रेखा ने कहा, ''बाप को इतना
लंबा लेक्चर पिला दिया। यह नहीं देखा कि तेरे सुख की ही सोच
रहे हैं वे।''
''जब मैं यहाँ सुख से रहता था तब भी तो आप लोग दुखी थे। आपने
कहा था माँ कि आपके बड़े बाबू के लड़के तक ने एम.बी.ए.
प्रवेश पास कर ली। उस समय मुझे कैसा लगा था।''
''सभी माँ बाप अपने बच्चों को भौतिक अर्थों में कामयाब बनाना
चाहते हैं ताकि कोई उन्हें फिसड्डी न समझे।''
''वही तो मैंने किया। आपके ऊपर इन तीन अक्षरों का कैसा जादू
चढ़ा था, एम.बी.ए.। आपको उस वक़्त लगा था कि अगर आपके लड़के
ने एम.बी.ए. नहीं किया तो आपकी नाक कट जाएगी।''
''हमें तुम्हारी डिग्री पर गर्व है बेटा पर शादी के साथ कुछ
तालमेल भी बैठाने पड़ते हैं।''
''तालमेल बड़ा गड़बड़ शब्द है। इसके लिए न मैं स्टैला की बाधा बनूँगा न वह मेरी। हमने पहले ही यह बात साफ़ कर ली है।''
''पर अकेलापन. . .''
''यह अकेलापन तो आप सब के बीच रह कर भी मुझे हो रहा है। आप
मेरे नज़रिए से चीज़ों को देखना नहीं चाहते। आपने मुझे ऐसे
समुद्र में फेंक दिया है जहाँ मुझे तैरना ही तैरना है।''
''तुम पढ़ लिख लिए, यह गलती भी हमारी थी क्यों?''
''पढ़ तो मैं यहाँ भी रहा था पर आप सपने पूरे करना चाहते थे।
आपके सपने मेरा संघर्ष बन गए। यह मत सोचिए कि संघर्ष अकेले
आता है। वह सबक भी सिखाता चलता है।''
राकेश निरुत्तर हो गए।
उन्हें लगा जितना अपरिपक्व वह बेटे को मान रहे हैं, उतना वह
नहीं है।
स्टैला का रेल आरक्षण दो दिन पहले का था। उसके जाने के बाद
पवन का सामान समेटना शुरू हुआ। उसने छोटे से 'ओडिसी' सूटकेस
में करीने से अपने कपड़े जमा लिए। बैग में निहायत ज़रूरी
चीज़ों के साथ लैपटॉप, मिनरल वॉटर और मोबाइल फ़ोन रख
लिया।
जाने के दिन उसने माँ के
नाम बीस हज़ार का चेक काटा, ''माँ हमारे आने से आपका बहुत
खर्च हुआ है, यह मैं आपको पहली किस्त दे रहा हूँ। वेतन मिलने
पर और दूँगा।''
रेखा का गला रूँध गया, ''बेटे हमें तुमसे किश्तें नहीं
चाहिए। जो कुछ हमारा है सब तुम्हारा और छोटू का है। यह मकान
तुम दोनों आधा-आधा बाँट लेना। और जो भी है उसमें बराबर का
हिस्सा है।''
''अब बताओ, हिसाब की बात तुम कर रही हो या मैं? इतने साल की
नौकरी में मैंने कभी एक पैसा आप दोनों पर खर्च नहीं किया।''
रेखा ने चेक वापस करते हुए कहा, ''रख लो नई जगह पर काम
आएगा। दो शहरों में गृहस्थी जमाओगे, दोहरा खर्च भी होगा।''
''सोच लो माँ, लास्ट ऑफर। फिर न कहना पवन ने घर पर उधार चढ़ा
दिया।''
बच्चों के जाने के बाद घर
एकबारगी भायं भायं करने लगा। सघन ने सॉफ्टवेयर की प्रवेश
परीक्षा उत्तीर्ण कर दिल्ली में डेढ़ साल का कोर्स ज्वायन कर
लिया। रेखा और राकेश एक बार फिर अकेले रह गए।
अकेलेपन के साथ सबसे जानलेवा होते हैं उदासी और पराजय बोध!
