ले चल
मुझे भुलावा देकर
अशोक का पत्र मिलने और आवेदन करने के बाद लगभग दो
महीने बीत गए मगर कोई सूचना नहीं मिली कि साक्षात्कार
कब होगा। जीवन फिर से एक ढर्रे पर चलने लगा था।
कभी–कभी ध्यान अगर जाता भी कि मैंने अबूधाबी इण्डियन
स्कूल में आवेदन किया है तो वह भी घर वालों के याद
दिलाने पर। मैं लगभग भूलने लगा था, और भी कई महीने
गुजर गए। वह ऐसा समय था जिसमें रिक्तता भरने लगी थी।
लिखना केवल अखबार के लिये ही हो रहा था।
उसमें भी क्रियेटिविटी न के बराबर थी। जो भी लिखता वह
बाई लाइन के साथ छप जाता और मुझे संतोष होता या नहीं
लेकिन आस–पास के लोग जानने लगे थे कि मैं पत्रकार हूँ।
बीतते वक्त के साथ मैं अपने हालात के साथ सुलह की
जद्दोजहद में लगा था कि अशोक का पत्र आया। उसके अनुसार
मेरी नौकरी तय थी। मेरा चुनाव हो चुका था। साक्षात्कार
केवल औपचारिकता होगी। अन्य विषयों के अध्यापकों के
लिये अन्य आवेदकों को पत्र भेजे जा चुके हैं। चूँकि
मेरा आवेदन रूटीन के बाहर है अतः मुझे कुछ दिन बाद
लेटर मिलेगा। स्कूल का प्रिंसिपल विजय है।
अशोक की दोनों सूचनाएँ थ्रिल पैदा करने वाली थीं।
लेकिन सबसे अधिक चौंकाने और उत्साहित करने वाली बात
विजय को प्रिंसिपल जानकर हुई। उसके साथ मैं
टी.एन.एकेडमी में काम कर चुका था। जब मैंने टी.एन.ए.
ज्वॉयन किया तब वह वहाँ गणित का अध्यापक था। मेरे
ज्वॉयन करने से कुछ दिन पहले उसने अपनी प्रेमिका को
फीजी से बुलाकर शादी की थी। वह पिछले सत्र में ही
टी.एन.ए. में आया था। शादी में तत्कालीन प्रिंसिपल
मधुसूदन सिंह ने विजय की प्रेमिका खैरुन्निसा के बाप
की भूमिका निभाई थी। शादी के बाद खैरुन्निसा को सब
निशा कहने लगे थे। वह चौबीस पचीस साल की साँवले रंग और
दोहरे बदन की स्वस्थ और आकर्षक युवती थी। लम्बाई औसत
भारतीय महिला से अधिक होने के कारण भरे जिस्म की होने
के बाद भी स्लिम लगती थी। नयन नक्श. कटीले थे और चेहरे
पर एक हमेशा विराजने वाली मुस्कान थी। स्वभाव मिलनसार
था। आज की निशा और उन दिनों की निशा के जिस्मानी ढाँचे
में जमीन आसमान का फर्क है। खैर, बात उन दिनों की हो
रही है। मेरे साथ मानस चक्रवर्ती और सुभाष चक्रवर्ती
ने भी ज्वॉयन किया था। मुझे और सुभाष को शेयरिंग में
फ्लैट अलॉट हुआ था। हम तीनों तब शादीशुदा नहीं थे।
स्कूल रेजीडेंशियल था। रात–दिन का साथ। विजय से दोस्ती
हो गई।
मानस की शामें कुछ अलग ढंग से गुजरती थीं। वह स्कूल की
महिलाओं के बीच बहुत लोकप्रिय था। हर शाम किसी न किसी
के घर उसका ड्रिंक और डिनर होता। कुछ संयोग ऐसा हुआ कि
मैं और सुभाष विजय परिवार के बहुत करीब हो गए। मधुर
संबंध तो उनके सभी के साथ थे फिर भी स्थिति यह थी कि
निशा और विजय मेरे और सुभाष के बिना लंच करने में
स्वयं को अनमना महसूसने लगे थे और हम प्रायः साथ ही
उनके कमरे पर लंच लेते। विजय मिडिल या सीनियर ब्वॉयज
का डॉर्म इंचार्ज था इसलिये उसे हॉस्टेल में ही आवास
मिला था। कुकिंग में उसकी रुचि थी। किडनी की उसे कुछ
शिकायत थी अतःवह शराब नहीं पीता था। कभी कभी ब्राण्डी
या वाइन लेता था मगर मैंने केवल सुना ही था। उसे पीते
कभी देखा नहीं। वह घर में वाइन और ब्राण्डी रखता था और
सर्व भी करता था। वह शाकाहारी था लेकिन उसके घर में
नॉन वेज बनता था। कुकिंग प्रायः वही करता। विजय
कश्मीरी हिन्दू और निशा विदेशी मुस्लिम मगर धर्म उनके
