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आत्मकथा (सत्रहवाँ भाग)

   — कृष्ण बिहारी

 

यह तो नहीं होना चाहिए था


पिछले दिनों मैंने एक गजल कही-
कब हो जाए मिट्टी सोना, कौन बता सकता है।
पड़ जाये कब किसको खोना, कौन बता सकता है।

भविष्य कितना अनिर्दिष्ट है...कितना अनिश्चित...
कहाँ तो शील सा’ब की नौकरी के संबंध में कुछ हो नहीं पा रहा था और कहाँ एक झटके में बात बन गई। शील सा’ब से अधिक खुशी मुझे थी कि उन्हें एक बार फिर से बसने का अवसर मिल रहा था। वह भी उसी जगह जहाँ वे लगभग एक दशक तक रहे थे। जानी–पहचानी जगह पर दुबारा अगर रहने का मौका मिले तो बहुत–सी बातें आसान हो जाती हैं। मैं रोज प्रतीक्षा करता कि जिस स्कूल ने उन्हें नियुक्त करने का आश्वासन दिया है उसकी ओर से कोई फोन कॉल आए। दिन गुजर रहे थे और उधर उसी हिसाब से हिन्दुस्तान में शील सा’ब की बेकली बढ़ रही थी। मैं असहाय था। उनके संक्षिप्त फोन आते ही रहते और मेरा फोन बिल लम्बा होता जाता। मैंने पहले ही कहा है कि जिनके भी नामों में एम की ध्वनि प्रमुख रही है उन्होंने मुझे असह्य दुख दिये हैं। शील सा’ब के नाम का पहला अक्षर ही था एम। स्कूल में ऑफिस के अलावा किसी को उनका पूरा नाम मालूम नहीं था और स्टॉफ में किसी ने जानने की कोशिश भी नहीं की थी। किसी को मतलब भी क्या था। लोग उनको एम.सी.शील के नाम से जानते थे। उन्होंने मुझे नई नौकरी के लिये जब कागजात भेजे थे तभी मैं उनका पूरा नाम जान सका— मूल चंद शील। पासपोर्ट पर और शैक्षिक प्रमाण–पत्रों में यही नाम था। सच कह रहा हूँ कि उनके नाम को लेकर कोई हास्यास्पद बात मेरे मन में उभरी ही नहीं। मैंने किसी से उनके नाम को लेकर चर्चा भी नहीं की। मैं स्वयं प्रारम्भिक शिक्षा आर्यसमाज के स्कूल में पा चुका हूँ अतः दयानंद सरस्वती के पारिवारिक नाम मूलचंद को लेकर कभी प्रश्नाकुल नहीं हुआ कि क्या यह भी कोई नाम है!

शील सा’ब की नई नौकरी के लिये वीजा स्कूल को मिल गया। प्रिंसिपल ने मुझे सूचना दी कि उन्हें पी. टी. ए. भेजा जा रहा है। अमुक तारीख को शील सा’ब को यहाँ आना है। मुझे खुशी हुई थी। मैंने अपनी ओर से उन्हें फोन किया, “शील सा’ब...इंतजार की घड़ियाँ खत्म हुईं, वीजा मिल गया है, उसकी फोटोकॉपी और पी.टी.ए.भेजा जा चुका है, अब आपको आना है। आने की तारीख और फ्लॉइट नम्बर मुझे बुकिंग के बाद बताएँ, या स्कूल को बता दें, मैं एयरपोर्ट...” अभी मेरी बात खत्म भी नहीं हुई थी कि शील सा’ब उधर से बोले, “लेकिन अब मैं पुराने पॉसपोर्ट पर यात्रा नहीं कर सकता...मैंने अपना नाम बदलवाया है।” मैं सन्न रह गया। क्या आदमी है यह भी? इतनी जद्दोजहद के बाद कुछ हुआ भी तो इसने उस पर पानी फेर दिया...।
“नाम क्यों बदलवाया आपने...नाम में क्या खराबी थी?”
“पसंद नहीं था।”
“शील सा’ब...जानते हैं आप कि कितने पापड़ बेलने के बाद तो बात बनी थी, वीजा मिला तो आपने अपना नाम ही बदल लिया, अब क्या नाम है आपका?”
“एम.सी. शील”
“तो, बदला क्या है?”
