इस सप्ताह-
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अनुभूति
में-
राजा अवस्थी, कृष्ण सुकुमार, प्रियंका जैन, सरदार कल्याण
सिंह और दीपक वाइकर की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- अंतर्जाल पर सबसे लोकप्रिय भारतीय
पाक-विशेषज्ञ शेफ-शुचि के रसोईघर से शीतल सलादों की शृंखला
में-
मकई साल्सा। |
बचपन की
आहट- संयुक्त अरब इमारात में शिशु-विकास के अध्ययन में
संलग्न इला गौतम से जानें एक साल का शिशु-
बालों की धुलाई।
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सुनो कहानी- छोटे
बच्चों के लिये विशेष रूप से लिखी गई छोटी कहानियों के पाक्षिक स्तंभ में
इस बार प्रस्तुत है कहानी-
मछलीघर। |
- रचना और मनोरंजन में |
साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक
समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये
यहाँ देखें |
नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला-२३ के विषय की घोषणा हो
गई है। विस्तार से जानने के लिये नवगीत की पाठशाला पर
जाएँ।
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लोकप्रिय कहानियों के अंतर्गत-
प्रस्तुत है पुराने अंकों से १६
अगस्त २००३ को प्रकाशित यू.के. से शैल अग्रवाल की कहानी-
अनन्य।
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वर्ग पहेली-०९७
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से
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सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य एवं
संस्कृति में- |
१
समकालीन कहानियों में
पद्मा शर्मा की कहानी
जलसमाधि
बोलेरो जीप शहर की फोरलेन सपाट
सड़कों को पीछे छोड़ती हुई तहसील की उथली सड़कों पर थिरकने लगी
थी। कभी किसी बड़े गड्ढे में पहिया आ जाता तो जीप जोर से
हिचकोला खाती और परेश का समूचा शरीर हिल जाता। उसने अपनी नजरें
सड़क पर जमा दीं...किसी बड़े गड्ढे को देखकर वह अपने शरीर को
संयत करता और गेट के ऊपर बने हैण्डल पर अपनी पकड़ मजबूत कर
लेता। छोटे-बड़े गड्ढे सपाट सड़क का
भूगोल बिगाड़े हुए थे जैसे गोरे चेहरे पर मुहाँसे या चेचक के
निशान। कभी धुएँ का गुबार उठता तो कभी कचरे का ढेर दिखायी
देता। शीशे चढ़े होने के बावजूद परेश रुमाल नाक पर रखता माथे
पर शिकन गहरी हो जाती । यहाँ तक आने में ट्रेन का सफर तो ठीक
रहा पर अब यह सफर परेशान कर रहा है। परेश एक बहुराष्ट्रीय
कम्पनी में कार्यरत है। चार दिन पहले मैनेजर ने एक लिफाफा
थमाते हुए कहा था, ‘‘यह तुम्हारा नया प्रोजेक्ट है। कम्पनी
वाटर फिल्टर का नया कारखाना खोलने जा रही है। सकी साइट को
देखना और तय करना
सारी जिम्मेदारी तुम्हारी
है।
आगे-
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कृष्ण शर्मा की लघुकथा
लेन-देन
*
कुमुद शर्मा का आलेख
आचार्य नरेन्द्र
देव
*
शशि पुरवार से स्वास्थ्य चर्चा
गेहूँ में गुन बहुत हैं
*
पुनर्पाठ में विभा श्रीवास्तव के साथ
पर्यटन-
मायानगरी मुम्बई में |
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पिछले-सप्ताह- |
१
गिरीश पंकज का व्यंग्य
हिट होने के फार्मूले
*
श्यामसुंदर दुबे का ललित निबंध
धूल पर अंकित चरण चिह्न
*
विश्वमोहन तिवारी का आलेख
क्या प्रौद्योगिकी नैतिक रूप से तटस्थ है
*
पुनर्पाठ में अमृता प्रीतम का
संस्मरण- जुल्फिया खानम
*
समकालीन कहानियों में
अमर गोस्वामी की कहानी
कैलेंडर
मेरे कमरे में एक कैलेण्डर था।
किसी तानाशाह की तरह दीवार पर अकेले डटा रहता। नये साल पर यह
मुझे मिला था। इसे पाने के लिए काफी प्रयास करना पड़ा था। मैंने
खाली दीवार पर उसे टाँग दिया। जो भी आता उसकी नजरें उस पर टिक
जाती थीं। कैलेण्डर में एक गोरी खड़ी
थी। विश्वसुन्दरी की तरह। गोरी के पीछे एक लाल कार थी। तय करना
मुश्किल था कि दोनों में ज्यादा खुबसूरत कौन थी। गोरी के सीने
और कमर पर कपड़ेनुमा कुछ था। उसका तन तना हुआ था। उसके खुले बदन
को देखकर सात्विक विचार संकोच में पड़ जाते थे। लगता था उस कार
के कारण ही वह ऐसी दशा में पहुँच गयी थी। हालाँकि गोरी के सारे
कपड़े लुट चुके थे, वह सर्वहारा की स्थिति को प्राप्त हो चुकी
थी पर उसके चेहरे पर कोई गम नहीं था, उलटे वहाँ पर दम था जो
उसकी आँखों में भी कम नहीं था। कुल मिलाकर सबकुछ बड़ा सरगम था।
गोरी कैलेण्डर में इस अदा से खड़ी थी कि समझदार भी एकाएक...
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