''डील का क्या मतलब है। तुम अभी शादी जैसे रिश्ते की गंभीरता
नहीं जानते। शादी और व्यापार अलग-अलग चीज़ें है।''
''कोई भी नाम दो, इससे फ़र्क नहीं पड़ता। अगले महीने आप
चौबीस को मद्रास पहुँचो। स्वामी जी की सालगिरह पर चौबीस
जुलाई को बड़ा भारी जलसा होता है, कम से कम पचास शादियाँ
कराते हैं स्वामी जी।''
''सामूहिक विवाह?''
''हाँ। एक घंटे में सब काम पूरा हो जाता है।'' शल्य क्रिया
की तरह बेटे ने सब कुछ निर्धारित कर रखा था। पहले पुत्र को
लेकर परिवार के अरमानों के लिए इसमें कोई गुंजाइश नहीं थीं।
माँ ने अंतिम दलील दी, ''तू खरमास में शादी करेगा। इसमें
शादियाँ निषिद्ध होती हैं।'' पवन ने पास आकर माँ को कंधों से
पकड़ा, ''माँ मेरी प्यारी माँ, यह मैं भी जानता हूँ और तुम
भी कि हम लोग इन बातों में यकीन नहीं करते। सिली के साथ जब
बंधन में बँध जाऊँ वही मेरे लिए मुबारक महीना है।''
आहत मन और सुन्न मस्तिष्क
लिए रेखा लौट आई। पति और छोटे बेटे ने जो भी सवाल किए, उनका
वह कोई सिलसिलेवार उत्तर नहीं दे पाई।
''मेरा पुन्नू इतना कैसे बदल गया।'' वह क्रंदन करती रही।
पवन ने फ़ोन पर माँ की
सकुशल वापसी की ख़बर ली। सघन से ई-मेल पता लिया और दिया और
अपने पापा से बात करता रहा, ''पापा आप अपनी शादी याद करो और
माँ को समझाने का प्रयत्न करो। मैं लड़की को डिच(धोखा) नहीं
कर सकता।''
राकेश व्यथा के ऊपर विवेक
का आवरण चढ़ाए बेटे की आवाज़ सुनते रहे। 'ठीक है', 'अच्छा
हूँ' के अलावा उनके मुँह से कुछ नहीं निकला। उस दिन किसी से
खाना नहीं खाया गया। राकेश ने कहा, ''हमें यह भी सोचना चाहिए
कि उस लड़की में ज़रूर ऐसी कोई ख़ासियत होगी कि हमारा बेटा
उसे चाहता है। तुमने देखा होगा।''
''मुझे लगा स्टैला बड़ी अच्छी व्यवस्थापक है। मुझे तो वह
लड़की की बजाय मैनेजर ज़्यादा लगा।'' रेखा ने कहा।
''तो इसमें बुराई क्या है। पवन दफ्तर भले ही मैनेज कर ले घर
में तो उसे हर वक़्त एक मैनेजर चाहिए जो उसका ध्यान रखे।
यहाँ यह काम तुम और सुग्गू करते थे।''
''पर शादी एकदम अलग बात होती है।''
''कोई अलग बात नहीं होती। लड़की काम से लगी है। तुम्हारे
जाने पर लगातार तुमसे मिलती रही। अपनी गरिमा इसी में होती है
कि बच्चों से टकराव की स्थिति न आने दें।''
''पर सब कुछ वही तय कर रही है, हमें सिर्फ़ सिर हिलाना है।''
''तो क्या बुराई है। तुम अपने को नारीवादी कहती हो। जब लड़की
सारे इंतज़ाम में पहल करे तो तुम्हें बुरा लग रहा है।''
''हम इस सारे प्लान में कहीं नहीं है। हमें तो पुन्नू ने उठा
कर ताक पर रख दिया है, पिछले साल के गणेश लक्ष्मी की तरह।''
''सब यही करते हैं क्या हमने ऐसा नहीं किया। मेरी माँ को भी
ऐसा ही दुख हुआ था।''
रेखा भड़क उठी, ''तुम
स्टैला की मुझसे तुलना कर रहे हो। मैंने तुम्हारे घर परिवार
की धूप छाया जैसे काटी है, वह काटेगी वैसे। बस बैठे-बैठे
कंप्यूटर जोड़ने के सिवा और क्या आता है उसे। एक टाइम खाना
नौकर बनाता है। दूसरे टाइम बाहर से आता है। दूध तक गरम करने
में दिलचस्पी नहीं है उसे।''
''मुझे लगता है तुम पूर्वाग्रह से ग्रसित हो। मेरा लड़का
ग़लत चयन नहीं कर सकता।''
''अब तुम उसकी लय में बोल रहे हो।''
कई दिनों तक रेखा की
उद्विग्नता बनी रही। उसने अपनी अध्यापक सखियों से सलाह की।
जो भी घर आता, उसकी बेचैनी भाँप जाता। उसने पाया हर परिवार
में एक न एक अनचाहा, मनचाहा विवाह हुआ है।
उसे अपने दिन याद आए। बिल्कुल ऐसी तड़प उठी होगी राकेश के
माता पिता के कलेजे में जब उनकी देखी सर्वांग सुंदरियों को
ठुकरा कर उसने रेखा से विवाह को मन बनाया। उसके दोस्तों तक
