व्यक्तित्व


हिंदी एकांकी के जन्मदाता डॉ. रामकुमार वर्मा
कुमुद शर्मा


हिंदी की लघु नाट्य परंपरा को एक नया मोड़ देने वाले डॉ. रामकुमार वर्मा आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘एकांकी सम्राट्’ के रूप में समादृत हैं। उन्होंने हिंदी नाटक को एक नया संरचनात्मक आदर्श सौंपा। नाट्य कला के विकास की संभावनाओं के नए पाट खोलते हुए नाट्य साहित्य को जन जीवन के निकट पहुँचा दिया। नाटककार और कवि के साथ-साथ उन्होंने समीक्षक, अध्यापक तथा हिंदी साहित्येतिहास-लेखक के रूप में भी हिंदी साहित्य-सृजन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नाटककार के रूप में उन्होंने मनोविज्ञान के अनेकानेक स्तरों पर मानव-जीवन की विविध संवेदनाओं को स्वर दिया तो छाया वादी कवियों की कतार में खड़े होकर रहस्य और अध्यात्म की पृष्ठभूमि में अपने काव्यात्मक संस्कारों को विकसित कर रहस्यमयी जगत् के स्वप्नों में सहृदय को प्रवेश कराया।

हिंदी एकांकी के जनक कहे जाने वाले डॉ. वर्मा का जन्म मध्य प्रदेश के सागर जिले में १५ सितंबर, १९०५ को और निधन सन् १९९० में हुआ। पिता की राजकीय वृत्ति के कारण वे विभिन्न नगरों में स्थानांतरित होते रहे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मध्य प्रदेश के विभिन्न स्थानों में हुई। विभिन्न स्थानों पर घूमते हुए उनकी अनुभव संपदा बढ़ती रही। शैक्षिक जीवन में ही उनके भीतर साहित्यिक और रंगमंचीय अभिरुचि पैदा हो गई थी। साथ ही तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक और मानवीय सरोकारों ने भी उनके व्यक्तित्व को गढ़ने में सहयोग दिया। मात्र सोलह वर्ष की आयु में महात्मा गांधी के राष्ट्रव्यापी असहयोग आंदोलन का उन पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि उन्होंने शैक्षिक प्रांगण से बाहर निकलकर खादी पीठ पर लादकर बेची तथा प्रभात फेरी में राष्ट्रीय चेतना से संपन्न स्वरचित गीत गाए और ओजस्वी भाषण दिए कुछ समय पश्चात् वे फिर विद्यालय में प्रविष्ट हुए। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे प्रयाग विश्वविद्यालय गए। स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद वे वहीं हिंदी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए और विभागाध्यक्ष के पर पर पहुँचे। जीवन की विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य और संतुलन तथा निराशा और अवसाद के क्षणों में भी स्मित मुसकान एवं गंभीरता के साथ विनम्रता उनके व्यक्तित्व के कुछ खास रंग हैं, जिन्होंने उनके कलात्मक स्वरूप को भी एक विशिष्ट सज्जा दी।

कवि, नाटककार और आलोचक के रूप में डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपने साहित्य सृजन के लिए नए आयाम खोजे। कविता में वे साधक की भूमिका में आए। अपने जीवनानुभवों से नाटकों की विषय-वस्तु तैयार की। चिंतन-मनन की तटस्थ अभिव्यक्ति ने उनके आलोचकीय व्यक्तित्व की मुद्राएँ तय कीं। इन सभी रूपों में उन्होंने हिंदी साहित्य को जो कृतियाँ सौंपी वे इस प्रकार हैं-एकांकी संग्रह-‘पृथ्वीराज की आँखें’, ’रेशमी टाई’, ’चारुमित्रा’, ’विभूति’, ’सप्तकिरण’, ’रूपरंग’, ’रजतरश्मि’, ’ऋतुराज’, ’दीपदान’, ’रिमझिम’, ’इंद्रधनुष’, ’पांचजन्य’, ’कौमुदी महोत्सव’, ’मयूर पंख‘, ’खट्टे-मीठे एकांकी’, ’ललित एकांकी’, ’कैलेंडर का आखिरी पन्ना’, ’जूही के फूल’। नाटक-’विजय पर्व’, ’कला और कृपाण’, ’नाना फड़नवीस’, ’सत्य का स्वप्न’। काव्य-’चित्ररेखा’, ’चंद्रकिरण’, ’अंजलि’, ’अभिशाप’, ’रूपराशि’, ’संकेत’, ’एकलव्य’, ’वीर हम्मीर’, ’कुल-ललना‘, ’चित्तौड़ की चिता’, ’निशीथ’, ’नूरजहां शुजा’, ’जौहर’, ’आकाशगंगा’, ’उत्तरायण’, ’कृतिका’। गद्यगीत संग्रह-’हिमालय’। आलोचना एवं साहित्येतिहास-’कबीर का रहस्यवाद’, ’इतिहास के स्वर’, ’साहित्य समालोचना’, ’साहित्य शास्त्र’, ’अनुशीलन’, ’समालोचना समुच्चय’, ’हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ एवं ’हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास’। संपादन-’कबीर ग्रन्थावली’।

