हार कर वे बाज़ार चल दिए।
खिलौनों की दुकान पर अंकुर अड़ गया। कभी वह एयरगन हाथ में
लेता कभी ट्रेन। उसके लिए तय करना मुश्किल था कि वह क्या ले।
पवन ने इलेक्ट्रानिक बंदर उसे दिखाया जो तीन बार कूदता और
खों-खों करता था।
अंकुर पहले तो चुप रहा। जैसे ही वे लोग दाम चुका कर बंदर पैक
करा कर चलने लगे अंकुर मचलने लगा, ''बंदर नहीं गन लेनी है।''
राहुल ने कहा, ''गन गंदी, बंदर अच्छा। राजा बेटा बंदर से
खेलेगा।''
''हम ठांय-ठांय करेंगे हम बंदर फेंक देंगे।''
फिर से दुकान पर जा कर खिलौने देखे गए। बेमन से एयरगन फिर
निकलवाई। अभी उसे देख, समझ रहे थे कि अंकुर का ध्यान फिर भटक
गया। उसने दुकान पर रखी साइकिल देख ली।
''छिकिल लेना, छिकिल लेना।'' वह चिल्लाने लगा।
''अभी तुम छोटे हो। ट्राइसिकिल घर में है तो।'' राजुल ने
समझाया।
अभिषेक की सहनशक्ति ख़त्म हो रही थी, ''इसके साथ बाज़ार आना
मुसीबत है, हर बार किसी बड़ी चीज़ के पीछे लग जाएगा। घर में
खिलौने रखने की जगह भी नहीं है और ये ख़रीदता चला जाता है।''
बड़े कौशल से अंकुर का
ध्यान वापस बंदर में लगाया गया। दुकानदार भी अब तक उकता चुका
था। इस सब चक्कर में इतनी देर हो गई कि और कहीं जाने का वक्त
ही नहीं बचा। वापसी में वे ला गार्डन से सटे मार्केट में
भेलपुरी, पानीपूरी खाने रुक गए। मार्केट ग्राहकों से ठसाठस
भरा था। अंकुर ने कुछ नहीं खाया उसे नींद आने लगी। किसी तरह
उसे कार में लिटा कर वे घर आए।
अभिषेक ने कहा, ''पवन तुम लकी हो, अभी तुम्हारी जान को न
बीवी का झंझट है न बच्चे का।''
राजुल तुनक गई, ''मेरा क्या झंझट है तुम्हें?''
''मैं तो जनरल बात कर रहा था।''
''यह जनरल नहीं स्पेशल बात थी। मैंने तुम्हें पहले कहा था
मैं अभी बच्चा नहीं चाहती। तुमको ही बच्चे की पड़ी थी।''
पवन ने दोनों को समझाया, ''इसमें झगड़े वाली कोई बात नहीं
है। एक बच्चा तो घर में होना ही चाहिए। एक से कम तो पैदा भी
नहीं होता, इसलिए एक तो होगा ही होगा।''
अभिषेक ने कहा, ''मैं बहुत थका हुआ हूँ। नो मोर डिस्कशन।''
लेकिन राजुल का मूड ख़राब हो गया। वह घर के आख़िरी काम
निपटाते हुए भुनभुनाती रही, ''हिंदुस्तानी मर्द को शादी के
सारे सुख चाहिए बस ज़िम्मेदारी नहीं चाहिए। मेरा कितना हर्ज
हुआ। अच्छी भली सर्विस छोड़नी पड़ी। मेरी सब कलीग्स कहती थीं
राजुल अपनी आज़ादी चौपट करोगी और कुछ नहीं। आजकल तो डिंक्स
का ज़माना है। डबल इनकम नो किड्स (दोहरी आमदनी, बच्चे नहीं)।
सेंटिमेंट के चक्कर में फँस गई।'' किसी तरह विदा ले कर पवन
वहाँ से निकला।
कंपनी ने पवन और अनुपम का
तबादला राजकोट कर दिया। वहाँ उन्हें नए सिरे से ऑफ़िस शुरू
करना था, एल.पी.जी. का रिटेल मार्केट सँभालना था और पुरे
