कॉलोनी के सभी घरों के लोग
इंतज़ाम में जुट गए। जिसको जो याद आता गया, वही काम करता
गया। सवेरे तक फूल, गुलाल, शाल से अर्थी ऐसी सजी कि सब अपनी
मेहनत पर खुद दंग रह गए। पर इस दारुण कार्य के दौरान कई लोग
बहुत थक गए। मिन्हाज साहब के दिल की धड़कन बढ़ गई। उनके
ल़ड़के ने कहा, ''डैडी, आप रहने दो, मैं घाट चला जाता हूँ।''
भूषण ने ही मुखाग्नि दी।
रेखा, मिसेज गुप्ता, मिसेज यादव, मिसेज सिन्हा और अन्य
स्त्रियाँ मिसेज सोनी के पास बैठी रहीं। मिसेज सोनी अब कुछ
संयत थीं, ''आप सब ने दुख की घड़ी में साथ दिया।''
''यह तो हमारा फ़र्ज़ था।'' कुछ आवाज़ें आईं।
रेखा के मुँह से निकल गया, ''ऐसा क्यों होता है कि कुछ लोग
फ़र्ज़ पहचानते हैं, कुछ नहीं। अरे सुख में नहीं पर दुख में
तो साथ दो।''
मिसेज सोनी ने कहा, ''अपने बच्चे के बारे में कुछ भी कहना
बुरा लगता है पर सिद्धू ने कहा मैं किसी को बेटा बनाकर सारे
काम करवा लूँ। ऐसा भी कभी होता है।''
''और रेडीमेड बेटे मिल जाएँ, यह भी कहाँ मुमकिन है। बाज़ार
में सब चीज़ मोल जाती है पर बच्चे नहीं मिलते।''
''ऐसा ही पता होता है कि पच्चीस बरस पहले परिवार नियोजन
क्यों करते। होने देते और छः बच्चे। एक न एक तो पास रहता।''
''वैसे इतनी दूर से जल्दी से आना हो भी नहीं सकता था।''
मिसेज मजीठिया ने कहा, ''हमारी सास मरी तो हमारे देवर कहाँ आ
पाए।''
''पर आपके पति तो थे ना?
उन्होंने अपना फ़र्ज़ निभाया।''
इस अकस्मिक घटना ने सबके
लिए सबक का काम किया। सभी ने अपने वसीयतनामे सँभाले और बैंक
खातों के ब्यौरे। क्या पता कब किसका बुलावा आ जाय। आलमारी
में दो चार हज़ार रुपए रखना ज़रूरी समझा गया।
कॉलोनी के फ़ुरसत पसंद बुजुर्गों की विशेषता थी कि वे हर काम
मिशन की तरह हाथ में लेते। जैसे कभी उन्होंने अपने दफ्तरों
में फ़ाइलें निपटायी होंगी वैसे वे एक एक कर अपनी
ज़िम्मेदारियाँ निपटाने में लग गए। सिन्हा साहब ने कहा, ''भई
मैंने तो एकादशी को गऊदान भी जीते जी कर लिया। पता नहीं अमित
बंबई से आ कर यह सब करे या नहीं।''
गुप्ता जी बोले, ''ऐसे स्वर्ग में सीट रिज़र्व नहीं होती।
बेटे का हाथ लगना चाहिए।''
श्रीवास्तव जी के कोई लड़का नहीं था, इकलौती लड़की ही थी।
उन्होंने कहा, ''किसी के बेटा न हो तो?''
''तब उसे ऐसी तड़फड़ नहीं होती जो सोनी साहब की मिसेज को
हुई।''
रेखा यह सब देख सुन कर दहशत
से भर गई। एक तो अभी इतनी उम्रदराज़ वह नहीं हुई थी कि अपना
एक पैर श्मशान में देखें। दूसरे उसे लगता ये सब लोग अपने
बच्चों को खलनायक बना रहे हैं। क्या बूढ़े होने पर भावना
समझने की सामर्थ्य जाती रहती है।
कॉलोनी के हर कठोर निर्णय पर उसे लगता मैं ऐसी नहीं हूँ, मैं
अपने बच्चों के बारे में ऐसी क्रूरता से नहीं सोचती। मेरे
बच्चे ऐसे नहीं हैं।
रात की आखिरी समाचार बुलेटिन सुन कर वे अभी लेटे ही थे कि
फ़ोन की लंबी घंटी बजी। घंटी के साथ-साथ दिल का तार भी बजा,
''ज़रूर छोटू का फ़ोन होगा, पंद्रह दिन से नहीं आया।'' फ़ोन
पर बड़कू पवन बोल रहा था, ''हैलो माँ कैसी हो? आपने फ़ोन
नहीं किया?''
