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मौसम
रंग और गंध
-शुकदेव श्रोत्रिय
दिल्ली आने के बाद
मौसम के छोटे-छोटे बदलाव स्मृतियों की परतों में रंगों
को और अधिक चटख कर देते हैं। बचपन में प्रकृति इतनी
पास थी कि वह जीवन में घुली-मिली थी, पर अलग से उसके
विषय में सोचा-विचारा नहीं जाता था।
वह सहज थी। घर में धूप रोज आती थी, गोरैया आंगन में
रोज फुदकती थी, मंदिर के विशाल पेड़ में छिपी कोयल रोज
कुहुकती थी। गंध का पहला अहसास बाबा से जुड़ा हुआ है।
वे तंबाकू खाते थे। जब उनकी गोद में बैठता तब तंबाकू
की गंध आती थी, लेकिन उनकी अंगुली पकड़े हुए जब
सवेर-सवेरे टहलने जाता था तब वहाँ एक मजार के सहारे
खड़े हरसिंगार के गिरे हुए फूलों को नन्हीं मुट्ठी में
दबा कर लाता, यह था सुगंध से मेरा पहला परिचय। तब नहीं
जानता था कि हरसिंगार के फूल तो फुहारों की तरह झरते
हैं। ऐसे ही झरने में अमलतास उससे कहीं आगे है।
मई के शुरू में यह पेड़ पीले-पीले फूलों से ऐसा लद जाता
है कि आसपास के पेड़ों का रंग ही उड़ जाता है। जब पीले
फूल धीरे-धीरे झरते हैं तो पृथ्वी हल्दी में नहाई हुई
नवेली दुल्हन हो जाती है। पीला कालीन बिछ जाता है। चटख
चिलचिलाती धूप में कुछ सड़कों के दोनों ओर दूर-दूर तक
शीतल पीले वितान के नीचे नीली बैंगनी छायाओं का
इंद्रजाल बन जाता है। इन्हीं दिनों नीम पर भी फूल आता
है। वातावरण में नीम की कड़वी गंध फैल जाती है, लेकिन
नीम के फूल झरते नहीं, हवा की लहरों के साथ दूर-दूर तक
तैरते चले जाते हैं। इतने हलके कि आपके बालों में अटक
जाएँ और आपको पता भी न लगे। पार्क के कोने में इनका
ढेर देखा तो अपने घर की कच्ची मिट्टी की छतों की यादें
साकार हो उठीं। इसी मौसम में आक (एक झाड़ी) का गुजिया
की आकृति का फल भी सूख कर फटता है, जिसमें से असंख्य
पतले-पतले बीज रेशमी बालों के सहारे हवा में बिखर जाते
हैं। ये न
झरते हैं न तैरते हैं, ये तो ऊँची-ऊँची उड़ान भरते हैं।
अभी यहाँ, तो अभी न जाने किस ओर। तितलियाँ तो फूलों पर
बैठते समय ही पकड़ में आतीं, मगर आक के इन बीजों को
उड़ते समय ही दौड़-दौड़ कर पकड़ने का मजा था, नहीं तो नीचे
घास में ये अटके हुए असंख्य मिल जाते थे। १९६४-६५ के
आसपास रेडियो पर बच्चन की आवाज में उनका एक लोकगीत
सुना था ‘महुआ के नीचे मोती झरें महुआ के’। मैंने महुए
के फूल नहीं देखे। कहते हैं कि उसके फूलों को झरते
देखना एक अलग ही अनुभव है। इन फूलों की गंध वातावरण
में मादकता भर देती है।
मौसमों का गंध से भी गहरा संबंध था। जब तपती धूल भरी
सड़कों पर मोटी-मोटी बूँदें गिरतीं तब उमस के साथ
मिट्टी की जो सुगंध वातावरण में तैर जाती, वह अब अतीत
की बात हो गई है। गरमियों में नीम के फूलों की और
बरसात में सड़ती हुई निबौलियों की गंध फैली रहती। होली
आती तो छतों पर गोबर की बरगुलियाँ बनाने की होड़ लग
जाती। तब गोबर में दुर्गंध नहीं आती थी। पान, सूर्य,
चंद्र, वृत्त, त्रिकोण आदि न जाने कौन-कौन-सी आकृतियाँ
गोबर से रची जातीं। रंग बनाने के लिए टेसू के फूलों
वाला गुलमोहर भी खिलता है। दूर-दूर तक फैली हुई
हरियाली के बीच आँख को अटका लेने वाला एक ही गुलमोहर
पर्याप्त होता है। शहरों में पलाश दिखाई नहीं देता
अन्यथा अमलतास, गुलमोहर और पलाश पर जब फूल लदते हैं तो
पत्तियाँ यदा-कदा ही दिखाई देती हैं।
मुजफ्फरनगर के जिस कॉलेज से मैं सेवा निवृत्त हुआ था
वहाँ प्रमुख प्रांगण में एक पेड़ था, वह बैंगनी फूलों
से लदता था। चटख धूप में बैंगनी छतरी जैसे उस पेड़ के
नीचे गिरे हुए बैंगनी फूल बिछे रहते थे। तपती धूप में
शीतलता का वह शामियाना जैसा लगता था। यहाँ दिल्ली में
मेरे फ्लैट की खिड़की पर हवा के झोंकों के साथ दस्तक
देता हुआ अमलतास बुलावा देता है, आओ घर से निकलो और
मेरी पीली आभा में नहाओ।
११ फरवरी २०१३ |