रेखा हैरान रह गई, ''बेटे ग्रीटिंग कार्ड तो बाहरी लोगों को
भेजा जाता है। तुम्हें पता है तुम्हारा जन्मदिन हम कैसे
मनाते हैं। हमेशा की तरह मैं मंदिर गई, स्कूल में सबको मिठाई
खिलाई, रात को तुम्हें फ़ोन किया।''
''मेरे सब कलीग्ज हँसी उड़ा रहे थे कि तुम्हारे घर से कोई
ग्रीटिंग कार्ड नहीं आया।''माँ को लगा उन्हें अपने
बेटे को प्यार करने का नया तरीका सीखना पड़ेगा। मुश्किल से
पाँच दिन ठहरा पवन। रेखा ने सोचा था उसकी पसंद की कोई न कोई
डिश रोज़ बना कर उसे खिलाएगी पर पहले ही दिन उसका पेट खराब
हो गया। पवन ने कहा, ''माँ मैं नींबू पानी के सिवा कुछ नहीं
लूँगा। दोपहर को थोड़ी-सी खिचड़ी बना देना। और पानी कौन-सा
इस्तेमाल करते हैं आप लोग?''
''वही जो तुम जन्म से पीते आए हो, गंगा जल आता है हमारे नल
में।'' रेखा ने कहा।
''तब से अब तक गंगा जी में न जाने कितना मल-मूत्र विसर्जित
हो चुका है। मैं तो कहूँगा यह पानी आपके लिए भी घातक है।
एक्वागार्ड क्यों नहीं लगाते?''
''याद करो, तुम्हीं कहा करते थे फ़िल्टर से अच्छा है हम अपने
सिस्टम में प्रतिरोधक शक्ति का विकास करें।''
''वह सब फ़िज़ूल की भावुकता थी माँ। तुम इस पानी की एक बूँद
अगर माइक्रोस्कोप के नीचे देख लो तो कभी न पियो।''
पवन को अपनी जन्मभूमि का पानी
रास नहीं आ रहा था। शाम को पवन ने सघन से बारह बोतलें मिनरल
वाटर मँगाया। रसोई के लिए रेखा ने पानी उबालना शुरू किया। नल
का जल विषतुल्य हो गया।
देश में परदेसी हो गया पवन।
तबियत कुछ सँभलने पर अपने पुराने दोस्तों की तलाश की। पता
चला अधिकांश शहर छोड़ चुके हैं या इतने ठंडे और अजनबी हो गए
हैं कि उनके साथ दस मिनट बिताना भी सज़ा है।
पवन ने दुखी हो कर पापा से कहा, ''मैं नाहक इतनी दूर आया।
सघन सारा दिन कंप्यूटर सेंटरों की खाक छानता है। आप अख़बारों
में लगे रहते हैं। माँ सुबह की गई शाम को लौटती हैं। क्या
मिला मुझे यहाँ आ कर?''
''तुमने हमें देख लिया, क्या यह काफ़ी नहीं?''
''यह काम तो मैं एंटरप्राइज के सैटलाइट फ़ोन से भी कर सकता
था। मुझे लगता है यह शहर नहीं जिसे मैं छोड़ कर गया था।''
''शहर और घर रहने से ही बसते हैं बेटा। अब इतनी दूर एक अनजान
जगह को तुमने अपना ठिकाना बनाया है। परायी भाषा, पहनावा और
भोजन के बावजूद वह तुम्हें अपना लगने लगा होगा।''
''सच तो यह है पापा जहाँ हर महीने वेतन मिले, वही जगह अपनी
होती है और कोई नहीं।''
''केवल अर्थशास्त्र से जीवन नहीं कटता पवन, उसमें थोड़ा
दर्शन, थोड़ा अध्यात्म और ढेर-सी संवेदना भी पनपनी चाहिए।''
''आपको पता नहीं दुनिया कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रही। अब
धर्म, दर्शन, और अध्यात्म जीवन में हर समय रिसने वाले फोड़े
नहीं हैं। आप सरल मार्ग के शिविर में कभी जा कर देखिए।
चार-पाँच दिन का कोर्स होता है, वहाँ जा कर आप मेडिटेट कीजिए
और छठे दिन वापस अपने काम से लग जाइए। यह नहीं कि डी.सी.
