चमकते लाल रंग
के बड़े से बैनर पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था 'देश की आजादी
की पचासवीं सालगिरह पर भव्य कवि–सम्मेलन का आयोजन' और मंच पर
अपने अद्भुत व्यक्तित्व को लिए हुए कविराज पैर पटक–पटककर
चिल्ला रहे थे, 'कविता को मनोरंजन मत कहो। यह एक गंभीर विषय
है। मैं कभी नही मरूँगा, क्योंकि मैं कोई ऐसा काम नहीं करूँगा।
अरे आजादी के लिये जेल जाने वाले वे कोई और लोग होंगे। हमने तो
देश के लिये नाखून तक नहीं कटवाया फिर भी फूलों के हार पहने हैं।
सीधे मंत्रालय तक गए हैं।'
गरम पिघलते शीशे–सा हर शब्द सामने बैठी शुभी के कानों से उतर
हृदय की चमड़ी को फफोलता जा रहा था। अचानक वेदना असह्य हो गई और
टप–टप रिसते आँसुओं पर तरस खाकर पलक प्रहरियों ने उन्हें मुक्त
कर दिया।
'यह क्या शुभी, वक्त,
बेवक्त, यूँ ही रोने लग जाती हो' ऐसे ही किसी क्षण में आदित्य
ने उससे कहा था 'मुझे किसी दिन तुम्हारे सर के अन्दर घुसकर इस
लूज टैप का वाशर बदलना पड़ेगा।' और अपनी छोटी सी, सुन्दर सी नाक
सुड़कती–पोंछती शुभी बोल पड़ी थीं 'पर जनाब ऐसी रिंच कहाँ से
लाएँगे?'
अगले दिन जब राष्ट्रीय वायु–सेना का विमान आदित्य को कर्तव्य
पथ के अनजाने कुरूक्षेत्र में ले जा रहा था, शुभांगी उसे
हवाई–अड्डे पर छोड़ने आयी थी।
आदित्य का
भोला–भाला चेहरा और चमकती बड़ी–बड़ी आँखें, दोनों ही बहुत उदास
लग रहीं थीं उसे। आदित्य की आँखें बड़े प्यार से शुभी को देखे
जा रही थीं मानो कह रही हों, शुभी, मेरी तरफ से परेशान मत
होना। मैं अपना पूरा ध्यान रखने की कोशिश करूँगा, तुम भी मेरी
ख़ातिर अपना पूरा–पूरा ध्यान रखना। मैं जल्दी ही लौट आउँगा,
वगैरह–वगैरह। पर वह मुँह से कुछ भी तो नहीं कह पा रहा था। वैसे
भी ऐसे मौकों पर अक्सर आदित्य के होंठ सिल जाते थे और आँखें
बोलने लग जाती थीं
क्योंकि उन्हें पता था कि शुभी उन्हीं की बातें सबसे ज्यादा
सुनती और समझती है।
आदित्य की काली पुतलियों में अँधेरा घिरा हुआ था मानो उनकी चमक
का स्विच किसी ने बन्द कर दिया हो। शुभी की पसलियों के ऊपर कुछ
चटका और गले की छोटी सी नस, चिड़िया के पंख–सी फड़फड़ाने लगीं।
आदित्य इस सिग्नल को भलीभाँति पहचानता था। उसने शुभी के हाथ
बहुत प्यार से अपने हाथों में लिए, चूमे और फैली हथेलियों पर
जेब से निकाल कर एक पैकेट रख दिया।
आदित्य कब घूमा, गया, शुभी को कुछ याद नहीं। याद है कि बस उसका
दिल जोर–जोर से धड़क रहा था – यह आदित्य हाथ पर हाथ क्या रख गया... कहीं वहीं तो नहीं जिसका माँ पिछले तीन वर्षों से
इन्तजार कर रहीं हैं? सुबह ही तो कह रहीं थीं 'जवानी में औरत
और मर्द का सिर्फ एक ही रिश्ता दुनिया को समझ में आता है। यह
दोस्ती और प्यार की बातें कोई नहीं समझता। कुँवारी लड़की की
इज्जत कच्चे घड़े–सी बड़ी सम्भाल कर रखनी पड़ती है बेटी।' कितनी
खुश होंगी माँ जब उन्हें पता चलेगा... और झटपट काँपती
उँगलियों से शुभी ने गुलाबी कलियों वाले कागज में सुन्दरता से
लिपटे उस रहस्य को दो ही सैकेन्ड में खोल डाला। सामने एक छोटी
सी रिंच बहुत ही नज़ाकत और प्यार के साथ रूई के बादलों की कई–कई
तहों में धँसी लेटी थीं और उसपर लिखा हर शब्द मानो हाथ
बढ़ा–बढ़ाकर शुभी को बाँहों में भर लेना चाहता था... 'जल्दी
ही लौटकर मिलता हूँ।' साथमें एक नीला कागज भी तो था...