ने उसने कहा, ''तुम क्या एकदम पागल हो गए हो?'' दरअसल वे
दोनों एक दूसरे के विलोम थे। राकेश थे लंबे, तगड़े, सुंदर और
हँसमुख, रेखा थी छोटी, दुबली, कमसूरत और कटखनी। बोलते वक़्त
वह भाषा को चाकू की तरह इस्तेमाल करती थी। उसके इसी तेवर ने
राकेश को खींचा था। वह उसकी दो चार कविताओं पर दिल दे बैठा।
राकेश के हितैषियों का ख़याल कि अव्वल तो यह शादी नहीं होगी।
और हो भी गई तो छह महीने में टूट जाएगी।
रेखा को याद आता गया। शादी
के बाद के महीनों में वह लाख घर का काम, स्कूल की नौकरी,
खर्च को बोझ सँभालती, माँ जी उसके प्रति अपनी तलखी नहीं
त्यागती। अगर कभी पिता जी या राकेश उसकी किसी बात की तारीफ़
कर देते तो उस दिन उसकी शामत ही आ जाती। माँ जी की नज़रों
में रेखा चलती-फिरती चुनौती थी।
जी.जी.सी.एल. लगातार घाटे
में चलते-चलते अब डूबने के कगार पर थी। कर्मचारियों की छटनी
शुरू हो गई थी। एम.बी.ए. पास लड़कों में इतना धैर्य नहीं था
कि वे डूबते जहाज़ का मस्तूल सँभालते। सभी किसी न किसी
विकल्प की खोज में थे।
था पवन ने घर पर फ़ोन कर
सूचना दी कि उसका चयन बहुराष्ट्रीय कंपनी मैल में हो गया है।
नयी नौकरी में ज्वाइन करने से पूर्व उसके पास तीन सप्ताह का
समय होगा। इसी समय वह घर आएगा और जी भर कर रहेगा।
अगले हफ्ते पवन ने कंप्यूटर पर निर्मित साफ़सुथरा
सुरुचिपूर्ण पत्र भेजा जिसमें उसकी शादी का निमंत्रण था।
स्वामी जी के कार्यक्रम के अनुसार शादी दिल्ली में होनी थी।
शहरों की दूरियाँ और अपरिचय उसके जीवन में महत्व नहीं रखती
थीं। बेटे की योजनाओं पर स्तंभित होना जैसे जीवन का अंग बन
गया था। अपने नाम के अनुरूप ही वह पवन वेग से सारी व्यवस्था
कर रहा था।
इस बीच इतना समय अवश्य मिल
गया था कि रेखा और राकेश अपने क्षोभ और असंतोष को संतुलन का
रूप दे सके। जब दिल्ली में रामकृष्णपुरम में सरल मार्ग के
शिबिर में उन्होंने दस हज़ार दर्शकों की भीड़ में सामूहिक
विवाह का दृश्य देखा तो उन्हें महसूस हुआ कि इस आयोजन में
पारंपारिक विवाह संस्कार से कहीं ज़्यादा गरिमा और
विश्वस्वीयता है। न कहीं माता पिता की महाजनी भूमिका थी न
नाटकीयता। स्वामी जी की उपस्थिति में वधु को एक सादा
मंगलसूत्र पहनाया गया, फिर विवाह को नोटरी द्वारा रचिस्टर
किया गया। अंत में सभी दर्शकों के बीच लड्डू बाँट दिए गए।
कन्याओं के अभिभावकों के चेहरे पर कृतज्ञता का आलोक था।
लड़कों के अभिभावकों के चेहरे कुछ बुझे हुए थे।
अब तक अपने आक्रोश पर रेखा
और राकेश नियंत्रण कर चुके थे। नये अनुभव से गुज़रने की
उत्तेजना में उन्हें स्टैला से कोई शिकायत नहीं हुई। वे पवन
और बहू को लेकर घर आए। दो दिन सलवार सूट पहनने के बाद स्टैला
ने कह दिया, ''मैं दुपट्टा नहीं सँभाल सकती।'' वह वापस अपनी
प्रिय पोशाक जीन्स और टॉप में नज़र आई। उसकी व्यस्तता भी इस
तरह की थी कि लिबास को ले कर विवाद नहीं किया जा सकता था।
उसने यहाँ अपनी सहयोगी फर्म से संपर्क कर सघन को कंप्यूटर के
पार्टस दिला दिए। फिर वे दोनों कंप्यूटर रूस बन गया। उसने
सगर्व घोषणा की, ''मेरी जैसी भाभी कभी किसी को न मिली है न
मिलेगी।'' स्टैला कंप्यूटर मैन्यू पर जितनी पारंगत थी,
रसोईघर की मैन्यू पर उतनी ही अनाड़ी। लगातार घर से बाहर
होस्टलों में रहने की वजह से उसके जेहन में खाने का कोई ख़ास
तसव्वुर नहीं था। वह अंडा आलू, चावल उबालना जानती थी या फिर
मैगी।
माँ ने कहा, ''इतनी बेस्वाद चीज़ें तुम खा सकती हो?''
स्टैला ने कहा, ''मैं तो बस कैलोरी गिन लेती हूँ और आँख मूँद
कर खाना निगल लेती हूँ।'' |