संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व का सबसे बड़ा प्रदूषक देश है,
जहाँ विश्व की ''५ प्रतिशत'' आबादी रहती है और जिसकी कुल
प्रदूषण में हिस्सेदारी है ''२५ प्रतिशत''! अमेरिका और
ऑस्ट्रेलिया ने क्योटो मसौदे पर हस्ताक्षर तो कर दिए हैं पर
अब उसकी शर्तों पर अंतिम सहमति देने से हिचकिचा रहे हैं।
अमेरिका का कहना है कि चीन और भारत पर भी गैसों का उत्सर्जन
कम करने के लिए दबाव डाला जाना चाहिए। अमेरिका को मुख्य
आपत्ति चीन से है क्यों कि चीन ही अमेरिका के बाद विश्व का
सबसे बड़ा प्रदूषक है। चीन इस बारे में कहता है कि जनसंख्या
के हिसाब से उसका कुल प्रदूषण में हिस्सा न केवल अमेरिका और
यूरोप, बल्कि विश्व के कुल औसत से भी कम है। भारत और चीन
जैसे देशों की समस्या है कि वहाँ के कानून में पर्यावरण
संबंधी नियम न के बराबर हैं और जो हैं भी, उनका पालन नहीं
किया जाता। यदि क्योटो मसौदे में चीन और भारत को भी हिदायतें
दी जाएँ तो उनकी सरकारें भी पर्यावरण के बारे में सजग होंगी।
तो इस प्रकार क्योटो मसौदे के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि
विश्व में सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले देश ने केवल
सांकेतिक रूप से हस्ताक्षर किए हैं और दूसरे सबसे अधिक
प्रदूषित देश को मसौदे के कड़े प्रावधानों से अलग रखा गया है।
यह क्योटो मसौदे की सार्थकता के सामने एक प्रश्न चिह्न है।
फिर भी यह कई देशों की सरकारों को पर्यावरण के मुद्दे पर
जागरूक कर पाया है, यही अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है।
पर्यावरण से जुड़े विषयों का
सीधा संबंध उद्योगों और अर्थव्यवस्था से है। बचपन में पिताजी
मुझे बताते थे कि अगर किसी को पैसा कमाना है तो उसे पैसा
खर्च करना सीखना होगा। मैं उलझन में पड़ जाता कि अगर किसी के
पास पैसा ही नहीं है वो कैसे खर्च करेगा! लेकिन सच्चाई यह है
कि अमेरिका और कई यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था की बुनियाद
इसी एक नियम पर टिकी है।
संयुक्त
राज्य अमरीका का ''२००६'' में सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जी.डी.पी.) था ''१३०००
अरब डालर'', भारत से लगभग ''१५ गुना''! स्पष्ट-सी बात है कि
इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था अकेले नहीं खड़ी है। चीन, जापान और
भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं ने उसे सहारा दिया है। भारत और चीन
में सस्ते श्रम की उपलब्धता और अमेरिका में जापान का निवेश
अमेरिकी अर्थव्यवस्था को टिकाकर रखने वाले मज़बूत स्तंभ हैं।
इसी सिलसिले में एक प्रश्न
पूछा जा सकता है - चीन में कितना प्रदूषण अमेरिकी और यूरोपीय
बाज़ार की माँग पूरी करने के कारण होता है? फिर चीन में होने
वाले प्रदूषण के लिए अकेले चीन को ही कटघरे में खड़ा करना
कितना उचित है?
