पुराने
परिचय का अहसास
दादर रेलवे स्टेशन से बाहर निकलकर मैंने राजेश्वर के
घर के लिये टैक्सी ली। बसों के बारे में मेरी कोई
जानकारी ठीक से नहीं थी। मुझे यह जरूर याद है कि उनके
घर के पास विजय, अंबर और ऑस्कर सिनेमा हॉल थे। जहाँ से
उनके मकान में दो मिनट में पैदल पहुँचा जा सकता था।
टैक्सी मुझे उनके ठिकाने की ओर लिये जा रही थी मगर
मेरा मन ट्रेन में घटे घटनाक्रम में ही इस तरह उलझा था
कि ग्लानि हो रही थी। क्या जरूरत थी मुझे जुआ खेलने की
?
एक सच हमेशा मेरे साथ रहा है। मैं भविष्य में नहीं
जीता...अतीत अगर मेरी पूँजी रहा है तो वर्तमान फकीरी
को साथ लिये साथ–साथ चलता रहा है। ना ना करने के बाद
भी मैं ताश के पत्तों की ओर बढ़ गया था और उसी तरह हारा
जिस तरह पत्ते लगा कर अपने ही साथ के लोगों ने मुझे
एकबार गैंगटोक में हराया था और मैं एक चाल पर तीन
महीनों के वेतन के अलावा अपनी एक मारवाड़ी दोस्त के
यहाँ से रात के दो बजे मँगवाए दो हजार रूपये हार गया
था। यह पहला अवसर था कि मैं ताश के तीन पत्तों के खेल
से विरत हुआ था। दूसरे दिन से मेरी दो महीनों की
छुट्टियाँ शुरू हो रही थीं और मैं खाली हाथ उससे पहले
ही हो गया था। मैंने अपनी दोस्त सुमन से तीन हजार
रूपये और लिये। वह कर्ज। मैंने पाँच वर्ष बाद सन १९८७
में उतारा था। सुमन ने कभी मुझे पैसों की याद नहीं
दिलाई मगर वे पैसे हमेशा मेरी छाती पर भार की तरह लदे
थे। खैर...
लोगों को लग सकता है कि पेशे से अध्यापक होते हुए
शराब–सिगरेट पीने और जुए के खेल में उलझनेवाले व्यक्ति
की आत्मकथा में 'चरित्र' तो है ही नहीं। फिर उसे पढ़ने
और उससे कुछ जानने की जरूरत क्या है! मैं स्वीकारता
हूँ कि मेरी आत्मकथा सुकर्मों की गाथा नहीं है। मैंने
सुकर्म किए ही नहीं हैं। ऐसा दावा जो करता है वह सफेद
झूठ बोलता है। यह राजेन्द्र बाबू या महात्मा गांधी की
आत्मकथा–सी भी नहीं है कि आपको बड़े–बड़े मिशन मिलें। एक
आम आदमी और अदने इंसान से आज के दौर में बड़े मिशनों की
उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए। इसका ठेका तो सन १९५२ के
बाद से ही विधान सभाओं और लोक सभा में एक बार भी चुने
गए सदस्यों अथवा उनके नाती–पोतों ने पुश्तैनी हक की
तरह पा लिया। इसलिये मेरी आत्मकथा में आपको कुछ भी ऐसा
नहीं मिलेगा जो चरित्र निर्माण की शिक्षा दे। दुनिया
जिसे चरित्र की संज्ञा देती है वह मेरे पास नहीं है...
मैं अतियों से गुजरा हुआ इनसान हूँ। शराब...औरत...और
नशा... ये सब मेरी जिन्दगी को आर–पार करके निकल गए
हैं...ठहरा कोई भी नहीं...आज तक नहीं समझ पाया कि हर
चीज की हद से क्यों गुजर जाता हूँ। मोहब्बत हो या नफरत
मेरे लिये इनका कोई ओर–छोर नहीं होता। बहुत बार सोचा
है कि नफरत से तो ऊपर उठूँ। लेकिन मैं ठहरा कमजोर
आदमी। कोशिशें बेकार हो जाती हैं।
कभी छह पैकेट सिगरेट रोज पीता था। अब एक पीता हूँ। कभी
शराब की बोतल चौबीस घण्टों के लिये कम पड़ती थी। अब
चार–पाँच दिन चल जाती है। कभी औरत खोजनी पड़ती थी...अब
बिना खोजे मिल जाती है... ऐसा कह कर न तो मैं
गौरवान्वित होना चाहता हूँ और न स्त्रियों को अपमानित
करना मेरा उद्देश्य है। यह ऐसी हकीकत है जिसे आप सब
जानते हैं। एक वक्त था कि भूख घर को लगती थी। परिवार
को लगती थी। उस घर–परिवार में औरत भी होती थी। मगर
वक्त बदल गया। अब औरत को अलग से भी भूख लगने लगी है।
वह भूख अगर तन की या मन की होती तो शायद नौबत यहाँ तक
न आती कि दुनिया के प्राय: सभी देशों में औरत होम
डेलिवरी की तरह मिलने लगती। विलासिता की भूख ने औरत को
ईमान के रास्ते से हटा दिया। पेट काटकर पेट ढँकना वह
भूल चुकी है। अब तो पेट–पीठ ही नहीं, जाँघें तक खोलकर
वह जिस तरह घूम रही है उसमें पेट की भूख कहीं शामिल ही
नहीं है। देह उसके लिये कच्चा सामान है और उसका
व्यापार, उद्योग। मैं इस उद्योग की तलहटी तक जाकर भी
अब तक नहीं जान पाया कि सृष्टि के सबसे पुराने व्यापार
की आखिरी हद क्या है...। आदमी कुसंगति में बिगड़ता है
और औरत देखा–देखी। भोजपुरी में एक गीत कभी सुना था
'कमा...ल... अ...गोरी नकदे...ए...जब ले बा जवनियाँ...'
