आचार्य नरेंद्रदेव: नई संस्कृति के
सर्जक
कुमुद शर्मा
हिंदी में
समाजवाद के सर्वप्रथम व्याख्याकार आचार्य नरेन्द्र देव,
ऐसे राजनीतिक विचारक, चिंतक, लेखक, शिक्षाशास्त्री और
पत्रकार थे जिनके चिंतन, मनन और व्यवहार में मूल्य-बोध के
प्रति प्रतिबद्धता साफ झलकती थी; जिनकी राजनीतिक और
सामाजिक चेतना में भारतीय भाषा, साहित्य, संस्कृति और
इतिहास के लिए खास जगह थी। प्राचीन संस्कृति के उत्कृष्ट
पक्ष की रचना करते हुए उन्होंने आधुनिक युग के सामाजिक और
आध्यात्मिक मूल्यों को अपनाकर एक नई संस्कृति का सृजन
किया। एक सामान्य संस्कृति को विकसित करने के लिए उन्होंने
हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में स्वीकार किए जाने पर बल
दिया और हिंदी के प्रचार-प्रचार एवं संवर्द्धन को आवश्यक
माना।
हिंदी, संस्कृत, उर्दू, पाली, प्राकृत और बांग्ला आदि अनेक
भाषाओं के ज्ञाता आचार्य नरेंद्रदेव का जन्म सीतापुर
(उत्तर प्रदेश) में ३१ अक्टूबर, १८८९ को हुआ और निधन १९
फरवरी,१९५६ को। हिंदी प्रेम उन्हें विरासत में मिला था।
बहुत ही कम उम्र में उन्होंने ’रामचतिमानस‘, ’भगवद्गीता‘,
’महाभारत‘ जैसे ग्रंथों का अध्ययन घर पर ही कर लिया था।
प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. तथा वकालात की
परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे फैजाबाद में वकालात करने
लगे। स्वाधीनता संग्राम के दौरान असहयोग आंदोलन में भाग
लेने के लिए उन्होंने वकालात छोड़ दी। लोकमान्य तिलक के
नेतृत्व ने उनके राजनीतिक क्रियाकलापों को प्रेरणा और गति
दी। सन् १९२१ में वे काशी विद्यापीठ में अध्यापक बने, फिर
आचार्य और बाद में कुलपति।
स्वामी रामतीर्थ, विवेकानंद, मदनमोहन मालवीय, तिलक, गांधी
और नेहरू जैसे महापुरूषों का व्यक्तित्व और कृतित्व का
प्रभाव नरेंद्रदेव पर पड़ा। लेकिन इतिहास, दर्शन,
समाजशास्त्र, राजनीति, संस्कृति, भाषा आदि के संदर्भ में
उनकी अपनी ही विशिष्ट सोच थी। उन्होंने किसी भी प्रचलित
वाद का अंधानुकरण नहीं किया, बल्कि एक समन्वयात्मक दृष्टि
अपनाते हुए भारतीय परिवेश के अनुकूल सामयिक समस्याओं के
समाधान के लिए एक नई राह खोजने की कोशिश की। चिंतन के
गांभीर्य, अध्ययन की व्यापकता, सामाजिक-राजनीतिक तथा
सांस्कृतिक जागरूकता ने उनके व्यक्तित्व को गरिमामय रूप
दिया। उनकी बौद्धिक प्रखरता और पांडित्य से प्रभावित उनके
एक साथी श्रीप्रकाश ने उन्हें ’आचार्य‘ कहना शुरू कर दिया।
धीरे-धीरे इसी विशेषण के साथ उनका नाम शुरू हुआ।
राष्ट्रीय संघर्ष के समय आचार्य नरेंद्रदेव के राजनीतिक और
सांस्कृतिक नेतृत्व का महत्वपूर्ण प्रदेय रहा। राजनीतिक
विचारक और चिंतक की भूमिका में उन्होंने राजनीतिक
क्रियाकलापों में ही महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई, बल्कि
विभिन्न राजनीतिक क आंदोलनों में भी सक्रिय रूप से भाग
लिया। वे गांधी जी के साथ नजर बंद भी रहे। जयप्रकाश
नारायण, राममनोहर लोहिया आदि साथियों के साथ उन्होंने
’कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना भी की थी। देश के
आजाद होने पर उन्होंने राजसत्ता से मुक्त रहकर
निस्स्ववार्थ भाव से राष्ट्र की सेवा की।
आचार्य नरेंद्रदेव की समाजवादी व्याख्याएँ मानववादी आधारों
पर विकसित हुई। उन्होंने साम्यवादियों की तरह इसके अंतर्गत
केवल पेट का सवाल नहीं उठाया। उन्होंने कहा, ’समाजवाद का
सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है, समाजवाद मानव स्वतंत्रता
की कुंजी है।....एक स्वतंत्र-सुखी समाज में संपूर्ण
