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पर्व परिचय


सरस्वती पूजा के वे सरस दिन
-मीता दास


मेरा बचपन जबलपुर में बीता। मध्य प्रदेश की इस संस्कारधानी में तीज त्यौहार बड़े ही धूम-धाम से मनाए जाते हैं। हमारा परिवार चिटगाँव से छत्तीसगढ़ के गाँवों मे भटकता हुआ, अपनी संस्कृति के वियोग में लंबा समय काटकर यहाँ पहुँचा था, नगर के सुसंस्कृत वातावरण में हम रमने लगे। बंगालियों का यहाँ संगठित समाज था और सभी प्रांतों व धर्मों के लोग मिलजुलकर बंगालियों के पर्व मनाते थे। अपने उत्सवों और पर्वों के विषय में जो बातें हमने अपने माँ – बापी (पिता को हम प्यार से बापी कहते थे।) के मुख से सुनी थीं, और अपने परिवेश से दूर उनकी निगाहों में उभरते जिन सपनों को देखा था उन्हें यहाँ साक्षात् देखना उसमे शामिल होना एक अलग ही आनंद का अनुभव था।

हमारा परिवार भी बंगाल से दूर बंगाल को सीने में छुपाये सुख से भर उठा । माँ हमें हर पूजा का महत्व बतलातीं। क्या दुर्गा पूजा, क्या काली पूजा, क्या लक्ष्मी पूजा और क्या सरस्वती पूजा! हम बच्चे ज्ञान, विद्या और संगीत की देवी से सामना होते ही गद- गद हो उठते। मंडप में बसी पूजा की खुशबू हमें रोमांचित करती। मिलने जुलने और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आकर्षण तो था ही पर सरस्वती पूजा में बच्चों की ही साधना, पूजा, ध्यान श्लोक, पुष्पांजलि सभी कुछ रोमांचित करता था। माँ ने बताया की इस पूजा से बसंत ऋतु का आरंभ होता है। इसलिए इस पूजा में पीले वस्त्रों का विशेष महत्व है। तभी तो इसे बसंत पंचमी भी कहा जाता है। माँ सफेद चुन्नी या रूमाल को अबरक डालकर पीला रंग देतीं। हम सब बसंत पंचमी के दिन वह वस्त्र अवश्य पहनते या साथ में रखते।

जब मैंने पूजा पंडाल में पहुँचकर सरस्वती जी की सौम्य प्रतिमा को पहली बार देखा तो दंग रह गई। सौम्य शांत, शुभ्र वस्त्रों में सुशोभित माँ सरस्वती जी की प्रतिमा, श्वेत हंस पैरों के नीचे विराजमान। हाथों में वीणा और पुस्तक... मन्त्र मुग्ध दृष्टि हटती नहीं थी जैसे। वीणा की ओर आकर्षित देखकर माँ ने पूछा, बजाना सीखोगी?”
मैंने स्वीकारोक्ति में सर हिला दिया।
माँ ने कहा,
पहले गुरु ढूँढ लूँ फिर खरीद दूँगी।
मेरा मन प्रफुल्लित हो गया।

अपनी संस्कृति और परंपरा पर चलने का पहला पाठ ऐसे ही उत्सवों में ही तो सीखा जाता है। हम अपनी अपनी किताब कापियाँ हम माँ सरस्वती के चरणों में रखते और पुष्पांजलि की प्रतीक्षा करते। छोटे बच्चों की पढ़ाई इसी दिन शुरू की जाती। बच्चों को सरस्वती जी के सामने पुरोहित हाथ में खड़िया पकड़ा कर "हाथे खोड़ी" यानि विद्या प्रारंभ का आदेश देते। पुष्पांजलि का समय आ पहुँचता। हमें प्रतिमा से सामने अंजलि में फूल लेकर ध्यान से पुरोहित द्वारा उच्चारित मन्त्रों को दोहराना होता था। वे मंत्र जिसे सुनकर माँ सरस्वती से हमें विद्या का वरदान मिलता था। पुष्पांजलि प्रारंभ होती... पुजारी का सधा हुआ स्वर... स्पष्ट उच्चारण... श्रद्धा से भीगी भीड़ शब्दों को छोटे टुकड़ों की गंभीर ध्वनि में दोहराते हुए... अंजलि के फूलों को प्रतिमा की ओर समर्पित करते हुए... एक बार नहीं कई बार छोटे छोटे समूहों में यह प्रक्रिया दोहराई जाती। वे सभी जो अंजली दे चुकते, आरती की प्रतीक्षा में रुके रहते। आरती जिसमें सारा मंडप धूप की महक और धुएँ से गमक उठता। एक अविस्मरणीय अनिर्वचनीय दृश्य साल भर के लिये मन में बस जाता। सभी के स्वर आरती के साथ पंडाल में गूँजते ... विद्या दायिनी एशो माँ जननी, अमरो मनोसो कुंजे"... और फिर या कुन्देन्दु तुषार हार धवला "