डॉ. वर्मा के साहित्यिक व्यक्तित्व को नाटककार और कवि के रूप में अधिक प्रमुखता मिली सन् १९३० में रचित ’बादल की मृत्यु’ उनका पहला एकांकी है, जो फेंटेसी के रूप में अत्यंत लोकप्रिय हुआ। भारतीय आत्मा और पाश्चात्य टेकनीक के समन्वय से उन्होंने हिंदी एकांकी कला को निखार दिया। उन्होंने ऐतिहासिक और सामाजिक दो तरह के एकांकी नाटकों की सृष्टि की। ऐतिहासिक नाटकों में उन्होंने भारतीय इतिहास से स्वर्णिम पृष्ठों से नाटकों की विषय-वस्तु को ग्रहण कर चरित्रों की ऐसी सुदृढ़ रूप रेखा प्रस्तुत की जो पाठकों में उच्च चारित्रिक संस्कार भर सके और सामयिक जीवन की समस्याओं को समाधान की दिशा दे सके। उनके नाटक भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय उद्बोधन के स्वर बखूबी समेटे हुए हैं। गर्व के साथ वे कहते हैं, ’ऐतिहासिक एकांकियों में भारतीय संस्कृति का मेरुदंड-नैतिक मूल्यों में आस्था और विश्वास का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है।’ उनके सामाजिक एकांकी प्रेम और सेक्स की समस्याओं से संबंधित हैं। ये एकांकी मानसिक अंतर्द्वंद की आधार भूमि पर यथार्थवादी कलेवर में समाज और जीवन की वस्तु-स्थिति तक पहुँचते हैं। पर इन एकांकियो में लेखक की आदर्शवादी सोच इतनी गहरी है कि वे आदर्शवादी झोंक में यथार्थ को मनमाना नाटकीय मोड़ दे बैठते हैं। इसलिए उनके स्त्री पात्र शिक्षा और नए संस्कारों के बावजूद प्रेम और जीवन के संघर्ष में जीवन का मोह त्यागकर प्रेम के लिए उत्सर्ग कर बैठते हैं मानो उत्सर्ग या प्राणांत ही सच्चे प्रेम की कसौटी हो। आधुनिक पात्रों पर भी लेखक ने अपनी आदर्शवादी सोच को थोप दिया है।

कविता के क्षेत्र में डॉ. वर्मा ने एक आध्यात्मिक साधक की भूमिका के रूप में प्रेम को आराधना-साधना का माध्यम बनाकर उसी के आधार पर रहस्यवादी शैली की प्रेमाभिव्यंजना की। रहस्यवाद की चरम अभिव्यक्ति यथार्थवदी जीवन में किस तरह संभव है, इसे भी खोजा। वैयक्तिक अनुभूतियों को उद्घाटित करनेवाली उनकी कविताएँ रागात्मिका-वृत्ति के साथ-साथ बौद्धिक और दार्शनिक गहराइयों में भी उतरने का उपक्रम करती हैं। नवीन खोजों के आधार पर तर्क की जटिल समस्याओं से सुलझकर जो सत्य आलोचना के माध्यम से उनकी रचनाओं में कलमबद्ध हुआ वह भी अपने-आप में महत्वपूर्ण है।

भाषा की दृष्टि से डॉ. वर्मा एक कुशल और सजग शब्द-शिल्पी हैं। नाटकों में चित्रधर्मिता के समावेश ने भाषा में गहन प्रभावान्विति पैदा की तो काव्यात्मक स्तर पर उनकी भाषा ने अधिक कल्पनाशील, रमणीय और देशकाल की सीमाओं से परे काव्यानुभव को रचा। लेकिन भाषा की अतिरिक्त साज-संवार के मोह में गढ़े गए दीर्घ संवादों ने प्रायः उनके नाटकों के स्वाभाविक प्रवाह को अवरुद्ध भी किया।

डॉ. रामकुमार वर्मा ने अपनी विचारधारा और दर्शन की अनुभूतियों से समग्र युग, जीवन और दर्शन को एक सूत्र में पिरोने की कोशिश की। एकांकी साहित्य के विकास और वृद्धि में उन्होंने जो योगदान दिया इसके लिए वे हमेशा याद किए जाएँगे।

४ फरवरी २०१३