उस साहित्यिक गोष्ठी में तो मैं छा गया। छाना
ही था। दरअसल मैंने इस बार अपने भाषण में किसी भारतीय लेखक को ’कोट’ ही
नहीं किया। सबके सब विदेशी लेखक। और असली बात बता दूँ कि, ज्यादातर नाम
काल्पनिक थे हवा-हवाई।
वैसे लोग असली नाम ही लेते हैं, लेकिन जब तक विदेशी लेखकों के नाम नहीं
लेते, उनकी विद्वता की दुकान जमती नहीं। अब हम ठहरे ठेठ हिन्दी भाषी लेखक।
विदेशी भाषाओं का न तो ज्ञान है, और न उतनी आर्थिक हैसियत है कि पुस्तकें
खरीद सकें। सो, अपन भारतीय लेखकों से ही काम चला लेते हैं। लेकिन कुछ लोग
जब तक विदेशी लेखकों के नाम नहीं लेते, गोष्ठी में रंग ही नहीं जमता उन
लोगों को हिट होते देखने के बाद मैंने भी विदेशी लेखकों के नामों का सहारा
लेना शुरू कर दिया और माँ कसम, आज अपन की तूती बोलती है, तूती।
पिछले दिनों एक गोष्ठी में जैसे ही मैंने भाषण समाप्त किया, टुटपुंजिए टाइप
के लेखकों की तो बोलती ही बन्द हो गई। नगर स्तरीय आलोचक लघुशंका का समाधान
करने चले गए। वे सोचने लगे कि ससुरा हमारी जमात में कैसे शामिल हो गया। एक
दिन हमारी छुट्टी कर देगा। बाकी लेखक भी यही सोच रहे थे, कि अचानक इसके
शरीर में किसी आलोचक की आत्मा कैसे समा गई। ये तो हिन्दी के लेखकों के नाम
ही नहीं लेता कहीं किसी लेखक संघ को तो ज्वाइन नहीं कर लिया।
अगर आपको भी किसी साहित्यिक गोष्ठी में हिट होना है, तो मेरे पास कुछ
फार्मूले हैं, उन्हें मैं जनहित में जारी किए दे रहा हूँ। ये फार्मूले नए
लेखकों के काम आ सकते हैं।
जब मैंने देखा कि चुकंदर सिंह प्रेमचन्द की गोष्ठी में भी प्रेमचन्द का नाम
न लेकर विदेशी लेखकों के नामों का जिक्र करता है और अपनी विद्वता का झंडा
गाड़ देता है, तो मैंने भी उसी के फार्मूले का इस्तेमाल शुरू किया। चुकंदर
ने जिन-जिन विदेशी लेखकों का नाम लिया था, उनके बारे में मैंने पढ़ना शुरू
किया, तो इक्का-दुक्का नाम को छोड़ दें, तो बाकी नाम कहीं भी नहीं मिले।
अंग्रेजी के दूसरे विद्वानों से भी पूछताछ की कि क्या आप लेंटोमार्लों को
जानते हैं, टेम्स लेंटौपौल के बारे में कुछ सुना है तो सबका एक ही जवाब था,
कि भई, हम तो पहली बार इन लेखकों के नाम सुन रहे हैं। क्या ये काल्पनिक नाम
हैं ? तभी मेरा माथा ठनका था। यानी कि मिस्टर चुकंदर काल्पनिक नामों और
किताबों का सहारा ले कर अपना ’इम्प्रेशन’ झाड़ते रहे ? तो क्यों न मैं भी
इसी ’स्टाइल’ को अपना लूँ।
बस, मैंने भी तैयारी शुरू कर दी। एक-दो असली नामों के बीच आठ-दस काल्पनिक
लेखक और किताबों के नाम लिखकर उनको रट लिए और उन किताबों के नाम लेकर अपने
या किसी के भी विचार फिट कर दिए। मैक्सिम गोर्की, लियो टाल्सटाय, गुंटर
ग्रास जैसे ’ओरिजनल’ नामों के साथ मैंने भी कुछ गढ़ लिए। जैसे पोली मार्केस,
लिमोनिच फ्रॉस्ट, एडमंड जैली, फ्रेंक जोंस डिकास्टा, नावाखोव इलविच, सैमसंग
पोलेस्टर, फलीशा खालिदमीर यानीचुस्की आदि-आदि। और इन नामों की कुछ किताबें
भी मैंने गढ़ लीं। जैसे पोलो मार्केस की मिलेनियम पोएट्री, ’मैन एण्ड सी’,
लिमोनिच फ्रॉस्ट की कविता, ’स्प्रिग आन दि अर्थ’, एडमंड जैली की किताब ’ए