बीच कभी भेदभाव का मुद्दा नहीं दिखा। रात का खाना मैं
और सुभाष साथ खाते थे। शाम की ड्रिंक्स मेरी आदत होती
जा रही थी। पीना उन्हीं दिनों शुरू हुआ था। शराब से
जुड़ना मेरा पलायन था या किसी तरह जिन्दगी को दिखावटी
मुस्कान के साथ काटना। कुछ कह नहीं सकता। जिसके साथ
जीने का सपना देखा था। जिसे प्यार किया था। जिसके लिये
घर परिवार में इतनी जद्दोजहद की थी। यहाँ तक कि सबकुछ
छोड़ देने का फैसला कर लिया था उसी प्रेमिका ने मुझे
बिना बताए विवाह कर लिया। वह भी तब जब मेरे पास एक
अच्छी नौकरी हो गई थी।
यह घटना मेरे लिये जिन्दगी की सबसे बड़ी दुर्घटना थी।
मेरे सारे सपने एकबारगी ध्वस्त हो गए। मेरे चारों तरफ
एक निर्वात हो गया था। मैंने पहली बार शराब इस
दुर्घटना को सहने के लिये ही पी थी जो आदत बनती जा रही
थी। बहुत से पाठकों को मेरी प्रेमिका का नाम और पता
जानने की उत्सुकता होगी। लेकिन यह किसी के गिरहबान में
झाँकना होगा। मैं उसका नाम लिख सकता हूँ। इससे उसे और
उसके पति को भी कोई परेशानी नहीं होगी मगर उनके बच्चे
भी हैं और मुझे कोई हक नहीं कि किसी को चोट पहुँचाऊँ।
क्या इतना ही काफी नहीं कि मैंने प्रेम किया और उसने
मुझसे प्रेम किया। हम आज भी एक दूसरे को प्रेम करते
हैं। प्रेम करना बुरा नहीं। लेकिन उन दिनों अचानक सब
कुछ उजड़ सा गया और लिखना धराशायी हो गया था। लगता कि
जिसके लिये लिख रहा था जब वही नहीं पढ़े तो लिखना क्या?
यह तक याद नहीं रहा कि उसने हरदम कहा था।
"लिखना...मेरे लिये" यही बात बहुत पहले माँ ने कही थी।
"बाबू...लिखना बंद मत करना।" प्रेमिका और माँ में क्या
इतना साम्य होता है? बाद में तो अनेक लोगों ने मुझे यह
वाक्य कहा है। खैर...एक वक्त के लिये लिखना स्थगित हुआ
था और शराब शुरू हो गई थी।
एक ठहरे वक्त के बाद मेरा लिखना फिर शुरू हुआ और मैंने
सबसे पहले एक सीरीज लिखी "मेरी मोहब्बत दर्देजाम"। सात
सच्ची प्रेम कहानियों को साहित्यिक साँचे में लिखा।
यदि उन कहानियों पर संपादक की अलग से टिप्पणी न जाती
तो पाठकों को वे प्रेम कहानियाँ लगतीं और उन कहानियों
के पात्रों में वे स्वयं को पाते। जाहिर है कि उसमें
मैंने टूटे दिलों की कहानी लिखी थी। मेरे भीतर प्रेम
को लेकर जो तिलस्म था वह ताश के महल की तरह भरभरा कर
गिरा था उस दशा में खण्डित व्यक्तित्व के नायक
नायिकाओं को रचनाओं में जगह मिलनी थी। खासकर नायकों
को। मेरी हालत यह थी कि स्त्री के प्रति हर तरह का
लालित्य मुझसे उसी तरह विलग हो गया था जैसे दुख में
अपनी परछाईं भी अपने साथ न दिखे। वह सीरीज रविवारीय
परिशिष्ट में "दैनिक जागरण" के साहित्य सम्पादक श्री
विजय किशोर "मानव" ने बहुत ढंग से छापी थी।
मेरा शराब पीना तब तक तमाशा नहीं बना था। रात को मैं
अपने कमरे पर ही पीता और खाता। सुभाष साथ होता। कभी
कभी और टीचर्स भी होते। मेरे कमरे पर एक जमघट हर रात
लगता। मैंने बहुत बार सोचा है कि ऐसा भाग्य भी बिरलों
को मिलता है। आपके घर लोग आने का मन बनाएँ। यह बहुत
बड़ी बात है। टी.एन.ए.का मेरा घर हँसता हुआ स्वागत कक्ष
था। सबके लिये खुला था। यह गुण मैंने अपनी माँ से पाया
है। रात बिरात कभी भी जब मैं घर आता तो प्रायः अकेला
नहीं होता था। मेरे दोस्त होते थे। यकीनन वे सब
कहानीकार या कवि थे और सभी अपने घरों में उपेक्षित
पुत्र थे। माँ उठती, उठती क्या वह जगी हुई ही होती,
