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युवा मैनेजरों में एम.डी. की इस स्पीच से खलबली मच गई। एल.पी.जी. विभाग के अधिकारियों के चेहरे उतर गए। समापन सत्र शाम सात बजे संपन्न हुआ तब बहुतों को लगा जैसे यह उनका विदाई समारोह भी है।
पवन भी थोड़ा उखड़ गया। वह अपनी रिपोर्ट भी प्रस्तुत नहीं कर पाया कि सौराष्ट्र के कितने गाँवों में उसकी इकाई ने नए आर्डर लिए और कहाँ-कहाँ से अन्य कंपनियों को अपदस्थ किया। रिपोर्ट की एक कॉपी उसने एम.डी. के सेक्रेटरी गायकवाड़ को दे दी।

राजकोट जाने से पहले अभिषेक से भी मिलना था। अनुपम उसके साथ था। उन्होंने घर पर फ़ोन किया। पता चला अभी दफ़्तर से नहीं आया।
वे दोनों आश्रम रोड उसके दफ़्तर की तरफ़ चल दिए। अनुपम ने कहा, ''मैं तो घर जाकर सबसे पहले अपना बायोडाटा अप टु डेट करता हूँ। लगता है यहाँ छँटनी होने वाली है।''
पवन हँसा, '' बहुराष्ट्रीय कंपनियों से संघर्ष करने का सबसे अच्छा तरीका है कि उनमें खुद घुस जाओ।''
अनुपम ने खुशी जताई, ''वाह भाई, यह तो मैंने सोचा भी नहीं था।''
अभिषेक अपना काम समेट रहा था। दोस्तों को देख चेहरा खिल उठा।
''पिछले बारह घंटे से मैं इस प्रेत के आगे बैठा हूँ।'' उसने अपने कंप्यूटर की तरफ़ इशारा किया, ''अब में और नहीं झेल सकता। चलो कहीं बैठ कर कॉफी पीते हैं, फिर घर चलेंगे।''

वे कॉफी हाउस में अपने भविष्य से अधिक अपनी कंपनियों के भविष्य की चिंता करते रहे।
अभिषेक ने कहा, ''निजी सेक्टर में सबसे ख़राब बात वही है, नथिंग इज ऑन पेपर। एम.डी. ने कहा घाटा है तो मानना पड़ेगा कि घाटा है। पब्लिक सेक्टर मैं कर्मचारी सिर पर चढ़ जाते हैं, पाई-पाई का हिसाब दिखाना पड़ता है।''
''फिर भी पब्लिक सेक्टर में बीमार इकाइयों की बेशुमार संख्या है। प्राइवेट सेक्टर में ऐसा नहीं है।''
अभिषेक हँसा, ''मुझसे ज़्यादा कौन जानेगा। मेरे पापा और चाचा दोनों पब्लिक सेक्टर में है। आजकल दोनों की कंपनी बंद चल रही हैं। पर पापा और चाचा दोनों बेफिक्र हैं। कहते हैं लेबर कोर्ट से जीत कर एक-एक पैसा वसूल कर लेंगे।''

अभिषेक की कंपनी की साख ऊँची थी और अभिषेक वहाँ पाँच साल से था पर नौकरी को लेकर असुरक्षा बोध उसे भी था। यहाँ हर दिन अपनी कामयाबी का सबूत देना पड़ता। कई बार क्लायंट को पसंद न आने पर अच्छी भली कॉपी में तब्दीलियाँ करनी पड़ती तो कभी पूरा प्रोजेक्ट ही कैंसल हो जाता। तब उसे लगता वह नाहक विज्ञापन प्रबंधन में फँस गया, कोई सरकारी नौकरी की होती, चैन की नींद सोता। पर पटरी बदलना रेलों के लिए सुगम होता है, ज़िंदगी के लिए दुर्गम। अब यह उसका परिचित संसार था, इसी में संघर्ष और सफलता निहित थी।

अभिषेक ने डिलाइट से चिली पनीर पैक करवाया कि घर चल कर खाना खाएँगे।
जैसे ही वे घर में दाखिल हुए देखा राजुल और अंकुर बाहर जाने के लिए बने ठने बैठे हैं।

