क्या
प्रौद्योगिकी
नैतिक-रूप
से तटस्थ
है
- विश्वमोहन
तिवारी
इसमें
संदेह नहीं होना चाहिए कि बिजली, दूर-संचार, चिकित्सा,
विमान, टीवी आदि के बिना हम आज के समृद्ध सुविधापूर्ण तथा
दीर्घ जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन यह भी उतना
ही स्पष्ट हैं कि इनसे नई-नई बीमारियाँ पैदा हो रही हैं;
बीभत्स तथा नये अपराध बढ़ रहे हैं, प्रदूषण से प्रलय का
संकट निकट आ रहा है, परिवार खंडित हो रहा हैं। विकसित
देशों में अनब्याही माताओं की और किशोर शराबियों की समस्या
इतनी गंभीर है कि उन्हें कोई समाधान नहीं सूझ रहा है।
टीवी ने
यौन तथा हिंसा के सीरियलों की भरमार कर देश की संस्कृति को
राक्षसी बना दिया है। किंतु क्या हम टीवी के दुरूपयोग को
रोक सकते हैं ? तब क्या हम टीवी को कूड़ेदान में फेंक दें ?
यह तो असंभव है! प्रश्न उठता है कि यदि कोई वस्तु या सोच,
लाभ बहुत कम और नुकसान अत्यधिक कर रही हो, तब हमें क्या
करना चाहिए ? क्या इसमें बहुत उत्पादनवाली नवीन
प्रौद्योगिकी जैसे कि टीवी की निर्माता प्रौद्योगिकी का
दोष है या उसके उपभोग करने वाले मानव का ? प्रौद्योगिकी
भोगवाद के साधनों में निरंतर वृद्धि कर रही है और उसने
पश्चिमी सभ्यता पर भोगवाद का आधिपत्य बढ़ा दिया है। कहना
चाहिए कि पूरा विश्व पश्चिम का अंधानुकरण कर उनकी भौतिक
चमक-दमक देखकर नकल कर रहा है। भारत में नानी द्वारा बच्चों
को जो संस्कृति दी जाती थी, वह समाप्त हो रही है। बच्चे भी
अपने व्यक्तित्व निर्माण के स्थान पर भयंकर रूप ले रहे
हैं, जिसके दुष्परिणाम पश्चिम अभी बुरी तरह से भुगत रहा
है। तब इसमें प्रौद्योगिकी का क्या दोष ? लगता है कि दोष
तो भोगवादियों का है, हम लोगों का है, जो उसका दुरूपयोग कर
रहा हैं। इस पर गहन
विचार की आवश्यकता है।
परमाणु बम के निमार्ण तथा दुरूपयोग में विज्ञान का दोष कतई
नहीं, वरन् मानव का है। बम द्वारा मारने से बम के निर्माता
को दोष तो नहीं दे सकते, बम मारनेवाले का माना जाता है। अब
यदि दो व्यक्तियों के विवाद में एक व्यक्ति दूसरे शांति
प्रिय व्यक्ति दूसरे शांत प्रिय व्यक्ति को जोर से घूँसा
मारता है, तब दोष घूंसा मारनेवाले का होगा या घूँसा
बनानेवाले का ? सोचने की बात है। यह भी कहना कठिन है,
यद्यपि काफी हद तक सही है कि दोष तो प्रकृति का है कि उसने
मानव को उग्रता, आक्रमण तथा अहंकार के घूँसे दिये हैं।
मानव के पास ऐसे ’घूँसे‘ हैं, इसलिए वह उनका उपयोग करता
है, यदि घूँसे न होते तो वह उनका उपयोग न करता। चाहे युद्ध
को हम अवांछित घोषित करते रहें, वही घूँसे युद्ध में
बहादुरी, साहस एवं देशप्रेम आदि कहलाते हैं।
घूँसो के अनेक सदुपयोग हैं, किंतु इन घूँसों ने मानवता को