खाना बनाती और गर्म–गर्म खाना परोसती। मैंने कहीं अपनी
माँ को सुन्दर और दिव्य कहा है आज उसमें कुछ और जोड़ते
हुए कहता हूँ कि मेरी माँ केवल सुन्दर और दिव्य ही
नहीं, अद्भुत् भी है, उसने मुझे कभी डांटा हो, याद
नहीं।
सुभाष और मैं एक पूरा सत्र हम साथ रहे। वार्षिक अवकाश
दिसम्बर की चार या पाँच तारीख से शुरू होता था। उससे
पहले शायद अक्टूबर में ही पता चला कि स्कूल में मेरे
ज्वॉयन करने से पहले बॉयलॉजी के एक अध्यापक पंत थे जो
पिछले ही सत्र में केन्या चले गए थे। उन्होंने विजय को
सूचना दी कि केन्या में अध्यापकों की जगह है। आना चाहे
तो आवेदन कर दे। इण्टरव्यू दिसम्बर के प्रथम सप्ताह
में दिल्ली में होगा। विजय पहले फीजी में पढ़ा चुका था
और शायद बाहर जाने को इच्छुक भी था। उसने आवेदन कर
दिया। बातों के दौरान सुभाष ने भी इच्छा जाहिर की। वह
न जाने क्यों भारत से एक अजीब सी विरक्ति पाले था।
उसका रहन सहन पाश्चात्य था। फ्रेंच कट दाढ़ी और उस पर
झुकी हुई मूँछ। कद छह फिट तीन इंच। स्वस्थ शरीर, बहुत
धीरे धीरे बोलता। अगर उसका रंग भारतीय न होकर कुछ और
गोरा होता तो उसे सभी योरोपियन ही समझते। पढ़ाई के
दौरान एक बँगला फिल्म में बतौर नायक उसने काम भी किया
लेकिन वह फिल्म दस रील बनकर डिब्बाबंद हो गई। कॉलेज से
निकलकर सीधे टी.एन.ए.में इकनॉमिक्स पढ़ाने लगा था।
शायद यह नौकरी उसे उसके बड़े भाई की सिफारिश से मिली
थी। उन दिनों वे गैंगटोक में कमिश्नर थे। उनका बँगला
स्कूल के ठीक नीचे जीरो प्वांइट वाली सड़क पर था जो
ह्वाइट हॉल से तिब्बत रोड होती हुई बाजार तक जाती थी।
लेकिन सुभाष उनके साथ बहुत कम दिन रहा। भाभी से उसकी
बनती नहीं थी। ये वे दिन थे जब मेरी मानसिकता भी
असंतुलित थी। रातें नशे के हवाले होने लगी थीं। खैर,
एक बार तो मेरा भी मन हुआ कि मैं भी अंग्रेजी पढ़ाने के
लिये केन्या का रुख करूँ। जगह भी थी और बी.ए. में
मैंने अंग्रेजी साहित्य भी लिया था। सबकुछ एक दिशा में
चलता चला जा रहा था लेकिन ऐन मौके पर जब छुट्टियाँ
हुईं और पता चला कि मिस्टर बारबरा जो केन्या में
प्राइवेट एजूकेशन पर लगभग एकाधिकार बनाए हैं वह दिल्ली
के जनपथ होटेल में अध्यापकों का साक्षात्कार लेने के
लिये आए हैं तो विजय और सुभाष के साथ अफ्रीका जाने के
लिये न जाने क्यों मेरा मन अफ्रीका जाने के लिये तैयार
नहीं हुआ। पंत को भी मिस्टर बारबरा ही ले गए थे और पंत
ने सुभाष और विजय को उन्हें रिकमेण्ड भी किया था। अत:
दोनों पूरी उम्मीद के साथ गए और उन्हें चुन भी लिया
गया। निशा को भी जॉब मिल गया। सभी चले गए। अगले सत्र
में इनकी जगह नए टीचर हो गए। करीब एक साल तक इन सबसे
पत्राचार बना रहा मगर बाद में आउट ऑफ साइट आउट ऑफ
माइण्ड वाली बात होती चली गई। विजय केन्या छोड़कर
अबूधाबी कब आया इसे मैं नहीं जानता था। इसी बीच मैं भी
नौकरी छोड़कर कानपुर चला आया। सन् ८१ के बाद अब ८५ चल
रहा था। पिछले तीन वर्षों से लगभग कोई अता पता हममें
से किसी को न था कि कौन कहाँ है। ऐसे में विजय को फिर
से करीब पाना मेरे लिये एक सुखद जानकारी थी।
८५ जून के आखिरी सप्ताह की कोई तारीख थी जब
साक्षात्कार के लिये बम्बई के बैंक ऑफ बड़ौदा ऑफिस,
मेकेंजी ऐण्ड मेकेंजी बिल्डिंग में जुलाई १ को रिपोर्ट
करने की सूचना मिली। जिस दिन चिट्ठी मिली थी उसी दिन
