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आत्मकथा (सोलहवाँ भाग)

   — कृष्ण बिहारी

 

शील सा’ब से बदलते रिश्ते


मैंने कहा है न कि शील सा’ब का व्यक्तित्व न तो इकहरा था न दुहरा। उसे तिहरा, चौहरा कुछ भी नाम दिया जा सकता है। बहुत खामोश रहते थे। बहुत बोलते थे। बोलते समय अपने ही तर्क देते। चाहे वे तर्क दमदार या बेदम ही क्यों न होते। अपनी बात कहे बिना न तो मानते थे और न रुक सकते थे। स्टाफ मीटिंग में जरूर उठ खड़े होते और विजय उन्हें बैठ जाने को कहता तो भी वे जो चाहते, बोल जाते। दोनों मे छत्तीस का आँकड़ा था। असल में वे चाहते थे कि उनका ‘नोटिस’ लिया जाए।

मेरे साथ उन्होंने पहला काम यह किया कि स्कूल से हर वर्ष निकलने वाली पत्रिका के संपादन का दायित्व यह कहते हुए थमा दिया, “आप अखबार की दुनिया से आए हैं, पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हैं, अब यह दायित्व सँभालिये, मैं बहुत दिन कर चुका”

सन १९८१ से ८५ तक वे पत्रिका के हिन्दी-विभाग के मुख्य संपादक थे। ८१ से पहले या शायद ८२ में भी जब पत्रिका निकली थी तो ‘हिन्दी-विभाग’ की सामग्री अच्छे सुलेख में लिखी गई थी। जब तक हिन्दी सेक्शन हाथ से लिखा प्रकाशित हुआ उसे श्रीमती दमानी ने जो बालिकाओं को हिन्दी पढ़ाती थीं, लिखा था। शील सा’ब जब आए तो, उन्होंने सुझाव दिया कि हिन्दी सेक्शन भी यदि टाइप किया हुआ छपे तो पत्रिका और सुन्दर दिखेगी। प्रस्ताव कतई आपात्तिजनक नहीं था अन्यथा विजय किसी के प्रस्ताव को स्वीकार ले यह उसके स्वभाव में नहीं। शायद यह हर बॉस का स्वभाव हो जाता है। मैं समझता हूँ कि शील सा’ब अगली छुट्टियों में ही हिन्दी में काम करने के लिये टाइप-राइटर लाए होंगे। पत्रिका के लिये हिन्दी की सामग्री को टाइप करने के लिये स्कूल उन्हें ५०० दिरहम देता था। जाहिर था कि स्कूल के छात्र-छात्राओं से जबरन लिखवाई गई सामग्री को ठीक-ठाक करने का बोझिल काम शील सा’ब ने मुझे सौंप दिया। मुख्य संपादक की जगह नाम भी मेरा प्रस्तावित कर दिया मगर सामग्री को टाइप करने का यानी पैसा हथियाने का काम अपने ही पास रखा।

मैंने विजय से कहा कि यदि वह राजी हो तो हिन्दी सेक्शन का सारा काम मैं अपने किसी मित्र के माध्यम से हिन्दुस्तान से ही कंपोज करा के मँगवा लूँगा। यदि उसे कुछ पैसे लगभग दो हजार भारतीय रूपये भी दिये जाएँ जो कि स्कूल के लिये बड़ी रकम नहीं है तो वह मन से बहुत अच्छा काम करा कर भेजेगा। विजय को यह आपत्ति थी कि अगर सामग्री भारत आते-जाते खो गई या कहीं समय से न मिली तो पत्रिका कैसे निकल पाएगी। मैंने उसे बताया कि सामग्री की एक फोटो कॉपी अपने पास रखूँगा। अव्वल तो कोई नकारात्मक बात होगी नहीं और यदि कुछ ऐसा हुआ तो हम उसे शील सा’ब से यहीं करा लेंगे।

