गेहूँ मध्य पूर्व के लेवांत क्षेत्र से आई एक घास
है जिसकी खेती दुनिया भर में की जाती है। विश्व भर
में, भोजन के लिए उगाई जाने वाली धान्य फसलों मे
मक्का के बाद गेहूँ दूसरी सबसे ज्यादा उगाई जाने
वाले फसल है।
गेहूँ की रोटी भारत के लगभग हर प्रदेश में किसी न
किसी रूप में खाई जाती है। विशेषरूप से उत्तरी
भारत में दिन का प्रारंभ अनेक घरों में गेहूँ से
निर्मित ब्रेड या पराठों के साथ ही होता है। इसके
अतिरिक्त इससे अनेक प्रकार के मिष्ठान्न तथा
स्वास्थ्यप्रद भोजन भी बनाए जाते है इस कारण गेहूँ
को "अनाजों का राजा" माना जाता है।
विश्व में कुल कृषि भूमि के लगभग छठे भाग पर गेहूँ
की खेती की जाती है यद्यपि एशिया में मुख्य रूप से
धान की खेती की जाती है, तो भी गेहूँ विश्व के सभी
प्रायद्वीपों में उगाया जाता है। यह विश्व की
बढ़ती जनसंख्या के लिए लगभग २० प्रतिशत आहार
कैलोरी की पूर्ति करता है। प्रति वर्ष इसका
उत्पादन ६२.२२ करोड़ टन से भी अधिक होता है। चीन
के बाद भारत गेहूँ दूसरा विशालतम उत्पादक है।
गेहूँ खाद्यान्न फसलों के बीच विशिष्ट स्थान रखता
है। कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन गेहूँ के दो मुख्य
घटक हैं। गेहूँ में औसतन ११-१२ प्रतिशत प्रोटीन
होता हैं। गेहूँ मुख्यत: विश्व के दो मौसमों, यानी
शीत एवं वसंत ऋतुओं में उगाया जाता है। शीतकालीन
गेहूँ ठंडे देशों, जैसे यूरोप, सं॰ रा॰ अमेरिका,
आस्ट्रेलिया, रूस राज्य संघ आदि में उगाया जाता है
जबकि वसंतकालीन गेहूँ एशिया एवं संयुक्त राज्य
अमेरिका के एक हिस्से में उगाया जाता है।
वसंतकालीन गेहूँ १२०-१३० दिनों में परिपक्व हो
जाता है जबकि शीतकालीन गेहूँ पकने के लिए २४०-३००
दिन लेता है। इस कारण शीतकालीन गेहूँ की उत्पादकता
वंसतकालीन गेहूँ की तुलना में अधिक हाती है।
भारत में सर्वत्र गेहूँ का उत्पादन विशेषतः पंजाब, गुजरात और उत्तरी भारत में गेहूँ
पर्याप्त मात्रा में होता है। वर्षा ऋतु में खरीफ
की फसल के रूप में और सर्दी में रबी फसल के रूप
में बोया जाता है। अच्छी सिचाई वाले रबी की फसल के
गेहूँ को अच्छे निथार वाली काली, पीली या बेसर
रेतीली जमीन अधिक अनुकूल पड़ती है जबकि खरीफ की
बिना सिचाई वाली वर्षा की फसल के लिए काली और नमी
का संग्रह करने वाली चकनी जमीन अनुकूल होती है।
सामान्यतः नरम काली जमीन गेहूँ की फसल के लिए
अनुकूल होती है।
गेहूँ का पौधा डेढ़ -दो हाथ ऊँचा होता है। उसका
तना पोला होता है एवं उस पर ऊमियाँ (बालियाँ) लगती
है, जिसमे गेहूँ के दाने होते है। गेहूँ की हरी
ऊमियों को सेंककर खाया जाता है और सिके हुए
बालियों के दाने स्वादिष्ट होते है।
गेहूँ की अनेक किस्में होती है जिनमें कठोर गेहूँ
और नरम गेहूँ मुख्य है। रंगभेद की दृष्टि से गेहूँ
के सफ़ेद और लाल दो प्रकार होते है। इसके अतिरिक्त
बाजिया, पूसा, बंसी, पूनमिया, टुकड़ी, दाऊदखानी,
जुनागढ़ी, शरबती, सोनारा,कल्याण, सोना, सोनालिका,
१४७, लोकमान्य, चंदौसी आदि गेहूँ की अनेक प्रसिद्ध
किस्में है। इन सभी में गुजरात में भाल-प्रदेश के
कठोर गेहूँ और मध्य भारत में इंदौर- मालवा के
गेहूँ प्रशंसनीय है।
गेहूँ के आटे से रोटी, सेव, पाव रोटी,
ब्रेड,पूड़ी, केक, बिस्कुट, बाटी, बाफला आदि अनेक
बानगियाँ बनती है। इसके अतिरिक्त गेहू के आटे से
हलुआ, लपसी, मालपुआ, घेवर, खाजे, जलेबी आदि
मिठाइयाँ भी बनती है। गेहूँ के पकवानों में घी,
शक्कर, गुड़ या शर्करा डाली जाती है। गेहूँ को ५-६
दिन भिगोकर रखने के बाद उसके सत्व से बादामी
पौष्टिक हलुआ बनाया जाता है, गेहूँ का दालिया भी
पौष्टिक होता है और इसका उपयोग अशक्त बीमार लोगो
