बहार फिर आ
गई। वसन्त की हल्की हवाएँ पतझर के फीके ओठों को चुपके से चूम
गईं। जाड़े ने सिकुड़े-सिकुड़े पंख फड़फड़ाए और सर्दी दूर हो गई।
आँगन में पीपल के पेड़ पर नए पात खिल-खिल आए। परिवार के
हँसी-खुशी में तैरते दिन-रात मुस्कुरा उठे।
भरा-भराया
घर। सँभली-सँवरी-सी सुन्दर सलोनी बहुएँ। चंचलता से खिलखिलाती
बेटियाँ। मजबूत बाँहोंवाले युवा बेटे। घर की मालकिन मेहराँ
अपने हरे-भरे परिवार को देखती है और सुख में भीग जाती हैं यह
पाँचों बच्चे उसकी उमर-भर
की कमाई हैं।
उसे वे दिन नहीं भूलते जब ब्याह के बाद छह वर्षों तक उसकी गोद
नहीं भरी थी। उठते-बैठते सास की गंभीर कठोर दृष्टि उसकी समूची
देह को टटोल जाती। रात को तकिए पर सिर डाले-डाले वह सोचती कि
पति के प्यार की छाया में लिपटे-लिपटे भी उसमें कुछ व्यर्थ हो
गया है, असमर्थ हो गया है। कभी सकुचाती-सी ससुर के पास से
निकलती तो लगता कि इस घर की देहरी पर पहली बार पाँव रखने पर जो
आशीष उसे मिली थी, वह उसे सार्थक नहीं कर पाई। वह ससुर के
चरणों में झुकी थी और उन्होंने सिर पर हाथ रखकर कहा था,
”बहूरानी, फूलो-फलो।“ कभी दर्पण के सामने खड़ी-खड़ी वह बाँहें
फैलाकर देखती-क्या इन बाँहों में अपने उपजे किसी नन्हे-मुन्ने
को भर लेने की क्षमता नहीं! |