मनुष्यत्व की सृष्टि तभी हो सकती है जब साधन भी संुदर
हों।‘ उन्होंने लोकतांत्रिक समाजवाद की बात करते हुए
समाजवाद को राष्ट्रीयता और किसान आंदोलनों से जोड़ा। अपने
आदर्शो और सिद्धांतों में जनहित एवं व्यावहारिक उपादेयता
को भी केंद्र में रखा।
नरेंद्रदेव ने अतीत के अनुभव के आलोक में वर्तमान को देखा।
प्राचीन संस्कृति के साधक तत्वों और नवीन विकासमान मूल्यों
का आग्रह लेकर नई संस्कृति के सृजन का बीड़ा उठाया। ’नैतिक
व्यवस्था की स्थापना‘, ’आचरण की शुद्धता‘ तथा
’सार्वजनीनता‘ जैसे पहलुओं को केंद्र में रखकर ही उन्होंने
जगत् में प्रगतिशील नई अवधारणाओं को अपनाया।
शिक्षाशास्त्री की भूमिका में उन्होंने उस जनतांत्रिक
शिक्षा पर बल दिया जो जनता के भीतर विवेचनात्मक शक्ति और
आत्मनिणर्य की क्षमता विकसित कर सके।
नैतिक व्यवस्था की स्थापना में नरेंद्रदेव धर्म की
सर्वप्रभावी भूमिका को महत्वपूर्ण मानते थे, इसलिए
उन्होंने धार्मिक शिक्षा को भी महत्वपूर्ण माना। बौद्ध
धर्म और दशर्न से प्रभावित होकर उन्होंने ’बौद्ध धर्म
दर्शन‘ नामक एक ग्रंथ भी लिखा, जो उनकी मृत्यु के बाद
प्रकाशित हुआ। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकें
हैं-’राष्ट्रीयता और समाजवाद‘, ’समाजवाद: लक्ष्य तथा
साधना‘, ’समाजवाद का बिगुल‘, भारतीय संस्कृति का इतिहास‘,
’समाजवाद‘, ’बोधिचर्या तथा महायान‘ और ’अभिधर्म कोश‘। इसके
अतिरिक्त उन्होंने अपनी राजनीतिक विचारधारा के
प्रचार-प्रसार और नई संस्कृति के आवाहन के लिए संपादक का
दायितव ओढ़ते हुए राष्ट्रीय पत्रकारिता को भी गति प्रदान
की। वे ’जनवाणी‘, ’संघर्ष‘, ’जनता‘, ’समाज‘ आदि पत्रिकाओं
के संपादन-प्रकाशन के दायित्व से जुड़े रहे।
यद्यपि नरेंद्रदेवजी ने इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र आदि
साहित्येतर विषयों पर ही कलम चलाई, लेकिन उनका लेखन
साहित्यिक तत्वों से परे नहीं था। हिंदी भाषा और साहित्य
के विकास में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। वे हिंदी भाषा
और साहित्य को राष्ट्रीय पद दिलाना चाहते थे। उन्होंने
’मर्यादा‘ पत्रिका के सन् १९१३ के एक अंक में ’हमारा हिंदी
के प्रति कर्तव्य‘ शीर्षक से एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने
हिंदी प्रेमियों से भाषा को देश व्यापी बनाने के लिए देशी
भाषाओं के समान हिंदी साहित्य के भंडार को भी समृद्ध करने
की बात कही। राष्ट्रीय एकता के लिए वे भारतीय भाषाओं में
मेल की प्रक्रिया की गति को तेज करना चाहते थे। उनके
अनुसार, राष्ट्रीय साहित्य को ’राष्ट्रीयता और जनतंत्र का‘
प्रतिनिधित्व करना होगा। हिंदी भाषा-भाषियों को उदार और
व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की सलाह देते हुए उन्होंने की
हिंदी साहित्य को भारत के विभिन्न साहित्य को आत्मसात्
करके उत्तर-दक्षिण का भेद मिटा देना चाहिए। उन्होंने उसी
साहित्य को प्रगतिशील माना जो जीवन को केंद्र में रखकर
चलता हो और मानवीय भावनाएँ जिसका उपजीव्य हों।
इतिहास, राजनीति, और समाजशास्त्र पर हिंदी में लिखी आचार्य
नरेंद्रदेव की कृतियों और हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रति
उनके दृष्टिकोण ने हिंदी भाषा और साहित्य को एक व्यापक
दिशा दी। मानवीय मूल्यों और सामाजिक आदर्शों के लिए कला,
जीवन और साहित्य में सत्यं, शिवं, सुंदरम् जैसे मूल्यों की
समन्वित अभिव्यक्ति का जो संदेश उन्होंने दिया उसकी गूँज
हमेशा बनी रहेगी।
३ सितंबर २०१२
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