सांग विदाउट म्यूजिक’, फ्रेंक जोंस डिकास्टा की पुस्तक ’सोश्यो इकानामी ऑफ
थर्ड वर्ल्ड’, नावाखोव इलयिच का कहानी संग्रह ’ए ड्रीमलैंड ऑफ ए पुअर मैन,
सैमसंग पोलेस्टर के काव्य संग्रह का नाम दिया ’ए फ्लॉवर आन योर फेस’,
आदि-आदि। नाम काल्पनिक, पुस्तकें काल्पनिक।
जहाँ कहीं साहित्यिक गोष्ठी होती तो मैं पहुँच जाता-कई बार तो बिन बुलाए
मेहमान की तरह।
एक गोष्ठी में मुंशी प्रेमचन्द पर बोलना था। मैं शुरू हो गया, ’’बंधुओ
मुंशी प्रेमचन्द हमारे युग के एक बड़े रचनाकार थे पिछले दिनों मैंने जब ’ए
ड्रीमलैंड ऑफ ए पुअर मैन’ पढ़ी तो लगा, कि अमरीका में भी प्रेमचन्द की तरह
लिखने वाले हैं। आपको याद होगा बहुत पहले मैक्सिम गोर्की की किताब ’माँ’ आई
थी। पिछले दिनों में एडमंड जैली की दो किताबें देखीं। एक है-’ए सांग विदाउट
म्यूजिक’ और ’सन एण्ड सोल ऑफ माइन’। आप इन किताबों को पढ़ें, तो पता चलता है
कि साहित्य में संवेदना कैसे एक जैसी नजर आती है। मेरा प्रिय लेखक है पोली
मार्केस। वह अपनी किताब ’मैंन एण्ड सी’ में एक जगह कहता है-’वी हैव ए इडियट
सोशियलिज्म। एक्चुअली एवरी मैन आफ द बर्ल्ड इज कैपेटलिस्ट। बट ही हैज नो
मनी। इट इज सो फनी।’ वाह क्या बात है। आदमी के मर्म को सैमसंग पोलेस्टर भी
अपनी किताब ’बन ब्रेड एण्ड थाउजेंड हंगर’ में जिस तरह व्यक्त करता है,
प्रेमचन्द की परम्परा का ही विस्तार नजर आता है।’’
बस हो गया काम तमाम। कुछ लोग हीन-भाव से ग्रस्त होकर धरती के फटने का
इंतजार करने लगे। मेरे व्याख्यान के दौरान शहर का माफिया आलोचक किधर निकल
गया। पता ही नहीं चला। भाषण खत्म करने के बाद दो प्रगतिशील किस्म के लेखक
दीर्घशंका के लिए कूच कर गए। कुछ मेरी प्रतिभा से इतने दुःखी हुए, कि जरूरी
काम का बहाना करके वहाँ से फूट लिए। कुछ लोग भले थे। उन्होंने मुझे बधाई दी
और कहा-’’अच्छा लगा कि आजकल आप खूब अध्ययन कर रहे हैं।’’
दूसरे दिन अखबारों में मेरा भाषण छपा। दो-चार पत्रकार लोग जो ईर्ष्याग्रस्त
रहने के लिए ही जन्मे थे, उन्होंने मेरे पूरे भाषण को समाचार से ही उड़ा
दिया लेकिन शहर के बौद्धिक समाज में अपुन की जोरदार धाक जम गई। वाह-वाही
होने लगी। लोग मुझे गोष्ठियों में बुलाने लगे चुकंदर जी घर बैठे रामनाम
जपने लगे।
तो मित्रो, अगर आप भी विदेशी भाषा, विदेशी नाम को ही अपनी विद्वता का
पैमाना मानते हैं, तो मेरा फार्मूला अपनाइए। हिन्दी या भारतीय लेखकों,
भारतीय परम्पराओं का भूल कर भी जिक्र मत कीजिए। आजकल यही लहर है। आप केवल
हिंदी लेखकों तक अटके रहेंगे तो बात बनेगी नहीं। हिट होने लिए विदेशी नाम
जरूरी हैं। देखिए, आजकल बॉलीवुड में भी विदेशी फिल्मों की कैसी नकलें हो
रहीं हैं। विदेशी साहित्य पढ़े तो अच्छी बात, न पढ़ सकें, तो कम से कम कुछ
नाम तो याद कर लें। अगर आपको विदेशी साहित्य नहीं मिल पाए तो कोई बात नहीं,
कल्पना का सहारा तो ले ही सकते हैं। गढ़ लीजिए कुछ नाम। आप भी ’हिट’ हो
जाएँगे। एक बार आजमा कर तो देख लें लेकिन.....एक शर्त है। आत्मा गवाही दे,
बस।
दरअसल मैंने एक सपना देखा था।
नींद टूटी तो आत्मा सामने खड़ी थी, बीबी की तरह, सो सारा फार्मूला टाँय-टाँय
फिस्स हो गया।
२७ अगस्त २०१२ |