बहुत दुख भी दिये हैं। घूँसों का उपयोग करने की प्रवृत्ति
तो मानव की विवशता है, कमजोरी भी है। तब भी दोष तो मानव का
ही होगा, चाहे वह उसकी विवशता के कारण ही क्यों
न हो ? इसलिए न्यायाधीश उसे
दंडित करता है, भले ही दोष अंततः उनकी विवशता का हो।
मानव के इन गुणों को ’पशुत्व‘ कह देते हैं। पशुत्व से ऊपर
उठना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य माना जाता है। भोगवार
अर्थात् नाक, आँख, स्पर्श, कान तथा जिह्नवा के सुख की अति
शरीर के लिए सुविधा की अति। जो भी भोग शरीर के लिए आवश्यक
है, वह शुद्ध भोग है, भोगवाद नहीं। जब जीवन का ध्येय भोग
करना हो जाए, तब वह भोगवाद हो जाता है, और इन भोगों की
इच्छाएँ अनंत होती हैं। यह मानव की प्रकृति में है या एक
तरह से कहें तो उसकी विवशता है, वह भौतिक सुख भोगने के लिए
मजबूर है। इस विषय के लिए वह बच्चा ही है। और फिर बच्चे का
क्या दोष ? मिलनेवाली सुख की मात्रा से आदमी को संतोष नहीं
होता, वह एक तरह से मृगतृष्णा में फँसा रहता है।
अधिक-से-अधिक ऐसे सुख की में इतना स्वकेंद्रित हो जाता है
कि मानवता से गिरने लगता है। क्या विडंबना है कि सुख की
दौड़ में सारा विश्व इस भौतिक छलावे में लिप्त है और अपराध,
दुख और अशांति आदि बढ़ रहे हैं।
बहुल
उत्पाद की प्रौद्योगिकी मनुष्य की इस भोगवादी विवशता का
लाभ उठाकर उसे पशुत्व से भी गहरे खड्ड ’राक्षसत्व‘ की ओर
ले जा रही है। चूँकि यह सब मानव की प्रकृत्ति में है, उसे
अपना भ्रम भ्रम नहीं लगता, अपनी प्रकृति के वश वह शत्रु को
शत्रु न समझकर मित्र समझ रहा है। वह खुशी-खुशी
प्रौद्योगिकी के आर्कषण में फँसता जा रहा है। ठीक वैसे ही,
जैसे कि बच्चे यदि जंक फूड तथा जंक डिंªक लेने में खुश
होते हैं तब दोष बच्चों का तो नहीं उन्हें देनेवाले बड़ों
का होता है, वैसे ही बड़ों की विवशता का लाभ उठाकर उन्हें
भोगवाद की मृगतृष्णा में फँसानेवाली बहुल उत्पादन
प्रौद्योगिकी को दोषी माना जाना चाहिए।
गहराई से
सोचने पर ही हम मनुष्य की प्रकृति को दोष देकर बहुल
उत्पादन प्रौद्योगिकी को निर्दाष नहीं कह सकते। हमारी
विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की खोज में संयोगवश यह बहुल
उत्पादन प्रौद्योगिकी आ गई। यह केवल ’लाभ या लोभी‘
मनोवृत्ति की बात नहीं है, बल्कि इसमें हमारी स्वाभाविक
प्रवृत्ति का भी बड़ा हाथ है। यद्यपि यह अनेक आश्चर्यजनक
लाभों सहित आई, किंतु वास्तव में अब यह हमें अमानवीयता तथा
अनैतिकता की ओर ले जा रही हैं, यह भी उसके अर्थात्
प्रौद्योगिकी के स्वभाव में है। यह प्रौद्योगिकी ही हमें
राक्षसत्व की ओर ढकेल रही है। वे तो बिरले ही मनुष्य हैं,