मैंने जवान औरतों को अपनी जवानी के बिछड़ने के आखिरी
बिन्दु तक अपनी कीमत वसूलने की कोशिश करते हुए देखा है
और उस बिन्दु के गुजर जाने के बाद कमाई के लिये
छटपटाते हुए भी। मगर धंधा छोड़ने की गुस्ताखी उनसे नहीं
हो सकती...
खैर, सिक्किम ऐसी जगह थी जहाँ पिता पुत्र और गुरू
शिष्य जुआ खेलते थे। घर के अन्दर जुआ और बाहर फुटबॉल।
यही दो खेल वहाँ उन दिनों लोकप्रिय थे। जुआ खेलना बुरा
नहीं समझा जाता था। लेकिन मैं सिक्किम जाने से पूर्व
ही तीन पत्ते कानपुर में खेलने लगा था। कितना अजब लगता
है। अच्छा खासा विद्यार्थी था। दो तीन ट्यूशन करता था।
अखबारों और कुछ पत्रिकाओं से पारिश्रमिक भी गाहे बगाहे
मिल जाता था। वह पैसा पॉकेट मनी होता था। उसमें से भी
कुछ घर में देने के बाद जो बचता वह मेरी आवारगी के काम
आता। हालाँकि, घर को मेरे पैसों की जरूरत उन दिनों
बिल्कुल नहीं थी मगर भारतीय परिवार की यह विशेषता है
कि लड़का यदि दो पैसे भी कमाता हो तो एक पैसा तो दे ही
दे। दोनों दे दे तो फिर बात ही क्या है। ठीक चौराहे पर
सुधाकर तिवारी, केदार तिवारी, उमा तिवारी, मुरलीधर
शर्मा, शशिभूषण सिंह, सुवीर दास, लाला जे एन पी के
अलावा और कई लोग तीन पत्ते खेलते। मैं भी होता। मेरी
मौजूदगी उन लोगों के लिये इसलिये भी महत्त्वपूर्ण होती
थी कि मैं थाना इंचार्ज के बच्चे को ट्यूशन पढ़ाता था।
लोगों के मन में डर नहीं होता था कि जुआ खेलते हुए
उन्हें कोई पकड़ेगा। उन्हें विश्वास था कि अगर पकड़ भी
गए तो मेरी वजह से छूट जाएँगे।
एक बार ऐसा हो भी गया। मैं ग्यारह बजे रात को अड्डे से
उठ गया। खेल चलता रहा। रात करीब बारह बजे पुलिस के दो
सिपाही वहाँ पहुँच गए। सुधाकर तिवारी जो सबसे बुजुर्ग
थे, पुलिस वालों की ठुड्डी छू–छूकर 'छोड़ि
द...अ...बाबू... छोड़ि द...अ...बाबू ' करते हुए निहोरा
करते रहे लेकिन वे दोनों सबको थाने ले जाने की जिद पर
अड़े थे। शायद वे खाने–कमाने पर उतर आए थे। किसी तरह
उन्हें बातों में लगाए रखकर लोगों ने रोके रखा। इस बीच
सुवीर दास सायकिल से हाँफते हुए मेरे पास पहुँचा।
चौराहे पर जब मैं पहुँचा तो पुलिस वालों ने मुझसे
कहा," मास्टरजी, ये लोग आपका नाम ले रहे हैं...आप
जानते हैं इन लोगों को...? " मैंने कहा," छोड़ो
यार...ये सब मनोरंजन का हिस्सा है...इनमें से कोई भी
जुआरी नहीं है...। सब पढ़ने–लिखने वाले लड़के हैं...घर
पर किसी के बैठ नहीं सकते तो यह चौराहा ही मिलने की
जगह है"। चौराहे पर ही सुधाकर तिवारी का भूसे का टाल
था। पुलिस वाले चले गए। रात दस–ग्यारह बजे तक तो रोज
खेल चलता। इतवार के दिन सुबह दस–ग्यारह से शुरू होकर
सोमवार की सुबह तक अड्डे पर गरमागरम ले–दे होती।
एक–एक, दो–दो रूपये के लिये किच–किच होती। चौराहा
गुलजार रहता। सरूप भाई की दूकान से चाय–समोसे आते
रहते। यह अलग बात थी कि रकम बड़ी नहीं होती थी। तीस
चालीस रूपयों की हार–जीत हुआ करती थी। लेकिन उसका नशा
घनघोर होता था।
आज मैं ताश के पत्ते लगभग नहीं छूता। दीवाली के दिन भी
नहीं। लेकिन जब भी कानपुर जाता हूँ तो मेरे दोस्त ए एन