'शुभी, अपने प्यार के सारे मोती तुम्हारे पास छोड़े जा रहा हूँ।
आँखों से टपका–टपका कर इन्हें बहा मत देना। लौटकर पूरा हिसाब
लूँगा। इसलिये वाशर जब भी ढीला हो जाए तो कस जरूर लेना। जाने
से पहले बस इतना काम तुम्हें सौंपता हूँ... तुम्हारा अपना
आदित्य।'
यह काम तो तुम्हारा था आदित्य। तुम्हारी यह मोतियों की माला तो
वर्षों से मेरे अंतःस्थल को सजाये हुये हैं। भला इसे कैसे मैं
बिखरने दूँगी? हाँ इतना जरूर है कि तुम जब तक आओ, यह इकलड़ी
माला शायद सतलड़ी और अठलड़ी हो जाए। माला सतलड़ी क्या सहस्त्र–लड़ी
होती चली गयी। रूमाल निकालने के लिये शुभी का हाथ पर्स में गया
तो वहीं रिंच उसके हाथ में आ गयी। शुभी मुस्कुरायी और उसे फिर
से वैसे ही सँभालकर वापस रख दिया। शुभी के आँसू अपने आप ही रूक
गये। यह आदित्य ही तो है जो हमेशा पर्स में बैठा उसके संग–संग
घूमता रहता है।
'अब मैं अपने वक्तव्य को इन चन्द पंक्तियों के साथ यहीं पर
समाप्त करता हूँ' नेता जी हाथ जोड़कर बोले,
'शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले्रवतन पर मिटने वालों
का यही आखिर निशाँ होगा।' पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज
गया। बाहर निकलने की ठेलपेल में लोग साधारण शिष्टता तक भूल
चुके थे। अब क्या रक्खा था जिसके लिये वे रूकते। गाना–बजाना,
खाना–पीना, सब कुछ तो हो चुका था। शहीदों की मजारों पर लगेंगे
हर बरस मेले, बस ये शब्द जरूर कानों में गूँज रहे थे, पर शुभी
का मस्तिष्क कुछ भी तो नहीं ले पा रहा था। एक क्षण के लिए भी
तो किसी ने याद नहीं किया, उन शहीदों को जिन्होंने आजादी के
पहले या आजादी के बाद देश के लिए अपनी जानें कुर्बान की थीं।
हाँ, यह उत्सव जरूर हर साल मना लिया जाता है। लोग ऐसे ही सज–धज
कर आते हैं। ऐसे ही खाते–पीते और गाते बजाते हैं। तरह–तरह के
वायदे करते हैं और बाहर जा कर सबकुछ भूल जाते हैं। वर्षों से
यही सिलसिला चल रहा है।
शुभी भी आती है...न जाने किस मजबूरी से खिंचकर...यह उसके
आदित्य का प्रिय उत्सव समारोह जो था।
उसे अपने देश से, अपने लोगों से बहुत प्यार था। सारी दुनिया उन
शहीदों को, उसके आदित्य को भूल सकती है पर शुभी नहीं। भूलने की
जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि आदित्य सोते–जागते हमेशा उसके साथ
ही तो रहता है। याद है उसे आदित्य का वह पहला–पत्र जो जाने के
दस दिन बाद आया था। एक–एक अक्षर आज भी हृदय पर प्रेमांकित है।
यह पहला और आखिरी पत्र ही तो था जो आदित्य अपनी सत्ताईस साल की
कँुवारी जिन्दगी में शुभी को लिख पाया था। और आज यह पत्र ही तो
शुभी की मरूस्थल जैसी प्यासी जिन्दगी में रखा अमृत–कलश है...