मैंने एक कुत्ता खरीदा था। वह भी तीन सप्ताह का पप
नहीं पूरे ढाई साल का कुत्ता। मैंने कहा कि
साक्षात्कार देने नहीं जाऊँगा। कुत्ता बड़ा है और अगर
किसी को काट लिया तो मुसीबत हो जाएगी। छोटे भाई चि॰
श्यामनारायण त्रिपाठी को गुस्सा आया। उसने कहा कि एक
कुत्ते के लिये मैं अपनी जिन्दगी तबाह करने पर तुला
हूँ। यह ठीक नहीं है। वह कुत्ते को सँभाल लेगा मगर
मुझे इण्टरव्यू के लिये जाना चाहिए। मेरे सामने पैसे
की भी समस्या थी। उसने मुझे एक हजार रुपये दिए। बाद
में पता चला कि दो हजार रुपयों का उसका एक फिक्सड
डिपॉजिट था जिसे उसने तोड़ दिया था। इतना पैसा मुझे
पिता भी दे सकते थे। इतना पैसा मैं कर्ज भी पा सकता
था। लेकिन यह पैसा मुझे छोटे भाई ने दिया। उस भाई ने
जिसे मैं, जिसे वह... दोनों एक दूसरे को निःशब्द चाहते
हैं। मगर सामने हम किसी तरह से भी सामान्य नहीं हो
पाते। दस वर्ष छोटा है मुझसे। वह मेरी शराब से घृणा
करता है। मैं उसके दकियानूसी नजरिये से नफ़रत करता हूँ।
मगर चाहत में कमी नहीं है। ऐसा केवल भाई होने की वजह
से ही नहीं है। वह ऐसे बहुत से लोगों के बीच उठता
बैठता है जो शराबी कबाबी हैं। लेकिन एक बात है. उसके
सामने अगर मैं शराब नहीं पी सकता तो उसके दोस्त तो और
भी कठिनाई महसूस करते हैं।
मैं समझता हूँ कि भयंकर दकियानूस होने के बाद भी उसने
अपने लिये वह इज्जत कमाई है जो सबको नहीं मिलती। इसके
पीछे उसका चरित्र ही है कि उसके सामने उसका बड़ा भाई भी
शराब नहीं पी सकता। यह बात मैं अपने कमरे के लिये नहीं
बल्कि उन जगहों के लिये कह रहा हूँ जहाँ वह कमान सँभाल
लेता है। पीने को तो मैं उसके घर में उस सरकारी मकान
में उसकी उपस्थिति या अनुपस्थिति में भी पी सकता हूँ
जहाँ वह पास में पुश्तैनी मकान होते हुए भी
दुर्भाग्यवश रह रहा है। लेकिन जहाँ सामाजिकता का मामला
आता है वहाँ बागडोर उसके हाथ में होती है और वह पूरा
डिक्टेटर बन जाता है। यह स्थिति अब की है। ऐसी बात
नहीं है। शुरू से ही घर उसके हवाले रहा है। पहले मैं
शराब पीता था मगर इतना बड़ा शराबी नहीं था। यह भी हो
सकता है कि पहले जवानी थी और शराब की मात्रा चाहे
कितनी भी हो जाए लेकिन नशा दूर भागता था। और वह भी समय
देखा है जब शराब पीने का मन हो और पास में पैसे न हों
और एक एक पल बेचैनी में गुजर जाए। शायद भाई के मन में
मेरी सुरक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा उसकी प्रमुख चिंता
हो। दो तीन बार मैं मोटर सायकिल से नशे की हालत में
गिर पड़ा हूँ यद्यपि गिरने या दुर्घटना का कारण शराब या
मैं नहीं रहा। वो जो कहते हैं कि एक्सीडेण्ट इज
एक्सीडेण्टल वही बात हुई है मगर शराबी के साथ जो
विशेषण जुड़े हैं उनसे किसी को मुक्ति कैसे मिल सकती
है? एक बार बिना पिए घनघोर अँधेरे में एक बैलगाड़ी से
लड़ गया। महीनों तक चर्चा होती रही कि पीकर चलेंगे तो
क्या होगा। घर वाले भी आजतक मानने को तैयार नहीं हैं
कि वह दुर्घटना बिना पिए हुई थी। जो भी हो मैं दिल की
गहराइयों से भाई को प्यार करता हूँ। वह मेरे घर का
सबसे जिम्मेदार सदस्य है। घर को घर बनाए रखने में उसकी
भूमिका की मैं तारीफ़ करता हूँ। दुनिया में ऐसे भाई हैं
मगर उनकी संख्या कम है। खैर...एक बार फिर गति सी आ गई
और मेरे बाम्बे जाने की तैयारियाँ शुरु हो गईं।
पत्रकार कोटे में आरक्षण कराया। अपने शैक्षिक प्रमाण