श्रीवास्तव। ठाकुर शशि भूषण सिंह। मुरलीधर शर्मा। लाला
जे एन पी और सुबीर कुमार दास के अलावा कुछ और मित्र
ताश खेलने और उसके लिये जगह की व्यवस्था करने की
जिम्मेदारी मुझपर छोड़ देते हैं। हालाँकि, अब वे लोग भी
जुआ नहीं खेलते। लेकिन बीती यादों को एकबार फिर से
ताजा करने के लिये बैठकी होती है। एक के बाद एक यादें
उभरती हैं। पिटारा–सा खुल जाता है। एक पूरा इतवार मैं
उन सबके लिये अपने घर जुआ खेलने की व्यवस्था करता हूँ
और मजाक-मजाक में सौ-पचास हार जाता हूँ। मगर यह हारना
खलता नहीं क्योंकि मैं उस तरह खेलता ही नहीं जिस तरह
पहले खेलता था। एक भयंकर दुर्घटना इसी खेल को लेकर सन
८४ दीवाली के दिन हुई थी। सुबह किसी बात पर पत्नी से
कहा सुनी हो गई थी। शाम को जब मैं बाहर कहीं से लौटकर
वर्माजी के घर गया तो उन्होंने मुझसे कहा "अपना कोटा
तो लेकर आए हो......। मेरा क्या होगा...आज दूकानें बंद
हैं..."उन दिनों पहली और सात तारीख के अलावा त्योहारों
पर शराब की दूकानें बंद रहती थीं। मैंने उनसे कहा "अभी
आता हूँ...फिर शशि भूषण सिंह के घर चलते हैं...। वहाँ
आपको कोटे भर की मिल जाएगी..."
मैंने घर पर मोटर सायकिल खड़ी की। बेटे अनुभव को गोद
में लिया और बाहर चला आया। उसे लिये हुए ही वर्माजी के
साथ ठाकुर के घर जब पहुँचा तो एक कमरे में जुआ चल रहा
था। ठाकुर की पत्नी ने अनुभव को अपनी गोद में ले लिया।
उनका बेटा अनु से तीन–चार महीने छोटा था। मैं जुआ
खेलने बैठ गया और वर्माजी पीने। अनु सो गया और मैं जुए
में हारता रहा। हारना भी जुआरी को उठने नहीं देता।
वर्माजी पीते रहे। मैं इतना बेखबर या कि जुए में डूबा
रहा कि घर पर क्या हो रहा होगा उसका भी अनुमान नहीं
लगा सका। उस रात अर्मापुर में बलेसर के बिरहे का आयोजन
था। उन दिनों उनका बहुत नाम था। तब तक उन्हें पद्मश्री
नहीं मिली थी और वे इतने फूहड़ भी नहीं हुए थे जितने आज
हो गए हैं। खैर... मैं उन्हें सुनने उस दिन वहाँ गया
था। जब देर रात तक मैं बेटे को लिये घर से गायब रहा तो
पत्नी ने पहले तो वर्माजी के यहाँ पता करवाया। काफी
देर होने पर उसे शक हुआ कि शायद सुबह हुई कहा सुनी वह
कारण हो कि मैं बेटे को लेकर भाग निकला। जहाँ बलेसर का
बिरहा चल रहा था वहाँ भी अनाउंसमेण्ट कराया गया कि यदि
मैं वहाँ हूँ तो अब सीधे घर जाऊँ...मैं वहाँ कहाँ
था...
ठाकुर के घर में सुबह पाँच बजे तक हारे हुए पैसे जीतने
के चक्कर में जुआ खेलता रहा जब सुबह हो गई तो अनु को
अपराध बोध के साथ लिये हुए घर लौटा। कहना न होगा कि घर
पर पहली बार पत्नी मुझसे ऊँची आवाज में न केवल बोली
बल्कि उसने जो जी में आया वह कहा। गलती मेरी थी। पहली
बार वह पागलपन में मेरी तलाश में वर्माजी के घर तक उस
रात कई बार गई। मैं उसके बदहवास होने का कारण शायद कम
था, बेटा अनुभव ज्यादा था। जो कुछ बीवी ने ऊँची आवाज
में कहा उसे मैंने सुना। हालाँकि...यह मेरा स्वभाव
नहीं है। किसी की ऊँची आवाज मुझे सह्य नहीं है। मैं
दूसरों से ऊँचा बोल सकता हूँ। लेकिन अपनी गलती होने पर
चुप रहना या माफी माँगने में मुझे कोई हेठी नजर नहीं
आती...