“शॉर्ट फॉर्म में तो नहीं बदला किन्तु वैसे बदल गया है, पहले मूल चंद शील था लेकिन अब मुकुल चंद शील हो गया है। बड़ी मुश्किलों से पुराने नाम को बदल पाया, प्रमाणपत्रों में भी ठीक करा लिया है, मैं सारे पेपर्स फिर से भेज रहा हूँ, आपको कष्ट तो होगा लेकिन स्कूल को कन्विंस कर लें...” मैंने फोन रख दिया।
मेरे पास फजीहत झेलने के अलावा और क्या था। एक बार तो मन हुआ कि इस आदमी के बारे में अब कुछ भी न करूँ। लेकिन उनके लिये जो कमरा किराए पर लिया था। इधर–उधर आधा–तीहा उनका जो सामान रखा पड़ा था, उसका क्या करता। एक उम्मीद बँधी थी कि शील सा’ब आ जाएँगे तो मेरे फँसे पैसे मुझे मिल जाएँगे लेकिन उन्होंने तो मुझे अजीब पशोपेश में डाल दिया था।
अगले दिन मैं लगभग मुँह लटकाए हुए शेरवुड एकेडमी गया। वहाँ प्रिंसिपल से सारी बात हकलाते हुए बताई। स्कूल प्रबंधन मुझे भी सम्मान देता था इसलिये कोई अप्रिय स्थिति नहीं बनी और शील सा’ब के इस कृतित्व को हँसी–हँसी में बचकानी हरकत मान लिया गया और यह तय हुआ कि जब नये नाम का पॉसपोर्ट आ जाएगा तो फिर से वीजे के लिये आवेदन होगा। अब यह बात और है कि इस काम में फिर एक–डेढ़ महीने का वक्त लग जाएगा।

असल में स्कूल को हिन्दी पढ़ाने के लिये एक ही नहीं, दो–तीन कुशल अध्यापकों की तत्काल जरूरत थी इसलिये शील सा’ब की इस हरकत को प्रबंधन ने लगभग नजरन्दाज कर दिया।
मैंने अपनी कहानी ‘मर गया स्वप्नदर्शी' जो मेरे दूसरे कहानी संग्रह ‘पूरी हकीकत पूरा फसाना’ सन २००३ में इसी शीर्षक से छपी, लेकिन कुछ बदलाव के बाद कानपुर से निकलने वाली ‘आशय’ पत्रिका में ‘पराकाष्ठा’ शीर्षक से छप रही है, उसमें मैंने जिसे नायक बनाया है वह शील सा’ब ही हैं। उसमें मैंने लिखा है, “उसे जो पसंद नहीं आया, उसने बदल दिया। यहाँ तक कि अपना नाम भी। मैं समझता हूँ कि उसे अपनी बीवी पसंद थी। अगर न होती तो उसने उसे भी बदल दिया होता...”
मैंने सोचा कि यार यह तो नहीं होना चाहिए था। मगर जो हो चुका था उसमें मेरे कुछ करने से परिवर्तन भी तो नहीं होता। मैं कर भी क्या सकता था...खिन्न मन से एक प्रतीक्षा शुरू हुई कि उनके बदले हुए नाम के साथ के कागजात जल्द आ जाएँ तो फिर नऐ सिरे से काररवाई शुरू हो।
पेपर्स मिलने और उसके बाद नए नाम के साथ वीजा को पाने में लगभग दो महीने का समय निकल गया। इस बीच बोझिल फोन कॉल्स का बोझ मुझ पर निरन्तर बढ़ता रहा। इसके बावजूद मुझे खुशी हुई कि अन्ततः काम किसी तरह हो तो गया। फिर से उन्हें जब नए वीजा की फोटोकॉपी और पी.टी.ए.भेजा गया। मैने उन्हें फोन किया कि अब अपनी यात्रा की तारीख सूचित करें। मैं उन्हें रिसीव करने एयरपोर्ट पहुँच जाऊँगा।
दो दिन बाद उन्होंने मुझे फोन किया, “इस नम्बर पर उपलब्ध हूँ... बात करें...।”
तफसील से उन्होंने मुझे अपनी बुकिंग और लगभग व्यर्थ की बातें इण्टरनेशनल कॉल पर बताईं। मैं एक बात बताना चाहता हूँ। हालाँकि, यह बात हिन्दुस्तान में रह रहे लोगों को बुरी लगेगी। कोई भी परिचित वहाँ से फोन नहीं करता। चिट्ठी नहीं लिखता। लेकिन यदि कोई उसे चिट्ठी लिखे या फोन करे तो सबसे पहले यह शिकायत सुनने को जरूर मिलती है कि आपने बहुत दिनों के बाद फोन किया। जैसे कि विदेश में रहने वाला तो मुफ्त में फोन करता है। हालत यह है कि अब भारत से विदेश फोन करना कम पैसों में होता है लेकिन कौन आपका अपना है जो फोन करे? आप जबरदस्ती उनके अपने बने रहिए। एक दिन आप स्वयं समझ जाएँगे कि आप किसके कितने अपने हैं? इस वर्ष नववर्ष के उपलक्ष्य में मैंने ११६ ग्रीटिंग कार्ड्स अबूधाबी से भेजे और मुझे सिर्फ दो ही मिले। एक अपने भतीजे का और दूसरा उत्तर प्रदेश के गवर्नर श्री विष्णुकांत शास्त्री का। कभी मैं दो–सौ के आस–पास कार्ड्स भेजता था। याद करता हूँ, पचीस वर्ष पहले के समय को। आलम यह था कि कभी–कभी तो डाक में केवल मेरे नाम की ही चिट्ठियाँ होती थीं। लेकिन अब साल भर में यदि दस चिट्ठियाँ भी मिल जाएँ तो बहुत है...ऐसा लगता है कि पत्र–लेखन कला की सचमुच हत्या हो गई है।