जो इस भौतिक छलावे को ’देख‘ लेते हैं। वे मनुष्य संस्कृति
का सहारा लेकर अपने प्राकृतिक स्वभाव पर नियंत्रण करना
सिखलाने का प्रयत्न करते हैं। किंतु मानव संस्कृति इसमें
कितना सफल हो पाती है, यह हम रोजमर्रा के व्यवहार में
तथा राष्ट्रों के
व्यवहार में देख रहे हैं।
हर आदमी कोल्हू के बैल की तरह चक्कर लगा रहा है। भोग करने
के लिए दूसरों से अधिकाधिक उत्पादन करवाने में अर्थात्
उसका और प्रकृति का शोषण करने में तथा अपना शोषण करवाने
में मस्त है। वास्तव में टीवी ने मधुर चालाकी से मनुष्य का
’सोचना‘ ही कुंद कर दिया है। उसे वह नकली जीवन की अश्लील,
हिंस्र तथा उत्तेजक अन्य घटनाओं में उलझाकर रखता है और
उनके तथा रंगीन विज्ञापनों के द्वारा उसमें अधिकांशतया
नकली आवश्यकताएँ पैदा कर रह है, ज्ञान की तो बातें ही न
करें। टीवी आधुनिक प्रौद्योगिकी का राजदूत है। जो रंगीन
माध्यम से समाज की सोच पर नियंत्रण कर रहा है। यह माध्यम
बहुत लोकप्रिय है और खर्चीला इतना है कि बिना ’रंगीन‘ और
मनोहारी विज्ञापनों के आम आदमी को उसे दिखलाया ही नहीं जा
सकता! मानव की सोच पर उसने कितना जोरदार कब्जा कर लिया है,
यह सारे विश्व में
देखा और भुगता जा रहा है, जो कि मानवता के लिए खतरनाक है।
कुछ लोग अभी भी कह सकते हैं कि क्या प्रौद्योगिकी के पास
कोई एके-४७ है। जिससे कोई भी काम हमसे जबरदस्ती करवा सकती
है।
हमारी प्रकृति है कि
दृष्टिक घटनाएँ अन्य ऐंद्रिक घटनाओं की अपेक्षा हमारे मन
पर सरलतापूर्वक हावी हो सकती हैं। इसलिए नाच-गानवाले
कार्यक्रम सर्वाधिक लोकप्रिय होते हैं। जब घर की चक्की में
गेहूँ पीसने जैसे श्रमपूर्ण काम को करते हुए महिलाएँ उमंग
भरे गीत गाती थीं, उस काम में बोरियत कैसी! इस तरह रंगीन
माध्यम कुटिलता से जीवन के आवश्यक कार्यों को हमारे मन में
बोर करनेवाला स्थापित करता जाता है और अश्लील विज्ञापनों
द्वारा टीवी को मनोरंजन का सर्वोत्तम साधन स्थापित करता
जाता है। टीवी मनोरंजन का प्रमुख साधन बन गया है-ज्ञान,
समालोचना तथा सुसमाचारो का नहीं।
अब
बेचारे सामान्य मनुष्य उस ईडियट बॉक्स के सामने बैठकर
स्वयं तो मोटे, बीमार और मंद बुद्धि बन ही रहे हैं बल्कि
अपनी संतान को कुसंस्कृति में ढाल रहे हैं। टीवी वाले कहते
हैं कि इसमें उनका दोष नहीं, मनुष्य का ही दोष है। सत्य यह
है कि टीवी ही मनुष्य की भोगवादी वृत्ति को बढ़ावा दे रहा
है। टीवी एके-४७ से अधिक खतरनाक हो सकता है, और हो रहा है
! वैदिक धर्म के विषय में मार्क्स ने जो कहा वह सत्य नहीं
है, किंतु यह सत्य है कि आज माध्यमख् विशेषकर भारत में
जनमानस के लिए अफीम है ! (दूरदर्शन कब तक इसका अपवाद बना
रह सकता है !)