यह दूसरा मौका था जब ताश खेलने से मैंने तौबा की थी जो
ट्रेन में टूट गई थी...
बाद में कभी बीवी ने कहा कि उस रात उसने सोचा था कि
मैं बेटे को लेकर कहीं निकल गया। मैंने उससे कहा था
"कभी तुमसे अलग हुआ तो तुम्हें बेटे से अलग तो हरगिज
नहीं करूँगा..."
आदमी कितने भी पैसे कहीं फूँक दे। उसे खलता नहीं।
लेकिन अगर पैसे कहीं गिर जाएँ या जुए में हार जाए तो
उसे बहुत बेचैनी होती है। एक बात और... शराब और जुआ
दोनों ही आदमी को अंततः तकलीफ ही देते हैं। मौज मजे या
गम भुलाने के नाम पर शुरू हुई लतें आखिर में गम बनकर
रह जाती हैं। मैंने अपने कई दोस्त खो दिये जो शराब ने
छीन लिये...मैं उनकी बातें कभी आगे करूँगा...
अशोक ने मुझे लिखा था कि आते समय मुझे अपने प्रमाण
पत्र और कुछ कपड़े ही लाने हैं। सो। मेरे पास एक छोटा
घनघोर लाल रंग का वी आई पी था जो पत्नी को उसके मायके
से मिला था जिसमें वह अपने आभूषण और कुछ साड़ियाँ रखती
थी। उसी वी आई पी को लिये हुए मैं अंबर सिनेमाहॉल पर
उतरा और वहाँ से पैदल ही राजेश्वर के घर पहुँचा। बेल
दबाने के बाद जब दरवाजा खुला तो ड्राइंगरूम में जो
दृश्य दिखा वह परिचित ही था। गंगवार और श्रीमती गंगवार
शतरंज खेल रहे थे। इस तरह मेरे अप्रत्याशित आने से वे
खुशी मिश्रित भाव से चौंके। मैंने उन्हें बताया कि
मुझे भी अचानक सूचना मिली और मैं तुरन्त चल पड़ा। अब
अबूधाबी जाने के लिये आया हूँ। कल चला जाऊँगा। सबकुछ
फिर से सामान्य हो गया। खेल चलता रहा। राजेश्वर की
बेटी चाय ले आई। खेल खत्म होने के बाद श्रीमती गंगवार
और बच्चे कहीं बाहर जाने को हुए तो गंगवार ने मुझसे
कहा " तुम भी देख लो... "
"क्या...?"
"फिल्म.....नई है...यहीं सामने वाले फ्लैट में...वी सी
आर पर..."
"नहीं...किसी अनजान के घर में...ठीक नहीं है..."
"मेरे बच्चों के साथ जाओगे तो अनजान कैसे हुए...जाओ।।
पता नहीं गल्फ में तुम्हें हिन्दी फिल्म देखने को मिले
न मिले...। " उन्होंने जोर दिया मगर मैं नहीं गया। वह
गोविन्दा की पहली फिल्म लव ८६ थी। उस फिल्म की हीरोइन
अगर मेरी याददाश्त धोखा नहीं देती तो शायद नीलम थी...
जब मैं फिल्म देखने नहीं गया तो बच्चे मुझे और
राजेश्वर को खाना खिलाकर चले गए। राजेश्वर ने कहा
"अगला कार्यक्रम क्या है...?"
"कल टिकिट लेना है और चल देना है...। "
"टिकिट कहाँ से लेना है...?"
"नरीमन प्वाइंट...एयर इण्डिया के ऑफिस से..."
उन्होंने रास्ता समझा दिया। हालाँकि, रास्ते समझाने से
नहीं खुद चलने से ही समझ में आते हैं। उन्होंने आगे
कहा,"गल्फ में पैसा बहुत है...तुम रचनाकार
हो...तुम्हारा धन रचना है...यह बात हमेशा याद
रखना...रचना...और...वह भी 'रच–रच' कर रचना ही कृति को
अद्भुत् बनाता है...लिखना बंद मत करना...सुविधाओं में
रचनाकार 'हेरा' जाता है। और उसके बदले बिगड़ा आदमी बच
रहता है..... कुंठाओं के साथ...। गल्फ में तुम्हें
सुविधाओं का अंबार अचानक मिल जाएगा..."
मैं उन्हें सुन रहा था "नई जगह को समझने की कोशिश
करना...किसी पुस्तकालय का मेम्बर बनकर अच्छी पुस्तकें
जितनी मिल सकें...उन्हें पढ़ना...बाहर निकलने का मौका
किस्मत से मिलता है...हिन्दी वालों को तो वैसे भी
नहीं...यदि तुम कुछ नया लिख सके तो याद किए जाओगे..."