फल, मिष्ठान्न और पूजा का विशेष प्रसाद। वितरण के समय हम पंक्ति में खड़े होते, अपने अपने दोने की प्रतीक्षा में... नारियल के लड्डू, फल, शंखालू, अमरूद और केले के टुकड़े, बेसन के सेव और बनारसी बेर। बनारसी बेर पूजा में पहली बार खाए जाते और उनका स्वाद निराला लगता। किसी को भी सरस्वती पूजा से पहले बेर खाने की अनुमति नहीं होती। कहते हैं की सरस्वती जी को बेर पसंद हैं इसलिए सबसे पहले उन्हें प्रसाद के रूप में चढाने के बाद ही बेर खाने चाहिये। हर घर में सारे बच्चे या बड़े इस नियम का कड़ाई से पालन करते। हमारे परिवार में भी यह इस नियम का पालन होता। जैसा स्वाद सरस्वती पूजा के प्रसाद में आता वैसा साल भर किसी भोजन में न आता। कुछ लोग प्रसाद तुरंत खा लेते कुछ घर ले जाते क्यों कि प्रसाद के बाद भोजन की व्यवस्था भी होती।

भोजन के लिये हम पंगत में दरियों पर बैठते। पत्तल, कुल्हड़, शकोरे बंटते और फिर शुरू होता पूजा के विशेष भोजन का क्रम- बंटा खिचड़ी, सब्जी, तालगुड़ की पायस, टमाटर और खजूर की मीठी चटनी और बैगन भाजा और लूची। सभी तृप्त होकर खाते और सामूहिक भोज का आनंद लेते। इसके बाद मिलने जुलने का क्रम शुरू होता। नए कपड़ों साड़ियों गहनों बच्चों की पढ़ाई, सिलाई बुनाई कढ़ाई के नमूनों और न जाने क्या क्या बातें देर तक चलतीं। हम बच्चे परिसर में लुकाछिपी या चोर पुलिस खेलते। खूब देर तक जब तक माँ आवाज देकर यह न कहतीं कि जाओ पुरोहित जी से अपनी- अपनी किताब कापियाँ जो देवि जी के चरणों में पूजा के लिए रखी थी एक - एक कर ले आओ।

ये तो था हमारी संस्कार धानी  जबलपुर के देवेन्द्र बंगाली क्लब की सरस्वती पूजा का दृश्य, पर लगभग सभी शहरों और सभी पंडालों पर सरस्वती पूजा का यही दृश्य होता है । सिटी बंगाली क्लब हो या व्हीकल फेक्ट्री की या खम्हरिया या हो टयूट लाइन  या वेस्टलैंड सभी जगह का माहौल भी एक और पूजा भी एक बस संस्कृतिक कार्यक्रम ही अलग होते। बच्चों से लेकर बूढ़े तक इसमें भाग लेते। जैसा तैसा कुछ भी प्रस्तुत नहीं कर दिया जाता। बाकायदा हर चीज का पूर्वाभ्यास होता। और एक महीना पहले से ही तमाम शामें इसमें लगा दी जाती थीं। चाहे नाटक हो या रवीन्द्र संगीत या फिर नृत्य, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का एक स्तर हुआ करता था। फिल्मी गानों की ओर रुझान नहीं था। उस समय ऐसे कार्यक्रमों फिल्मी गीत बजाना अच्छा नहीं समझा जाता था, जबतक कि वि स्तुति या भजन की श्रेणी में न आते हों।

 तब से तीस साल बीत गए हैं। अब मैं भिलाई में रहती हूँ, यहाँ भी सरस्वती पूजा होती है। कुछ दशकों पहले तक यहाँ भी पूजा में उस आस्था के दर्शन होते थे जैसी मेरे जबलपुर शहर की थी। लेकिन धीरे धीरे पढ़ाई का भूत अपने पैर पसारने लगा। अब पूजा में बच्चे दिखाई नहीं देते। वे या तो परीक्षा दे रहे होते हैं, या आने वाली परीक्षा की तैयारियों में लगे होते हैं या फिर किसी प्रतियोगिता की तैयारी कर रहे होते हैं। मंडप में भरमार दादा दादियों की ही होती है। आखिर बच्चे भी क्या करें ... उन्होंने अपने माता-पिता की इच्छा की खातिर सरस्वती से दोस्ती को भुला दिया । काश इसे पढ़कर कुछ माता-पिता अपने बच्चों और नाती-पोतों को वापस अपनी परंपरा, अपनी संस्कृति का ओर ला सकें, और उनका अपना बचपन लौटा  सकें।

११ फरवरी २०१३

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