बिजली की तरह हमेशा के लिए उससे चिपक जाइए।''
''तुमने तो हर चीज़ की पैकेजिंग ऐसी कर ली है कि जेब में समा
जाए। भक्ति की कपस्यूल बना कर बेचते हैं आजकल के धर्मगुरु।
सुबह-सुबह टी.वी. के सभी चैनलों पर एक न एक गुरु प्रवचन देता
रहता है। पर उनमें वह बात कहाँ जो शंकराचार्य में थी या
स्वामी विवेकानंद में।''
''हर पुरानी चीज़ आपको श्रेष्ठ लगती है, यह आपकी दृष्टि का
दोष है पापा। अगर ऐसा ही है तो आधुनिक चीज़ों का आप इस्तेमाल
भी क्यों करते हैं, फेंक दीजिए अपना टी.वी. सेट, टेलीफ़ोन और
कुकिंग गैस। आप नई चीज़ों का फ़ायदा भी लूटते हैं और उनकी
आलोचना भी करते हैं।''
''पवन मेरी बात सिर्फ़ चीज़ों तक नहीं है।''
''मुझे पता है। आप अध्यात्म और धर्म पर बोल रहे थे। आप कभी
मेरे स्वामी जी को सुनिए। सबसे पहले तो उन्होंने यही समझाया
है कि धर्म जहाँ ख़त्म होता है, अध्यात्म वहीं शुरू होता है।
आप बचपन में मुझे शंकर का अद्वैतवास समझाते थे। मेरे कुछ
पल्ले नहीं पड़ता था। आपने जीवन में मुझे बहुत कन्फूज किया
है पर सरल मार्ग में एकदम सीधी सच्ची यथार्थवादी बाते हैं।''
पिता आहत हो देखते रह गए। उनके
बेटे के व्यक्तित्व में भौतिकतावाद, अध्यात्म और यथार्थवाद
की कैसी त्रिपथगा बह रही है।
राजकोट ऑफ़िस से पवन के लिए ट्रंककॉल आया कि सोमवार को वह
सीधे अहमदाबाद ऑफ़िस पहुँचे। सभी मार्केटिंग मैनेजरों की
उच्च स्तरीय बैठक थी। पवन का मन एकाएक उत्साह से भर गया।
पिछले पाँच दिन पाँच युग की तरह बीते थे। जाते-जाते वह
परिवार के प्रति बहुत भावुक हो आया।
''माँ तुम राजकोट आना। पापा आप भी। मेरे पास बड़ा-सा
फ़्लैट
है। आपको ज़रा भी दिक्कत नहीं होगी। अब तो कुक भी मिल गया
है।''
''अब तेरी शादी भी कर दें क्यों।'' रेखा ने पवन का मन टटोला।
''माँ शादी ऐसे थोड़े ही होगी। पहले तुम मेरे साथ सारा
गुजरात घूमो। अरे वहाँ मेरे जैसे लड़कों की बड़ी पूछ है।
वहाँ के गुज्जू लड़के बड़े पिचके-दुचके-से होते हैं। मेरा तो
पापा जैसा कद देख कर ही लट्टू हो जाते हैं सब।''
''कोई लड़की देख रखी है क्या?'' रेखा ने कहा।
''एक हो तो नाम बताऊँ। तुम आना तुम्हें सबसे मिलवा दूँगा।''
''पर शादी तो एक से ही करनी होती है।''
पवन हँसा। भाई को लिपटाता हुआ बोला, ''जान टमाटर तुम कब
आओगे।''
''पहले अपना कंप्यूटर बना लूँ।''
''इसमें तो बहुत दिन लगेंगे।''
'' नहीं भैय्या, ममी एक बार दिल्ली जाने दें तो भगीरथ पैलेस
से बाकी का सामान ले आऊँ।''
''ले ये हज़ार रुपए तू रख ले काम आएँगे।''
मीटिंग में भाग लेने वाले सभी
सदस्यों को प्रसिडेंसी में ठहराया गया था। दो दिन के चार
सत्रों में विपणन के सभी पहलुओं पर खुल कर बहस हुई। हैरानी
की बात यह थी कि ईंधन जैसी आवश्यक वस्तु को भी ऐच्छिक
उपभोक्ता सामग्री के वर्ग में रख कर इसके प्रसार और विकास का
कार्यक्रम तैयार किया जा रहा था। बहुत-सी ईंधन कंपनियाँ
मैदान में आ गईं थीं। कुछ बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियाँ
एल.पी.जी. इकाई खोल चुकी थीं, कुछ खोलने वाली थीं। दूसरी
तरफ़ कुछ उद्योगपतियों ने भी एल.पी.जी बनाने के अधिकार हासिल
कर लिए थे। इससे स्पर्धा तो बढ़ ही रही थी। व्यावसायिक
उपभोक्ता भी कम हो रहे थे। निजी उद्योगपति मोठाबाई नानूभाई
अपनी सभी फर्मों में अपनी बनाई एल.पी.जी. इस्तेमाल कर रहे थे
जबकि पहले वहाँ जी.जी.सी.एल. की सिलेंडर जाती थीं।
बहुराष्ट्रीय कंपनी की फ़ितरत थी कि शुरू में वह अपने उत्पाद
का दाम बहुत कम रखती। जब उसका नाम और वस्तु लोगों की निगाह
में चढ़ जाते वह धीरे से अपना दाम बढ़ा देती।
जी.जी.सी.एल. के मालिकों के
लिए ये सब परिवर्तन सिरदर्द पैदा कर रहै थे। उन्होंने साफ़
तौर पर कहा, ''पिछले पाँच वर्ष में कंपनी को साठ करोड़ का
घाटा हुआ है। हम आप सबको बस दो वर्ष देते हैं। या घाटा कम
कीजिए या इस इकाई को बंद कीजिए। हमारा क्या है, हम डेनिम
बेचते थे, डेनिम बेचते रहेंगे। पर यह आप लोगों का फेलियर
होगा कि इतनी बड़ी-बड़ी डिग्री और तनख़्वाह लेकर भी आपने
क्या किया। आप स्टडी कीजिए ऐसा क्या है जो एस्सो और शेल में
हैं और जी.जी.सी.एल. में नहीं। वे भी हिंदुस्तानी
कर्मचारियों से काम लेते हैं, हम भी। वे भी वही लाल सिलिंडर
बनाते हैं। हम भी।'' |