उन दिनों मैं नया नया था। विजय से पुरानी दोस्ती थी। एक विश्वास था जो उससे पहले टूटा नहीं था। वह मान गया। मैंने अपने एक मित्र को जो एक माह के अवकाश पर भारत जा रहा था उसे हिन्दी विभाग से संबंधित सामग्री की ‘डमी’ बनाकर दी और ताकीद किया कि इसे ऐसे ही छपना है। किसी से काम कराकर वापसी में लेता आए। मुझे यह कहते हुए संतोष का अनुभव होता है कि जितना अच्छा ‘हिन्दी सेक्शन' उस वर्ष पत्रिका में प्रकाशित हुआ उतना सुन्दर फिर कभी नहीं दिखा। भले ही अब कम्प्यूटर प्रिंट आउट से पत्रिका छप रही है और कम्प्यूटर पर भी मैं ही काम कर रहा हूँ। कुल ४१० दिरहम का खर्च आया था जिसका भुगतान मैंने उस मित्र को कर दिया जिसने हिन्दी की सामग्री को भारत में कंपोज कराया था। जब विजय को बिल दिखाते हुए बताया कि यह खर्च आया है तो उसने तुरंत कैलकुलेटर उठाया और उस पर न जाने क्या गुणा-भाग करके मुझे बताया कि आज की तारीख में इस समय करेंसी का जो रेट है उसके हिसाब से मात्र ४०० दिरहम ही हुए। उसने मुझे ४०० दिरहम ही दिये। जबकि सुबह ही मैंने ४१० दिरहम का भुगतान किया था। मैं अवाक-सा उसका मुँह देखता रह गया। 

सवाल १० दिरहम का नहीं था। सवाल एक आदमी को मित्र के बाद प्रधानाचार्य की कुर्सी पर बैठने के बाद व्यावसायिक हो चुके देखने का था। विजय ने उस आदमी के बारे में भी एक बार नहीं पूछा जिसने हिन्दुस्तान के किसी शहर में पत्रिका के लिये अपने सैकड़ों घण्टे होम करके प्रूफ और छपाई का काम देखा था। उसे पैसे देने का सवाल तो विजय के दिमाग में कभी उठा ही नहीं। विजय के इस रूप से मेरा परिचय पहली बार हुआ था। गोकि, अशोक ने पहले ही कहा था कि अब विजय वह विजय नहीं रहा जो टी.एन.ए. में साथ था।

मुझे अंग्रेजी और हिन्दी की टायपिंग आती थी मगर मैं उसे भूल चुका था। विज्ञान विषय के साथ जब मैं इण्टरमीडिएट की परीक्षा में दो बार जानबूझकर फेल हुआ तो पिता ने पढ़ाई ही बंद करा दी। यह तय हुआ कि मैं टायपिंग सीखूँ और कहीं लिपिक के पद पर लग जाऊँ। मन मारकर मैंने टायपिंग सीखनी शुरू की लेकिन जिस काम में मन न हो वह सही ढंग से सीखा भी नहीं जाता। चार वर्ष तक टायपिंग सीखने के बावजूद मेरी स्पीड पचीस शब्द प्रति मिनट से अधिक न हो पाई और उस दौरान नौकरियों के लिये मैंने जो भी टेस्ट दिये सबमें फेल हुआ। टायपिंग सीखने के शुरू के दिनों में ही इन्स्टीच्यूट के इन्स्ट्रक्टर अरविन्द सिन्हा से मित्रता-सी हो गई। मैंने उनसे कहा कि आगे पढ़ना चाहता हूँ। मुझे टाइपराइटर की खट-खट जरा भी बरदाश्त नहीं है। हर छह घण्टे पर एनासिन लेते हुए जीना मुझे कतई पसंद नहीं। उन्होंने चालीस रूपये की मदद की और मैंने व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में इण्टर आर्ट्स परीक्षा का फॉर्म भर दिया। छोटे बच्चों की बीस-बीस रूपयों की दो ट्यूशन पकड़ी और एक सुनिश्चित रास्ते की ओर बढ़ लिया।