पत्र एक फाइल में कायदे से लगाए। पत्र-पत्रिकाओं में
प्रकाशित कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाओं की कटिंग्स रखीं। एक
किस्म से तैयारी पूरी हो चुकी थी। असल में यह सब काम
भी भाई ने ही किया था। वह दिल से चाहता था कि मैं कहीं
टिककर सही ढंग से नौकरी करूँ। एक बात और बता दूँ जिसका
जिक्र अगले किसी एपीसोड में आएगा कि इस इण्टरव्यू में
जाने से पहले १७ मार्च को बेटे का पहला जन्मदिन था।
पत्नी ने चाहा था कि बेटे का एक फोटो लिया जाए। कैमरा
था नहीं और स्टूडियो फोटो चालीस रुपये से कम में संभव
नहीं था। मेरे पास चालीस रुपये नहीं थे। घर से मिल
सकते थे मगर मैं माँग नहीं सकता था और शायद घर वालों
के मन में यह बात नहीं थी कि बच्चे का जन्मदिन मनाया
जाए। मेरे घर में ऐसी कोई परम्परा भी नहीं थी। मैं
अनुभव की पहली वर्षगाँठ न तो मना सका और न उसकी फोटो
ले सका। एक कचोट मन में थी जो बाद में उभरी। इस संबंध
में मैं आगे लिखूँगा। जिन्दगी मेरा ही इम्तहान नहीं ले
रही थी। वह तो मेरी तरह तीन चौथाई से भी अधिक लोगों को
दुनिया में ऐसे पलों से गुजारती है। भगवान जाने यह
कैसी परीक्षा है, बच्चों के सामने असहाय होने की...
२९ जून को दोपहर बारह बजे कानपुर सेंट्रल स्टेशन पर
मैं बाम्बे बी.टी. की प्रतीक्षा कर रहा था। मेरे साथ
छोटा भाई और एस.एन. वर्मा थे। एस.एन.वर्मा...यानी
वर्माजी, मेरा मित्र! उम्र का एक लम्बा अंतराल। मुझसे
पन्द्रह बीस वर्ष बड़े। वह मेरे लिये वर्माजी और उनके
लिये मैं बिहारी। इस संबोधन के अलावा हममें कोई
शिष्टाचार नहीं था। अपराध कथा लेखक के रूप में उनकी उन
दिनों तूती बोल रही थी। हालाँकि उनका लेखन साहित्यिक
ढंग से शुरू हुआ था और "जागरण" के अलावा कुछ पत्रिकाओं
में भी उनकी रचनाएँ छप चुकी थीं लेकिन न जाने कैसे
उनका लेखन सत्य कथाओं की ओर मुड़ गया। शायद ऐसा होने
में कानपुर के एक लेखक रमेश कुमार खुराना "स्वप्न"
उनके प्रेरणास्त्रोत रहे होंगे। "स्वप्न" भी ऑर्डनेन्स
फैक्ट्री में काम करते थे। उनकी भी रचनाएँ पत्र
पत्रिकाओं में छपती थीं मगर न जाने किस प्रेरणा से
उन्होंने मनोहर कहानियाँ की ओर रुख कर लिया था। सन ८०
के आस पास कानपुर के हिन्दी लेखकों में लिखने के बल पर
शान शौकत अगर किसी के पास थी तो वह "स्वप्न" ही थे।
उनके बाद वर्माजी. एस.जी. शर्मा और जयनारायण भारती उसी
पंक्ति में शामिल हुए। वर्माजी की एक कहानी "कुर्बनवा"
रविवार में सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने प्रकाशित की थी
जो चर्चित हुई थी। राजेन्द्र राव ने वर्माजी का परिचय
सुरेन्द्र प्रताप सिंह से कराया था। उनकी कुछ और
कहानियाँ भी अच्छे पत्रों में छपी थीं लेकिन उनका
रास्ता अचानक फुटपाथी लेखन की ओर मुड़ गया।
शायद मैंने भी उनका अनुसरण किया होता क्योंकि आर्थिक
दृष्टि से मैं अचानक इतना कमजोर हो गया था कि किसी तरह
का लेखन करने को तैयार था। वर्माजी मुझे इलाहाबाद भी
ले गए और कुसुम प्रकाशन के मालिक लल्लू बाबू से भी
मिलवाया। मैं वहाँ एक होटल में ठहरा और लगभग बहत्तर
घण्टों में दस सच्ची कहानियाँ लिखीं। मैंने उनसे कहा
था कि अठारह सौ रुपये से कम में मेरा काम नहीं चलेगा।
वे शायद मुझे परखना चाहते थे, जब मैंने उन्हें दस
कहानियाँ दीं तो शायद उनका सिर घूम गया कि इस तरह तो
