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आत्मकथा (दसवाँ भाग)

   — कृष्ण बिहारी

 

आवाज दे कहाँ है


कहते हैं कि कुछ शहर कभी नहीं सोते। बाम्बे भी शायद उन्हीं शहरों में से एक है। इससे पहले मैं कानपुर को ही जागने वाले शहरों में जानता था। मजदूरों का शहर। इण्डस्ट्रियल एरिया में हर पचास मीटर पर एक कारखाना। रात–दिन खटर–पटर। मगर बाम्बे के साथ 'कारखाना' शब्द लगाना उतनी अर्थवत्ता नहीं देता। कारण शायद यह है कि बाम्बे में हर चीज उद्योग है। हर तरह का उद्योग है। स्वप्नों की नगरी उसे अकारण नहीं कहा जाता। इसके बावजूद मुझे लगता है कि शाम के झुटपुटे से सुबह के धुँधलके के बीच दो–चार पल तो शहर भी झपकी लेते हैं।
यह अलग बात है कि इंसोमीनिया के शिकार उन पलों में भी करवटें बदलते हैं या फिर चहलकदमी करते हैं। जब टैक्सी सड़कों से सुबह होने की प्रतीक्षा में फर्राटे से गुजरते हुए एयरपोर्ट की ओर बढ़ रही थी उस समय भी मुझे इक्का–दुक्का लोग जागते दिखे। पास–पास से गुजरते हुए वाहन भी। ड्रॉइवर ने बताया कि ये सभी लोग एयरपोर्ट ही जा रहे हैं। तभी बारिश का एक छरका आ गया। पानी पहले भी अचानक बरसा था इसलिये बरसात ने सिर्फ इतना ही ध्यान खींचा कि पानी बरसकर बंद हो चुका है।
श्रीप्रकाश की गजल ‘बरसात’ मुझे फिर याद आई। हालाँकि, मैं एम्बेस्डर में था और भीग भी नहीं रहा था। मगर मेरा दिल जो भीग रहा था उसकी कैफियत तो सिर्फ मेरे पास थी। सहार एयरपोर्ट सामने दिखने लगा था। शहर जितना सुनसान था वहाँ उसके उलट गहमागहमी का आलम था। बाम्बे में यों भी अँधेरी सड़कों से मेरा साबका नहीं पड़ा था और, यहाँ एयरपोर्ट पर तो वो उजाला था जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखा था। रेलवे प्लेटफॉर्मों पर भी बत्तियाँ गुल होकर घना अँधेरा न जाने कितनी बार बिखेर चुकी थीं। लेकिन एयरपोर्ट पर चकाचौंध करनेवाला उजाला था। यह आलम तो बाहर का था। जहाँ प्राइवेट कारें खड़ी होतीं। लोग उतरते। माल–असवाब साथ होता। जाने वाला और विदा करने वाले। चेहरों पर मुस्कानें और भर–भर छाती की गलबहियाँ। स्त्री–पुरूष यों गले मिलते कि उनका होली–मिलन और लोग भी हसरत से देखते। मगर बस या थ्री–ह्वीलर से कोई उतरता तो मुझ जैसा होता। अकेला...किसी–किसी के साथ कोई दूसरा भी होता। उस जैसा ही अकेला...अकेलों के चेहरों पर उदासी के अलावा और क्या हो सकता है! खैर, एयरपोर्ट पर वक्त अफरातफरी का था। लगभग वही माहौल जो किसी बड़े रेलवे स्टेशन के बाहर का होता है। फर्क बस इतना था कि वहाँ रिक्शा, ताँगा, स्कूटर, मोटर–सायकिलों और सायकिलों तक से सवारियाँ उतरती हैं, यहाँ ऑटो, कार, बस और टैक्सी से सवारियाँ उतर रही थीं।

एयरपोर्ट प्रवेश के गेट पर खड़े लोगों को अपना पॉसपोर्ट और टिकट दिखाकर जब मैं एयरपोर्ट के अंदर जाने को हुआ तो उनके हर सवाल गंभीर थे। मेरी ट्रिम्ड दाढ़ी और मेरे दुबले–पतले शरीर ने मेरे लिये कई बार असहज स्थितियाँ पैदा की हैं। खासतौर पर श्रीमती इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद तो बहुत कम समय में ही कई बार लोगों ने सिख समझकर मेरे साथ बदतमीजी की है। और उससे भी पहले जब दिल्ली में गीता–संजय चोपड़ा काण्ड हुआ था...उस दिन तो जान पर ही बन आई होती...

