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ललित निबंध

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धूल पर अंकित चरण चिह्न
-श्यामसुंदर दुबे
 


लोक-संस्कृति ने पैदल यात्रा की है। नदी-निर्झरों, पहाड़ों-जंगलों, गाँवों-खेतों में वह पाँव-पाँव चलती रही। वह अपने काँवड़ में हलदी-आखत, दूध, दूब, गंगाजली लिये तीर्थों-तीर्थों अटन करती रही है। उसने ऋतुओं के साथ अपने रूप बदले हैं। बादलों की छाँव में उसने झूलों की पेंगों में बैठकर कजरी और बिरहा की तान छेड़ी है। शरद् की छिटकती ज्योत्स्ना में वह दीवार, रसिया और करमा गीतों में वेणु-निनाद भरती रही है। वसंत की मादकात में उसने चाँचर फाग और ददरिया के रंग छिटके हैं। ग्रीष्म में वह नाचती रही है गम्मत, राई और विदेशया में रतजगा करती हुई। वह तीज-त्योहारों, उत्सव-संस्कारों में घर के भीतर नहीं रही। उसने खुले आकाश की ममता में भीगकर धरती के धूल भरे आँचल पर गीत-संगीत और आस्था-विश्वास के मौक्तिक चौक पूरे हैं। लोक के उत्सव सामूहिक रागदारी की शोभा-यात्रा। वे अमराइयों-चौगानों, नदी-बावड़ियों, खेत-खलिहानों, हाट-मेलों में अपने ढोल-मजीरों, टिमकी-नगड़ियों, घुँघरू-मुरचंगों के स्वर बिखराते रहे हैं और अपने प्राणों में भरते रहे हैं लोक का वह आलोक जो जीवन की रंगतों को नई चमक देता रहा है।

अब इन रागों-रवायतों के रंग-रोगन झड़ रहे हैं। लोक-संस्कृति उजड़ रही है। वह लोक-संस्कृति, जिसने न जाने कितने कला माध्यमों द्वारा नागर-परिवेश को अपनी उपस्थिति की भनक मात्र से पुनर्नवा बनाया है। वह लोक-संस्कृति ’संधि-बेला’ से गुजर रही है। एक तरफ लोक की विदाई के शेक-गीत गाए जा रहे हैं, तो दूसरी ओर लोक-रक्षा के दुर्द्धर्ष प्रयास किए जा रहे हैं। इस कशमकश के बीच लोक-संस्कृति को गन्ना जैसा पेरकर उसके रस को आधुनिकता अपनी सेहत बनाने के लिए गटागट पी रही है और अपने विजड़ित परिवेश की दरारों में जीवन ऊष्मा का आसव भर रही है। लोक को लौटाने की आधुनिक कोशिशों के साथ लोक का उपयोग करने की लालसा ही प्रत्यक्ष हो रही है। यह लोक के संरक्षण की भी निष्फल कोशिश है।

पिछले दिनों मुझे एक सेमिनार में जाने का अवसर प्राप्त हुआ था। मुझे लोक की समकालीन प्रासंगिकता पर अपना वक्तव्य देना था। जब मैंने कहा कि लोक-संस्कृति की अभिरक्षा के लिए लोक की जीवन-चर्या की भी अभिरक्षा जरूरी है, जो आधुनिकता के विभिन्न दबावों के बीच अब असंभव-सी होती जा रही है। हमारे लोक-रक्षा के प्रयत्न कारगर नहीं हैं। अब हमें लोक की नई अवधारणा विकसित करनी पड़ेगी। मेरे इस कथन पर दिल्ली की एक बहुपठित महिला ने जबरदस्त आपत्ति उठाई थी। उनका तर्क था कि लोक और लोक-संस्कृति की अभिरक्षा के जैसे प्रयास अब किए जा रहे हैं वैसे प्रयास कभी नहीं हुए। गाँव-देहातवासी मेरी पहचान उन्हें अधिक आक्रामक बनाए हुए थी। उन्होंने आगे कहा कि मुझे शायद इस दिशा में किए जा रहे प्रयत्नों की जानकारी नहीं है। अन्यथा मैं अपने वक्तव्य में इस तरह के तथ्य शामिल न करता। वे बता रहीं थीं कि लोक-संस्कृति प्रजर्वेशन के लिए दूरदर्शन, आकाशवाणी और अन्य लोककला परिषदें बहुत काम कर रही हैं। ऑडियो-वीडियो और छपित सामग्री लोक-संस्कृति को नगरों-महानगरों तक ले जा रहे हैं।

