ऐनाग्राम फाइनेंस कंपनी के
सौजन्य से शहर में तीन दिवसीय सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन
हुआ। गुजरात विश्वविद्यालय के विशाल परिसर में बेहद सुंदर
साज़-सज्जा की गई। गुजरात वैसे भी पंडाल रचना में परंपरा और
मौलिकता के लिए विख्यात रहा है, फिर इस आयोजन में बजट की कोई
सीमा न थी। पवन, शिल्पा, रोजू, शरद और अनुपम ने पहले ही अपने
पास मँगवा लिए। पहले दिन नृत्य का कार्यक्रम था, अगले दिन
ताल-वाद्य और पंडित भीमसेन चौरसिया का बाँसुरी वादन और
शिवकुमार शर्मा का संतूर वादन। अहमदाबाद जैसी औद्योगिक,
व्यापारिक नगरी के लिए यह एक अभूतपूर्व संस्कृति संगम था।
आयोजन का समस्त प्रबंध
ए.एफ.सी. के युवा मैनेजरों के ज़िम्मे था। मुक्तांगन में
पंद्रह हज़ार दर्शकों के बैठने का इंतज़ाम था। परिसर के चार
कोनों तथा बीच-बीच में दो जगह विशाल सुपर स्क्रीन लगे थे जिन
पर मंच के कलाकारों की छवि पड़ रही थी। इससे मंच से दूर बैठे
दर्शकों को भी कलाकार के समीप होने की अनुभूति हो रही थी।
दर्शकों की सीटों से हट कर, परिसर की बाहरी दीवार के क़रीब
एक स्नैक बाज़ार लगाया गया था। सांस्कृतिक कार्यक्रम में
प्रवेश निःशुल्क था हालाँकि खान-पान के लिए सबके पचास रुपए
प्रति व्यक्ति के हिसाब से कूपन खरीदना अनिवार्य था।
दूसरे दिन पवन भीमसेन जोशी
को सुनने गया था। सुपर स्क्रीन पर भीमसेन जोशी महा भीमसेन
जोशी नज़र आ रहे थे। 'सब है तेरा' अंतरे पर आते-आते उन्होंने
हमेशा की तरह सुर और लय का समा बाँध दिया। लेकिन पवन को इस
बात से उलझन हो रही थी कि आसपास की सीटों के दर्शकों की
दिलचस्पी गायन से अधिक खान-पान में थी। वे बार-बार उठ कर
स्नैक बाज़ार जाते, वहाँ से अंकल चिप्स के पैकेट और पेप्सी
लाते। देखते ही देखते पूरे माहौल में राग अहीर भैरव के साथ
कुर्र-कुर्र चुर्र-चुर्र की ध्वनियाँ भी शामिल हो गईं।
अधिकांश दर्शकों के लिए वहाँ देखे जाने के अंदाज़ में
उपस्थिति महत्वपूर्ण थी।
पवन ने अपने शहर में इस
कलाकार को सुना था। मेहता संगीत समिति के हाल में खचाखच भीड़
में स्तब्ध सराहना में सम्मोहित. इलाहाबाद में आज भी साहित्य
संगीत के सर्वाधिक मर्मज्ञ और रसज्ञ नज़र आते हैं। वहाँ इस
तरह बीच में उठ कर खाने-पीने का कोई सोच भी नहीं सकता।
अपने शहर के साथ ही घर की
याद उमड़ आई। उसने सोचा प्रोग्राम ख़त्म होने पर वह घर फ़ोन
करेगा। माँ इस वक्त क्या कर रही होंगी, शायद दही में जामन
लगा रही होंगी- दिन का आख़िरी काम। पापा क्या कर रहे होंगे,
शायद समाचारों की पचासवीं किस्त सुन रहे होंगे। भाई क्या कर
रहा होगा। वह ज़रूर टेलीफ़ोन से चिपका होगा। उसके कारण फ़ोन
इतना व्यस्त रहता है कि खुद पवन को अपने घर बात करने के लिए
भी पी.सी.ओ पर एकेक घंटे बैठना पड़ जाता है। अंततः जब फ़ोन
मिलता है सघन से पता चलता है कि माँ पापा की अभी-अभी आँख लगी
है। कभी उनसे बात होती है, कभी नहीं होती। जब माँ निंदासे
स्वर में पूछती हैं, ''कैसे हो पुन्नू, खाना खा लिया, चिठ्ठी
डाला करो।'' वह हर बात पर हाँ-हाँ कर देता है। पर तसल्ली