उसका आधार–स्तंभ हैं। वह अक्सर शुभी को छेड़ते हुए कहता था,
'शुभी जब तुम शादी के बाद मैके जाया करोगी ना तो मैं तुम्हें
रोजही पत्र लिखने की बजाय शाम को फोन किया करूँगा और तुम भी
बिना कुछ बोले बस फोन उठा लिया करना। हम दोनों एक दूसरे की बात
खुद ही सुन और समझ लिया करेंगे। देखो इस तरह चुप रहकर बात करने
के दो फायदे हैं। एक तो तुम न तो मुझसे लड़ पाओगी और न मुझे
डाँट पाओगी...और ना ही अपने फोन का बिल ही ज्यादा बढ़ेगा। वैसे
भी यदि तुम चाहो तो इस
तरह से बचाये पैसों से मुझे एक मनचाहा तोहफा खरीदकर दे सकती
हो।'
मुस्कुराती शुभी बस उसे देखती ही रह जाती। यह जो इतनी बक–बक
करने वाला, इतना संजीदा–सा आदित्य है... यह जो हमेशा प्यार
और हँसी के फव्वारे छोड़ना आदित्य है... इसके साथ जीवन एक छत
के नीचे कैसा होगा? और फिर खुद ही डर जाती। इतना सुख तो
जिन्दगी में किसी को नहीं मिलता। उसे आदित्य को इतने प्यार से
नहीं देखना चाहिए। कहते हैं अपनों को अपनी ही नज़र लग जाती है।
और अनायास ही वह मन ही मन आदित्य के लिए भगवान से प्रार्थना
करने लग जाती। तब आदित्य आकर उसे उसकी प्रेम–समाधि से बाहर
लाता। 'अरे भई, कहाँ खो गई तुम? मैं तो यूँही मज़ाक कर रहा था।
अच्छा बाबा, सुबह, शाम, दुपहर, रात, रोज चार–चार पत्र लिखा
करूँगा, पर पहले शादी तो होने दो।' और दोनों ही हँस पड़ते।
आज भी जब शाम के पाँच बजते हैं, बिना घंटी का इंतजार किए ही
शुभी फोन उठा लेती है क्योंकि उसे पता है कि आदित्य कहीं भी
हो, उन क्षणों में... उस एक पलमें उसके पास जरूर आता है।
कभी–कभी तो गंगूबाई आकर फोन उसके हाथ से लेकर वापस रखती है।
'किस्से बातें कर रही हो आप बिब्बीजी। खाना कबसे पड़ा–पड़ा अपनी
किस्मत को रो रिया है। कब से बुलाती हूँ मैं आपको। उन्ने तो
फून कबका रख दिया। मैंने भी कान पे लगा के सुना था, फून से तो
कोई आवाज नहीं आती।'
शुभी यंत्रवत सी उठकर खाने की मेज पर जा बैठती। उसके अन्दर की
आवाजें चुप होने का नाम ही नहीं लेतीं। 'शुभी. . .' आदित्य की
आवाज मानो समय के साथ और मीठी होती जा रही थी। ' खाना खा लो,
शुभी। देखो, तुमने सुबह से कुछ भी नहीं खाया। इस तरह से तो
मुझे बहुत ही तकलीफ होती है।'
'खाती हूँ, आदित्य, खाती हूँ।' शुभी खुद से बोल पड़ती और
जल्दी–जल्दी एक के बाद एक निवाला मुँह में डालने लग जाती। अब
तो उसके आँसुओं का स्रोत भी सूख चुका है। आदित्य की अनन्त
प्रेम–माला उसे चारो तरफ से जकड़कर सम्भाले हुए जो है और आदित्य
