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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से पद्मा शर्मा की कहानी— जलसमाधि


बोलेरो जीप शहर की फोरलेन सपाट सड़कों को पीछे छोड़ती हुई तहसील की उथली सड़कों पर थिरकने लगी थी। कभी किसी बड़े गड्ढे में पहिया आ जाता तो जीप जोर से हिचकोला खाती और परेश का समूचा शरीर हिल जाता। उसने अपनी नजरें सड़क पर जमा दीं...किसी बड़े गड्ढे को देखकर वह अपने शरीर को संयत करता और गेट के ऊपर बने हैण्डल पर अपनी पकड़ मजबूत कर लेता।

छोटे-बड़े गड्ढे सपाट सड़क का भूगोल बिगाड़े हुए थे जैसे गोरे चेहरे पर मुहाँसे या चेचक के निशान। कभी धुएँ का गुबार उठता तो कभी कचरे का ढेर दिखायी देता। शीशे चढ़े होने के बावजूद परेश रुमाल नाक पर रखता माथे पर शिकन गहरी हो जाती । यहाँ तक आने में ट्रेन का सफर तो ठीक रहा पर अब यह सफर परेशान कर रहा है।

परेश एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में कार्यरत है। चार दिन पहले मैनेजर ने एक लिफाफा थमाते हुए कहा था, ‘‘यह तुम्हारा नया प्रोजेक्ट है। कम्पनी वाटर फिल्टर का नया कारखाना खोलने जा रही है। उसकी साइट को देखना और तय करना सारी जिम्मेदारी तुम्हारी है। सरकारी अनुमति की प्रक्रिया आदि हम देख लेंगे।’’ परेश ने लिफाफा खोलकर पढ़ा तो उसकी आँखें हैरत से फैल गयीं। ‘चक्ख’ गाँव की ओर नदी पर यह कारखाना बनना था। एक अजीबोगरीब कशमकश में था वह।

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