शील सा’ब ने मुझे अपनी यात्रा की तारीख और फ्लॉइट नम्बर बताया। निश्चित तारीख और निर्धारित समय पर मैं एयरपोर्ट पर था। यद्यपि मेरी कोई आवश्यकता नहीं थी। जिस स्कूल ने उन्हें नियुक्त किया था उसके प्रधानाचार्य श्री डेनिस डिसूजा स्वयं उन्हें लेने पहुँचे थे। यह भी एक संयोग था कि प्रधानाचार्य लगभग दस वर्ष तक अबूधाबी इण्डियन स्कूल में उप–प्रधानाचार्य के पद पर काम कर चुके थे। शील सा’ब और मैं, हम दोनों ही उनके सबॉर्डिनेट रहे थे...शील सा’ब तो उनसे दो–तीन वर्ष पहले से ही स्कूल में थे। श्री डिसूजा कर्नाटक प्रांत के रहने वाले थे। वहाँ किसी हाई स्कूल में हेड मॉस्टर के पद से सेवा निवृत्त होकर अबूधाबी इण्डियन स्कूल में उप–प्रधानाचार्य के पद पर उनकी नियुक्ति हुई थी। उन्हें भारत के राष्ट्रपति के हाथों विशिष्ट शिक्षक का पुरस्कार भी मिल चुका था। उन्होंने करीब आठ साल स्कूल में काम किया। जब स्कूल प्रबंधन ने शायद उनकी अवस्था जो कि उस समय लगभग ६५ वर्ष हो गई, उसे आधार बनाकर उनके वीजा का नवीनीकरण नहीं कराया तो वे शेरवुड एकेडमी के प्रबंधन से मिले। स्कूल नया था और उसे ऐसे मौके की तलाश थी कि कोई चर्चित व्यक्तित्व उस स्कूल को महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठा दिलाने के लिये उनके साथ हो जाए। ऐसे में भारतीय मूल के सबसे बड़े स्कूल का उप–प्रधानाचार्य अगर स्वयं कोई प्रस्ताव रखता तो वे तो उसे सिर आँखों पर बिठाते ही। उन्होंने उन्हें अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य बना दिया। शील सा’ब की इज्जत डिसूजा साहब भी करते थे। मुझसे तो उनके संबंध बहुत स्नेहपूर्ण थे। एयरपोर्ट पर फ्लॉइट की प्रतीक्षा करते हुए हम दोनों ने जो बातें की उसका सार यह था कि शील सा’ब को रिसीव करने तो स्कूल का ड्रॉइवर अकेले भी ओरिजनल वीजा लेकर आ जाता लेकिन हम दोनों का आना इसलिये जरूरी था कि शील सा’ब को यह समझा दिया जाए कि स्कूल में कैसे रहना है और अपने इस कष्ट के दिनों को कैसे निकालना है। शील सा’ब भी जानते थे कि स्कूल प्रबंधन शिक्षकों के लिये जल्लाद से बढ़कर है। लेकिन उस जल्लाद-प्रबंधन के अन्तर्गत कैसे समय निकालना है, यही बताने के लिये स्वयं डिसूजा साहब एयरपोर्ट गए थे। शील सा’ब का स्वभाव उन्हें भी बखूबी मालूम था और, शेरवुड एकेडमी ज्वॉयन करने के बाद वे उस स्कूल प्रबंधन को भी बखूबी समझ चुके थे।
जिन दिनों शील सा’ब बेरोजगारी का दंश झेलते हुए भारत में थे और मैं उनके लिये नौकरी की तलाश में शेरवुड एकेडमी के मालिकानों से मिला था उन्हीं दिनों डिसूजा साहब ने शेरवुड एकेडमी में प्रधानाचार्य के पद का कार्यभार सँभाला था। अपने किसी परिचित और शुभचिन्तक का ऐसे पद पर होना बल दे गया। मुझे और डिसूजा साहब को एक अतिरिक्त विश्वास हुआ कि शील सा’ब निश्चित रूप से अपना मुश्किल समय निकाल लेंगे और सही अवसर मिलते ही किसी अच्छे स्कूल में चले जाएँगे।
लेकिन क्या सभी विश्वास पूरे होते हैं?