नहीं होती। उसका अपनी माँ से बेहद जीवंत रिश्ता रहा है। फ़ोन
जैसे यंत्र को बीच में डाल कर, सिर्फ़ उस तक पहुँचा जा सकता
है, उसे पुनर्सृजित नहीं किया जा सकता। वह माँ के चेहरे की
एक-एक ज़ुंबिश देखना चाहता है। पिता हँसते हुए अद्भुत सुंदर
लगते हैं। इतनी दूर बैठ कर पवन को लगता है माता पिता और भाई
उसके अलबम की सबसे सुंदर तस्वीरें हैं। उसे लगा अब सघन किस
से उलझता होगा। सारा दिन उस पर लदा रहता था, कभी तक़रार में
कभी लाड़ में। कई बार सघन अपना छुटपन छोड़ कर बड़ा भइया बन
जाता। पवन किसी बात से खिन्न होता तो सघन उससे लिपट-लिपट कर
मनाता, ''भइया बताओ क्या खाओगे? भइया तुम्हारी शर्ट आयरन कर
दें? भइया हमें सिबिल लाइंस ले चलोगे।''
साहित्य प्रेमी माता पिता
के कारण घर में कमरे किताबों से अटे पड़े थे। स्कूल की पढ़ाई
में बाहरी सामान्य किताबें पढ़ने का अवकाश नहीं मिलता था फिर
भी जो थोड़ा बहुत वह पढ़ जाता था, अपने पापा और माँ के
उकसाने के कारण। उन्होंने उसे प्रेमचंद की कहानियाँ और कुछ
लेख पढ़ने को दिए थे। 'कफ़न', 'पूस की रात' जैसी कहानियाँ
उसके जेहन पर नक्श हो गई थीं लेकिन लेखों के संदर्भ सब
गड्ड-मड्ड हो गए थे।
अध्ययन के लिए अब अवकाश भी
नहीं था। कंपनी की कर्मभूमि ने उसे इस युग का अभिमन्यु बना
दिया था। घर की बहुत हुड़क उठने पर फ़ोन पर बात करता। एक आँख
बार-बार मीटर स्क्रीन पर उठ जाती। छोटू कोई चुटकुला सुना कर
हँसता। पवन भी हँसता, फिर कहता, ''अच्छ छोटू अब काम की बात
कर, चालीस रुपए का हँस लिए हम लोग।'' माँ पूछती, ''तुमने
गद्दा बनवा लिया।'' वह कहता, ''हाँ माँ बनवा लिया।'' सच्चाई
यह थी कि गद्दा बनवाने की फ़ुर्सत ही उसके पास नहीं थी। घर
से फोम की रजाई लाया था, उसी को बिस्तर पर गद्दे की तरह बिछा
रखा था। पर उसे पता था कि 'नहीं' कहने पर माँ नसीहतों के ढेर
लगा देंगी, ''गद्दे के बग़ैर कमर अकड़ जाएगी। मैं यहाँ से
बनवा कर भेजूँ? अपना ध्यान भी नहीं रख पाता, ऐसी नौकरी किस
काम की। पब्लिक सेक्टर में आ जा, चैन से तो रहेगा।''
अहमदाबाद इलाहाबाद के बीच
एस.टी.डी. कॉल की पल्स रेट दिल की धड़कन जैसी सरपट चलती है
3-6-9-12 पाँच मिनट बात कर अभी मन भी नहीं भरा होता कि सौ
रुपए निकल जाते। तब उसे लगता 'टाइम इज़ मनी'। वह अपने को
धिक्कारता कि घर वालों से बात करने में भी वह महाजनी दिखा
रहा है पर शहर में अन्य मर्दों पर इतना खर्च हो जाता कि फ़ोन
के लिए पाँच सौ से ज़्यादा गुँजाइश बजट में न रख पाता।
शनि की शाम पवन हमेशा की
तरह अभिषेक शुक्ला के यहाँ पहुँचा तो पाया वहाँ माहौल अलग
है। प्रायः यह होता कि वह, अभिषेक, उसकी पत्नी राजुल और उनके
नन्हे बेटे अंकुर के साथ कहीं घूमने निकल जाता। लौटते हुए वे
बाहर ही डिनर ले लेते या कहीं से बढ़िया सब्ज़ी पैक करा कर
ले आते और ब्रेड से खाते। आज अंकुर ज़िद पकड़े था कि पार्क
में नहीं जाएँगे, बाज़ार जाएँगे।
राजुल उसे मना रही थी, ''अंकुर पार्क में तुम्हें भालू
दिखाएँगे और खरगोश भी।''
''वो सब हमने देख लिया, हम बजाल देखेंगे।''
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