की दी हुई रिंच ने पिछले तीस साल में उसके सारे ही स्क्रू कस
दिए हैं।
पाषाण–प्रतिमा सी शुभी चौके में अपने खाली प्लेट रखने आती तो
भगवान की अल्मारी उसे अपने पास बुला लेती। वहाँ पर मेजरिंग टेप
आज भी जैसा का तैसा ही रखा है और उसके बगल में आदित्य की वर्दी
में खिंची हुई वह फोटो भी। सबकुछ ही तो ज्यों का त्यों है।
मानो मौत ने आदित्य को अमरत्व दे दिया हो। आज भी वह वैसा ही
बाँका और सजीला था। उम्र की धूप तो सिर्फ शुभी के बालों पर ही
बिखर गई थी।
'शहीद, फ्लाइट लेफ्टिनेन्ट, आदित्य राय को भारत सरकार
मरणोपरान्त परमवीर चक्र प्रदान करती है।
'शुभी को कल जैसी याद है जब भारत–सरकार का वह पत्र आया था। आगे
उसमें लिखा था कि उनकी इच्छानुसार उनका व्यक्तिगत सामान
शुभांगी मित्रा को सौंपा जाता है। और साथ के पैकेट में आदित्य
की वरदी के साथ एक चाभी का गुच्छा, थोड़ी सी चेंज, एक कंघा,
एक रूमाल और यही मेजरिंग टेप था। शुभी को अच्छी तरह से याद है
वह
इक्कीस सितम्बर की शाम। आदित्य की छब्बीसवीं सालगिरह थी।
सुबह–सुबह ही उसे भारतीय वायुसेना से नियुक्ति–पत्र मिला था।
और उसी दिन एक सुन्दर से पैकेट में, एक छोटे से पत्र के साथ यह
मेजरिंग टेप शुभांगी आदित्य को दे आई थी। कितना हँसे थे वह
दोनों साथ–साथ जब आदित्य ने वह पत्र पढ़ा था। उसकी नाक दबाते
हुए वह बोला था, 'तो, मेमसाहब हमें बिल्कुल ही बुद्धू समझती
हैं। ठीक है... जरा शादी हो जाने दो सबकुछ समझ में आ
जायेगा।' पत्र भी तो पूरा शोखी और शरारत से भरपूर था, आदित्य
की शोख और शरारती शुभी की तरह।
'मेरे प्यारे (भूल–सुधार) बुद्धू, लेफ्टिनेन्ट साहब,
जैसा कि आपकी हरकतों से सिद्ध हो चुका है, आप किसी भी बात या
परिस्थिति की गहराई और ऊँचाई को समझने में सदैव ही असमर्थ
सिद्ध हुये हैं अतः आपको यह मेजरिंग टेप प्रदान किया जाता है।
भविष्य में आप जब भी हमारे आगे आएँ तो इसे साथ लेकर ही आयें,
ताकि आपको पता लग सके कि आपके हर वक्त देर से आने से या
कभी–कभी न आने से, हमें कितनी तकलीफ होती है और हम कितने दुखी
हो जाते हैं। पुनःश्च आपके आने से कितने खुश भी। इसलिये रोज
ही, आपकी उपस्थिति अति अनिवार्य।
आपकी अपनी कमांडर–इन–चार्ज'
उसके बाद तो आदित्य हमेशा उस टेप को गले में डालकर ही घर में
घुसता था। कितना बार शुभी ने भी कहा था, रहने भी दो आदित्य, वह
सब तो बस यूँ ही लिख दिया था। एक दिन तो हँसकर माँ भी पूछ बैठी
थीं 'आदित्य यह कोई नया फैशन है क्या बेटा?'