खरे उतरते हैं?
क्या शील सा’ब जैसे घोड़े पर दाँव लगाया जा सकता है? एक ऐसा घोड़ा जो पीठ पर हाथ ही न रखने दे...न सहलाने के लिये और न पाँवों से एड़ देने के लिये।
मेरे जैसा घनघोर जुआरी भी यह दाँव हार गया... हालाँकि, पत्ता बहुत दमदार था, मगर किस्मत का क्या करता...जिस भाग्य पर सबसे कम यकीन रखकर आजतक जी रहा हूँ उसके प्रबल रूप को कभी–कभी सामने पाकर मेरे पास कहने के लिये कुछ नहीं बचता, सिवाय इसके कि जैनेन्द्र की कहानी ‘अपना–अपना भाग्य' याद आए...
फ्लॉइट समय से आई। शील सा’ब बाहर आए, वही अटॉयर...देखा हुआ, सफारी सूट में। देश कहें या शहर, उनका जाना हुआ था।
डिसूजा साहब ने उन्हें समझा दिया कि स्कूल में कैसे काम करना है और मैंने उनसे कहा, “शील सा’ब...अब आप दो बच्चियों के बाप हैं...यह नौकरी आपके लिये लांचिंग पैड है, प्लीज, बिना किसी कुण्ठा के अपना समय निकालिये...समय आने पर आपका परिवार फिर आपके साथ होगा।”
उन्होंने हामी भरी। जैसे कि सचमुच वे नियमों का पालन करते हुए जिएँगे। स्कूल पहुँचकर उन्होंने ज्वॉयनिंग रिपोर्ट दी। उसके बाद मैं उन्हें अपने घर ले आया। तीन सौ दिरहम उनके सफारी सूट के ऊपरी पॉकेट में जेब–खर्च के लिये रखे और कहा, “कल अखबार देखकर कोई कमरा तय कर लिया जाएगा।”
कॉफी पीने के बाद शील सा’ब बाहर निकल पड़े। शहर में उनके कई परिचित थे। जब घूम–घाम कर रात खाने के वक्त लौटे तो उन्होंने एक नई बात बताई। उन्हें नियुक्त करने वाले स्कूल ने वीजा भेजने से पहले केरल में बुलाकर एक कागज पर हस्ताक्षर करवा लिये थे। उस कागज पर जो कुछ लिखा था वह अरबी में था।
“आपने बिना पढ़े उस पर हस्ताक्षर क्यों किया? और, आपने मुझे फोन पर कभी बताया क्यों नहीं...?”
“सोचा कि कहीं बनता हुआ काम न बिगड़ जाए।”
“अरे...कम से कम मैं जान तो लेता कि मामला क्या है?”
“आप जरा फोन से पूछिए तो...”
“इस वक्त?”
