इस सप्ताह-
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अनुभूति में-
नितिन जैन,
सुधीर तिवारी, हेमंत कुकरेती, डॉ. परमेश्वर गोयल
’काका बिहारी‘, पराशर गौड़ की रचनाएँ एवं खबरदार कविता। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- सर्दी का मौसम थोड़ा ही बचा है। इस मौसम के लिये
तिल के व्यंजनों की विशेष शृंखला में शुचि प्रस्तुत
कर रही हैं- तिल के
लड्डू। |
रूप-पुराना-रंग
नया-
शौक से खरीदी गई सुंदर चीजें पुरानी हो जाने पर,
फिर से सहेजें रूप बदलकर-
पुराने ट्रैम्पोलिन का
टेन्ट। |
सुनो कहानी- छोटे
बच्चों के लिये विशेष रूप से लिखी गई छोटी कहानियों के साप्ताहिक स्तंभ में
इस बार प्रस्तुत है कहानी-
तितलियाँ। |
- रचना और मनोरंजन में |
साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक
समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये
यहाँ देखें |
नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला- २५ की रचनाओं का प्रकाशन
पूरा हो गया है। नई कार्यशाला की तिथि और विषय निश्चित होने पर
सूचित करेंगे।
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लोकप्रिय कहानियों के अंतर्गत-
प्रस्तुत है पुराने अंकों से इंदु
लता महान्ति की उड़िया कहानी का, सुजाता शिवेन द्वारा
हिंदी रूपांतर-
सुरभित संपर्क।
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वर्ग पहेली-१२०
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से
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सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य
एवं
संस्कृति
में-
वसंत पंचमी के
अवसर पर |
वरिष्ठ कथाकारों की
प्रसिद्ध कहानियों के स्तंभ गौरवगाथा में कृष्णा सोबती की कहानी-
दादी अम्मा
बहार फिर आ
गई। वसन्त की हल्की हवाएँ पतझर के फीके ओठों को चुपके से चूम
गईं। जाड़े ने सिकुड़े-सिकुड़े पंख फड़फड़ाए और सर्दी दूर हो गई।
आँगन में पीपल के पेड़ पर नए पात खिल-खिल आए। परिवार के
हँसी-खुशी में तैरते दिन-रात मुस्कुरा उठे। भरा-भराया
घर। सँभली-सँवरी-सी सुन्दर सलोनी बहुएँ। चंचलता से खिलखिलाती
बेटियाँ। मजबूत बाँहोंवाले युवा बेटे। घर की मालकिन मेहराँ
अपने हरे-भरे परिवार को देखती है और सुख में भीग जाती हैं यह
पाँचों बच्चे उसकी उमर-भर
की कमाई हैं। उसे वे दिन नहीं भूलते जब ब्याह के बाद छह वर्षों
तक उसकी गोद नहीं भरी थी। उठते-बैठते सास की गंभीर कठोर दृष्टि
उसकी समूची देह को टटोल जाती। रात को तकिए पर सिर डाले-डाले वह
सोचती कि पति के प्यार की छाया में लिपटे-लिपटे भी उसमें कुछ
व्यर्थ हो गया है, असमर्थ हो गया है। कभी सकुचाती-सी ससुर के
पास से निकलती तो लगता कि इस घर की देहरी पर पहली बार पाँव
रखने पर जो आशीष उसे मिली थी, वह उसे सार्थक नहीं कर पाई।
आगे-
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हरिशंकर परसाईं का व्यंग्य
घायल वसंत
*
शुकदेव श्रोत्रिय का ललित निबंध
मौसम रंग और गंध
*
मिता दास का संस्मरण
सरस्वती पूजा के
वे सरस दिन
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पुनर्पाठ में महेन्द्र सिंह रंधावा
का आलेख ऋतुओं की झाँकी - वसंत
ऋतु
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पिछले
सप्ताह- |
१
कृष्ण नंदन मौर्य का व्यंग्य
भैंस खड़ी पगुराय
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कुमुद
शर्मा का आलेख
हिंदी एकांकी के
जन्मदाता डॉ. रामकुमार वर्मा
*
डॉ. अशोक उदयवाल से जानें
सर्दी की दुआ बथुआ
*
प्रभात कुमार से प्रकृति और पर्यावरण में
आपदाओं का धन जल
*
समकालीन कहानियों में संयुक्त अरब
इमारात से पूर्णिमा वर्मन की कहानी-
एक शहर जादू
जादू
यह
कहानी आज की नहीं है। बीस साल पहले की है। एक तो “बीस साल बाद”- इन शब्दों
में ही जादू है और फिर बीस साल का लंबा समय तो किसी भी कहानी को
तिलिस्मी बना सकता है। कहानी जब बीस साल पुरानी होती है, उसमें से एक नशा
उड़ना शुरू होता है, धुआँ धुआँ सा जैसे हुक्के का झीना बादल.. और हल्की नशीली
गुड़गुड़ाहट की ध्वनि में घुलती हुई मीठी-सी रूमानी गंध जो नथुने पार कर दिमाग की
नसों तक पहुँचती है। यह नशा सच से जादू की दुनिया में ले जाता है। वैसे भी
सच और जादू में दूरी ही कितनी होती है जादू में प्रवेश करने का माहौल होना
चाहिये... जो आपको हर तरफ से घेर ले उसको एकाग्र कर दे एक जादुई दुनिया
में विचरने के लिये। समय बदलता है तो परिवेश बदलते हैं और शहर भी बदल जाते
हैं। लेकिन कभी-कभी स्मृतियों के जादू में शहर सदा वैसे ही जिंदा रहते हैं जैसे
वे बीस साल पहले थे। यह कहानी भी ऐसे ही एक शहर की है।
...
आगे- |
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