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अभिषेक जिस विज्ञापन कंपनी में काम करता था उसमें आजकल अक अन्य कंपनी की टक्कर में टूथपेस्ट युद्ध छिड़ा हुआ था। दोनों के विज्ञापन एक के बाद एक टी.वी. के चैनलों पर दिखाए जाते। एक में डेंटिस्ट का बयान प्रमाण की तरह दिया जाता तो दूसरे में उसी बयान का खंडन। दोनों टूथपेस्ट बहुराष्ट्रीय कंपनियों के थे। इन कंपनियों का जितना धन टूथपेस्ट के निर्माण में लग रहा था लगभग उतना ही उसके प्रचार में। टूथपेस्ट तक़रीबन एक से थे, दोनों की रंगत भी एक थी पर कंपनी भिन्न होने से उनकी भिन्नता और उत्कृष्टता सिद्ध करने की होड़ मची थी। इसी के लिए अभिषेक की कंपनी क्रिसेंट कॉर्पोरेशन को नब्बे लाख का प्रचार अभियान मिला था।

अभिषेक ने विजुअलाइज़र से आइडिया समझा। स्क्रिप्ट लिखी गई। अब विज्ञापन फ़िल्म बननी थी। उन्हें ऐसी माडल की तलाश थी जिसके व्यक्तित्व में दांत प्रधान हों, साथ ही वह खूबसूरत भी हो। इसके अलावा दो एक पंक्ति के डायलाग बोलने का उसे शऊर हो। उनके पास माडल्स की एक स्थायी सूची थी पर इस वक्त वह काम नहीं आ रही थी। मुश्किल यह थी किसी भी उत्पाद का प्रचार करने में एक माडल का चेहरा दिन में इतनी बार मीडिया संजाल पर दिखाया जाता कि वह उसी उत्पाद के विज्ञापन से चिपक कर रह जाता। अगले किसी उत्पाद के विज्ञापन में उस माडल को लेने से विज्ञापन ही पिट जाता। नए चेहरों की भी कमी नहीं थी। रोज़ ही इस क्षेत्र में नई लड़कियाँ जोखम उठाने को तैयार थीं पर उन्हें माडल बनाए जाने का भी एक तंत्र था। अगर सब कुछ तय होने के बाद कैमरामैन उसे नापास कर दे तब उसे लेना मुश्किल था।

आजकल अभिषेक के ज़िम्मे माडल का चुनाव था। वह एक ब्यूटी पार्लर की मालकिन निकिता पर दबाव डाल रहा था कि वह अपनी बेटी तान्या को माडलिंग करने दें। इस सिलसिले में वह कई बार 'रोजेज' पार्लर में गया। इसी को ले कर पति पत्नी में तनाव हो गया।

राजुल का मानना था कि रोजेज अच्छी जगह नहीं है। वहाँ सौंदर्य उपचार की आड़ में ग़लत धंधे होते हैं। उसका कहना था कि विज्ञापन फ़िल्म बनाने का काम उनकी कंपनी को मुंबई इकाई करे, यहाँ अहमदाबाद में अच्छी फ़िल्म बनना मुमकिन नहीं है। अभिषेक का कहना था कि वह बंबइया विज्ञापन फ़िल्मों से अघा गया है। वह यहीं मौलिक काम कर दिखाएगा।
''यों कहो कि तुम्हें माडल की तलाश में मज़ा आ रहा है।'' राजुल ने ताना मारा।
''यही समझ लो। यह मेरा काम है, इसी की मुझे तनख़्वाह मिलती है।''
''मज़े हैं तनख़्वाह भी मिलती है, लड़की भी मिलती है।''
अभिषेक उखड़ गया, ''क्या मतलब तुम्हारा। तुम हमेशा टेढ़ा सोचती हो। जैसे तुम्हारे टेढ़े दाँत हैं वैसी टेढ़ी तुम्हारी सोच है।''

राजुल का, ऊपर नीचे का एक-एक दाँत टेढ़ा उगा हुआ था। विशेष कोण से देखने पर वह हँसते हुए अच्छा लगता था।
''शुरू में इसी बाँके दाँत पर आप फिदा हुए थे।'' राजुल ने कहा, ''आज आपको यह भद्दा लगने लगा।''
''फिर तुमने ग़लत शब्द इस्तेमाल किया। बाँका शब्द दाँत के साथ नहीं बोला जाता। बाँकी अदा होती है, दाँत नहीं।''
''शब्द अपनी जगह से हट भी सकते हैं। शब्द पत्थर नहीं हैं जो अचल रहें।''
''तुम अपनी भाषा की कमज़ोरी छुपा रही हो।''
''कोई भी बात हो, सबसे पहले तुम मेरे दोष गिनाने लगते हो।''
''तुम मेरा दिमाग़ ख़राब कर देती हो।''
''अच्छा सारी पर अब तुम निकिता के यहाँ नहीं जाओगे। इससे अच्छा है तुम यूनिवर्सिटी की छात्राओं में सही चेहरा तपाश करो।''
''तपास नहीं तलाश करो।''
''तलाश सही पर तुम रोजेज नहीं जाओगे।''