और तब आदित्य ने मुस्कराते हुये कहा था, 'यह फैशन नहीं, जरूरत
है, आन्टी। वैसे कोई खास बहादुर तो हूँ नहीं। क्या पता कब ये
एयर–फोर्स वाले नौकरी से ही निकाल दें। सोचा है कि यदि ऐसा हुआ
तो हम एक दर्जी की दुकान खोल लेंगे। वैसे ये दर्जी भी अच्छा
पैसा कमा लेते हैं। और फिर इस काम के और भी तो कई
प्यारे–प्यारे फायदे हैं।' और उसने शुभी की तरफ देखकर शरारत से
आँख मार दी थी। शुभी के गुलाबी गालों की रंगत माँ से भी न छुप
पाई थीं। 'तुम बच्चों की तो कोई भी बात मेरी समझ में ही नहीं
आती' कहकर माँ तो उठकर अन्दर चली गई थीं पर आदित्य ने उसे कसकर
बाहों में जकड़कर लिया था 'थोड़े दिन आ न पाउँगा, कमांडर
साहिबा।' और उसकी गहरी काली आँखें शुभी से भी ज्यादा उदास हो
गई थीं।
उसके बाद आदित्य नहीं वह डिब्बा आया था, आदित्य के
पार्थिव–शरीर को समेटे हुए। उसमें लेटा आदित्य बिल्कुल वैसा ही
लग रहा था, जैसा गया था। चेहरे पर एक खरोंच तक न थीं। सुनते
हैं, दुश्मन के दस टेंकों पर बमबारी करने के बाद अचानक उनकी एक
गोली आदित्य के जहाज के पंख को बींध गई थी। अपनी सूझ–बूझ और
कुशलता के साथ आदित्य एक पंख पर ही जहाज को अपनी सीमा तक उड़ा
लाया था। जहाज भारत की जमीन पर आकर ही गिरा था, मानो जाते–जाते
माँ के पैर छूकर गया हो। इस तरह की, सभी छोटी–बड़ी और मीठी
बातों का आदित्य बहुत ध्यान रखता था। जब मृत आदित्य को जहाज से
निकाला गया था तो टेप उसकी अन्दर वाली जेब में ही रखा मिला था।
वस्तुतः उसे पूरा भरोसा था कि वह जल्दी ही शुभांगी से मिलने
आयेगा। इन चन्द, गुजरे दिनों की लम्बाई और गहराई दोनों ही उसने
अच्छी तरह से नाप ली थी और सबकुछ अपनी शुभी को सुनाने के लिये
वह बहुत बेचैन था। पर टेप तो शुभी के पास अलग पैकेट में ही आया था मानो
आदित्य का भेजा हुआ सम्पूर्ण और अन्तिम प्रेम–पत्र हो।
शुभी के हाथ स्वतः ही अलमारी की तरफ बढ़ गये और उसने वह पत्र और
टेप दोनों ही उठा लिये... पढ़ने लगी। यह उसकी रोज की
दिनचर्या थीं। आखिर यही तो उसकी एकमात्र निधि थी और था उसके
बिखरते जीवन का आधार स्तंभ... उसके आदित्य का भेजा हुआ पहला
और अंतिम सम्पूर्ण प्रेम–पत्र।
'मेरी शुभी,
आज सुबह से तुम बार–बार मेरे सामने आकर उदास सी खड़ी हो जाती हो
और हठ करने लगती हो कि आदित्य मुझसे बातें करो। मन तो मेरा भी
यही कर रहा है। जानती हो शुभी, मैं इस समय क्या सोच रहा हूँ?