यह आदमी सारे रिकॉर्ड तोड़ देगा। उन्होंने मुझे अजामिल
से मिलने को कहा। उन दिनों नूतन कहानियाँ के सम्पादक
के नाम के रूप में अजामिल का नाम जाता था। अजामिल से
मैं पहले मिला तो नहीं था लेकिन उनकी कविताएँ
प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में पढ़ी जरूर थीं। उनके कमरे पर
ही मिला। उन्हें कहानियाँ दीं। उनका माथा ठनका। वे
मुझे हिन्दुस्तान और धर्मयुग में पढ़ चुके थे। उन्होंने
मुझे बहुत हताश किया कि मैं यह क्या कर रहा हूँ। लेकिन
ऐसा करने के पीछे मेरे भविष्य की बात होने की जगह
उन्हें शायद यह खतरा दिखा था कि कहीं मैं उन्हें
रिप्लेस न कर दूँ। किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि
कोई बहत्तर घण्टों में दस कहानियाँ कैसे लिख सकता है।
मैंने इलाहाबाद में लल्लू बाबू जिनका नाम कृष्ण कुमार
भार्गव था, से मिलने के बाद वह शाम फुटपाथ पर घूमते
हुए गुजारी और वहीं से एक किताब खरीदी। उसमें अठारह
सच्चे किस्सों की केवल बुनियाद थी। वादी, प्रतिवादी,
स्थान और अपराध, जज और फैसला सब कुछ एक पैराग्रॉफ में।
मैंने उसी बुनियाद पर इमारतें खड़ी कीं। मैं तो किसी
तरह कुछ महीने निकालना चाहता था। मुझे यकीन था कि मेरी
दशा हमेशा के लिये नहीं बिगड़ी है। मजे की बात अजामिल
ने लल्लू बाबू से न केवल यह कहा कि कहानियाँ बेकार हैं
उन्हें कनविन्स भी कर लिया। मुझे कुसुम प्रकाशन से एक
पैसा भी नहीं मिला। हाँ तकलीफ यह देखकर जरूर हुई कि
मेरी लिखी कहानियाँ जय नारायण भारती के नाम से
प्रकाशित हुईं। पता नहीं कि पैसा अजामिल ने लिया या
जयनारायण भारती ने।
बहरहाल, मेरा वक्त भले ही कठिन गुजरा हो मगर रास्ता
पथभ्रष्ट होने से बच गया। वर्माजी आर्थिक रूप से कमजोर
नहीं थे मगर उन्होंने साहित्यिक लेखन से जो किनारा
किया वह सदा के लिये कर लिया। आज अपने अनुभवों से कह
सकता हूँ कि बहुत से अच्छे लेखकों की अकाल मौत का कारण
साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं। न तो ये उनकी रचनाएँ पढ़ती
हैं न उन्हें छापकर पैसा देती हैं। इतना भी नहीं कि
लेखक ने जो पोस्टेज खर्च किया है वही वापस हो जाए और
अगर छापती भी हैं तो यह तक नहीं बताती कि रचना किस अंक
में आ रही है। मुझे समझ में नहीं आता कि अगर इतनी
दयनीय स्थिति उनके सामने है तो पत्रिका क्या वे पागल
कुत्ते के काटने पर निकाल रहे हैं? लेकिन समझ से इतना
पैदल भी नहीं हूँ। पत्रिका निकालते हुए
डी.एम..एस.एस.पी. और नगर के अन्य गणमान्यों के बीच आप
भी तो आ जाते हैं। यह दिखावटी दंभ और सामाजिक संपर्क
कम है क्या? लेखक मरता है तो मरे। वर्माजी ने भी
साहित्य का रास्ता छोड़कर व्यवसाय के रूप में लेखन को
अपना लिया था। वे "नूतन कहानियाँ" के फाउण्डर मेम्बर
थे। ऐसा भी समय आया कि "नूतन कहानियाँ" ने "श्याम नंदन
वर्मा " अंक भी निकाला। सन सत्तर के बाद से लगभग दो
दशक तक वे कानपुर में हिन्दी के संपन्न लेखकों में
गिने जाते थे। लेखन से उनकी आमदनी कभी कभी तो पाँच
हजार रुपये महीने से भी ज्यादा हो जाती थी। मगर उनकी
आमदनी पर हक उनकी पत्नी श्रीमती रेनू वर्मा का था।
भाभीजी उन्हें पीने भर का पैसा रोज देती थीं जो कि
उनके लिये कम पड़ जाता था। अपने इस खर्च को पूरा करने
के लिये दो तीन महीनों में वे फैक्ट्री की ओर से एकाध
ट्रिप कलकत्ता का या जबलपुर का लगाते और टी.ए. डी.ए.