मेरे खयाल से वे अपनी जगह बिलकुल दुरुस्त थीं। ऐसा हो रहा है, किंतु लोक-संस्कृति के प्रजर्वेशन से लोक-संस्कृति को जिंदा नहीं रखा जा सकता हैं लोक-संस्कृति का जन्म जिस खुले और जीवंत वातावरण में हुआ है वैसा वातावरण ही उसके हरे-भरेपन को बनाए रख सकता हैं इस हरे-भरेपन को बचाए रखने में यंत्रों की भूमिका इतनी भर हो सकती है कि
वे आखेटक बनकर लोक-संस्कृति के मर्म की नस नस को चीर-फाड़कर उसके आंतरिक ऊर्जा आवेग को यथातथ्य संप्रेषित कर दें। किंतु यह संप्रेषण भिन्न परिवेश में प्रभावी हो पाएगा। यह संदिग्ध है। यंत्र की ध्वनि और यंत्र की आँख के पीछे जो मानव चैतन्य रहता है वही यंत्र की रस-निष्पत्ति का निर्धारक होता है। अनाड़ी या व्यावसायिक हाथों की गिरफ्त में आकर यंत्र लोक-संस्कृति का अपदोहन करने लगता है। लोक-संस्कृति की जीवंत गत्वरता को वे बचा पाते हैं, जो नंगे पाँव गाँव-गाँव में अपनी लगन की धूनी रमाते रहे हैं, इस धूनी में उसे पिघलाते रहे हैं। गाँव की सुबहों, दोपहरों, संध्याओं और रातों की कला-चर्या का कुंदन गढ़ते रहे हैं। लोक-संस्कृति के ऐसे आभूषण जो भिन्न परिवेश में भी अपनी चमक-दमक और अपनी मूल्यवत्ता से आकर्षण के केंद्र बने रहे। वे पैदल चलने वाले लोक-संस्कृति के यायावर जब यंत्र में भी लोक की प्राण ऊर्जा ढालते हैं तब उनकी रचनात्मक में लोक की ताजगी सनसनाती रहती है। इस तरह उनकी प्रतिकल्पी चेतना का पारस स्पर्श लोक की पुनर्नवा शक्ति का सही इस्तेमाल करने वाला बन जाता है।

वे सुदूर एकाकी गाँव की किसी फुलबगिया में आधी रात में महकते बेला की गंध से महानगर के प्रणय रस में भीगते शयनागार को महमहा जाते हैं और ’बेला फूलें आधी रात’ का यह जादू किताबों में कैद होकर भी लोक की मादक उपस्थिति का नर्म स्पर्श एवं पराग-प्रेरित विहँसती वासंती गंध का अनुभव देजाता है। लोक अपनी प्रकृति और अपने परिवेश से प्रतिक्रियाएं करता है और इन सबके सााि अनुभूतियों का एक ऐसा लीला-लोक रचता है जो जड़-जंगम की हिलनी-मिलनी का रसवाही अजस्र स्रोत बन समय के वज्र-संस्थानों के बीच भी मानवीय अर्थवत्ता को बचाए रखता है। लोक-संस्कृति का यह मूल्यवान् अनुभव कला-विमर्श के बीच हीरक कण-सा दमकता रहता है। इसकी दमक से पिघलते अक्षरों की रोशनाई न जाने कितने हृदयों को वाष्पित कर जाती है। महारानी कौशल्या का वह मातृ आचरण जो हिरणी के दांपत्य रस के बीच क्रूर काल की विडंबना बनकर आता है, जिसमें पुत्र राम के मनोरंजन हेतु हिरणी के अंतरंग हिरण की खाल से खंजड़ी बनाने के लिए हठीली माता कौशल्या के पुत्र स्नेही हृदय पर प्रिय की प्राण-रक्षा की गुहार का कोई असर नहीं पड़ता है। हिरणी आँखों से झरते आँसुओं ने जो निरीह करुणा का गीत रचा है, वह क्रौंचवध से उत्पन्न वाल्मीकि की अमर्षवती करुणा से अधिक बेधक है। यद्यपि लोक अपना महाकाव्य नहीं रच पाया; किंतु कभी-कभी उसकी एक पंक्ति भी महाकाव्य से भारी पड़ जाती है।