उनकी बातें कितनी सच हुईं, यह बता पाना मेरे लिये कठिन
है। यह सही है कि मुझे सुविधाएँ कह लूँ या कि उनका
अंबार कह दूँ, जरूर मिलीं। मगर उसी अनुपात में
असुविधाएँ भी मिलीं। यह हो ही नहीं सकता कि आप किसी
सिक्के के एक ही पहलू से राफता बनाए रहें। दूसरा पहलू
अपने आप आपके रू–ब–रू खड़ा मिलेगा। खैर, कभी महादेवी
वर्माजी ने कहा था कि बेटा, लिखने से अधिक पढ़ना जरूरी
है और दूसरीबार राजेश्वर ने कहा था कि जो लिखना...वह
'रच–रच' कर लिखना। दोनों ने जो कहा था, मैंने उसका
कितना पालन किया यह कहना तो अपने मुँह मियाँ मिट्ठू
बनना होगा। लेकिन एक बात सौ फीसदी सच है कि यदि मैं
देश से बाहर न निकला होता तो "मकड़जाल",
"हरामी","ड्रॉयविंग लाइसेंस", "काठ होते हुए लोग",
"बित्ता भर की छोकरी", "नातूर", "प्यास और खुशबू का
सफर","वक्त का खौफनाक चेहरा","जड़ों से कटने पर",
"अन्ततः पारदर्शी", "धोबी का कुत्ता", "फोर हण्ड्रेड
दिरहम्स", "ब–बॉय", "हे उन्नी, हमें क्षमा करो",
"नो–बॉस...नो ", "टेंशन", "मुजस्स्मा", "लड़का और
पॉर्टी "जैसी कहानियाँ मैं कभी नहीं लिख पाया होता।
इनके अलावा कहानियाँ पचास से ऊपर और भी हैं लेकिन एक
कड़वा सच यह भी है कि हिन्दी के नामचीन वरिष्ठ और नये
आलोचकों को मैं अबतक नहीं दिख पाया। बिना किसी अहंकार
और गर्वोक्ति के मैं पिछले दशक में लिखी अपनी लगभग सौ
के आस– पास कहानियों को उन सबके आगे फेंकना चाहता हूँ
और जानना चाहता हूँ कि कोई इतना लिखने वाला दोस्त अगर
हो तो उसे मुकाबिल खड़ा करो... दुश्मन तो कोई आज तक
बराबर का मिला नहीं। महेश दर्पण ने इण्टरनेट पर राजेश
रंजन को "लिटरेट व्लर्ड" के लिये दी गई अपनी
प्रतिक्रिया में ईमानदारी बरतते हुए "हलचल" दिसम्बर
२००२ में कहा है कि नये कहानीकारों में कृष्ण बिहारी
ने ज्यादा प्रभावित किया है...
मैं कितना नया और क्यों नया हूँ, यह बखूबी जानता हूँ।
शीशा इंसान को अपनी ही शक्ल दिखाता है। मैं अपनी शक्ल
देख रहा हूँ। मेरा कहानी संग्रह सन १९८०–८५ के आस–पास
ही आ जाना चाहिए था। लेकिन वैसा न हो पाने की कई वजहों
ने मुझे बीसवीं सदी के उत्तरार्ध और इक्कीसवीं सदी के
पूर्वार्ध का कहानीकार बना दिया। मुझे यह मानने में
कोई शर्म नहीं कि अब तक जो कुछ बेहतर या कचरा लिखा वह
अबूधाबी में ही लिखा। शायद कचरा ही ज्यादा लिखा। और,
यदि अबूधाबी न आता और अखबार को ही रोजी–रोटी का स्थायी
जरिया मान बैठता तो शायद यह कचरा भी न लिख पाता। मैं
अबूधाबी आने के बाद बरसों कुछ नहीं लिख सका। लेकिन जब
एक बार दुबारा लिखना शुरू हो गया तो फिर मैं पहले जैसी
गति पा गया और नियमित लेखन का वह सिलसिला शुरू हो गया
जो जीने का नशा बनकर उन्हीं दिनों मुझमें समा गया था
जब मैं कक्षा ९–१० का छात्र था। राजेश्वर ने उस रात यह
भी कहा था," दुबई में सोने का व्यापार होता है...तुम
पता करके जरा डी–टेल में लिखना, 'सोना आए कहाँ से,
सोना जाए कहाँ रे'...तुम्हारे लेखों से जानकारी बहुत
मिलती है... लोगों को मालूम तो पड़े कि स्मगलिंग क्यों
होती है...। "
यह भी अजब इत्तिफाक है कि जब राजेश्वर ने मुझसे यह कहा
था उन दिनों मैं लगभग लेख ही लिख रहा था। लेख,
साक्षात्कार, परिचर्चाएँ आदि जो "साप्ताहिक
हिन्दुस्तान", "धर्मयुग" और "योजना" में छप रही थीं।
कहानियाँ जो लिखी थीं, उनमें से कुछ "कहानीकार",
"मंतव्य", "अक्षर", "ऋतम्भरा" और "दैनिक जागरण" में
छपी थीं कि अचानक ही लेख लिखने की मानसिकता बन गई थी।
उस समय की लिखी कुछ कहानियाँ मैंने प्रकाशन के लिये
नहीं भेजीं। अब तक भी नहीं और अब तो शायद उन कहानियों
को कहीं प्रकाशित भी नहीं होना है। मैं यह मानता हूँ
कि हर रचना कालजयी नहीं होती मगर यह भी सच है कि अपने