मैं देख रहा हूँ कि जाड़े की नरम मीठी धूप मेरे पैरों पर बिखरी
हुयी है और मैं माँ के साथ घर के वरांडे में बैठा गरम–गरम
पकौडियाँ खा रहा हूँ। पकौड़ियाँ खत्म होते ही माँ आवाज दे रही
हैं, आदित्य की बहू थोड़ी पकौड़ियाँ के माँ थोड़ी पकौड़ियाँ और बना
लो। आज पकौड़ियाँ बहुत स्वाद की बनी हैं। पर तुम्हें तो यह सब
कुछ आता ही नहीं। जल्दी से पकौड़ियाँ बनाना सीख लो न शुभी। अरे,
तुम तो गुस्सा होने लगीं, मैं तुम्हारे कान गरम होते देख रहा
हूँ। चलो मैं तो तुम्हारे लिये यह सब खाना–पीना छोड़ भी दूँ पर
माँ को कैसे समझाउँगा? तुम ही सोचो शुभी बिना पकौडियों के माँ
का क्या होगा? उससे भी ज्यादा मेरा–तुम्हारा क्या होगा? कुछ तो
समझो शुभी, जल्दी से पकौड़ियाँ–शकौड़ियाँ, रोटी–वोटी सब कुछ
बनाना सीख लो न। बहादुर छुट्टी पर भी तो जाएगा... वैसे भी
तुम्हारे हाथ का स्वाद बहादुर की रोटियों में कहाँ? अरे तुम तो
सच में गुस्से होने लगीं। मैं और बहादुर तो होंगे न तुम्हारी
मदद के लिये। और हाँ याद आया, तुम्हारे बेलनों की मार से बचने
के लिये मैंने एक हैलमेट का भी इन्तजाम कर लिया है। सच शुभी
लगता है कल का सूरज हमारी सब खुशियाँ लेकर आएगा। कल की किरणें
निश्चय ही हमारी सरहद की शैल–मालाओं के लिये विजय–हार होंगी और
देखो इस कल के इन्तजार में यह सुरमयी संध्या और भी सिन्दूरी हो
गयी है, बिल्कुल तुम्हारी तरह। इन सब ढेर सारी खुशियों को
बाँहों में समेटे मैं जल्दी ही तुम्हारे घर आ रहा हूँ...
तुम्हें सब कुछ लौटाने... तुम तैयार तो हो न?
तुम्हारा अपना आदित्य'
झिलमिल यादों की सितारों वाली वह काली–सियाह चूनर ओढ़े शुभी आज
भी, वैसे ही, जीवन के उसी मोड़ पर तैयार खड़ी है क्योंकि उसे पता
है कि उसका आदित्य ब्रह्माण्ड के किसी भी कोने में हो, एक दिन
उसे लेने अवश्य आएगा। वही तो है उसकी सूनी माँग सी सपाट
जिन्दगी का सौभाग्य। उसकी आत्मापर अंकित अनन्य प्रेम का अमिट
सिन्दूर। इसी आभा से सज–सँवरकर तो वह चिर–सुहागन हुई है। एक
हाथ में पत्र ओर दूसरे से टेप को होठों से लगाए खड़ी शुभी को देखकर, गंगूबाई बड़बड़ाने लग जाती है, 'लगता है बिब्बीजी का तो
पूरा का पूरा दिमाक ही सरक गया दिखे हैं। वैसे भी पचास की तो
होने आई ही होंगी। कहते हैं पचास तक पूरे दिमाक पर नजला उतर
आवे हैं। गीता और कुरान के सदके करते तो हमने बहुतों को देखा
और सुना है... पर तौबा–तौबा... यूँ कागज और मुए टेप को
चूमते तो आजतक किसी को भी नहीं देखा।'
उस बिचारी को क्या पता कि अपने इस तीस साल पुराने प्रेम–पत्र
को शुभी अभी तक जी भरकर पढ़ भी नहीं पाई।
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