इस प्रसंग से मुझे महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर का वह संस्मरण याद हो आता है, जिसमें उनसे एक काव्य-प्रमी ने प्रश्न किया था कि उन्होंने कोई महाकाव्य क्यों नही रचा? तो रवींद्रनाथ टैगोर ने उत्तर दिया था िकवे रचना तो चाहते थे महाकाव्य, लेकिन उनकी महाकाव्यीय प्रतिभा सरस्वती की पग-घुँघरुओं से टकराकर गीत बनती रही है। लोकगीतों में महाकाव्य की शास्त्रीयता की परतों और गीतों की जो अनुगूंज है, वह मुकम्मल महामानवेर आख्यान है। इस अनुगूंज को भी सुनने और सहे जाने वाले धूल में सने पाँव ही थे जो द्वार- द्वार भटककर काव्य की इस महार्घ संपदा को ग्राम्य गीतों के बहाने भविष्य के हाथों में सौंप गए थे। हमारा वर्तमान इन लोकगीतों से संवेदित होकर रचना के अनेक शीर्ष प्रसंग रच रहा है। लोक की जब अमृता शक्ति किसी अँजुरी में चू पड़ती है, तब वह अँजुरी वाग्देवी की लीला-स्थली बन जाती है। अलस भोर में जाँते से फूटती घर्र-घर्र के साथ कर्मठ और श्रमशीला गृहिणी के द्वारा गाया गया वह चक्की गीत, जो अपने स्वर-शर संधान से अंधेरे के वक्ष को चीरकर एक सूरज जनमना चाहता है, क्या कभी अपना पैनापन खो सकता है? तिमिर के सीने में धँसी उसकी ज्योति अनी अपनी वेधकता से सदैव सूरज उगाती रहेगी। न रहे जाँता, न रहे चक्की! पर वह निमाड़ी गीत जब भी अक्षरों की सतरों से उठकर कंठ तक आएगा तब जातीय स्मृतियों में निहहित श्रमशील परंपरा को चेतना पटल पर प्रत्यक्ष करता रहेगा। इतिहास जब जातीय स्मृतियों में घुल मिलकर आता है, तब वह किसी महाजाति की गौरव आख्यायिका मात्र न होकर उस जाति की दिशा निर्धारक शाश्वत प्रेरणा-स्थली बन जाता हें एक ऐसी प्रेरणा-स्थली जहाँ से वर्तमान की रगों में स्फूर्तिजन्य चेतना का विस्फोट होता रहता है, जो भविष्य की चुनौती के लिए प्रतिरोधी शक्ति की तरह अखंड आवेग भरता रहता है, जहाँ ’जागो फिर एक बार’ का राग बजता रहात है और जगे हम लगे जगाने विश्व की अनुगूँज भरने लगती है। लोक इस प्रेरणा-भाव को जब अपने भीतर समेटता है तब आल्हा की सृष्टि होती है। पुरुषार्थ का चरम खटिया में पड़कर मर जाने में नहीं है। संग्राम में अडिग रहकर, सप्तावरण भेदकर सहस्रार से साक्षात्कार ही चरम पुरुषार्थ हैं लोक की यही वीरता और लोक का यह साहस किसी लोक अन्वेषक योद्धा का ही शौर्य प्रकट कर पाता है।

ये पगचारी ही लोक का असल सत्व अपने कृतित्व में प्रकट कर पाए हैं। लोक के रंग झड़ते जा रहे हैं। बाजार लोक में पैठ बना चुका है और लोक अपने असल से वंचित होता जा रहा है। लोक के भीतर रहने वाले ये पदचारी साधक भी धीरे-धीरे विदा लेते जा रहे हैं। देवेंद्र सत्यार्थी गए। वे सत्यार्थी जिन्होंने हजारों किलोमीटर की दूरियाँ नंगे पाँव नापकर लोक की धूल में सने चंदन की गंध अपनी कृतियों की पुटिका में कुछ इस तरह से सुरक्षित रख दी है कि वे युगों-युगों तक अपनी पवित्र महक से साहित्य देवता के श्री- विग्रह का चंदन अभिषेक करती रहेगी। देवेंद्र सत्यार्थी ने जो अनेक बोलियों के लोकगीत संकलित किए हैं, वे मानवीय जीवन के दुःख-दर्द, हास-विलास, उल्लास-उत्साह के स्मृति आलेख हैं। इनकी अनुगूँज आकाश के कानों में प्रकृति का संगीत भरती रही है। धरती की कोख में ये गीत जीवन-लीला रचते रहे हैं। अपने आचरण में ये गीत लोक के विराट् भावलोक को उन्मोचित करते रहे हैं। यदि सत्याथीर्ल जैसे पगचारी अन्वेषक इन लोकगीतों को न मिलते तो ये लोकगीत अपने गायक दिलगीर के साथ ही चले जाते ओर सृष्टि की एक सुकोमल सं
वेदना की तड़प सदैव के लिए तिरोहित हो जाती।