समय में उसका महत्त्व होता है। जब वे कहानियाँ उन
दिनों नहीं छपीं तो अब उनके छपने का समय बीत चुका है।
मैं दूसरों के बारे में तो नहीं कह सकता लेकिन अपना
अनुभव बता सकता हूँ कि अखबार रचनाकारों को खा भी जाते
हैं। यदि कोई लेखक, पत्रकार की भी भूमिका अपना ले और
उसे चस्का लग जाए तो 'बाई लाइन' जाने के चक्कर में
उसके रचनात्मक लेखन को दीमक लग जाती है। 'आज' में हर
दिन कोई न कोई फीचर, खबर, साक्षात्कार आदि नाम के साथ
छप रहा था जिसका अपना ही एक नशा था। उस नशे की नीम
बेहोशी में कहानियाँ लिखना लगभग बंद हो गया था। शायद
गीत और कविताएँ भी। तीन वर्ष पहले की बात है, श्री
हिमांशु जोशी का पत्र मिला। उन्होंने प्रवासी लेखकों
की रचनाओं का एक संकलन निकालने की बात बताते हुए तीन
कहानियाँ माँगी थीं। मैंने उन्हें रचनाएँ भेज दीं। बाद
में तसदीक के लिये जब उन्हें फोन किया तो पता चला कि
रचनाएँ उन्हें मिल गई हैं। उसी बातचीत के दौरान जब
उन्हें बताया कि एक अखबार के लिये 'कॉलम' शुरू कर रहा
हूँ तो उन्होंने कहा था कि अखबार के लिये बँध जाने से
अपना मौलिक लेखन कुप्रभावित होता है। जब मैंने कॉलम
लिखना शुरू किया तो उनकी बात मुझे सही लगी थी।
खैर, मेरा लेखन प्रभावित जरूर हुआ मगर बंद नहीं हुआ।
अगर कुछ समय के लिये बंद भी हुआ तो उसके कुछ कारण थे।
लेकिन जिन दिनों मेरा लिखना एक तरह से लोगों को बंद
दिखा तो उसका कारण सिर्फ प्रकाशित न होना था। मैं
चुपचाप लिखता रहा। उन दिनों भी मेरा लिखना अगर जारी
रहा तो इसलिये कि मैं कई विधाओं में लिखता हूँ। जब लगा
कि किन्हीं खास हालातों में कहानियाँ नहीं लिखी जा
सकतीं तो मैंने उन दिनों सिर्फ गीत लिखे। एक और भी
कारण है जो शायद ज्यादा प्रभावशाली है। मैं नियमित
लिखता हूँ। मूड जैसे किसी शब्द से मेरा लेखन बचा हुआ
है। मैंने बहुत रचनाकारों को यह कहते सुना है कि मूड
आने पर ही वह काम करते हैं। असल में वे चूतिया बनाते
हैं। मैं मूड के आने का इन्तजार नहीं करता। जब मैं
बँधकर पति हो सकता हूँ। बँधकर नौकरी कर सकता हूँ तो
बँधकर लिख क्यों नहीं सकता। बरसों से मैं रात ९ से १२
रोज लिखता हूँ। इस मामले में जो समझौता हो सकता है वह
बस इतना कि यदि मैं कुछ देर से लिखने बैठूँ तो फिर
उतनी देर तक लिखूँ जितनी देर मैंने लिखने में की। मैं
अपने पारिवारिक जीवन पर भी लिखूँगा लेकिन यहाँ यह
लिखना जरूर चाहता हूँ कि यदि रात ९ बजे तक मैं किसी
कारण से घर नहीं पहुँच पाता तो मोबाइल पर बीवी का फोन
आ जाता है, "कहाँ हैं आप...? आपके लिखने का समय नष्ट
हो रहा है..." मैं नहीं कह सकता कि कितने लेखकों की
बीवियाँ ऐसा रिमाइण्ड कराती हैं।...
बात जोशीजी की हो रही थी। तो, उनके द्वारा प्रस्तावित
वह संकलन आज तक तो निकला नहीं। आगे यदि कभी निकला भी
तो शायद मुझे पता नहीं चलेगा। कोई दूसरा बता दे तो बात
दूसरी है। कभी–कभी पत्र लिख कर रचनाएँ मँगाने वाले
बहुत से संपादक भी रचना पाने के बाद कुछ नहीं बताते।
हिन्दी में आज की तारीख में सर्वश्री राजेन्द यादव,
राजेन्द्र्र दुबे, प्रभाकर श्रोत्रिय और डॉ० जय नारायण
और प्रमोद रंजन को छोड़कर एक भी संपादक ऐसा नहीं मिला
जो रचना के स्टेटस के बारे में बताए। कुछ एक तो इतने
नामुराद संपादक मिले कि उनके लिये भविष्य में न लिखने
की कसम खा ली। मैंने पहले ही लिखा है कि मैं अपनी
आत्मकथा में किसी को हर्ट करना नहीं चाहता। मुझे क्षति
पहुँच जाए तो पहुँच जाए। लेकिन जैसा मरियल और बेहूदा
व्यवहार कुछ संपादकों का देखा है उसपर कोई प्रतिक्रिया
व्यक्त करना समय नष्ट करना है... मैं यह इसलिये नहीं
लिख रहा कि उन्होंने मुझे अपनी पत्रिका में छापा नहीं।
मैं तो सन १९७०–७१ से छप रहा हूँ जब इन संपादकों ने
शायद आँखें भी नहीं खोली होगी।...
