हास्य व्यंग्य

भैंस खड़ी पगुराय
कृष्ण नंदन मौर्य


जीवन में एक समय ऐसा भी आया था, जब मेरे पास सोने के लिये चारपाई का अभाव हो गया। टूटी चारपाई के ढाँचे पर कुछ पल्ले रखकर मैने बरसात और जाड़े भर काम चलाया किन्तु गर्मियों में परेशानी बहुत बढ़ गई। अपने महान देश में चुनाव के दौरान नेताओं की तरह, बिजली भी, कभी–कभी ही अपना दुर्लभ दर्शन सुलभ कराती है और उसपर तुर्रा यह कि मुहल्ले का ट्रांसफार्मर जल गया। बिजली विभाग में शिकायतें कीं, कइयों के हाथ शिकायत–पत्र भिजवाये, कुछ दान–दक्षिणा भी दी, पर अपना सारा प्रयास सागर में नदियों की तरह, बिजलीघर के पाचनतंत्र में विलीन हो गया और मजबूरन मुझे अपनी इस नई परिपाटी की चारपाई को उखाड़–पुखाड़ कर घर की छत पर खुले में स्थापित करना पड़ा।

रात किसी की नजर उस चारपाई पर नहीं पड़ी। सुबह नित्य क्रिया से निवृत्त होकर ज्यों ही दातून तोड़ने के लिये पुन: छत पर चढ़ा, मेरे मित्र अपनी ऊँची छत से इस विलक्षण चारपाई को आँखें गड़ाये इस प्रकार घूर रहे थे मानो जापान के बच्चे ने हाथी देख लिया हो।
मुझे देखते ही उन्होंने झूमकर जोर से कहा– “वाह… वाह..”
मैने कहा– “क्या हुआ…”
वे बोले – “यही…”
मैने शंका जताई – “क्या ..यही…?”
उन्होंने कहा – “अरे यही … आपकी चारपाई… वाह क्या बात है….”
मैने थोड़ा गंभीर होकर कहा – “हाँ भई गरीबों के आँसू वाह–वाह करने के लिये ही होते हैं..”
उन्होंने पुन: वाह–वाह कहा और टाल फ्री नंबरों पर लगे एनाउन्सिंग कम्प्यूटर की तरह मेरी बात से बेअसर अपनी हँसी की पुनरावृत्ति करते रहे। मुझे तुरन्त याद आया कि ‘भैंस के आगे बीन बजावै, भैंस खड़ी पगुराय’ और उनकी तरफ आँख उठाई तो वे सचमुच मुझे भैंस के रूप में पगुराते हुए ही लगे।

अपने ही मित्र द्वारा अपनी अवस्था की यह भर्त्सना। मेरा हृदय सुतली–बम में बँधी सुतली की तरह फटकर तार–तार हो गया और गर्दन हिंसा के समक्ष अहिंसा की भाँति लटक गई। मैंने उसी वक्त स्वयं बिजलीघर जाने का निर्णय लिया और पड़दादा के जमाने से चली आ रही, काली कलूटी, ब्रेक, पैडल, मडगार्ड, सीटकवर, घंटी आदि आभूषणों से विहीन अपनी चौबीस इंच की सायकिल पर सवार होकर चल भी पड़ा।

खैर बिजलीघर सकुशल पहुँच गया। चार पाँच पान की छोटी–बड़ी गुमटियों के पीछे हमारे शहर के बिजलीघर का भव्य गेट मिला, जिसका एक पल्ला गायब और दूसरे का आधा भाग जंग ने चाट डाला था। वह पृथ्वी की तरह अपने अक्ष से कुछ अंश झुका हुआ, किन्तु स्थिर था। शहर की चुस्त नगरपालिका द्वारा बड़े यत्न से सँजोई गई बदबूदार नाली एवं कचरे की वैतरणी पार करके जब हम गेट के अन्दर दाखिल हुये तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो मैं बिजलीघर नहीं हस्तिनापुर के द्यूत क्रीड़ा गृह में प्रवेश कर रहा हूँ। वहाँ स्टूल पर चार पाँच आधुनिक पाण्डव आसन जमाये इस दिव्य क्रीड़ा में रमे हुये थे। कई बार- भाईसाहब की गुहार लगाने पर उनमें से एक ने ताश से एक पत्ती नीचे पटककर मेरी ओर आग्नेय दृष्टि से घूरते हुये पूछा – “क्या है?” और पुन: अपने काम में तल्लीन हो गया।

मैंने कहा – “भाई, शहर में बिजली की हालत बड़ी खराब है और … आप….. लोग…”
ताश के ढेर पर ही नजरें टिकाये वह बोला – “सारे देशवा क इहै हालत है….तुम आपन कहौ…”
एक कोने पड़े रजिस्टर की ओर इशारा करते हुये उसने कहा– “इसमें शिकायत लिख दो… आदमी आयेगा तो भिजवा देंगे..”
“शिकायत तो बीसियों बार कर चुका हूँ…” – मैं बोला
“तो फिर जाओ आराम से घर बैठो, आदमी आयेंगे तो देखा जायेगा हमें तो पूरे शहर को देखना है,सिर्फ तुम्हीं तो हो नहीं।”
इसके बाद उसने मेरी कोई दलील नहीं सुनी। वह अपने खेल में रमा रहा। मुझे यहाँ हस्तिनापुर के द्यूत क्रीड़ा गृह में द्रौपदी की तरह देश की विद्युत व्यवस्था दाँव पर लगी दिख रही थी।