मैं सुवीरदास के साथ कानपुर के एक सिनेमा हॉल में फिल्म देख रहा था। जितनी फिल्में मैंने और सुवीर ने साथ–साथ देखी हैं शायद उतनी फिल्में हमने और किसी के साथ नहीं देखीं। हम सिक्किम में अलग–अलग स्कूलों में काम करते थे लेकिन छुट्टियों से पहले ही ऐसा कार्यक्रम तय करते थे कि लम्बी यात्रा ही साथ न हो बल्कि यात्रा और उसके बाद का समय भी बेहतर बीते। हमने लगभग पाँच साल की अपनी नौकरी की छुट्टियों में प्रायः सभी यात्राएँ साथ की हैं। कानपुर जाने की भी और नौकरी पर वापसी की भी। दशहरे और दुर्गापूजा की छुट्टियाँ तो बस रेलगाड़ी में ही बीत जाती थीं। एक तरफ की यात्रा में ही छियालीस घण्टे उन दिनों लग जाते थे और छुट्टी चार दिनों की होती थी। घर जाना और लौटना बस कबड्डी का पाला छूना होता था।

नौकरी शुरू करने से पहले का हमारा साथ था। घनिष्ठता थी। हम दोनों एक–दूसरे का साथ पाने का इंतजार करते थे। कितनी अजीब बात थी कि वह हिन्दी साहित्य से न तो तब और न आज, जरा भी प्रभावित नहीं है। न ही उसे इसमें कोई रूचि है कि मैं हिन्दी में लिखता हूँ। क्या लिखता हूँ, यह दूसरा प्रश्न हो सकता है। मगर उसे कोई दिलचस्पी नहीं है। उसे दिलचस्पी दोस्ती में है। हमारे बीच पैसा कभी नहीं आया। सिक्किम जाना है। कोई भी दो टिकिट न्यू जलपाईगुड़ी के खरीद लेगा। सिनेमा देखना है, बाहर खाना है, शराब पीनी है, बिल कोई भी पे करेगा, यह सब बरसों हुआ है, अब नहीं होता...अब हम दोनों की शादियाँ हो चुकी हैं, हम मिलते हैं, कुछ देर साथ रहते हैं, मगर चुप रहते हैं। हमारी जिन्दगी में स्थायी रूप से औरत ‘बीवी’ बनकर आ चुकी है। कई घटनाओं ने कम्यूनिकेशन गैप की वजह से गलतफहमियाँ भी बढ़ा दी हैं। वैसे हम दोनों जानते हैं कि इन गलतफहमियों को जीना हमारी ही नहीं सबकी नियति है।

खैर, कानपुर के मशहूर सिनेमाहॉल ‘हीर पैलेस’ के सामने के सिनेमाहॉल में हम दोनों फिल्म देख रहे थे। हमारी सीट के आगे वाली सीटों पर कुछ लड़के बैठे थे जो हॉल में अपने आगे की सीटों पर बैठी लड़कियों पर चॉक के टुकड़े फेंक रहे थे। बात बहुत गंभीर नहीं थी लेकिन अगर कोई अध्यापक है तो उसके लिये यह दृश्य निश्चित ही तकलीफदेह हो सकता है।

बहुत अजीब लगता है जब बहुत से जानने वाले मुझसे कहते हैं, “तुम्हें देखकर कोई ‘टीचर’ नहीं कह सकता...तुम टीचर–से दिखते ही नहीं...” मैं उनसे पूछता हूँ, “किसी इंजीनियर, डॉक्टर या किसी कारपेण्टर को देखकर क्या कोई कह सकता है कि वे किस प्रोफेशन से संबद्ध हैं? फिर एक टीचर से ही लोग यह उम्मीद क्यों करते हैं कि वह ‘टीचर–सा’ दिखे? समाज टीचर को चूतिया क्यों समझता है और कब तक समझेगा?” टी.एन.एकेडमी के प्रिंसिपल स्व० मधुसूदन सिंह को एक बार मंत्रालय में इस लिये तलब किया गया था कि वे जवाब दें कि उनके विद्यालय के शिक्षक शराब क्यों पीते हैं?” इस आरोप का जवाब देते हुए उन्होंने कहा था, “शराब मंत्री पिएँ, अधिकारी पिएँ, वकील और डॉक्टर पिएँ, सारी दुनिया पिए तो कोई बात नहीं...आप अपने घर–बाहर के सदस्यों, अतिथियों को पिलाएँ, अपने घर और होटलों में शराब से नहाएँ तो कोई बात नहीं मगर एक टीचर शराब पिए तो आपको सवाल पूछने का मन करता है। टीचर आदमी नहीं है क्या...?”