“मुझे पता चला है कि रात बारह बजे तक स्कूल का कार्यालय खुला रहता है”
तो, शील सा’ब को भी पता चल गया कि स्कूल, स्कूल के नाम पर अध्यापकों के लिये जेल है। मैंने उनसे कहा, “शील सा’ब...जो हुआ वो हुआ, भविष्य में ध्यान रखियेगा... बेहतर होगा कि आप चुपचाप केवल काम करें और स्कूल की किसी भी बात में किसी प्रकार की प्रतिक्रिया न दें, यह हस्ताक्षर वाला मामला मैं पता करता हूँ कि यह क्या बला है”
मैंने स्कूल प्रबंधन को फोन मिलाया। कार्यालय खुला मिला। फोन किसी रिसेप्शनिस्ट ने उठाया और मुझे होल्ड पर अटका दिया। जब लाइन खाली हुई तो उस तरफ प्रशासक थे, “कृष्ण बिहारी इज हीयर...” मैंने कहा। प्रशासक वतनी था और उसका स्कूल में शेयर भी था। नियुक्तियों में उसका दखल भी होता था। वह मुझसे परिचित भी था। स्कूल के अध्यापकों को मैंने एक महीने प्रशिक्षण भी दिया था। इसकी वजह से वह मेरा कुछ लिहाज भी करता था। उसने उधर से कहा, “एस मिस्तर कृष्ना...”
“आप लोगों ने शील सा’ब को केरल बुलवाया था और मुझे बताया भी नहीं...वहाँ किसी कागज पर उनसे हस्ताक्षर भी करवाए। मामला क्या है?”
“जस्ट फॉरमेलिटी...एक बॉंड है...ही विल नॉट बी लीविंग अस बिफोर फाइव इयर्स...”
“ह्वॉट डू यू मीन...इट’स नॉट फेयर...दिस इज अ फाउल प्ले...ऐण्ड... ऐज यू नो दैट आई ऐम इन्वॉल्व्ड इन हिज अप्वाइण्टमेण्ट...। आई शुड हैव बीन इन्फॉम्र्ड...आई वाज नॉट केप्ट इन कांफिडेण्स...सॉरी टू से...दैट काइंड ऑफ बाँड इज मीनिंगलेस...” मैंने फोन रख दिया।
अगले दिन शील सा’ब स्कूल गए। उन्हें सब्जेक्ट सुपरवाइजर का पद दिया गया। बहुत खुश हुए लेकिन अपनी उस आदत का क्या करते जो उन्हें बहुत जल्द अलोकप्रिय बना देती थी। पहले ही दिन उन्होंने कई अध्यापकों द्वारा कक्षाओं में कराया गया काम देखा, उनके द्वारा जाँची गई कॉपियाँ देखीं और प्रायः सभी में गलतियाँ पाईं। उन्होंने सभी शिक्षिकाओं को लताड़ा। वे शिक्षिकाएँ केरल की थीं। हिन्दी भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ नहीं थी। उन्हें प्यार से समझाना था कि सामान्य अशुद्धियों को कैसे हमेशा के लिये ठीक किया जाए। लेकिन शील सा’ब को यही नहीं आता था। ऊपर से प्रभुता। उन्होंने शाम तक अपना आतंक कायम कर लिया। इतना ही नहीं उन्होंने सप्ताह भर पहले छात्रों को वितरित किया गया एक सर्क्युलर देखा और उसे लेकर स्कूल की प्रधानाचार्या के पास जा पहुँचे। आप भी चौंक रहे होंगे कि जब स्कूल के प्रधानाचार्य श्री डेनिस डिसूजा थे तो प्रधानाचार्या कहाँ से अवतरित हो गईं। दुनिया में मैंने यह पहला स्कूल देखा है जहाँ प्रधानाचार्य के अलावा प्रधानाचार्या भी थीं। असल में स्कूल उन्हीं का था जो प्रशासक के साथ पॉर्टनरशिप में चल रहा था। सर्क्युलर उन्हें दिखाते हुए शील सा’ब ने कहा, “ देखिये, इसमें कितनी गलतियाँ हैं...व्याकरण की ऐसी–तैसी हो गई है...” शील सा’ब ने गलतियाँ तो दिखाईं मगर यह बिना जाने कि जिसे वे गलतियाँ दिखा रहे हैं वे उसी प्रधानाचार्या के डिक्टेशन का फल हैं।
बरसों नौकरी करने के बाद भी शील सा’ब यह नहीं सीख पाए थे कि बॉस कभी गलत नहीं होता...।
सर्क्युलर में गलतियाँ सचमुच थीं और वह बच्चों में बँट भी चुका था। मगर क्या शील सा’ब की नियुक्ति प्रबंधन ने इसलिये की थी कि वे उसकी गलतियाँ बताएँ?
कोई सजग प्रबंधन होता तो शायद शील सा’ब के इस संकेत को स्पोर्ट की भावना से लेता मगर शेरवुड एकेडमी का प्रबंधन...
