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						 जुल्फिया 
						ख़ानम
 अमृता प्रीतम
 
 
						
						काले, केसरी और सब्ज़, 
						पीले–चाय के प्याले मैंने नए–नए ख़रीदे थे। दिल्ली में हो 
						रही एशियन राइटर्स कान्फ्रेंस पर जब कई देशों के डेलीगेटस 
						आए, मुलाकातें हुई, तो उनमें से कुछ उज़बेक लेखकों ने मेरे 
						घर आकर, मुझसे मिलना चाहा। उनमें एक जुल्फ़िया ख़ानम थी, और 
						स्वागत में मैंने घर की दहलीज़ के सामने 'खुशआमदीद' लफ़्ज 
						रंगोली की तरह सजाया था। इतना भर पता था कि उज़बेक लोग 
						उर्दू पढ़ लेते हैं, और अंदर कमरे में वे काले, केसरी, सब्ज़ 
						और पीले रंग के प्याले चाय से भर कर रखे थे...
 जुल्फ़िया को चाय का प्याला देने लगी, तो काला रंग मुझे कुछ 
						उदास लगा, केसरी रंग कुछ शोख़ लगा, सब्ज़ रंग भी गहरा था, 
						इसलिए मैंने हलके पीले रंग का प्याला उसे दिया। उस समय 
						जुल्फ़िया ने कहा – 'पीला रंग हिज्र का होता है, मुझे तो 
						आगे ही कुदरत ने ज़रूरत से ज़्यादा दे दिया है, इसलिए मुझे 
						केसरी रंग के प्याले में चाय दे दो।'
 
 मैंने उसे केसरी रंग का प्याला दे दिया और खुद पीले रंग का 
						ले लिया। उसने फिर कहा – 'देख, तेरी–मेरी दोस्ती में
						विरह नहीं आना चाहिए, 
						तू भी पीले रंग के प्याले में चाय न पी। हम दोनों बिरहा के 
						गीत लिखते थक गई हैं, और जुल्फ़िया हँसकर कहने लगी– 'यह 
						पीले रंग का प्याला तू किसी मर्द को दे दे। उन लोगों को 
						विरह नहीं छूता, अगर छूता भी है, तो बस थोड़ी देर के लिए...
 मैंने मर्द लेखकों की ओर देखा – वे हारे हुए से हँस रहे 
						थे...  आहिस्ता–आहिस्ता कमरा शायरी से महक गया। 
						बारी–बारी से सभी ने अपना कलाम पढ़ा, और फिर जुल्फ़िया ने 
						अपनी वह नज़्म पढ़ी, जिसके अक्षर–अक्षर से हिज्र की तपिश आ 
						रही थी...
 
 उस समय मैंने जाना कि हमीद आलम जान उसका महबूब ख़ाविंद था, 
						जो दो छोटे–छोटे बच्चे उसकी गोद में देकर इस दुनिया से 
						रुख़सत हो गया था, और जुल्फ़िया की नज़्म अब भी तड़पकर कह रही 
						थी ––
 
 दुनिया लाख बसती रहे
 पर तुम्हें ढूँढने के लिए
 आज बहार फिर से आई है...
 अब जिंदगी की ऋतुएँ जुल्फ़िया के साथ मिलकर उसे ढूँढ रही 
						है...
 
 उस रात कान्फ्रेंस की 
						ओर से एक मुशायरा था, जहाँ जुल्फ़िया को भी नज़्म पढ़नी थी, 
						पर जब उसकी बारी आई, उसने इतना ही कहा – 'आज अमृता के घर 
						मैंने अपनी वह नज़्म पढ़ी, जिसके बाद मैं सारी टूट गई हूं, 
						इसलिए अब कोई नज़्म पढ़ना मेरे अख्तियार में नहीं है...
 
 वह घड़ी थी – जब जुल्फ़िया के साथ मेरी असल पहचान हुई। एक 
						वास्तविक शायर से, जो किसी नज़्म के लिखते वक्त भी पूर्ण 
						तौर पर नज़्म में उतर जाता है, और फिर उसे कभी पढ़ने के वक्त 
						भी वह सारा पिघलकर अक्षरों में समा जाता है...  .
 
 १९६१ के बरस, अप्रैल, मई के वे दिन आए, जब मैं उज़बेकिस्तान 
						गई, तो किसी होटल में रहने की जगह, जुल्फ़िया के घर में रही 
						थी – कोई पन्द्रह दिन। उन दिनों के अनुभव को मैंने दो 
						पंक्तियों में लिखा था ––
 
 कब से बिछुड़ी हुई क़लम, जैसे काग़ज के गले मिलती है
 और इश्क़ का रहस्य खुलता है
 एक पंक्ति पंक्ति पंजाबी में, एक उज़बेक में
 और देखो फिर भी काफ़िया मिलता है...
 यह हमारा मिलन इस तरह था – जिसने दोस्ती को एक नज़्म बना 
						दिया। ताशकंद युनिवर्सिटी में मेरा परिचय देते हुए 
						जुल्फ़िया ने मेरी एक नज़्म का उज़बेक तर्जुमा पढ़ा, और मैंने 
						उसकी नज़्म का पंजाबी तर्जुमा पढ़ा और जब यूनीवर्सिटी की ओर 
						से मुझे उज़बेक टोपी की सौग़ात दी गई, जो रेशमी धागों की बड़ी 
						प्यारी कढ़ाई वाली थी, उसे मेरे सिर पर रखकर जुल्फ़िया बोली 
						– 'हाय अल्लाह, एकदम उज़बेक लग रही हैं...'
 दूसरे दिन हम लोगों को रेशम कातने वाली मिल में जाना था। 
						कारिगरों से मिलना था, और उन्होंने जब हम दोनों को रेशमी 
						स्कार्फ़ दिए, और जुल्फ़िया ने वह अपना स्कार्फ़ सिर पर लपेट 
						लिया, तो सचमुच वह एक पक्की पंजाबी लड़की लग रही थी...
 
 और उस रात जुल्फ़िया ने फिर एक नज़्म लिखी – अपने हमीद आलम 
						जान के लिए, और हम दोनों जब सुबह कुछ फूल लेकर उसकी क़ब्र 
						पर गई, तो जुल्फ़िया ने अपनी नज़्म भी कब्र पर रख दी...  
						उस समय मैंने जाना कि जुल्फ़िया जब भी कोई नज़्म लिखती है, 
						उसकी पहली कॉपी वह हमेशा हमीद आलम जान की कब्र पर जा कर रख 
						देती है...
 
 अब १९९६ में २३ अगस्त की शाम–– ताशकंद से फोन आया था, 
						हिंदुस्तान के सिफ़ारतख़ाने से – २ अगस्त वाले दिन जुल्फ़िया 
						इस दुनिया को विदा कह गई है। वह यहाँ के लोगों की बड़ी 
						मक़बूल शायरा थी। हमें कुछ दिनों में उसकी याद में एक दिन 
						सर्फ़ करना है, जिसके लिए अपना पैगाम भेज दीजिए। सुना है कि 
						वह आपकी बहुत अच्छी दोस्त थी...
 
 इन्हीं कुछ यादों के चार लफ़्ज लिखते हुए – मैंने लिखा कि 
						ये मेरे लफ़्ज जुल्फ़िया ख़ानम की कब्र पर रख देना!
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