मंत्रालय के पास चुप रहने के अलावा कोई चारा नहीं था।
लेकिन यह सच है कि टीचर चाहे जो कुछ पीता हो, वह अपनी इस एक्सरसाइज को नहीं भूल पाता कि वह टीचर है। अगर भूलता भी है तो अनजाने में उसे दुहरा बैठता है।
मैंने और सुवीर ने टालने की बहुत कोशिश की लेकिन बात सिर से ऊपर होती गई। जब लड़कों की हरकत बंद होती नहीं दिखी तो मैंने अपनी सीट छोड़कर उन लड़कों के आगे जाकर आपत्ति दर्ज कराई। उनमें से एक अचानक ही बोला, “अरे, यह तो बिल्ला–रंगा में से एक है।”
सारा माहौल ही बदल गया। मुझ जैसे न जाने कितने लोग थे जिन्होंने उन लड़कों की बदतमीजी को खुद देखा था। वे लड़कियाँ भी सशरीर जिन्दा थीं जिन्हें चॉक के टुकड़े लगे थे। मगर सब चुप होकर तमाशबीन हो गए थे। कोई हमारे समर्थन में नहीं था। यदि मेरे पास प्रेस के लिये काम करने का प्रमाण–पत्र उस समय न होता तो भीड़ थप्पड़ों से ही वह हाल करती कि पोस्टमॉर्टम के लिये शरीर के वे हिस्से ही नहीं मिलते जिनकी जरूरत होती है।

अखबार में लिखना ही था जिसने उस दिन मेरी और सुवीर दास को जिन्दगी बख्शी अखबारों में, खासतौर पर ‘दैनिक जागरण’ में निरन्तर लिखने ने मुझे कानपुर में उन कई समस्याओं से बचाया है जिनमें आम आदमी के पास कराहने के सिवा कुछ नहीं बचता। हमने फिल्म पूरी नहीं देखी। जब बाहर निकले तो सुवीर दास ने कहा, “अखबार में लिखना क्या इतना इन्फ्लूएन्स रखता है? साले...मार ही डालते...” मैंने कहा, “चलो यहाँ से...गलती हमारी थी। जब, सब साझेदार थे तो हमें उनके फटे में टाँग अड़ाने की क्या जरूरत थी?”

“यार, बरदाश्त तो नहीं होता...?”

“बरदाश्त तो बहुत कुछ नहीं होता इस मुल्क में...तो क्या करें?”

सुवीर की बात का जवाब देकर मैं तिलमिलाते हुए चुप हो गया था। सचमुच इस मुल्क में जो घट रहा था, घट रहा है, वह बरदाश्त कहाँ होता है! थू–थू रैली, धिक्कार दिवस, सायकिल रैली, लाठी रैली, कौन इनसे पूछे कि सालों...अपनी माँ को छोड़कर, हिन्दुस्तान की माँ के पीछे क्यों पड़े हो..? सोनिया गाँधी भी जब रोमन में लिखी हुई स्पीच पढ़ती हैं तो उनका चेहरा बता देता है कि कि वह कितना देश के साथ हैं और कितना अपने साथ। प्रियंका वडेरा को तो लाना ही पड़ेगा। इस देश की जनता चूतिया जो है। सत्ता उनके ही पास रहेगी जो सत्ता के पास रहे हैं। बाकी लोग उन्हें पानी पिलाने वाले हैं। सबका भाग्य सुदामा पाण्डेय पहले यादव, जो पानी पिलाने का काम करने के कारण पहले पाँडे और फिर बाद में पाण्डेय कहलाए, के पुरखों–सा कहाँ होता कि पानी पिलाने वाले कुल का लड़का किसी देश का प्रधानमंत्री बन जाए...

