव-दासियों के ही असंख्य कातर चेहरे ज़्यादा दिखते
हैं। ऐसे घरों में रोज़ दुर्गा पूजा नहीं, बल्कि पुरुष
पूजा का अनुष्ठान संपन्न होता है। समाज और हमारे
पारिवारिक जीवन में बढ़ती यह प्रवृत्ति दुर्गा पूजा का
उपहास नहीं तो और क्या है? आज दुर्गा पूजा के
निहितार्थ को समझने की आवश्यकता है।
मूर्ति
निर्माण का परंपरा
दुर्गा पूजा के इतिहास पर ग़ौर करें। बंगाल में दुर्गा
पूजा कब से शुरू हुई, इस पर इतिहास के विद्वानों के
अनेक मत हैं, फिर भी इस तथ्य से लोकमानस और विद्वान एक
मत हैं कि सन १७९० में पहली बार कलकत्ता के पास हुगली
के बारह ब्राह्मणों ने दुर्गा पूजा के सामूहिक
अनुष्ठान की शुरुआत की। इतिहासकारों का मानना है कि
बंगाल में दुर्गोत्सव पर मूर्ति निर्माण की परंपरा की
शुरुआत ग्यारहवीं शताब्दी में शुरू हुई थी। आज बंगाल
सहित पूरे देश में सांस्कृतिक वैभव के इस पर्व को
जनजीवन में प्रतिष्ठान करने का श्रेय सन १५८३ ई. में
ताहिरपुर (बंगाल) के महाराजा कंस नारायण को दिया जाता
है। कहा जाता है कि वह दुर्गा पूजा के इतिहास की पहली
विशाल पूजा थी।
पहले
की दुर्गा पूजा में सिर्फ़ मूर्ति के रूप में दुर्गा
महिषासुर का वध करती नहीं दीखती थी, बल्कि पूजा की
आखिरी पेशकश पशु वध के रूप में प्रकट होती थी। अकसर
भैसों का वध करके महिषासुर के प्रतीक का संहार किया
जाता था लेकिन वाह्य रायवंश में पैदा हुए शिवायन के
प्रणेता कवि रामकृष्ण राय ने इस हिंसक प्रथा को
प्रतिबंधित कर दिया। फलतः आज दुर्गा पूजा मूर्ति पूजा
का एक प्रतीक है,पर दुर्गा पूजा अब धीरे-धीरे धन
कुबेरों के शक्ति वर्चस्व का प्रतीक भी बन गया है। यह
इस सांस्कृतिक पर्व के मिथ के सौंदर्य बोध और जीवन
दृष्टि को तोड़नेवाला साबित हो रहा है। आज हमारे लोक
जीवन में दुर्गा की पूजा करने में लोगों का यकीन उतना
नहीं रह गया है, जितना उसकी झाँकी देखने में है।
दुर्गा की प्रतिमाएँ कलात्मक प्रतिमान हैं, स्त्री
सौंदर्य का प्रदर्शन नहीं है। यदि हुसैन जैसे चित्रकार
दुर्गा की प्रतिमा के बहाने स्त्री अंगों की वकालत
करते हैं तो यह उनकी कला का चरम व्यावसायिकता और
स्त्री की छवि के विरुद्ध एक सार्वजनिक उपहास है।
दुर्गा एक सुंदर स्त्री भी है, जिनके पास पुष्ट उन्नत
उरोज़, विशाल जंघाएँ और एक जोड़ी तेजस्वी आँखें भी
हैं। इनमें काजल नहीं अत्याचार के विरुद्ध खिंची
भौंहें हैं। उनके पास असाधारण पौरुषवाले चार शक्तिशाली
हाथ भी हैं।
शोषण
रहित समाज के लिए
दुर्गा पूजा मनाने का सही मतलब तो यही है कि समाज में
स्त्री को लेकर किसी तरह के दिखावे, छलावे और शोषण के
लिए लोक मानस में स्थान नहीं होना चाहिए।
दुर्भाग्य है कि बंगाल से शुरू हुई दुर्गा पूजा आज
बीसवीं शताब्दी के भारत में धार्मिक पुनरुत्थान का एक
अमोघ अस्त्र बन गई है। जबकि बंगाल के आरंभिक संस्कृति
कर्मियों का उद्देश्य यह कतई नहीं था। आज दुर्गा
पूजा-जैसे पर्वों को धार्मिक लोकाचार, कर्मकांड और
किसी भी तरह के धार्मिक छलावे से बचाने की ज़रूरत है।
तभी इस पर्व की सांस्कृतिक गरिमा की विरासत को हम समाज
और जनमानस में सुरक्षित रख सकते हैं।
आज
हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन में महिषासुरी
शक्तियाँ दिन-प्रतिदिन हिंसक और खूँख्वार प्रवृत्तियों
का रूप धारण कर चुकी हैं। समाज में दुर्गाओं का दहन
रोज़ हो रहा है। यह सिर्फ़ इसलिए हो रहा है कि हमारे
समाज में दुर्गा का आदर नहीं है। उसकी वास्तविक शक्ति
का हमें आभास नहीं है। हमारे मिथ में दुर्गा की इस
महाशक्ति का आभास राम को था।
उन्होंने रावण से युद्ध करने के पहले दुर्गा की पूजा
की थी। आज के रामों में शक्ति पूजा की उस शक्ति और
संघर्ष की क्षमता का अभाव है। इसलिए आज का मनुष्य
बार-बार जीवन क्षेत्र में पराजित हो रहा है। इस पराजय
से बचने का एक ही रास्ता है, वह है राम की तरह असाधारण
शक्ति का भंडार अपने अंदर पैदा करना। तब ही भीतर की
दुर्गा प्रसन्न हो सकती हैं। जिस दिन आस्था पैदा होगी,
उस दिन जय होगी।
'दुर्गा पूजा' पर्व हमारे सामने हर साल एक नई चुनौती
के रूप में आता है। प्रश्न उससे प्रेरणा लेने का है।
मात्र पूजा की झाँकी देखने का नहीं। |