आज सत्रह वर्ष से ऊपर हो गए। मैं राजेश्वर द्वारा
सुझाया गया वह लेख नहीं लिख सका। किसी और ने ठीक उसी
शीर्षक से लिखा जो "धर्मयुग" में प्रकाशित हुआ। मैंने
उस लेख को अबूधाबी में जब पढ़ा तो लगा कि एक अवसर चूक
गया वह भी तब जबकि अबूधाबी में सोने की मशहूर दूकान
अजंता ज्वैलर्स के मालिक का लड़का तुषार पाटनी न केवल
मेरे स्कूल का छात्र रह चुका है बल्कि वह मेरा ही
नहीं, हिन्दी का भी हितैषी है। जब–जब उससे चर्चा की तो
उसने कहा कि वह इस व्यवसाय के बारे में ए टू जेड बताने
को तैयार है। मैं ही उसे वक्त नहीं दे पाया। उससे जब
भी किसी हिन्दी–पत्रिका की आर्थिक सहायता के लिये कुछ
कहा तो उसने कभी मना नहीं किया। "कल के लिये" पत्रिका
से मैं पिछले एक दशक से जुड़ा हूँ। थोड़ी–बहुत मदद जो भी
हो पाती है, करता हूँ। इस मामले में जब भी तुषार से
कुछ कहा तो उसने हमेशा मेरा कहा माना है और मदद की है।
यदि इस मामले में मैं सोहनलाल आर्य का नाम भूल जाऊँ तो
कृतघ्नता होगी। उन्होंने हमेशा "कल के लिये" की मदद की
है। अबूधाबी में मुझे वह अकेले ऐसे व्यक्ति मिले जिनके
घर में हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ देखने को मिलती
हैं।
राजेश्वर के उन सुझावों में एक हितैषी और शुभ– चिन्तक
की भावनाएँ थीं मगर मैं उनके सुझावों पर न जाने कितने
वर्षों तक कोई अमल नहीं कर सका। अबूधाबी पहुँचने पर
सबसे पहले जिन दो स्थितियों पर अंकुश लगा उनमें एक
शराब थी और दूसरी... लिखना... इन दोनों स्थितियों पर
मैं आगे लिखूँगा लेकिन राजेश्वर के घर में उस रात मुझे
एहसास हुआ कि मैं किसी पुराने परिचय के एहसास से गुजर
रहा हूँ। कोई किसी का हाथ पकड़कर लिखवा नहीं सकता
लेकिन कोई किसी की प्रेरणा तो बन ही सकता है। मैंने
लिखना बंद नहीं किया। मां ने कहा था। मेरी प्रेमिका ने
कहा था। कुछ मित्रों ने कहा था। बीवी ने कहा था।
राजेश्वर ने कहा था। मगर यह कहना भी बहुत अलग–अलग था।
जहाँ सबके कहने में अनुरोध था। आग्रह था। वहीं
राजेश्वर के कहने में एक आदेश झलका था।
मैं नहीं जानता कि सितारे क्या कहते हैं... मैंने पहले
ही लिखा है कि मुझे ज्योतिषियों से ज्यादा अनुराग नहीं
है। सच तो यह है कि मुझे उनसे उतना ही डर लगता है
जितना किसी बीमार को डॉक्टरों और दवाओं से। मगर इंसान
को ठीक तो दवाएँ और दुआएँ ही करती हैं। सन १९८२ की बात
है। मेरे सीने में बाँई तरफ बहुत दर्द होने लगा। दर्द
पहले भी उठता था लेकिन तीन–चार सेकेण्ड के बाद खत्म हो
जाता था। ऐसा कई सालों से चल रहा था। अचानक ही दर्द
होता और साँस खिंच जाती। फिर कुछ पलों में सब कुछ
सामान्य हो जाता। मगर उस बार इतना भयानक दर्द कि साँस
लेना मुश्किल हो गया। मैं तकिया सीने में दबा कर मुँह
से साँस लेने की कोशिश करते हुए जी रहा था।...स्कूल से
छुट्टी लिये कमरे पर सात दिन से पड़ा था। स्कूल की
छुट्टी के बाद मि विर्क जब कमरे पर आए तो बोले," कब तक
कमरे में पड़े रहोगे? सात दिन तो हो गए कमरे में
पड़े–पड़े...चलो, बाहर घूमकर आते हैं..."