में से जो बचाते उससे पीते। जब वह भी पूरा नहीं पड़ता
तो भाभीजी से और लेते मगर सभ्यता की सीमा के बीच ही।
हालाँकि सभ्यता की वह सीमा बाद में टूट गई थी।
मुझे वह बहुत मानते थे। लिखने को लेकर कहते कि कृष्ण
बिहारी एक दिन तुम्हें कोई जौहरी जरूर मिलेगा जो
तुम्हारे भीतर के लेखक को पहचानेगा और तुम्हारी जगह
बनेगी। उन्हें अपने लिखने में जब कोई शब्द परेशान करता
तो वे मेरे पास चले आते चाहे रात के दो ही क्यों न बजे
हों। जिन दिनें वर्माजी रात दिन मशीन की तरह लिखते थे
उन दिनों मैं एम.ए. कर रहा था। मैं रात ग्यारह बजे
आवारगी से लौटता और फिर रात भर पढ़ता। उनके सरकारी आवास
से मेरे पिता का आवास बमुश्किल पन्द्रह बीस मीटर रहा
होगा। बीस वर्षों की मित्रता के दौरान मेरे लिये उनके
गुण, उनके अवगुणों पर भारी पड़ जाते थे। मैं जब भी
कानपुर में रहा तो शाम की शराब हमने साथ पी और मैने
खाना उनके घर ही खाया। मुझे लेकर वह पजैसिव थे। घर
पहुँचते ही कहते- "रेनूजी...बनाइए कुछ, बिहारीजी आए
हैं..." मुझसे कहते "खाना खाकर जाना है। मुर्गा बन रहा
है।" पिताजी के रिटायर होने के बाद हमारे आवास में चार
किलोमीटर की दूरी हो गई थी। इसके बाद भी कानपुर में
रहते हुए दोपहर और शाम को उनसे मिलना होता ही था।
सरकारी फैक्ट्री में उन्होंने इतना रुतबा बना लिया था
कि जब चाहते तब बाहर निकल आते और जब चाहते मुझे भीतर
बुला लेते।
अपनी छपी हुई कहानियों की पत्रिकाएँ वे मेजर से लेकर
अन्य अधिकारियों तक पहुँचाना कभी न भूलते मगर पैसे के
मामले में वे सिर्फ यह याद रखते कि उन्होंने कितना
मुझे दिया है। मुझसे कितना लिया है यह वह भूल जाते थे।
जान बूझकर याद दिलाने पर कहते "कमजोर पॉर्टी " हो। ऐसा
भी समय अनेक बार आया कि हम पैसे मिलाकर एक हाफ खरीदते
और पीते। कभी कभी अर्मापुर के गुप्ता होटल के मालिक से
भी पैसा लेकर शराब पीते। उसका एकाध काम वर्माजी ने
पुलिस से सुलझवाया था। दो एक काम मेरे मार्फ़त भी कराए
थे। वर्माजी वसूलना जानते थे और उनके इस रवय्ये से
मुझे शर्म आती थी। मेरे नाम से वह शराब पी लेते। एक
घटना बड़ी अजीब सी घटी और वह मुझे कबतक बेचैन रखेगी,
कुछ पता नहीं। मेरे पिताजी के एक सहकर्मी थे,
गुरुप्रसाद। पिताजी उनकी बहुत इज्जत भी करते थे। उनका
नाम सुना हुआ था। लेकिन घरू रिश्ते नहीं थे इसलिये मैं
उनको पहचानता नहीं था। जब मैं टी.एन.ए. छोड़कर अखबार
में काम कर रहा था उन दिनों की बात है। उनके बेटे की
नौकरी के लिये किसी विभाग में इम्प्लॉयमेण्ट एक्सचेंज
से कॉर्ड निकला। उनका बेटा विकलांग था। उसे नगर के
सी.एम.ओ. से विकलांग होने का प्रमाण पत्र चाहिए था।
वर्माजी ने उन्हें मेरे बारे में बताया। गुरुप्रसादजी
मेरे घर आए। मैंने उनसे कह दिया कि कल ही उनके बेटे को
यह प्रमाण पत्र दिलवा दूँगा। अगले दिन मैं उस लड़के को
लेकर कानपुर के उर्सला अस्पताल गया। उसका प्रमाण पत्र
बनवाया। उसे प्रमाण पत्र मिलना ही था मगर अपने देश में
जो लाल फीताशाही है उसके चलते वह डरा हुआ था। उसकी
नौकरी भी लग गई। एक दिन गुरु प्रसादजी मेरे घर सहमे
हुए से आए और पिताजी से मिलने के बदले मुझसे मिलने की
इच्छा जाहिर की। जब मैं उनके पास पहुँचा तो उन्होंने
एक पैकेट मुझे दिया। मैंने पूछा-"क्या है...?"