वे दोनों सुबह की सैर पर जाते। इंजीनियरिंग कालेज के अहाते
की साफ़ हवा कुछ देर को चित्त प्रफुल्लित करती कि कालोनी का
कोई न कोई परिचित दिख जाता। बात स्वास्थ्य और मौसम से होती
हुई अनिवार्यतः बच्चों पर आ जाती। कालेज की रेलिंग पर गठिया
से गठियाये पैरों को तनिक आराम देते सिन्हा साहब
बताते उनका अमित मुंबई में है, वहीं उसने क़िस्तों पर फ्लैट
ख़रीद लिया है। सोनी साहब बताते उनका बेटा एच.सी.एल. की ओर
से न्यूयार्क चला गया है। मजीठिया का छोटा भाई कैनेडा में
हार्डवेयर का कोर्स करने गया था, वहीं बस गया है।
ये सब कामयाब संतानों के माँ बाप थे। हर एक के चेहरे पर भय
और आशंका के साये थे। बच्चों की सफलता इनके जीवन में सन्नाटा
बुन रही थी।
''इतनी दूर चला गया है बेटा, पता नहीं हमारी क्रिया करने भी
पहुँचेगा या नहीं?'' सोनी साहब कह कर चुप हो जाते।
रेखा और राकेश इन सब से हट कर घूमने का अभ्यास करते। उन्हें
लगता जो बेचैनी वे रात भर जीते हैं उसे सुबह-सुबह शब्दों का
जामा पहना डालना इतना ज़रूरी तो नहीं। यों दिन भर बात में
छोटू और पवन का ध्यान आता रहता। घर में पाव भर सब्ज़ी भी न
खपती। माँ कहती, ''लो छोटू के नाम की बची है यह। पता नहीं
क्या खाया होगा उसने?''
राकेश को पवन का ध्यान आ जाता, ''उसके जॉब में दौरा ही दौरा
है। इतना बड़ा एरिया उसे दे दिया है क्या खाता होगा। वहाँ सब
चावल के व्यंजन मिलते हैं, मेरी तरह उसे भी चावल बिल्कुल
पसंद नहीं।''
दोनों के कान फ़ोन पर लगे
रहते। फ़ोन अब उनके लिए कोने में रखा एक यंत्र नहीं,
संवादिया था। पवन जब अपने शहर में होता फ़ोन कर लेता। अगर
चार पाँच दिन उसका फ़ोन न आए तो ये लोग उसका नंबर मिलाते। उस
समय उन्हें छोटू की याद आती। फ़ोन मिलाने, उठाने, एस.टी.डी.
का इलेक्ट्रानिक ताला खोलने, लगाने का काम छोटू ही किया करता
था। अब वे फ़ोन मिलाते पर डरते-डरते। सही नंबर दबाने पर भी
उन्हें लगता नंबर ग़लत लग गया है। कभी पवन फ़ोन उठाता पर
ज़्यादातर उधर से यही यांत्रिक आवाज़ आती 'यू हैव रीच्ड द
वायस मेल बॉक्स ऑफ नंबर ९८४४०१४९८८।
रेखा को वायस मेल की आवाज़
बड़ी मनहूस लगती। वह अक्सर पवन से कहती, ''तुम खुद तो बाहर
चले जाते हो, इस चुड़ैल को लगा जाते हो।''
''क्या करूँ माँ, मैं तो हफ्ता-हफ्ता बाहर रहता हूँ। लौट कर
कम से कम यह तो पता चल जाता है कि कौन फ़ोन घर पर आया।''
सघन के होस्टेल में फ़ोन
नहीं था। वह बाहर से महीने में दो बार फ़ोन कर लेता। उसे
हमेशा पैसों की तंगी सताती। महीने के शुरू में पैसे मिलते ही
वह कंप्यूटर की महँगी पत्रिकाएँ खरीद लेता, फिर कभी नाश्ते
में कटौती, कभी खाने में कंजूसी बरतता। दिल्ली इतना महँगा था
कि बीस रुपये रोज़ आने-जाने में निकल जाते जबकि इसके बावजूद
बस के लिए घंटों धूप में खड़ा होना पड़ता। एक सेमेस्टर पूरा
कर जब वह घर आया माँ पापा उसे पहचान नहीं पाए। चेहरे पर
हड्डियों के कोण निकल आए थे। शकल पर से पहले वाला छलकाता
बचपना गायब हो गया था।
बैग और अटैची से उसके चीकट
मैले कपड़े निकालते हुए रेखा ने कहा, ''क्यों कभी कपड़े धोते
नहीं थे।'' उसने गर्दन हिला दी।
''क्यों?''
''टाइम कहाँ है माँ। रोज़ रात तीन बजे तक कंप्यूटर पर पढ़ना
होता है। दिन में क्लास।''
''बाकी लड़के कैसे करते हैं?''
''लांड्री में धुलवाते हैं। मेरे पास पैसे नहीं होते।''
राकेश ने कहा, ''जितने तुम्हें
भेजते हैं, उतने तो हम पवन को भी नहीं भेजते थे। एक तरह से
तुम्हारी माँ का पूरा वेतन ही चला जाता है।''
''उस ज़माने की बात पुरानी हो गई पापा। अब तो अकेली चिप सौ
रुपये की होती है।''
''क्या ज़रूरत है इतने चिप्स खाने की?'' रेखा ने भौंहें
सिकोड़ी। |