मैं भी हारे हुये जुआरी सा जब अपने घर या यूँ कहूँ कि अपनी कुटिया पर पहुँचा तो अच्छी खासी भीड़ जमा थी घर के बाहर। धड़कते दिल से जब मैंने घर में प्रवेश किया तो पता चला कि लोग चाहते हैं कि मैं बिजली पानी आदि बुनियादी व्यवस्थायें माननीय मंत्री जी से कहकर ठीक कराऊँ।

धत् तेरे की … मुझे मंत्री जी की याद अब तक क्यों नहीं आई। इस बार चुनाव में मैंने घर –घर जाकर उनके लिये वोट माँगे थे। मतपेटियों में गोबर, पानी में घोलकर डाला था और पुलिस के डण्डे भी खाये थे। मंत्री जी ने मुझे सीने से लगाकर कहा था कि तुम मेरे परम मित्र हो। जीतने से पहले उन्होंने शहर के लोगों से ढेरों वायदे किये थे। हाँ मंत्री होने के बाद वे मुझसे एक बार भी नहीं मिले। शायद समय नहीं होगा। मुझे ही उनके पास जाना चाहिये। मैंने लोगों को अपने मंत्री जी से मिलकर बात करने का आश्वासन देकर विदा किया।

दूसरे दिन जब मैं ट्रेन की जनरल बोगी में धक्के खाकर मंत्री जी के आवास पर पहुँचा तो उनसे मिलने वालों की अच्छी खासी भीड़ देखकर वैसा ही झटका लगा जैसे अपने शहर की सड़कों पर आटो रिक्शा पर लगा करता है।सभी उनके घनिष्ठ होने का दावा कर रहे थे। मैंने भी अपना नाम और पता लिखकर दरबान को दे दिया और अपनी पारी का इंतजार करता रहा। सोचा था मेरा नाम देखते ही मंत्री जी कृष्ण की तरह अपने सुदामा को मिलने दौड़े आयेंगे पर सुबह के बैठे रात को दस बजे बुलावा आया।

अंदर पहुँचकर मैंने उन्हें प्रणाम किया और कहा – “मंत्री जी … पहचान रहे हैं मुझे..”
“हाँ आपका थोबड़ा रोज टी. वी. पर आता है ना….. पहचानेंगे क्यों नहीं?”
दिनभर के इन्तजार के दौरान मैंने खुद को इस घड़ी के लिये तैयार कर लिया था अत: आश्चर्य नहीं हुआ। मैंने उनकी तरफ गौर किया। उनके गालों पर सुर्खी बढ़ गई थी और चेहरा भी भर गया था। उनको याद दिलाने के लिये, चुनाव में अपनी ‘कन्वेसिंग’ और पुलिस की लाठी खाने आदि जैसी बातें बताईं पर शायद उन्हें कुछ याद नहीं आया। वे दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं डालना चाहते थे। बोले –– “खैर कौनो काम है हमसे..”

मैंने अपनी समस्या और लोगों के मेरे घर पर इकठ्ठा होने की बात कही तो उनकी आँखें लाल हो गईं। बोले– “ई सब साला विपक्षी लोगों की शरारत है…… आप जाइये हम देख लेंगे स्सा…. ओं को…।“
मुझे उनका यह वाक्य राष्ट्रीय स्तर के वाक्य, ‘सब विदेशी ताकतों की साजिश है’ के समानान्तर लगा। मैं लौट आया। कुछ नहीं हुआ तो मैं फिर गया। मैंने कई बार मंत्री आवास के चक्कर लगाये पर नतीजा वही ढाक के तीन पात।

इस बार जब मंत्री जी से मुलाकात हुई ते वे मोबाइल पर किसी से बात कर रहे थे। बड़े खुश थे, शायद कुछ कमीशन–वमीशन की बात थी। मैंने वहीं पड़ा अखबार उठा लिया। मेरी नजर एक खबर पर अटक गई– ‘अमेरिका में संगीत सुनकर भैंसें खुद ही थन से दूध छोड़ देती हैं, उन्हें हाथ से दुहना नहीं पड़ता’। मंत्री जी की बात खत्म हो गई थी। मेरी तरफ देखकर वे बोले – “हम देख रहे हैं, हम क्या कर सकते हैं। आप परेशान न होइये..”

अखबार उनके सामने करते हुये मैंने कहा – “बार–बार संगीत सुनकर तो भैंसे भी पिघलकर दूध दे देती हैं और एक आप हैं कि दसियों बार शिकायत करने पर भी…….”
“अरे तो का हम कोई भैंस थोड़े ही हैं” – मेरी बात बीच में ही काटकर वे दहाड़े,
मैंने कहा – “सच है मंत्री जी! आप भैंस थोड़े ही हैं। भैंस तो हम लोग ही हैं जो सब कुछ देखकर और समझकर भी चुपचाप पगुराते रहते हैं।“
मैं बाहर निकला । वहाँ अब भी भीड़ थी…. पगुराती हुई। मैं बुदबुदा उठा ‘भैंस के आगे बीन बजावै, भैंस खड़ी पगुराय।’

४ फरवरी २०१३