गेट पर प्रश्नों से जब जान छूटी तो मुझे उस जगह लाइन में लगना पड़ा, जहाँ एक स्वचालित बेल्ट पर अपना सामान, हैण्ड बैगेज, पर्स आदि रखना होता था। वह सामान एक काले बक्से के भीतर से गुजरता था। कुछ समय के लिये सामान को रोका जाता। बक्से के दूसरी ओर पुलिस के अधिकारी होते जो अपने सामने टी.वी. जैसे किसी बक्से के परदे पर नजर गड़ाए रखते थे। उन्हें यात्री का हर सामान परदे पर दिखता था। पता चला कि वह एक्सरे मशीन है। मुझे आज भी आश्चर्य होता है कि जब जय ललिता नोटों से भरे ४८ सूटकेस लेकर हिन्दुस्तान में एक एयरपोर्ट से दूसरे एयरपोर्ट टहल रही थीं तब एक्सरे मशीन क्या कर रही थी?

मैंने भी अपने आगे लाइन में लगे लोगों की तरह बेल्ट पर अपना वी.आई.पी. और वह छोटा पर्स रखा जिसमें टिकिट और पैसे थे। एक्सरे से निकल जाने के बाद अधिकारियों ने उस पर चेक्ड का टैग लगा दिया और वी. आई. पी. पर एक पतले किन्तु मजबूत पट्टे से बाँधते हुए स्टेपल कर दिया। लेकिन यही काम अन्तिम नहीं था।

मुझे उस काउण्टर पर खड़ा होना पड़ा जहाँ एयरपोर्ट टैक्स जमा करना था। उन दिनों मात्र एक सौ रूपये एयरपोर्ट टैक्स लगता था। आज यह बढ़कर सात सौ पचास रूपये हो गया है। इस औपचारिकता के बाद ‘लगेज’ का वजन कराना और बोर्डिंग पास लेने की पंक्ति में लगना था। मेरे छोटे से वी.आई.पी. का वजन कुल १६ किलोग्राम निकला मय किताबों और पत्रिकाओं के। उसे मैं अपने साथ ही रखना चाहता था। जैसा कि कानपुर में वर्माजी ने मुझे प्लेन में विंडो सीट लेने के लिये बार–बार कहा था, मैंने स्मोकिंग जोन में विण्डो सीट देने का निवेदन किया जिसे एयर इण्डिया के उस अधिकारी ने मान लिया। इसके तुरन्त बाद ही मेरी मुलाकात सीताराम बंगेरा से हुई जो उसी फ्लॉइट से स्वीमिंग कोच के पद पर ज्वॉयन करने उसी स्कूल में जा रहा था। बैंक ऑफ बड़ौदा के मैनेजर श्री सुखतांकर ने शायद बंगेरा को मेरे हुलिये की जानकारी दे दी थी। जब मैं इमीग्रेशन की पंक्ति में खड़ा था तो एक मासूम से युवक ने मेरे पास आकर पूछा,

“आर यू मिस्टर कृष्ण?”

“एस...”

“ऑयम सीताराम...सीताराम बंगेरा...”

उसे देखते हुए मैं कुछ पलों के लिये तो अवाक–सा रहा। वह बमुश्किल चौबीस–पचीस वर्ष का एक युवक था जिसके बारे में श्री सुखतांकर ने मुझसे कहा था कि वह मिडिल एजेड है। यदि उस युवक के बारे में बताते हुए उन्होंने उसकी उम्र मुझे अधेड़ावस्था के करीब बताई थी तो यह पक्का है कि मेरी बत्तीस वर्ष की अवस्था को उन्होंने बंगेरा को रिटायरमेण्ट के करीब बताई होगी। इमीग्रेशन काउण्टर से उस पार निकल जाने के बाद यात्री इण्टरनेशनल पैसेंजर हो जाता है। एक राहत मिल जाती है। बंगेरा और मैंने एक–दूसरे को कायदे से तभी जाना। वह मैंगलौर में किसी होटेल के स्वीमिंग पूल में कोच था।