अब ज़रा एक
नज़र अमेरिका पर भी डालें। संयुक्त राज्य अमेरिका की कुल
आबादी है ''३०
करोड़'' और वहाँ के परिवहन विभाग के अनुसार पंजीकृत चौपहिया
वाहनों की कुल संख्या है ''२५ करोड़''। चार लोगों के एक
परिवार में औसतन तीन-चार गाड़ियाँ! अब ईंधन की इतनी बड़ी खपत
करने वाला एक देश बाकी देशों के तेल भंडारों पर तो नज़र रखेगा
ही, साथ ही प्रदूषण भी फैलाएगा। उपभोक्तावाद से ग्रस्त
पश्चिमी जीवन शैली में किसी भी वस्तु की खपत उसकी आवश्यकता
से कहीं अधिक होती है।
यदि आप एक कमीज़ बाज़ार में
ख़रीदने जाएँ तो बहुत संभव है कि कंपनी आपको दूसरी कमीज़
सस्ते में बेचने तो राज़ी हो और आप दो कमीज़ें लेकर लौटें।
विश्व की कई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की बुनियाद यही उपभोक्तावादी
सोच है। समय रहते ऐसी अर्थव्यवस्था वाले देशों को अपनी आदतों
में मूलभूत परिवर्तन लाना होगा।
मैं कई बार ऐसी किसी युक्ति
की कल्पना किया करता था जिससे सारी दुनियाँ की ऊर्जा संबंधी
ज़रूरतें पूरी की जा सकें। पर आज मुझे भरोसा हो चुका है कि
ऐसी कोई युक्ति संभव नहीं क्यों कि ज़रूरतें तो पूरी की जा
सकती हैं, लालच नही! निदा फ़ाज़ली ने कहा है - "लेकर तन के नाप
को घूमे बस्ती-गाँव, हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव।" अब
समय आ गया है कि सब यह तय करें कि हमारी आवश्यकतायें क्या
हैं और परम आवश्यकतायें क्या हैं।
हम भारतवासी इससे जुड़ा सवाल
यह कर सकते हैं कि हमारे पास तो हमारी आवश्यकताओं से अधिक
कुछ ख़ास नहीं है, हम अपने आप को क्यों नियंत्रित करें? तो
जवाब यह है कि विकसित देशों में जो हो रहा है, उससे कुछ सीख
लीजिए। कहीं कल हमारी भी स्थिति उन जैसी न हो जाए। भारतीय
अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे तेज़ी बढ़ती हुई दूसरी
अर्थव्यवस्था है। यदि हमने भी पश्चिम के उपभोक्तावाद का
अंधानुकरण किया तो सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में तो
वृद्धि अवश्य होगी पर साथ ही हम अपनी विलासिताओं के दास भी
हो जाएँगे। एक आम प्रवृत्ति है "यदि मैं खर्च करने की क्षमता
रखता हूँ तो भला खर्च क्यों न करूँ। इतनी मेहनत आख़िर किसलिए
करता हूँ?" पर ज़रा सोचिए, हम प्रकृति
से जो कुछ भी पाते हैं, क्या उसकी कीमत अदा कर पाने में
सक्षम हैं? जी नहीं, आप किसी वस्तु की नहीं केवल उसके
रख-रखाव और साज-सज्जा की कीमत ही अदा करते हैं। उत्पाद बनाने
के लिए कंपनी ने प्रकृति का जो दोहन किया उसकी तो कोई कीमत
हो ही नहीं सकती। |
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आम धारणा है
कि तापवृद्धि केवल मनुष्यों द्वारा उपजाई गई समस्या है।
वास्तव में मानवीय क्रिया-कलाप धरती के बढ़ते हुए तापमान के
एक अंश के लिए ही उत्तरदायी हैं। प्रकृति में स्वत: होने
वाली बहुत-सी प्रक्रियाएँ भी तापवृद्धि का कारण हैं।
वैज्ञानिकों ने तापवृद्धि के बारे बहुत-सी व्याख्याएँ की हैं
और इस संबंध में सर्वमान्य सिद्धांत स्थापित करने की दिशा
में प्रयास किए हैं। हम इन्हीं सिद्धांतों के बारे में चर्चा
करते हैं।
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ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन: हमारे
वातावरण की निचली सतह में उपस्थित ग्रीनहाउस गैसें सूर्य
से आने वाले प्रकाश को पृथ्वी पर आने देती हैं। फलस्वरूप
पृथ्वी गर्म होने लगती है और अवरक्त प्रकाश (इन्फ्रारेड
रेडियेशन) उत्सर्जित करती है। ग्रीनहाउस गैसें इस प्रकाश
को पृथ्वी के वातावरण से बाहर नहीं निकलने देतीं और इस
प्रकार बहुत-सी उष्मा पृथ्वी के इर्द-गिर्द संचित होती
रहती है। मुख्य ग्रीनहाउस गैसें हैं - कार्बन डाई-ऑंक्साइड,
मीथेन, जल-वाष्प, नाइट्रस ऑंक्साइड और ओज़ोन। ग्रीनहाउस
गैसों की वृद्धि बहुत-सी मानवीय गतिविधियों जैसे,
जीवाश्मों का जलना, वनों की कटाई और कृषि कार्य से भी होती
है। हालाँकि ग्रीनहाउस गैसों की हमारे जीवन में बहुत
उपयोगिता भी है। यदि ये गैसें न हों तो हमारी धरती का
तापमान इतना कम हो जाएगा की पृथ्वी पर जीवन की कल्पना भी
नहीं की जा सकेगी।
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