(दूसरा भाग)
एल.पी.जी. विभाग में काम करने
वालों के हौसले और हसरतें बुलंद हैं। सबको यकीन है कि वे
जल्द ही आई। ओ.सी. को गुजरात से खदेड़ देंगे। निदेशक से ले
कर डिलीवरी मैन तक में काम के प्रति तत्परता और तन्मयता है।
मेम नगर में जहाँ जी.जी.सी.एल. का दफ़्तर है, वह एक खूबसूरत
इमारत है, तीन तरफ़ हरियाली से घिरी। सामने कुछ और खूबसूरत
मकान हैं जिनके बरामदों में विशाल झूले लगे हैं। बगल में
सेंट ज़ेवियर्स स्कूल है। छुट्टी की घंटी पर जब नीले
यूनीफार्म पहने छोटे-छोटे बच्चे स्कूल के फाटक से बाहर भीड़
लगाते हैं तो जी.जी.सी.एल. के लाल सिलिंडरों से भरे लाल वाहन
बड़ा बढ़िया कांट्रास्ट बनाते हैं लाल नीला, नीला लाल।
अटैची में कपड़े, आँखों में
सपने और अंतर में आकुलता लिए न जाने कहाँ-कहाँ से नौजवान
लड़के नौकरी की ख़ातिर इस शहर में आ पहुँचे हैं। बड़ी-बड़ी
सर्विस इंडस्ट्री में कार्यरत ये नवयुवक सबेरे नौ से रात नौ
तक अथक परिश्रम करते हैं। एक दफ़्तर के दो तीन लड़के मिल कर
तीन या चार हज़ार तक के किराये का एक फ्लैट ले लेते हैं। सभी
बराबर का शेयर करते हैं किराया, दूध का बिल, टायलेट का
सामान, लांड्री का खर्च। इस अनजान शहर में रम जाना उनके आगे
नौकरी में जम जाने जैसी ही चुनौती है, हर स्तर पर। कहाँ अपने
घर में ये लड़के शहज़ादों की तरह रहते थे, कहाँ सारी सुख
सुख-सुविधाओं से वंचित, घर से इतनी दूर ये सब सफलता के
संघर्ष में लगे हैं। न इन्हें भोजन की चिंता है न आराम की।
एक आँख कंप्यूटर पर गड़ाए ये भोजन की रस्म अदा कर लेते हैं
और फिर लग जाते हैं कंपनी के व्यापार लक्ष्य को सिद्ध करने
में। ज़ाहिर है, व्यापार या लाभ लक्ष्य इतने ऊँचे होते हैं
कि सिद्धि का सुख हर एक को हासिल नहीं होता। सिद्धि, इस
दुनिया में, एक चार पहिया दौड़ है जिसमें स्टियरिंग आपके हाथ
में है पर बाकी सारे कंट्रोल्स कंपनी के हाथ में। वही तय
करती है आपको किस रफ़्तार से दौड़ना है और कब तक।
बीसवीं शताब्दी के अंतिम
दशक के तीन जादूई अक्षरों ने बहुत से नौजवानों के जीवन और
सोच की दिशा ही बदल डाली थी। ये तीन अक्षर थे एम.बी.ए.।
नौकरियों में आरक्षण की आँधी से सकपकाए सवर्ण परिवार धड़ाधड़
अपने बेटे बेटियों को एम.बी.ए. में दाखिल होने की सलाह दे
रहे थे। जो बच्चा पवन, शिल्पा और रोज़विंदर की तरह कैट, मैट
जैसी प्रवेश परीक्षाएँ निकाल ले वह तो ठीक, जो न निकाल पाए
उसके लिए लंबी-चौड़ी कैपिटेशन फीस देने पर एम.एम.एस. के
द्वार खुले थे। हर बड़ी संस्था ने ये दो तरह के कोर्स बना
दिए थे। एक के ज़रिए वह प्रतिष्ठा अर्जित करती थी तो दूसरी
के ज़रिए धन। समाज की तरह शिक्षा में भी वर्गीकरण आता जा रहा
था। एम.बी.ए. में लड़के वर्ष भर पढ़ते, प्रोजेक्ट बनाते,
रिपोर्ट पेश करते और हर सत्र की परीक्षा में उत्तीर्ण होने
की जी तोड़ मेहनत करते। एम.एम.एस. में रईस उद्योगपतियों,
सेठों के बिगड़े शाहज़ादे एन.आर.आई. कोटे से प्रवेश लेते, जम
कर वक्त बरबाद करते और दो की जगह तीन साल में डिग्री ले कर
अपने पिता का व्यवसाय सँभालने या बिगाड़ने वापस चले जाते।
शरद के पिता इलाहाबाद के
नामी चिकित्सक थे। संतान को एम.बी.बी.एस. में दाखिल करवाने
की उनकी कोशिशें नाकामयाब रहीं तो उन्होंने एकमुश्त कैपिटेशन
फीस दे कर उसका नाम एम.एम.एस. में लिखवा दिया। एम.एम.एस.