उसने स्वीमिंग में नेशनल मीट में हिस्सा लिया था। स्वीमिंग में डिप्लोमा उसकी योग्यता थी। जिस होटेल के स्वीमिंग पूल का वह कोच था वहाँ उसे कई जिम्मेंदारियाँ अतिरिक्त रूप से उठानी पड़ रही थीं जिससे वह खुश नहीं था और वह काम उसे रास नहीं आ रहा था। उसने बताया कि गल्फ में काम करने की उसकी इच्छा बहुत दिनों से रही है। मैंने उसे बताया कि यह मेरा सपना कभी नहीं रहा। अबूधाबी इण्डियन स्कूल की प्रबंधन समिति के एक प्रभावी सदस्य के माध्यम से उसकी नियुक्ति हुई थी। मैंने अपनी आत्मकथा के पहले ही अध्याय में लिखा है कि योग्यता को सर्वोपरि मानने के बाद भी मैं रिश्तों और वास्तों की अहमियत से इंकार नहीं करता। मेरी नौकरियाँ अबूधाबी इण्डियन स्कूल में ही नहीं, जितनी भी मिलीं, उन सबमें रिश्तों और वास्तों का हाथ रहा। हालाँकि, शैक्षणिक योग्यता उन सभी पदों के लिये पर्याप्त थी। शैक्षणिक योग्यता बहुतों के पास रही होगी मगर उनके पास रिश्ते और वास्ते नहीं रहे होंगे लेकिन इसी के साथ एक सच यह भी है कि मैंने विजय कौल को ऐसी भी नियुक्तियाँ करते देखा है जो रिश्तों को भूलकर उसने कीं। और, फिर ऐसी भी नियुक्तियाँ उसने कीं जो केवल रिश्ते निभाने के लिये की गईं। अधिकारी को सब माफ है... बॉस इज ऑलवेज राइट...
मैं एयरपोर्ट के भीतर इमीग्रेशन के उस पार बंगेरा के साथ था जहाँ दुनिया निराली थी और उस दुनिया में हम दोनों मिसफिट थे। भौंचक सुबह के आलम में वैसी चकाचौंध और हक्का–बक्का होने की स्थिति से हम दोनों पहले कभी नहीं गुजरे थे। आधे नंगे विदेशी जोड़े थे जो एक–दूसरे को समय–असमय चूम लेते थे और मेरे भीतर उत्तेजना के साथ कुण्ठा बढ़ा देते थे। पता नहीं कि बंगेरा का क्या हाल था मगर मुझे लगता रहा कि साला अपना जीवन नैतिकताओं की रक्षा में हर आनंद से वंचित रह गया... हालाँकि, सचाई यह है कि जीवन के आनंद के किसी कोने से मैं कभी वंचित नहीं रहा। प्राप्य हमेशा के लिये न मिला तो न सही मगर मिला तो जरूर। चाहे पल भर के लिये या फिर घड़ी की सुइयों को बंद करके जो पल भर के लिये मिला वह जिन्दगी भर के लिये वह पूँजी बन गया जिसे सहेजने में मैं खुद लड़खड़ा रहा हूँ... और, जो घड़ी की बंद सुइयों के बीच मिला वह तो हर पल उद्वेलित किए ही रहता है...एक रचनाकार के भीतर छिपी जल्दबाजी को उसके इसी उद्वेलन से सही ढंग से समझा जा सकता है।

विदेशियों को भारतीय ऐसे देख रहे थे जैसे कि उनके लिये वे अजूबा हों और विदेशियों को भारतीयों की रत्ती–भर परवाह नहीं थी। वे अपनी दुनिया में थे। आज उसी दुनिया की नकल करते–करते हिन्दुस्तान के युवक–युवतियों ने उसे सहजता से अपना लिया है। युवतियों की नाभि दिखाती छवियाँ आम हैं...आजकल तो नाभि में छल्ले भी गूँथे होते हैं। नकबुल्ली की तरह। चुम्बन लेते जोड़े सरेआम कहीं भी देखे जा सकते हैं। हिन्दुस्तान में कुछ सरकारें तो जगह भी मुहैया करा रही हैं। मेरी जवानी और मेरी मोहब्बत के समय ये क्रांतिकारी लोग कहाँ थे, पता नहीं?

मैं कानपुर के माल रोड पर घूमता हुआ बड़ा हुआ होता तो विदेशी जोड़े शायद दिखे भी होते। लेकिन मैं तो कस्बाई परिवेश में बड़ा हुआ और वह इलाका ऐसा भी नहीं था कि ऐतिहासिक दृष्टि से पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र होता। गैंगटोक में प्रेमी जोड़े दिखते थे और, वे एक–दूसरे को सरेआम चूम भी लेते थे। मेरे लिये एयरपोर्ट पर पहली बार देखे इस तरह के दृश्य बहुत नए नहीं थे।

लाउंज में बंगेरा के साथ बैठा हुआ आवेशित–सा मैं फ्लॉइट के लिये जहाज में बोर्ड होने की प्रतीक्षा कर रहा था। हमने अपने बोर्डिंग कॉर्ड चेक किए। हमारी सीट एक–दूसरे से दूर थी। बंगेरा ने नॉन स्मोकिंग जोन में सीट ली थी।