अरविन्द सिन्हा की सहायता को मैं अपने जीवन की सबसे बड़ी सहायता मानता हूँ। उससे मेरा जीवन बदल गया और मैं लिपिक होने से बच गया। टायपिंग में स्पीड भले ही आवश्यकतानुसार नहीं हो पाई लेकिन मैं सीख तो गया ही था। फिर भी शील सा’ब से टाइपराइटर माँगना न तो मुझे गवारा था और न उसपर बैठना था। बाद में पता चला कि स्कूल में हिन्दी टाइपराइटर था जो रखे-रखे धूल और जंग खा रहा था। आगामी वर्षों में जबतक शील सा’ब स्कूल में रहे तब तक पत्रिका के हिदी सेक्शन को उन्होंने ही टाइप किया। यह भी कैसा संयोग है कि मुझे टाइपराइटर पर बैठना ही पड़ा और वह भी उस टाइपराइटर पर जो शील सा’ब ने मुझे दिया। खैर...

मैं भी अपनी तरफ से उस आदमी को अब तक कुछ नहीं दे सका जिसने अपना समय लगाकर हिन्दी सेक्शन को भारत में कंपोज कराया था। असल में मैं उस व्यक्ति को जानता ही नहीं हूँ। यह कर्ज मुझपर बना हुआ है। निश्चित रूप से मैंने उसका भुगतान कर दिया होता लेकिन जिस मित्र दशरथ सिंह के माध्यम से यह काम मैंने करवाया था, उनसे मेरे पारिवारिक संबंध किसी कारण इतने खराब हो गए कि आपस में बात-चीत ही बंद हो गई और हर तरह के रिश्ते खत्म हो गए। इन रिश्तों के खत्म होने के पहले दशरथ सिंह ने मुझे १००० दिरहम की नकद सहायता तब की थी जब मैं अपने परिवार को पहली बार अबूधाबी ले आया था और उसी दिन मुझे मजबूरी में फ्रिज खरीदना पड़ गया था। दशरथ सिंह का वह कर्ज भी अब तक सिर पर लदा है। न वह माँग रहे हैं और न मैं उनसे कोई संपर्क करना चाहता हूँ।

वह अबूधाबी के ही एक हिस्से रूवैस में हैं। एक आसरा है। मैं उनके पैत्रिक घर के बहुत पास ही लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर जन्मा हूँ। हिन्दुस्तान में उनसे मेरा कोई परिचय नहीं था। मैं तीन वर्ष का ही था कि बाबूजी मुझे अपने साथ कानपुर ले आए। मेरी सारी शिक्षा कानपुर में ही हुई। गाँव हर साल गर्मियों में जाता था। गाँव के रिश्ते से मेरे एक भतीजे रामचन्द्र तिवारी उर्फ हीरा से मेरी मित्रता थी। उन्होंने ही एक पत्र के माध्यम से मेरा परिचय दशरथ सिंह से कराया जो उनके सहपाठी रह चुके थे। दशरथ सिंह मुझसे पहले से अबूधाबी के एक हिस्से रूवैश में थे जो अबूधाबी से तीन सौ किलोमीटर दूर है। हीरा हमारे परिचय के माध्यम बने। आज नहीं तो कल उनका पैसा जरूर लौटा दूँगा। हालाँकि, यह कर्ज १५ वर्ष पुराना हो गया है और मैं लगभग हर वर्ष गाँव गया हूँ। पारिवारिक जिम्मेदारियों का हर बार इतना दबाव रहा कि यह कर्ज लौटाया नहीं जा सका। एक बार शायद हीरा ने भी मुझसे कहा था कि दशरथ सिंह के भाई जो उनके ही साथ अध्यापक हैं, उन्होंने उनसे कहा था कि कृष्णबिहारी पर दशरथ सिंह के कुछ पैसे निकलते हैं। मैंने हीरा को बताया कि पैसा सचमुच निकलता है मगर वस्तुस्थिति ऐसी है। अब बताओ कि यह पैसा उन्हें कैसे लौटाऊँ। दशरथ सिंह की उस मदद के प्रति मैं हमेशा कृतज्ञ रहूँगा। उनके पैसों की कीमत उन दिनों छह हजार भारतीय रूपये रही होगी। आज वह लगभग साढ़े बारह हजार है।