उसने शील सा’ब की नकेल कसने की ठान ली...मगर धीरे–धीरे...एक ओर प्रबंधन खोंचड़ था तो दूसरी ओर शील सा’ब भी कहाँ कमजोर थे...एक जंग शुरू हो गई...इसमें किसी एक की हार तो होनी थी...किसकी होती?
जाहिर है कि प्रबंधन को ही जीतना था...
० ० ०
शील सा’ब को एक कमरे में शिफ्ट कराया। सामान इतना ज्यादा था कि उसे इधर–उधर भी रखना पड़ा। शिफ्ट होने के बाद उन्होंने स्कूल से तीन महीने का वेतन अग्रिम ले लिया। मुझे उन्होंने बताया कि शिमला में एक प्लॉट विदेशी मुद्रा के भुगतान पर लिया है इसलिये उसका पेमेण्ट करना जरूरी था। मुझे उन्होंने वह पैसा देना जरूरी नहीं समझा जो मैने उनके सामानों को रखने के लिये किराए पर लिये कमरे के लिये दिया था। उन्होंने उस पैसे के बारे में भी नहीं सोचा जो मैंने दो बार शिफ्टिंग कराते हुए कुलियों या पिक–अप को दिये। उस पैसे को तो वह बिल्कुल ही भूल गए जो मैंने टेलीफोन पर खर्च किया था। उनके शिमला के प्लॉट के आगे मेरे पास कहने को कुछ नहीं था...
शील सा’ब अपनी नई जगह पर न केवल बुरी तरह से अलोकप्रिय हो गए बल्कि तीन महीने के अन्दर ही बहुत सारी शिकायतों का पिटारा लेकर एक दिन मिनिस्ट्री ऑफ एज्यूकेशन की उस सीट के सामने जा बैठे जिसपर बैठा व्यक्ति भी शेरवुड एकेडमी का शेयर होल्डर था। उससे उन्होंने जमकर शिकायतें कीं। वह भी चुपचाप सुनता रहा और आश्वासन देता रहा कि सुधार के लिये उपाय करेगा। लेकिन जैसे ही शील सा’ब उसके चेम्बर से निकले उसने स्कूल को फोन किया कि किस आदमी को अपवाइंट किया है...हटाओ इसे, जितना जल्द हो सके...
अगले तीन दिनों में ही शील सा’ब को अबूधाबी छोड़ना पड़ा...
जब शील सा’ब एक तिक्त अनुभव के साथ वापस जा रहे थे, मैंने उन्हें एक कागज का टुकड़ा थमाया जिसपर उनके लिये खर्च किए गए मेरे पैसों का ब्यौरा था। उसपर मैंने यह भी लिखा था कि यदि कभी संभव हो सके तो इस पर ध्यान दीजिएगा...
कागज के उस टुकड़े को उन्होंने अपनी शर्ट के पॉकेट में रख लिया था,
शील सा’ब चले गए। हमेशा के लिये...
० ० ०
वर्ष में एक बार दीपावली पर वह मुझे शुभकामना–पत्र भेजते रहे। मुझे ही नहीं अपने दुश्मनों को भी वे बताते रहे कि जिन्दा हैं। उन्होंने हिन्दुस्तान जाकर अंग्रेजी में भी एम.ए. किया। स्कूल का प्रिंसिपल होना उनका सपना था। वे कह चुके थे कि हिन्दी में एम. ए. कभी पब्लिक स्कूल का प्रधानाचार्य नहीं हो सकता। वे डी.ए.वी. पब्लिक स्कूल की चेन में पहले शिमला में प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्त हुए। मुझे पता चला कि वहीं जाड़ों की एक रात नींद में उनका हाथ हीटर से चिपक गया और वे मरने से बचे। हाथ का माँस पूरा जल गया। तीन उँगलियाँ भी जल गईं। बाद में उनका स्थानान्तरण नेपाल हुआ और उसके बाद मध्यप्रदेश के दुर्ग जिले में उनकी पोस्टिंग हुई और २१ जनवरी २००१ को दिल के दौरे से उनकी असामयिक मृत्यु हो गई...
क्या लिखूँ मैं अब उस व्यक्ति के बारे में जो मेरा सीनियर था...जो मेहनती था...जो खिलाड़ी था...जो खब्ती था...। 

पृष्ठ- . . . . . . . . . १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८.

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