फ्लॉइट में बोर्ड होने की पुकार हुई और लाउंज में बैठे यात्रियों में गतिशीलता आ गई। एक बार फिर चेकिंग से गुजरना हुआ। मेटल डिटेक्टर से...
उसके बाद प्रवेश–द्वार से भीतर जाने के बाद जो गलियारा था वह सीधे हवाई जहाज के भीतर ले गया। इस अनुभव से पहले मैंने हवाई जहाज में प्रवेश के जो दृश्य फिल्मों में देखे थे उनमें लोग सीढ़ियों से चढ़ते दिखे थे। एयर इण्डिया का वह जहाज जम्बो था जिसके भीतर पहुँचकर उसकी विशालता का एहसास इस डर के साथ भीतर तक समाता गया कि आखिर यह उड़ेगा कैसे? जमीन से गिद्ध के बराबर दिखने वाला जहाज क्या इतना बड़ा होता है? पूरे जहाज को आगे से लेकर उसकी पूँछ तक देखना बेहद डराऊ लगा। एक–एक पंक्ति में आठ–आठ सीटें थीं और पचास से कम पंक्तियाँ भी नहीं थीं। यानी कि चार–सौ के करीब यात्री। उनका सामान। उनके हैण्ड बैगेज और जहाज का अपना वजन...उसके बाद ईंधन...
हिन्दुस्तान में एक छोटे–मोटे गाँव की आबादी...
मुझे अपना गाँव याद आया।

उन दिनों मेरे गाँव की आबादी पाँच–सौ के आस–पास थी।
मुझसे सात–आठ मीटर पीछे बंगेरा की सीट थी। वह अपनी सीट पर जम गया था। उसके पास हवाई यात्राओं के सुने–सुनाए अनुभव थे मगर मुझे तो मर कर ही स्वर्ग देखना था। मेरा दिल सचमुच ही डर गया और काँपने लगा कि चैन से जीते रहने और अखबार की नौकरी करते रहने के बावजूद विदेश जाने का वह कीड़ा क्यों घूम गया जिसमें इतने खतरे थे। एयर हॉस्टेस बेल्ट न बाँधती तो उसे दोनों हाथों से कसकर पकड़े हुए ही बैठना पड़ता।

दस मिनट से भी कम समय में कॉकपिट से उड़ान भरने की सूचना स्पीकरों के माध्यम से सुनाई दी। पता चला कि बाम्बे से अबूधाबी की दूरी दो घण्टे चालीस मिनट में पूरी की जाएगी। जहाज लगभग ३७००० फिट की ऊँचाई पर उड़ेगा। रफ्तार ८०० मील प्रति घण्टा होगी...
पहली बार पता चला कि दूरी अब किलोमीटर में नहीं बल्कि समय में नापी जाने लगी है। इस घोषणा के बाद टी॰ वी॰ स्क्रीन पर एक एयर हॉस्टेस की छवि दिखाई दी जो रिकॉर्डेड वॉयस पर यह बताने लगी कि यदि जहाज को एमरजेंसी में पानी पर उतरना पड़ा तो क्या–क्या करना होगा...

उन दृश्यों को देखते हुए मैंने अपने कान बंद कर लिये और बजरंगबली को याद किया।
मैं बहुत धर्मभीरू या धार्मिक नहीं हूँ। मगर कह नहीं सकता कि जबसे बीवी और बच्चे हो गए हैं तबसे ऐसे मौकों पर मुझे भगवान की याद क्यों आती है? मैं कहीं लिख चुका हूँ कि मेरा खुदा मेरी जवानी में ही तब मर गया जब वह खुद जवान था। क्या मैं अब मतलबपरस्त हो गया हूँ? क्या इबादतगाहों में जाने वाले सभी लोग मतलबपरस्त हैं? क्या सचमुच भगवान की याद उन्हीं क्षणों में आती है जब कोई सहारा नहीं बचता? जहाज रेंगने लगा था उड़ान से पहले...

और मैं अपनी दुनिया को याद करते हुए यह सोच रहा था कि काश! अब भी उतर जाता और कानपुर पहुँच जाता। जो अपमान होता वह होता मगर...
अगर यह जहाज पानी पर उतरा तो, मुझे तो तैरना भी नहीं आता जबकि मैं नदी के किनारे बसे गाँव का रहनेवाला हूँ... हाँ, बंगेरा की बात और है, वह तो स्वीमिंग कोच है। 

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