डिग्री के बाद उन्होंने अपने रसूख से उसे सनशाइन बूट पॉलिश
में नौकरी भी दिलवा दी पर इसमें सफल होना शरद की ज़िम्मेवारी
थी। उसे अपने पिता का कठोर चेहरा याद आता और वह सोच लेता
नौकरी में चाहे कितनी फजीहत हो वह सह लेगा पर पिता की
हिक़ारत
वह नहीं सह सकेगा। कंपनी के एम. डी. जब तब हेड ऑफ़िस से आ कर
चक्कर काट जाते। वे अपने मैनेजरों को भेज कर जायज़ा लेते और
शरद व उसके साथियों पर बरस पड़ते, ''पूरे मार्केट में बिल्ली
छाई हुई है। शो रूस से ले कर होर्डिंग और बैनर तक, सब जगह
बिल्ली ही बिल्ली है। आप लोग क्या कर रहे हैं। अगर स्टोरेज
की किल्लत है तो बिल्ली के लिए क्यों नहीं, सनशाइन ही
क्यों?'' शरद और साथी अपने पुराने तर्क प्रस्तुत करते तो
एम.डी. ताम्रपर्णी साहब और भड़क जाते, ''बिल्ली पालिश क्या
फोम शूज़ पर लगाई जा रही है या उससे चप्पलें चमकाई जा रही
हैं।''
इस बार उन्होंने शरद और
उसके साथियों को निर्देश दिया कि नगर के मोचियों से बात कर
रिपोर्ट दें कि वे कौन-सी पॉलिश इस्तेमाल करते हैं और क्यों?
एम.डी. तो फूँ-फाँ कर चलते बने, लड़कों को मोचियों से सिर
खपाने के लिए छोड़ गए। शरद और उसके सहकर्मी सुबह नौ से बारह
के समय शहर के मोचियों को ढूँढ़ते, उनसे बात करते और नोट्स
लेते।
दरअसल बाज़ार में दिन पर दिन स्पर्धा कड़ी होती जा रही थी।
उत्पादन, विपणन और विक्रय के बीच तालमेल बैठाना दुष्कर कार्य
था। एक-एक उत्पाद की टक्कर में बीस-बीस वैकल्पिक उत्पाद थे।
इन सबको श्रेष्ठ बताते विज्ञापन अभियान थे जिनके प्रचार
प्रसार से मार्केटिंग का काम आसान की बजाय मुश्किल होता
जाता। उपभोक्ता के पास एक-एक चीज़ के कई चमकदार विकल्प थे।
रोज़विंदर ने पुरानी कंपनी
छोड़ कर इंडिया लीवर के टूथपेस्ट डिवीजन में काम सँभाला था।
उसे आजकल दुनिया में दाँत के सिवा कुछ नज़र नहीं आता था। वह
कहती, ''हमारी प्रोडक्ट के एक-एक आइटम को इतना प्रचारित कर
दिया गया है कि अब इसमें बस साबुन मिलाने की कसर बाकी है।''
रेडियो और टी.वी.पर दिन में सौ बार दर्शक और श्रोता की चेतना
को झकझोरता विज्ञापन मार्केटिंग के प्रयासों में चुनौती और
चेतावनी का काम करता। उपभोक्ता बहुत ज़्यादा उम्मीद के साथ
टूथपेस्ट ख़रीदता जो एकबारगी पूरी न होती दिखती। वह वापस
अपने पुराने टूथपेस्ट पर आ जाता बिना यह सोचे कि उसे अपने
दाँतों की बनावट खान-पान के प्रकार और प्रकृति और वंशानुगत
सीमाओं पर भी ग़ौर करना चाहिए।
शरद को लगता बूट पालिश
बेचना सबसे मुश्किल काम है तो रोज़विंदर को लगता ग्राहकों के
मुँह नया टूथपेस्ट चढ़वाना चुनौतीपरक है और पवन पांडे को
लगता वह अपनी कंपनी का टारगेट, विक्रय लक्ष्य, कैसे पूरा
करे। खाली समय में अपने-अपने उत्पाद पर बहस करते-करते वे
इतना उत्पात करते कि लगता सफलता का कोई सट्टा खेल रहे हैं।
पवन म्यूज़िक सिस्टम पर गाना लगा देता, ''ये तेरी नज़रें
झुकी-झुकी, ये तेरा चेहरा खिला-खिला। बड़ी किस्मत वाला है''
- 'सनी टूथपेस्ट जिसे मिला' रोज़विंदर गाने की लाइन पूरी
करती।
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