मैं बिना सूद के यह कीमत उद्धृत कर रहा हूँ। मित्रता में सूद-व्याज नहीं होता।. मैं ऐसा मानता हूँ...यद्यपि मित्रता तो अब रही नहीं और न उसके सूत्र जुड़ पाने के आसार हैं। मैं बड़ा सख्त दिल इंसान हूँ जो नजर से उतर गया वो उतर गया। दशरथ सिंह चाहेंगे तो सूद-व्याज जोड़कर जो बनेगा वह भी दे दूँगा। आज जब यह प्रसंग लिख रहा हूँ तो अचानक ध्यान आ रहा है कि मेरे माध्यम से कई लोग दशरथ सिंह से परिचित हुए और मित्र हुए हैं। क्यों न उन्हीं में से किसी के माध्यम से यह कर्ज लौटा दूँ...लेकिन फिर सोचता हूँ कि लोगों को क्यों पता चलने दूँ कि किस कारण से हमारे संबंध हमेशा के लिये समाप्त हो गए।

व्यर्थ में एक निहायत व्यक्तिगत प्रसंग को सार्वजनिक करने से क्या फायदा...
एक बार उनसे शायद एयरपोर्ट पर मुलाकात हुई थी। मैंने ही आगे बढ़कर उनसे कुशल-क्षेम पूछी थी। उससे ज्यादा कोई बात नहीं हुई। संभावना ही नहीं बची थी...
विजय ने पत्रिका के संपादन में हिन्दी विभाग के लिये जो भुगतान किया उससे यह तो तय हो ही गया कि भविष्य में मैं यह काम भारत में किसी मित्र से नहीं कराऊँगा। टाइपिंग का दायित्व फिर शील सा’ब पर आ पड़ा,  
उन्हें कोई आपत्ति भी नहीं थी। काम के बदले पैसे जो मिलने थे...
मुझे पैसे भी नहीं मिलने थे और फालतू काम भी करना था।

स्टाफ में शील सा’ब से कोई स्वयं बात ही नहीं करता था। वह भी नहीं जिसको उन्होंने पहली ट्यूशन दिलवाई होती। वह खुद किसी से भी बात करने लग पड़ते थे। उनके साथ उन दिनों किसी के पारिवारिक रिश्ते भी नहीं थे क्योंकि उनके अलावा किसी शिक्षक का परिवार साथ था ही नहीं और शील सा’ब यों भी नहीं चाहते थे कि कोई उनके फ्लैट पर आए।
एक अजीबोगरीब शख्सियत...  
लेकिन उनमें परिवर्तन आया। उसी तरह जैसे एक जिद्दी आदमी में आता है,
शादी के कई वर्षों बाद...। शायद छह साल के बाद उन्हें एक पुत्री का बाप बनने का अवसर मिला। निश्चित रूप से यह मौका उनके और उनकी पत्नी संध्या के लिये अविस्मरणीय रहा होगा मगर जेण्ट्स स्टाफ के लोग शायद ही उन्हें मिलने गए होंगे।