"नीचे जाना तो ओ...क्...क्...के...आसान है...मगर
सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर वापस आना बहुत तकलीफदेह है...मैं
नहीं चढ़ पाऊँगा..." मैंने उनकी ओर असहाय दृष्टि से
देखते हुए कहा।
"चलो, आ जाओगे...नहीं आ पाओगे तो मैं उठाकर ले
आऊँगा..."
मैं उनके साथ धीरे–धीरे सीढ़ियाँ उतर कर बाजार गया। बीच
बाजार में एक नंग–धडं.ग नागा बाबा मेरे सामने लगभग
रास्ता रोकते हुए मिला और बोला,"सीने में बहुत दर्द
है...?"
उसके पूछने पर मैं चौंका कि यह कैसी अनहोनी है। मैंने
कहा,"बाबा, मेरी जान जा रही है.....सात दिनों से भुगत
रहा हूँ...। "
"चाय पिला सकते हो...?"
मैंने गैंगटोक की बाजार में एक दूकान के मालिक के बेटे
नरपत सिंघी से जयश्री होटेल का एक कमरा खोल देने को
कहा। यह होटेल उनका ही था लेकिन तब तक होटेल का
उद्घाटन भी नहीं हुआ था। नरपत ने एक कमरा खुलवा दिया
जिसमें मि विर्क और बाबा के साथ मैं बैठा। होटेल के
कमरे में उस नागा बाबा ने जो कहा वह मेरी जिन्दगी में
एक सच बनकर रह गया है। उसे कहूँ तो भी अपनों के बारे
में ही ज्यादा सोचना पड़ता है...लेकिन दुख भोगना भी तो
अपने ही हिस्से आता है...
नागा बाबा ने एक रूद्राक्ष दिया और कहा,"इसे आज रात
दायीं बाँह में पहनो...कल से काले धागे में डाल
लेना...फिर गले में धारण करना...जिन्दगी भर सीने में
दर्द नही होगा।।... अब एक कागज दो...सफेद..." मैंने
उन्हें एक सफेद कागज का टुकड़ा दिया। उन्होंने उसे मुझे
वापस थमाते हुए कहा,"अब मुट्ठी बंद करो..." मैंने
उन्हें मुट्ठी बंद करके दिखाया। उन्होंने कहा,"अब
खोलो... " इसमें एक अक्षर दिखेगा...इस अक्षर से शुरू
होने वाले नाम के लोग तुम्हें हर ऊँचाई तक चढ़ाने की
पूरी कोशिश करेंगे...हर सम्भव कोशिश..."
मैंने मुट्ठी खोली तो कागज पर एक अक्षर अंग्रेजी मे
लिखा पाया 'R'...
बाबा ने आगे कहा, "अब फिर मुट्ठी बंद करो...और
खोलो...अब जो अक्षर आएगा...इस नाम के लोग तुम्हें दुख
देंगे...ऐसा दुख जो तुम्हें यातना की सीमाहीन
त्रासदियों से गुजार देगा..."
मैंने मुट्ठी खोली तो जो अक्षर लिखा मिला वह 'M'
निकला।...
मेरा सिर घूम गया। मुझे वो सब लोग याद आए जिन्होंने
मेरी जिन्दगी में तब तक अपने सकारात्मक और नकारात्मक
भूमिकाएँ निभायी थीं। क्या यह संयोग था कि आज भी
है...मैं जिनका स्नेहाकांक्षी हूँ उन सबके नामों की
शुरूआत में R और जिन्होंने मुझे दुख दिया उनके नामों
में M की ध्वनि प्रमुख रही है...मेरे सीने में वैसा
दारूण दर्द फिर कभी नहीं हुआ...
राजेश्वर भी मेरी प्रेरणाओं में से एक हैं...
आज इतने वर्षों बाद अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि
प्रेरणा बनने न बनने के चक्कर में कभी–कभी गलत हाथ पकड़
में आ जाते हैं। लड़ाकू हाथ, जो जिद करते हैं कि वे
दुनिया में सबसे सुन्दर हाथ हैं... हालाँकि, उन हाथों
से रचना नहीं, विध्वंस होता है। अपना भी, दूसरों का भी
और उनका भी.....जिन्हें वे बनाना चाहते हैं...मैंने
ऐसी कोशिशों का नतीजा देखा है...
भीख भी सुपात्र को देनी चाहिए और प्रेरणा भी...
क्योंकि प्रेरणा पाने वाले कभी–कभी अपने प्रेरक को ही
खाने लगते हैं...
राजेश्वर विज्ञान कथाएँ लिखते हैं। उनका संग्रह भी
प्रकाशित हुआ है। एक शुभ–चिन्तक की तरह उन्होंने मुझे
बहुत–सी बातें बताईं। ऐसा लगता रहा कि जैसे हम
एक–दूसरे को वर्षों से जानते हैं। उनकी हित–चिन्ता
देखकर यह भी कहने की हिम्मत नहीं हुई कि रात को मैं
ड्रिंक्स लेने का आदी हूँ...। मुझे बिना ड्रिंक्स के
नींद नहीं आती...
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