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आज सिरहाने

 

लेखक
ज्ञानप्रकाश विवेक
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प्रकाशक
वाणी प्रकाशन,
दरियागंज, नई दिल्ली-2

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पृष्ठ - 300
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मूल्य - 300 रुपए
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दिल्ली दरवाज़ा  (उपन्यास)

तकनीकी विकास एक राष्ट्र को जहाँ अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर पहचान दिलवाता है, वहीं समाज के स्तर पर एक बड़ी अजनबीयत को भी जन्म देता है। बड़े स्तर पर अपनी पहचान की होड़ ने हमें भीतर से कितना संवेदना शून्य बनाया है, इसका उदाहरण महानगरों में पनप रही संस्कृति में देखा जा सकता है। दिल्ली के माध्यम से आज हम विकास की इस गति को नोटिस कर सकते हैं, और साथ ही नोटिस किया जो सकता है छीजती जाती मानवता की गति को भी। इसी दिशा में ज्ञानप्रकाश विवेक का यह उपन्यास दिल्ली के हर उस अनुभव से हमें रू-ब-रू करवाता है। जो एक राज्य को बाज़ार में तब्दील करता है। 'दिल्ली दरवाज़ा' इतिहास में प्रवेश कर उसकी राहों से गुज़रते हुए वर्तमान तक पहुँचने का माध्यम है।

विभिन्न विधाओं में सृजन करने वाले विवेक का यह तीसरा उपन्यास है। एकबारगी पढ़ने पर उपन्यास की शैली अजीब तो लगती है, परंतु दिल्ली जैसे शहर में, जहाँ सब एक-दूसरे से अपरिचित-से लगते हैं, उपन्यास में उस शहर को उतारते हुए शैली में उस अजनबीयत से कैसे बचा जा सकता था। प्रारंभ में उपन्यास पाठकों से बातें करता है, और फिर उपन्यासकार धीरे-से अपने एक प्रतिनिधि 'किरदार' को शहर में उतार देता है, जो चुपके-चुपके दिल्ली के अनेक चेहरों से रू-ब-रू होता है। वास्तव में किरदार एक ऐसा पात्र लगता है, जो सदियों की कब्र से उठ आया है और आज लगभग पूरी तरह बदल चुकी दिल्ली में बेगाना-सा घूम रहा है। उसे दिल्ली की सड़कों पर मिलने वाले पात्र - मिर्ज़ा ग़ालिब, रेल ड्राइवर, विदेशी पर्यटक, जादूगर, चित्रकार स्त्री, स्वच्छंद स्त्री-पुरुष माने मंच पर अपनी भूमिका अदा करने आते हैं और चले जाते हैं। जहाँ ग़ालिब दिल्ली के इस बदलते हाल से परेशान हैं, और दिल में दिल्ली की तहज़ीब बचाए हुए हैं, वहीं स्त्री-पुरुष संबंधों के बिकाऊ रूप की झलक दिखाते हैं। इसके बीच की गहराई पाटते हैं अन्य कई पात्र, जो इस महानगरीय सभ्यता की आत्मकेंद्रितता के सताए हैं। मोची, मेज़बान और कीर्ति जैसे पात्रों की रचना करके लेखक ने उस दिल्ली को दिखाने की कोशिश की है, जो महानगरीय मायाजाल के नीचे अभी भी अपने भीतर दिल्ली के अपने संस्कार-मानवता को छिपाए हुए हैं।
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किरदार दिल्ली में घूमते-घूमते लगभग सभी चौराहों से गुज़रता है। पुरानी दिल्ली से लेकर नई दिल्ली तक सब कुछ जैसे एक ही रंग में रंगा है। और यह रंग कितना फीका है, इसका अंदाज़ा उस्ताद और जमूरे के संवाद से लगाया जा सकता है। यह संवाद जहाँ दिल्ली के गौरवशाली इतिहास के सापेक्ष विडंबनाओं का निर्माण करता है, वहीं इस अंधाधुंध विकास के भीतर के खोखलेपन को उजागर कर देता है। इस दिल्ली के भीतर कई दिल्लियाँ हैं। बल्कि यह कहना ग़लत नहीं होगा कि यहाँ रहने वाले हर बाशिंदे की अपनी एक दिल्ली है। किरदार इन चौराहों से गुज़रते हुए जितने लोगों से मिलता है, सब अपनी दुनिया में मगन हैं। सबका अपना भ्रम है, अपनी मसरूफ़ियत। ज़िंदगी की यह मसरूफ़ियत अति-भौतिकता की देन है। इसी अति-भौतिकता की शिकार है कीर्ती के व्यक्तित्व के अंदर बसी हुई मानवता। पार्टियों की चकाचौंध में रमी कीर्ति वह कीर्ति है, जो दिल्ली के बाहरी रूप का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन उस गृहिणी के रूप को सिर्फ़ किरदार एक खुफ़िया कैमरे की तरह हमारे सामने लाता है, जो अपाहिज पति की सेवा एक निपट औरत बनकर करती है। आज जब ह्रदय पर बुद्धि हावा है, और राज्य पर बाज़ार, वहाँ हम संबंधों में आत्मीयता की कल्पना कर भी कैसे सकते हैं।

ऊपरी चकाचौंध से आकर्षित करने वाली दिल्ली के ज़रा-सा भीतर पैठ कर देखा जाए, तो खंडहरों पर पुते चमकीले रंगों की कलई अपने आप खुल जाती है। मोची, मेज़बान, जादूगर, भिखारी जैसे पात्र महानगरों के पीछे छिपे असली भारत का प्रतिरूप हैं। भारत के भीतर इन दो भारतों को 'दिल्ली दरवाज़ा' में आसानी से देखा जा सकता है।

उपन्यास आदि से अंत तक बिखरा हुआ है। दिल्ली की सड़कों पर घूमते और अनेक संजोए हुए अनुभवों को रचना की शक्ल देने का प्रयास किया गया है। ग़ज़ल लेखक होने का प्रभाव लेखक की इस कल्पनाशीलता में देखा जा सकता है जहाँ उन्होंने अपने बारीक अनुभवों को रचना का आकार दे दिया है। कमलेश्वर के उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' की तरह 'दिल्ली दरवाज़ा' भी एक विसंगत रचना है, जहाँ कथासूत्र कहीं नहीं जुड़ता, और कहीं-कहीं अति-बौद्धिकता का आभास देता है।

ज्योति चावला
16 मार्च 2007

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