जब से राजुल ने नौकरी छोड़ी उसके अंदर असुरक्षा की भावना घर कर गई थी। साढ़े चार साल की नौकरी के बाद वह सिर्फ़ इसलिए हटा दी गई क्यों कि उसकी विज्ञापन एजेंसी मानती थी कि घर और दफ्तर दोनों मोर्चे सँभालना उसके बस की बात नहीं। ख़ास तौर पर जब वह गर्भवती थी, उसके हाथ से सारे महत्वपूर्ण कार्य ले कर साधना सिंह को दे दिए गए। अंकुर के पैदा होने तक दफ्तर में माहोल इतना बिगड़ गया कि प्रसव के पश्चात राजुल ने त्यागपत्र ते दिया। पर तब से वह पति के प्रति बड़ी सतर्क और संदेहशील हो गई थी। उसे लगता था अभिषेक उतना व्यस्त नहीं जितना वह नाट्य करता है। फिर विज्ञापन कंपनी की दुनिया परिवर्तन और आकर्षण से भरपूर थी। रोज़ नई-नई लड़कियाँ माडल बनने का सपना आँखों में लिए हुए कंपनी के द्वार खटखटाती। उनके शोषण की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता था।

विज्ञापन एजेन्सी का सारा संजाल स्वयं देख लेने से इधर कई दिनों से राजुल को जो अन्य सवाल उद्वेलित कर रहे थे, उन पर वह अभिषेक के साथ बहस करना चाहती थी। पर अभिषेक जब भी घर आता, लंबी बातचीत के मूड में हरगिज़ न होता। बल्कि वह चिड़चिड़ा ही लौटता।
उस दिन वे खाना खा रहे थे। टी.वी. चल रहा था। समाचार से पहले 'स्पार्कल' टूथपेस्ट का विज्ञापन फ्लैश हुआ। इसकी कापी अभिषेक ने तैयार की थी।
अंकुर चिल्लाया, ''पापा का एड, पापा का एड।''

यह विज्ञापन आज पाँचवी बार आया था पर वे सब ध्यान से देख रहे थे। विज्ञापन में पार्टी का दृश्य था जिसमें हीरो के कुछ कहने पर हिरोइन हँसती है। उसकी हँसी में हर दाँत मे मोती गिरते हैं। हीरो उन्हें अपनी हथेली पर रोक लेता है। सारे मोती इकट्ठे होकर 'स्पार्कल' टूथपेस्ट की ट्यूब बन जाते हैं। अगले शाट में हीरो हीरोइन लगभग चुंबनबद्ध हो जाते हैं।

अभिषेक ने कहा, ''राजुल कैसा लगा एड?''
''ठीक ही है।'' राजुल ने कहा। उसके उत्साहविहीन स्वर से अभिषेक का मूड उखड़ गया। उसे लगा राजुल उसके काम को ज़ीरो दे रही है, ''ऐसी श्मशान आवाज़ में क्यों बोल रही हो?''
''नहीं, मैं सोच रही थी, विज्ञापन कितनी अतिशयोक्ति करते हैं। सच्चाई यह है कि न किसी के हँसने से फूल झरते हैं न मोती फिर भी मुहावरा है कि लीक पीट रहा है।''
''सचाई तो यह है कि माडल लीना भी स्पार्कल इस्तेमाल नहीं करती हैं। वह प्रतिद्वंद्वी कंपनी का टिक्को इस्तेमाल करती है। पर हमें सच्चाई नहीं, प्राडक्ट बेचनी है।''
''पर लोग तो तुम्हारे विज्ञापनों को ही सच मानते हैं। क्या यह उनके प्रति धोखा नहीं है?''
''बिल्कुल नहीं। आखिर हम टूथपेस्ट की जगह टूथपेस्ट ही दिखा रहे हैं, घोड़े की लीद नहीं। सभी टूथपेस्टों में एक-सी चीज़ें पड़ी होती हैं। किसी में रंग ज़्यादा होता है किसी में कम। किसी में फ़ोम ज़्यादा, किसी में कम।''
''ऐसे में कापीराइटर की नैतिकता क्या कहती है?''
''ओ शिट। सीधा सादा एक प्रॉडक्ट बेचना है, इसमें तुम नैतिकता और सच्चाई जैसे भारी भरकम सवाल मेरे सिर पर दे मार रही हो। मैंने आई.आई.एम. में दो साल भाड़ नहीं झोंका। वहाँ से मार्केटिंग सीख कर निकला हूँ। आइ कैन सैल ए डैड रैट (मैं मरा हुआ चूहा भी वेच सकता हूँ) यह सच्चाई, नैतिकता सब मैं दर्जा चार तक मॉरल साइंस में पढ़ कर भूल चुका हुआ हूँ। मुझे इस तरह की डोज़ मत पिलाया करो, समझी?''

राजुल मन ही मन उसे गाली देती बर्तन समेट कर रसोई में चला गई। अभिषेक मुँह फेर कर सो गया। अगले दिन पवन आया। वह अंकुर के लिए छोटा-सा क्रिकेट बैट और गेंद लाया था। अंकुर तुरंत बालकनी से अपने दोस्तों को आवाज़ देने लगा, ''शुब्बू, रुनझुन जल्दी आओ, बैट बाल खेलना।''

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