मानव की प्राकृतिक
विवशता का लाभ उठाकर, प्रौद्यौगिकी अपने लाभ के लिए
अत्यधिक रंगीन तथा अर्द्ध सत्य या नग्न असत्य विज्ञापनों
द्वारा जंक फूड, जंक ड्रिंक्स, जंक वस्तुओं और जंक फैशन का
अर्थात् अतिरेकी भोगवाद का प्रसार करती हैं न केवल जंक
वस्तुएँ और जंक विचार अनावश्यक हैं, वरन् हानिकारक भी हैं,
किंतु बहुल उत्पादन की
प्रौद्यौगिकी अपने क्रीतदास
माध्यम के द्वारा उन्हें हमारे मनों पर थोप रही हैं।
अनावश्यक भोग की वस्तुओं के अश्लील विज्ञापन के लिए पेज
थ्री पर कृत्रिम सैलिब्रिटीज का निर्माण किया जाता है।
प्रौद्यौगिकी तेजी से बदलकर समाज की सोच में अस्थिरता पैदा
करती है। नई संतति मानवीय मूल्यों से कटती जा रही है। जो
प्रौ़द्योगिकी हमारी विवशता का लाभ उठाकर ऐसे दुःखद भोगवाद
को जन्म देती है, वह हमारे ’दुर्भाग्य’ से, नैतिक रूप से
तटस्थ नहीं है। हमें अपनी सीमाएँ जानना, अपनी विवशताओं को
जानना अत्यंत आवश्यक है। किंतु अपनी प्रकृति के कारण हम
अपनी विवशताएँ नहीं समझ पा रहे हैं। उद्योगपति भी
प्रौद्योगिकी के द्वारा अपने लाभ के साथ-साथ उपभोक्ता का
लाभ देखने का दावा या घोषणा करता है। यह तो कुछ बिरले
चिंतक होते हैं जो इतनी तीव्र अंतर्दृष्टि रखते हुए मानव
की प्राकृतिक विवशता को देखकर सच्चाई सामने लाते हैं।
सच्चाई यह है कि यह प्रौद्योगिकी ही भोगवाद की अति ला रही
है। इस तरह प्रौद्योगिकी ने अनैतिकता को बढ़ावा दिया है, दे
रही है और देती रहेगी, यदि हमने इस पर
नियंत्रण नहीं किया तो।
अनावश्यक वस्तुओं की
खपत बढ़ानेवाली यह प्रौद्योगिकी पृथ्वी के सीमित संसाधनों
के लिए विनाशकारी है। यह मानवीय संस्कृति के स्थान पर
मशीनी संस्कृति को बढ़ावा देती है, क्योंकि इसमें मानव का
भी एक वस्तु की तरह उपभोग किया जाता है, जो कि मानवता के
लिए सर्वाधिक खतरनाक है। इसका अर्थ यह नहीं कि हम
प्रौद्योगिकी को ही नकार दें। अब यह जानते हुए कि भोगवाद
दुखदाई है, अमानवीय है, हमें प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण
रखते हुए अनावश्यक बहुल उत्पादन नहीं करना है, अनावश्यक
इच्छाएँ नहीं बढ़ाना है।
अब प्रौद्योगिकी और टी.बी. संस्कृति का स्थान ग्रहण कर रहे
हैं, यह बहुत बड़ा खतरा है। संस्कृति का काम है हमको मानव
बनाना और प्रौद्योगिकी का काम है हमें जीवन जीने में केवल
सहायता करना। भारतीय संस्कृति ने हमेशा भोगवाद का विरोध कर
त्यागपूर्वक भोग का मार्ग दरशाया है। भारतीय संस्कृति में
जीवन दर्शन वह है, जो हमें टीवी तथा प्रौद्योगिकी का गुलाम
न बनाते हुए, उसे कूड़ेदान में न फेंककर, उनके साथ मानव
बनकर रहने की शक्ति प्रदान करे तथा आधुनिक जीवन का मार्ग
प्रशस्त करे।
२७
अगस्त २०१२ |