''किया था पर आंसरिंग मशीन के बोलने से पहले काट दिया। तुम
घर में नहीं टिकते।''
''अरे माँ मैं तो यहाँ था ही नहीं। ढाका चला गया था, वहाँ से
मुंबई उतरा तो सोचा स्टैला को भी देखता चलूँ। वह क्या है
उसकी शकल भी भूलती जा रही थी।''
''तुमने जाने की खबर नहीं दी।''
''आने की तो दे रहा हूँ। मेरा काम ही ऐसा है। अटैची हर वक़्त
तैयार रखनी पड़ती है। और सुनो तुम्हारे लिए ढाकाई साड़ियाँ
लाया हूँ।''
निहाल हो गई रेखा। इतनी दूर जा कर उसे माँ की याद बनी रही।
तुरंत बहू का ध्यान आया।
''स्टैला के लिए भी ले आनी थी।''
''लाया था माँ, उसे और छोटी ममी को पसंद ही नहीं आईं। स्टैला
को वहीं से जींस दिला दी। चलो तुम्हारे लिए तीन हो गईं। तीन
साल की छुट्टी।''
''मैंने तो तुमसे माँगी भी नहीं थीं।'' रेखा का स्वर कठिन हो
आया।
एक अच्छे मैनेजर की तरह पवन
पिता से मुखातिब हुआ, ''पापा इतवार से मैं स्वामी जी के
ध्यान शिविर में चार दिन के लिए जा रहा हूँ। सिंगापुर से
मेरे बॉस अपनी टीम के साथ आ रहे हैं। वे ध्यान शिविर देखना
चाहते हैं। आप भी मनपक्कम आ जाइए। आपको बहुत शांति मिलेगी।
अपने अखबार का एक विशेषांक प्लान कर लीजिए स्वामी जी पर।
विज्ञापन खूब मिलेंगे। यहाँ उनकी बहुत बड़ी शिष्य मंडली
हैं।''
राकेश हूँ हाँ करते रहे।
उनके लिए जगह की दूरी, भाषा का अपरिचय, छुट्टी की किल्लत, कई
रोड़े थे राह में। वे इसी में मगन थे कि पुन्नू उन्हें बुला
रहा है।
''छोटू की कोई ख़बर?''
''हाँ पापा उसका ताइपे से खत आया था। जॉब उसका ठीक चल रहा है
पर उसकी चाल-ढाल ठीक नहीं लगी। वह वहाँ की लोकल पालिटिक्स
में हिस्सा लेने लगा है। यह चीज़ घातक हो सकती है।''
राकेश घबरा गए, ''तुम्हें उसे समझाना चाहिए।''
''मैंने फ़ोन किया था, वह तो नेता की तरह बोल रहा था। मैंने
कहा, नौकरी को नौकरी की तरह करो, उसमें उसूल, सिद्धांत ठोकने
की क्या ज़रूरत है।''
''उसने क्या कहा?''
''कह रहा था भैया यह मेरे अस्तित्व का सवाल है।''
रेखा को संकट का आभास हुआ। उसने फ़ोन राकेश से ले लिया,
''बेटे उसको कहो फ़ौरन वापस आ जाए। उसे चीन ताइवान के पचड़े
से क्या मतलब।''
''माँ मैं समझा ही सकता हूँ। वह जो करता है उसकी ज़िम्मेदारी
है। कई लोग ठोकर खा कर ही सँभलते हैं।''
''पुन्नू तेरा इकलौता भाई है सघन, तू पल्ला झाड़ रहा है।''
''माँ तुम फ़ोन करो, चिठ्ठी लिखो। अड़ियल लोगों के लिए मेरी
बरदाश्त काफ़ी कम हो गई है। मेरी कोई शिकायत मिले तो कहना।''
दहशत से दहल गई रेखा। तुरंत
छोटू को फ़ोन मिलाया। वह घर पर नहीं था। उसे ढूँढ़ने में दो
ढाई घंटे लग गए। इस बीच माता-पिता का बुरा हाल हो गया। राकेश
बार-बार बाथरूम जाते। रेखा साड़ी के पल्लू में अपनी खाँसी
दबाने में लगी रही।
अंततः छोटू से बात हुई उसने समीकरण समझाया।
''ऐसा है पापा अगर मैं लोकल लोगों के समर्थन में नहीं
बोलूँगा तो ये मुझे नष्ट कर देंगे।''
''तो तुम यहाँ चले आओ। इन्फोटेक (सूचना तकनीकि) में यहाँ भी
अच्छी से अच्छी नौकरियाँ हैं।''
''यहाँ मैं जम गया हूँ।''
''परदेस में आदमी कभी नहीं जम सकता। तंबू का कोई न कोई खूँटा
उखड़ा ही रहता है।''
''हिंदुस्तान अगर लौटा तो अपना काम करूँगा।''
''यह तो और भी अच्छा है।''
''पर पापा उसके लिए कम से कम तीस चालीस लाख रुपए की ज़रूरत
होगी। मैं आपको लिखने ही वाला था। आप कितना इंतज़ाम कर सकते
हैं, वाकी जब मैं जमा कर लूँ तब आऊँ।''
राकेश एकदम गड़बड़ा गए, ''तुम्हें पता है घर का हाल। जितना
कमाते हैं उतना खर्च कर देते हैं। सारा पोंछ-पाँछ कर निकालें
तो भी एक डेढ़ से ज़्यादा नहीं होगा।''
''इसी बिना पर मुझे वापस बुला रहे हैं। इतने में तो पी,सी,ओ,
भी नहीं खुलेगा।''
''तुमने भी कुछ जोड़ा होगा इतने बरसों में।''
''पर वह काफ़ी नहीं है। आपने इन बरसों में क्या किया? दोनों
बच्चों का खर्च आपके सिर से उठ गया, घूमने आप जाते नहीं,
पिक्चर आप देखते नहीं, दारू आप पीते नहीं, फिर आपके पैसों का
क्या हुआ?''
राकेश आगे बोल नहीं पाए। बच्चा उनसे रुपये आने पाई में हिसाब
माँग रहा था।
रेखा ने फ़ोन झपट कर कहा, ''तू कब आ रहा है छोटू?'' सघन ने
कहा, ''माँ जब आने लायक हो जाऊँगा तभी आऊँगा। तुम्हें थोड़ा
इंतज़ार करना होगा।'' |