लोकगीतों को अक्षुण्ण रखने के लिए सत्यार्थी जी ने कितने ताप-ताए दिन, कितनी वर्षा-रातें, कितने शीत-प्रभातों को सहा होगा ! इसका अनुमान वे नहीं कर सकते हैं, जो एयर कंडीशन कक्षों में बैठकर साहित्य की जुगाली करते हैं। रामनरेश त्रिपाठी को धीरे-धीरे नई पीढ़ी भूल जाएगी, क्योंकि इस पीढ़ी के पास सिवाय उपरंगेपन के कुछ बचा नहीं। ये पोस्ट मॉडर्निज्म पर तो गासिप कर लेते हैं, किंतु उन लोकगीतों तक जाने की ललक इनके भीतर शेष नहीं जो रामनरेश त्रिपाठी ने संकलित किए हैं। यदि रामनरेश त्रिपाठी उस जमाने में यायावरी न करते तो लोक के नायाब तोहफों से हमारा वर्तमान अपने आपको परिपूरित नहीं कर पाता। बेटी की विदाई पर माता-पिता के आँसू जरूर बहते, पर उनमें लहराती गंगा-यमुना और हिल्लोलित होते वेला-ताल का दृश्य हम न देख पाते। ’माता के रोए गंगा-जमुना बहत है, पिता के रोए बेला ताल।’ एक पाठक ने एक जगह लिखा है कि मैंने बुंदेली साहित्य के अध्येता नर्मदा प्रसाद गुप्त को खादी की बंडी पहने और मोटे सूत की धेती पहने, सिर में गमछा बाँधे झाँसी, छतरपुर की देहातों में नवतपा की चिलचिलाती दोपहर में आम के पेड़ के नीचे कबेलुओं का डौर डालते मजदूरों, खुले खेत में खातू गिराते किसानों और शाम के समय चौपाल पर बैठे ग्रामीणों से लोकगीत सुनने और उन्हें नोट करते अनेक बार देखा है। वे आल्हा के प्रामाणिक पाठ के लिए वर्षों घर-बार छोड़कर भटके हैं। नर्मदा प्रसाद गुप्त का अभी हाल में ही देहावसान हुआ है। अपनी स्मृति में अनेक लोकगीतों को सँजोने वाले उनके आशयों और संदर्भों से भीजने वाले लोक-साहित्य के विमर्श की जड़ों को धरती की गहराई खोदकर परखने वाले और इन जड़ों को अपने प्राण-रस से सींचने वाले नर्मदा प्रसाद गुप्त को स्मृति-कोष से खारिज किया जा सकता है। आल्हा की गायकी के ओजस्वी स्वर और आल्हा की आत्म दीप्ति में नर्मदा प्रसाद गुप्त ने अपने स्वाभिमानी व्यक्तित्व को चमकदार बनाया हैं निमाड़ी के रामनारायण उपाध्याय ने जो निमाड़ी का रस अपने लेखन में उड़ेला है क्या वह कभी रीत सकता है ?

लोक-चिंतन के ये पैदल यात्री अब लोक की धरती पर नहीं दिखेंगे और नही अब यह आश्वस्ति है कि इस परंपरा को आगे बढ़ाने के प्रयास हो पाएँगे। लोक जो अभी भी बचा-खुचा है, वह बहुत जल्दी समाप्त होने वाला है। इसकी तरफ यदि समय रहते हमारा ध्यान नहीं गया तो लोक की लीक ही मिट जाएगी। यद्यपि हजारों वर्षों से लोक पर आघात होते रहे हैं, किंतु वह अपनी प्रयोगशाला प्रकृति के चलते इन आघातों को भी सृजन-संपदा में बदलता रहा है और अपना प्रतिकल्पी रूप प्रस्तुत करता रहा हैं किंतु भूमंडलीकरण के जबरदस्त आघात से लोक के तिरोहित होने के खतरे अधिक बढ़ गए हैं। अब उसकी प्रतिकल्पी विकास सामर्थ्य के लुप्त होने की संभावनाएँ ही अधिक हैं, अतः ऐसे आड़े वक्त में यह जरूरी है कि हम उस दिशा में विचार करें, जिसमें लोक की जीवंत प्रयोगशाला की पुनर्स्थापना किसी भी तरह से संभव हो सके। लोक को पाँव-पाँव पा लेने की हिकमत ठेलमठेल रेलमपेल जीपों-कारों के बीच भी थोड़ी सी बची रहे।

२७ अगस्त २०१२

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