सौराष्ट्र में जी.जी.सी. संजाल फैलाने की संभावनाओं पर
प्रोजेक्ट तैयार करना था।
तबादले अपने साथ तकलीफ़ भी
लाते हैं पर इन दोनों को उतनी नहीं हुई जितनी आशंका थी। इनके
लिए अहमदाबाद भी अनजाना था और राजकोट भी। परदेसी के लिए
परदेस में पसंद क्या, नापसंद क्या। अहमदाबाद में इतनी जड़ें
जमी भी नहीं थीं कि उखड़े जाने पर दर्द हो। पर अहमदाबाद
राजकोट मार्ग पर डीलक्स बस में जाते समय दोनों को यह ज़रूरी
लग रहा था कि वे हेड ऑफ़िस से ब्रांच ऑफ़िस की ओर धकेल दिए
हैं।
गुर्ज़र गैस सौराष्ट्र के
गाँवों में अपने पाँव पसार रही थी। इसके लिए वह अपने नए
प्रशिक्षार्थियों को दौरे और प्रचार का व्यापक कार्यक्रम
समझा चुकी थी। सूचना, उर्जा, वित्त और विपणन के लिए अलग-अलग
टीम ग्राम स्तर पर कार्य करने निकल पड़ी थी। यों तो पवन और
अनुपम भी अभी नए ही थे पर उन्हें इन २६ प्रशिक्षार्थियों के
कार्य का आकलन और संयोजन करना था। राजकोट में वे एक दिन
टिकते कि अगले ही दिन उन्हें सूरत, भरूच, अंकलेश्वर के दौरे
पर भेज दिया जाता। हर जगह किसी तीन सितारा होटल में इन्हें
टिकाया जाता, फिर अगला मुकाम।
सूरत के पास हजीरा में भी
पवन और अनुपम गए। वहाँ कंपनी के तेल के कुएँ थे। लेकिन पहली
अनुभूति कंपनी के वर्चस्व की नहीं अरब महासागर के वर्चस्व की
हुई। एक तरफ़ हरे-भरे पेड़ों के बीच स्थित बड़ी-बड़ी
फैक्टरियाँ, दूसरी तरफ़ हहराता अरब सागर।
एक दिन उन्हें वीरपुर भी
भेजा गया। राजकोट से पचास मील पर इस छोटे से कस्बे में जलराम
बाबा का शक्तिपीठ था। वहाँ के पूजारी को पवन ने गुर्ज़र गैस
का महत्व समझा कर छह गैस कनेक्शन का ऑर्डर लिया। कुछ ही देर
में जलराम बाबा के भक्तों और समर्थकों में ख़बर फैल गई कि
बाबा ने गुर्ज़र गैस वापरने (इस्तेमाल करने) का आदेश दिया
है। देखते-देखते शाम तक पवन ओर अनुपम ने २६४ गैस कनेक्शन का
आदेश प्राप्त कर लिया। वैसे गुर्ज़र गैस का मुक़ाबला हर जगह
आई.ओ.सी. से था। लोग औद्योगिक और घरेलू इस्तेमाल के अंतर को
महत्व नहीं देते। जिसमें चार पैसे बचें वहीं उन्हें बेहतर
लगता। कई जगह उन्हें पुलिस की मदद लेनी पड़ी कि घरेलू गैस का
इस्तेमाल औद्योगिक इकाइयों में न किया जाय।
किरीट देसाई ने चार दिन की
छुट्टी माँगी तो पवन का माथा ठनक गया। निजी उद्यम में दो
घंटे की छुट्टी लेना भी फ़िजूलखर्ची समझा जाता था फिर यह तो
इकठ्ठे चार दिन का मसला था। किरीट की ग़ैरहाजिरी का मतलब था
एक ग्रामीण क्षेत्र से चार दिनों के लिए बिल्कुल कट जाना।
''आख़िर तुम्हें ऐसा क्या काम आ पड़ा?''
''अगर मैं बताऊँगा तो आप छुट्टी नहीं देंगे।''
''क्या तुम शादी करने जा रहे हो?''
''नहीं सर। मैंने आपको बोला न मेरे को ज़रूर जाना माँगता।'' |