उन्हें देखते ही वे चहककर बोले, ''अहा, तुम आ गए। चलो आज बाहर खाना खाएँगे। अंकुर शाम से ज़िद कर रहा है।''
अभिषेक ने कहा, ''आज घर में ही खाते हैं, मैं सब्ज़ी ले आया हूँ।''
राजुल बोली, ''तुमने सुबह वादा किया था शाम को बाहर ले चलोगे। सब्ज़ी फ्रिज में रख देते हैं, कल खाएँगे।''
राजुल ताले लगाने में व्यस्त हो गई। अभिषेक ने पवन और अनुपम से कहा, ''सॉरी यार, कभी-कभी घर में भी कॉपी गलत हो जाती है।''

तीनों थके हुए थे। पवन ने तो अठारह सौ किलोमीटर की यात्रा की थी। पर राजुल और अंकुर का जोश ठंडा करना उन्हें क्रूरता लगी।
स्टैला और पवन ने अपनी जन्मपत्रियाँ कंप्यूटर से मैच कीं तो पाया छत्तीस में से छब्बीस गुण मिलते हैं।
पवन ने कहा, ''लगता है तुमने कंप्यूटर को भी घूस दे रखी है।''
स्टैला बोली, ''यह पंडित तो बिना घूस के काम कर देता है।'' आकर्षण, दोस्ती और दिलजोई के बीच कुछ देर को उन्होंने यह भुला ही दिया कि इस रिश्ते के दूरगामी समीकरण किस प्रकार बैठेंगे। स्टैला के माता पिता आजकल शिकागो गए हुए थे। स्टैला के ई-मेल पत्र के जवाब में उन्होंने ई-मेल से बधाई भेजी। पवन ने माता पिता को फ़ोन पर बताया कि उसने लड़की पसंद कर ली है और वे अगले महीने यानी जुलाई में ही शादी कर लेंगे।

पांडे परिवार पवन की ख़बर पर हतबुद्ध रह गया। न उन्होंने लड़की देखी थी न उसका घर-बार। आकस्मिकता के प्रति उनके मन में सबसे पहले शंका पैदा हुई। राकेश ने पत्नी से कहा, ''पुन्नू के दिमाग में हर बात फितूर की तरह उठती है। ऐसा करो, तुम एक हफ़्ते की छुट्टी लेकर राजकोट हो आओ। लड़की भी देख लेना और पुन्नू को भी टटोल लेना। शादी कोई चार दिनों का खेल नहीं, हमेशा का रिश्ता है। इंटर से लेकर अब तक दर्जनों दोस्त रही हैं पुन्नू की, ऐसा चटपट फ़ैसला तो उसने कभी नहीं किया।''
''तुम भी चलो, मैं अकेली क्या कर लूँगी।''
''मैं कैसे जा सकता हूँ। फिर पुन्नू सबसे ज़्यादा तुम्हें मानता है, तुम हो आओ।''

रास्ते भर रेखा को लगता रहा कि जब वह राजकोट पहुँचेगी पवन ताली बजाते हुए कहेगा,''माँ मैंने यह मज़ाक इसीलिए किया था कि तुम दौड़ी आओ। वैसे तो तुम आती नहीं।''
उसने अपने आने की ख़बर बेटे को नहीं की थी। मन में उसे विस्मित करने का उत्साह था। साथ ही यह भी कि उसे परेशान न होना पड़े। अहमदाबाद से राजकोट की बस यात्रा उसे भारी पड़ी। तेज़ रफ़्तार के बावजूद तीन घंटे सहज ही लग गए। डायरी में लिखे पते पर जब वह स्कूटर से पहुँची छह बज चुके थे।
पवन तभी ऑफ़िस से लौटा था। अनुपम भी उसके साथ था। उसे देख पवन खुशी से बावला हो उठा. बाहों में उठा कर उसने माँ को पूरे घर में नचा दिया। अनुपम ने जल्दी से खूब मीठी चाय बनाई। थोड़ी देर में स्टैला वहाँ आ पहुँची।

पवन ने उनका परिचय कराया। स्टैला ने हैलो किया। पवन ने कहा, ''माँ स्टैला मेरी बिजनेस पार्टनर, लाइफ़ पार्टनर, रूम पार्टनर तीनों है।''
अनुपम बोला, ''हाँ अब जी.जी.जी.एल. चूल्हे चाहे भाड़ में जाए। तुम तो इंटरप्राइज के स्लीपिंग पार्टनर बन गए।''
स्टैला ने कहा, ''पवन डार्लिंग, जितने दिन मैम यहाँ पर हैं मैं मिसेज छजनानी के यहाँ सोऊँगी।''

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