"बोतल..." उन्होंने झुकी आँखों से कहा। मेरे पिता के
मित्र और मुझे बोतल।
"क्यों.. ?"
"वर्माजी ने कहा था कि कृष्ण बिहारी बिना बोतल लिये
किसी का काम नहीं करते..." गुरुप्रसाद जी ने कहा तो
मुझे लगा कि जीवन व्यर्थ हो गया। उनके लड़के को मैं
अपनी मोटर सायकिल पर ले गया था। कहीं अगर चाय भी पी थी
तो पेमेण्ट मैंने ही किया था। मैं जीवन में जिसके भी
काम आ सका उसके लिये मैंने कोशिश इसलिये की क्योंकि
लोगों ने मेरे लिये कोशिश की है। मेरा कोई भी काम करने
में अनजान लोगों तक ने तब तक मुझसे कभी पैसा नहीं लिया
था। मैं कैसे किसी से कुछ लेता। हालाँकि अब मैंने यही
सीखा है कि रिश्वत न देने के सिद्धान्त का पालन करने
से बेहतर रिश्वत देकर नरक गुजरने से बच जाना ही
श्रेयस्कर है। बीस हजार की रिश्वत न देने के कारण न
केवल मैं डेढ़ लाख रुपये के नुकसान से गुजरा बल्कि मेरी
सात साल की वार्षिक छुट्टियाँ भी के ड़ी.ए. वाले खा गए
और पन्द्रह सौ रुपये की रिश्वत देकर बेकार की भागदौड़
से निजात पायी है। खैर, उस समय मैंने प्रसाद जी को
बोतल लौटाने की भरपूर कोशिश की लेकिन वे श्रद्धावश लाए
थे और उसे वापस ले जाने को तैयार नहीं थे। वह बोतल
मैंने वर्माजी के साथ ही पी मगर उनसे पूछा जरूर कि एक
विकलांग ही मिला था चूसने के लिये और वह भी मेरे नाम
का सहारा लेकर?
वर्माजी बोले, "एक बोतल के लिये मुझे टॉर्चर कर रहे
हो...उस लड़के की सरकारी नौकरी लग गई, इतने में लोग तो
न जाने कितना ले लेते हैं, दारू पियो और भूल जाओ।" वह
ऐसा आराम से कर लेते थे मगर मुझसे आजतक वैसा नहीं हो
पाया। क्या वर्माजी सत्य कथाएँ लिखते लिखते संवेदना
विहीन हो चुके थे और मैं अबतक अपनी कहानियों में सत्य
के अलावा और कुछ न लिखने के बावजूद उन जैसा नहीं हो
पाया। वे व्यावहारिक थे। मैं नितांत अव्यावहारिक हूँ।
"तो चले ही जाओगे, विदेश...जाओ यार...इस मुल्क में
साला रहना भी क्या! यह मुल्क रहने के काबिल नहीं
रहा..." वर्माजी ने कहा।
"अभी तो बाम्बे जा रहा हूँ। पता नहीं विदेश जाऊँगा भी
या नहीं..." उनसे बोलते हुए मैंने सामने एक आदमी को
बहुत परेशान-सा देखा। वह सफेद बुश्शर्ट और सफेद पैंट
पहने था। बुश्शर्ट पैंट से आधी बाहर निकली थी। उसके
हाथों में एक वी. आई. पी. था और बाकी सामान कुली लिये
हुए उसके पीछे इधर से उधर टहल रहा था। मैंने भाई से
कहा कि उस आदमी को बुलाए। वह बुलाकर ले आया।
"क्या बात है...बहुत परेशान दिख रहे हैं?"
"बाम्बे जाना है, बुआ की बेटी की शादी में फतेहपुर आया
था, वापस जाने का आरक्षण नहीं करा पाया, अब बड़ी
परेशानी है, कैसे जाऊँगा...?"
"मेरे साथ चलें, मेरा आरक्षण है..." मेरे आश्वासन पर
वह कुछ अशांत से शांत हुए। ट्रेन में हमारा परिचय हुआ।
मैंने ही नाम पूछा "राजेश्वर....राजेश्वर गंगवार..."
"मैंने आपका नाम कहीं पढ़ा है...शायद धर्मयुग में..."
"हाँ, मैं उसमें लिखता हूँ, आपका नाम...? उन्होंने
पूछा और जब मैंने अपना नाम बताया तो उनके उत्साह की
सीमा नहीं रही। वे मेरे लेख धर्मयुग और साप्ताहिक
हिन्दुस्तान में पढ़ चुके थे। लम्बी और एकाकी यात्रा
आसान हो गई। मैंने दुनिया के मालिक को धन्यवाद दिया और
कहा "ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे मालिक धीरे
धीरे..."
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