इस सप्ताह—
समकालीन कहानियों में
भारत से एस आर हरनोट की कहानी
चश्मदीद
जज महोदय ने एक सरसरी निगाह
सुमना पर डाली। उन्हें लगा जैसे एक छोटा-सा गाँव उस लड़की के
साथ कटघरे में खड़ा हो गया हो। उलझे हुए बाल. . .जैसे कई
महीनों से धोए ही न हो। कई लटें माथे से गालों पर गिरती-पड़ती।
शर्मसार आँखें। जैसे तमाम दुनिया की लज्जा उनमें समा गई हो।
सिर पर ओढ़ी मैली-सी चुनरी। मुरझाया हुआ चेहरा। सूखे-फटे ओंठ।
पीड़ाओं से लदे-भरे। उन्हें मिट्टी और गोबर की गंध अपनी तरफ़
आती महसूस हुई. . .जैसे वे किसी न्याय-गद्दी पर नहीं बल्कि
गाँव के किसी खेत की मुँडेर पर बैठे हो। कार्यवाही शुरू हो गई।
भीतर गहरा सन्नाटा पसर गया था। प्रतिवादी पक्ष का वकील अपनी जगह से
उठा। लंबा काला चोगा सँभाला और सुमना के पास जा कर खड़ा हो गया।
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हास्य-व्यंग्य में
डॉ. नवीन चंद्र लोहानी का आलेख
वाह डकैत हाय पुलिस
एंकर
परेशान था, उत्तेजना में था, खुश था, वह हाथ नचा रहा था, खीसें निपोर रहा
था। उँगली से इशारा कर रहा था। तेज़ी में था। पुलिस को डपट रहा था। डकैत
की जी हुज़ूरी कर रहा था। बार-बार डकैत को श्री के संबोधन से नवाज़ता,
उसकी सुरक्षा के लिए पुलिस को कठघरे में खड़ा करता और बार-बार अपने चैनल
की तारीफ़ करता। टेलिविजन के इतिहास की ज़िक्र करता बताता जो उनका चैनल
दिखा रहा है आज तक किसी ने नहीं दिखाया। हाय-हाय पुलिस तुम जिसे नहीं खोज
पाए हमारा संवाददाता करा लाया।
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दृष्टिकोण में महेश चंद्र द्विवेदी की कलम खोल रही है
भारतीय दंड-संहिता की
कमज़ोर कड़ियाँ
अनेक
प्रकरणों में वादी को खुश करने के लिए पुलिस एफ. आई. आर. लिख तो लेती
है लेकिन एफ.आई. आर. की भाषा ऐसी कर देती है कि संज्ञेय अपराध भी
असंज्ञेय हो जाता है- मान लीजिए पिटते-पिटते आप की हड्डी क्रैक हो गई
तो पुलिस उसे तब तक क्रैक क्यों माने जब तक डाक्टर क्रैक होने का
सर्टीफ़िकेट न दे दे या आप उसे ऐसा मनवाने के लिए 'खुश़' न कर दें।
अगर पुलिस 'खुश' हो गई तो वह अभियुक्त की तुरंत गिरफ़्तारी भी कर
लेगी, नहीं तो आप से डाक्टरी मुआइना करा कर रिपोर्ट लाने को कह देगी।
अब डाक्टर साहब को आप 'खुश' न कर पाए तो वह आप की चोट को सरसरी निगाह
से देखकर 'सिंपल इंजरी' लिख देंगे।
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संस्मरण में
भीष्म साहनी की आपबीती-
हानूश का जन्म
''हानूश''
नाटक की प्रेरणा मुझे चेकोस्लोवेकिया की राजधानी प्राग से मिली। यूरोप की
यात्रा करते हुए एक बार शीला और मैं प्राग पहुँचे। उन दिनों निर्मल वर्मा
वहीं पर थे। होटल में सामान रखने के फौरन बाद मैं उनकी खोज में निकल
पड़ा। उस हॉस्टल में जा पहुँचा जिसका पता पहले से मेरे पास था। कमरा तो
मैंने ढूँढ़ निकाला, पर पता चला कि निर्मल वहाँ पर नहीं हैं। संभवतः वह
इटली की यात्रा पर गए हुए थे। बड़ी निराशा हुई। पर अचानक ही, दुसरे दिन
वह पहुँच भी गए और फिर उनके साथ उन सभी विरल स्मारकों, गिरजा स्थलों को
देखने का सुअवसर मिला, विशेषकर गॉथिक और 'बरोक' गिरजाघरों को जिनकी
निर्मल को गहरी जानकारी थी।
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महानगर की कहानियों में
कृष्णानंद कृष्ण की
लघुकथा
स्वाभिमानी
बरामदे
में बैठे-बैठे वे विचारों के समुद्र में गोते लगा रहे थे। कभी सामने
रोशनदान के ऊपर बैठे चिड़ा-चिड़ी को देखते तो कभी अपने वर्तमान और
अतीत में झाँकते। और कभी वे अतीत के आत्मीय क्षणों को पकड़ने की
कोशिश करते, किंतु बार-बार फिसल जाते थे। रोशनदान में लगाए गए घोंसले
के भीतर चिड़ा-चिड़ी के बच्चे भूख से चिल्ला रहे थे। एक समय उनकी भी ऐसी ही स्थिति थी। वे
भी अपने बच्चों के पालन-पोषण में व्यस्त रहते थे। उनके लिए
येन-केन-प्रकारेण सारी सुविधाएँ जुटाने में वे कभी हिचकते नहीं थे।
कभी किसी को तकलीफ़ नहीं होने दी। |