को शक्ति प्रदान करने के लिए होता है, गेहूँ के
सत्व से पापड़ और कचरिया भी बनायी जाती है। गेहूँ
में चरबी का अंश कम होता है अतः उसके आटे में घी
या तेल का मोयन दिया जाता है, और उसकी रोटी चपाती,
बाटी के साथ घी या मक्खन का उपयोग होता है। घी के
साथ गेहू का आहार करने से वायु प्रकोप दूर होता है
और बदहजमी नहीं होती। सामान्यतः गेहू का सेवन बारह
मास किया जाता है। गेहूँ से आटा, मैदा, रवा और
थूली तैयार की जाती है। गेहूँ में मधुर, शीतल,
वायु और पित्त को दूर करने वाले गरिष्ठ, कफकारक,
वीर्यवर्धक, बलदायक, स्निग्ध, जीवनीय, पौष्टिक,
रुचि उत्पन्न करने वाले और स्थिरता लाने वाले
विशेष तत्व है। घाव के लिए हितकारी होने के कारण
आटे की पुलटिस के रूप में गेहूँ का प्रयोग होता
है।
गेहूँ के जवारे
या गेहूँ की भुजरियाँ
गेहूँ के जवारे को आहार शास्त्री धरती की संजीवनी
मानते है। यह वह अमृत है जिसमे अनेक पोषक तत्वों
के साथ साथ रोग निवारक तत्व भी है। अनेक फल व
सब्जियों के तत्वों का मिश्रण हमें केवल गेहूँ के
रस में ही मिल जाता है। गेहूँ के रस में प्रचुर
मात्रा में पोषक तत्व होते है जिनके सेवन से कब्ज
व्याधि और गैसीय विकार दूर होते हैं, रक्त का
शुद्धीकरण भी होता है परिणामतः रक्त सम्बन्धी
विकार जैसे फोड़े, फुंसी, चर्मरोग आदि भी दूर हो
जाते हैं। आयुर्वेद में माना गया है कि फूटे हुए
घावों व फोड़ो पर जवारे के रस की पट्टी बाँधने से
शीघ्र लाभ होता है। श्वसन तंत्र पर भी गेहू रस का
अच्छा प्रभाव होता है सामान्य सर्दी खांसी तो
जवारे के प्रयोग से ४-५ दिनों में ही मिट जाती है
व दमे जैसा अत्यंत दुस्साहस रोग भी नियंत्रित हो
जाता है। गेहूँ के रस के सेवन से गुर्दों की
क्रियाशीलता बढती है और पथरी भी गल जाती है। इसके
अतिरिक्त दाँत व हड्डियों की मजबूती के लिये,
नेत्र विकार दूर करने और नेत्र ज्योति बढाने के
लिये, रक्तचाप व ह्रदय रोग से दूर रहने के लिये,
पेट के कृमि को शरीर से बाहर निकालने के लिये तथा
मासिक धर्म की अनियमितताए दूर करने के लिये भी
जवारे का रस के प्रयोग की बात कही जाती है।
जवारे का रस हमेशा ताजा ही प्रयोग में लायें, इसे
फ्रिज में रखकर कभी भी प्रयोग न करें क्यूंकि तब
वह तत्वहीन हो जाता है। जवारे का सेवन करने से आधा
घंटा पहले व आधा घंटा बाद में कुछ न लें। सेवन के
लिए प्रातः काल का समय ही उत्तम है। रस को धीरे
धीरे जायका लेते हुए पीना चाहिए न कि पानी की तरह
गटागट करके। जब तक गेहूँ के जवारे का सेवन कर रहे
हो उस अवधि में सदा व संतुलित भोजन करें, ज्यादा
मसालेयुक्त भोजन से परहेज रखे।
गेहूँ के पौधे का सीधे सेवन भी किया जाता है।
गेहूँ के पौधे प्राप्त करना अत्यंत आसान है,अपने
घर में ८ -१० गमले अच्छी मिटटी से भर ले इन गमलों
को ऐसे स्थान पर रखें जहाँ पर सूर्य का प्रकाश तो
रहे पर धूप न पड़े, साथ ही वह स्थान हवादार भी हो,
यदि जगह है तो क्यारी भी बना सकते है। पहले दिन
पहले गमले में उत्तम प्रकार के गेहूँ के दाने बो
दें इसी तरह दूसरे दिन दूसरे गमले में, फिर तीसरे
गमले में...आदि। यदा कदा पानी के छीटें भी गमले
में मारते रहें जिससे नमी बनी रहे, आठ दिन में
दाने अंकुरित होकर ८-१० इंच लम्बे हो जाते है बस
उन्हें नीचे से काटकर ( जड़ के पास से ) पानी से
धोकर रस बना लें, मिक्सी में भी रस बना सकते है।
उसे मिक्सी में पीसकर छानकर रोगी को पिला दे। खाली
गमले में पुनः गेहूँ के दाने बो दे इस तरह रस को
सुबह शाम लिया जा सकता है इससे किसी प्रकार की
हानि नहीं होती है लेकिन हर शरीर कि अपनी अलग
तासीर होती है इसीलिए एक बार अपने चिकित्सक से
सलाह अवश्य ले लें। |