बच्चे के परिवार में शामिल हो जाने से निश्चय ही शील सा’ब प्रसन्न-चित्त दिखने लगे। दो वर्षों के अन्दर वे दुबारा पिता बने। इस बार भी पुत्री ही पैदा हुई मगर शील सा’ब के चेहरे पर प्रसननता ही थी। ईश्वर की भी लीला विचित्र है। कहाँ तो शील सा’ब एक बच्चे के लिये छह साल तरसते रहे और कहाँ दो वर्षों में ही दो बच्चियों के बाप हो गए।
यदि माता-पिता दोनों ही काम-काजी हों तो बच्चे पिता के कुछ ज्यादा ही करीब हो जाते हैं। बेटियाँ तो वैसे भी कहावत के अनुसार पिता के करीब ज्यादा होती हैं। शील सा’ब बेटियों के बहुत करीब थे। छोटी-छोटी बच्चियों को लिये हुए वे कई जगहों पर अकेले ही देखे जा सकते थे। उनकी इच्छाओं की पूर्ति में वे कभी कोई कोताही और कंजूसी नहीं करते थे।

स्कूल में किसी की भी तकलीफ को जानने के बाद वे सीधे उसके पास पहुँच जाते और यदि मामला आर्थिक परेशानी से कुछ भी जुड़ा होता तो तुरन्त उसकी मदद कर देते। पैसा वापस मिलेगा भी या नहीं, इसकी चिन्ता उन्हें नहीं होती थी। एक प्रसंग ही उनकी इस दयानतदारी को बयान करने के लिये काफी है। स्कूल में एक बस कंडक्टर की माँ भारत में बीमार हो गई। यह समाचार जब शील सा’ब को मिला तो उन्होंने तुरन्त उसे एयर टिकिट के लिये पैसा देते हुए भारत जाकर माँ की सेवा करने की सलाह दी।..

समझ में नहीं आता कि यही आदमी कई मामलों में झक्की क्यों हो जाता था!
मार्च के महीने में स्कूल में टीचिंग लोड जब कम हो जाता था तो खाली समय में शिक्षक शतरंज खेलने बैठ जाते थे। मैंने पहले ही लिखा है कि यह खेल न तो मुझे कभी देखने में अच्छा लगा और न इसमे कभी मेरी रुचि जागी। बाम्बे में राजेश्वर परिवार को ही मैंने पहली बार दीवानगी की हद तक इस खेल में डूबे देखा था। उससे पहले प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पढ़ी थी। सत्यजित रे के निर्देशन में बनी फिल्म भी राजेन्द्र राव के साथ कानपुर के न्यू बसंत सिनेमा हॉल में देखी थी मगर खेल देखने की नीयत से नहीं बल्कि इस खेल की वजह से जो नाकारापन इनसान में जन्म लेता है उसे देखने के लिये। इस दृष्टि से कहानी भी अच्छी लगी थी और फिल्म भी। क्योंकि उसका कथ्य ही वही था। मगर जब खेल का उद्देश्य दूर की कौड़ी लाना और समय बिताना हो जाए तो वह मुझे आकर्षित करने के बदले उससे दूर अधिक करता है। स्टाफरूम में जो भी खाली होता वह तुरंत किसी दूसरे ‘खाली’ को ढूँढ़ लेता और खेल शुरू हो जाता। कभी-कभी तो तीन-तीन चेस बोर्डों पर खेलने वाले जम जाते। उनके दाएँ-बाएँ दूसरे शिक्षक भी घेरा बनाए खड़े होते जो सलाहकार की भूमिका निभाते हुए चाहते कि कब बाजी खत्म हो और कोई एक उठे या दोनों खिलाड़ी हटें तो वे जमें। मगर हारनेवाला बिना जीते उठने को तैयार न होता था। मेरे सामने उन्हें कोफ्त के साथ देखते रहने के अलावा और कोई चारा न होता था।

उन स्थितियों में मैं उन दिनों को याद करता जब दीवानगी की हद तक जुआ खेलता था। ताश के तीन पत्तों के अलावा दुनिया का अता-पता मुझे याद नहीं रहता था। लेकिन जिन्दगी में कोई क्षण कब ऐसा आ जाए कि आप अपनी दीवानगी को अलविदा कह दें, कुछ पता नहीं होता। ऐसे ही किसी पल में मैंने ताश के पत्तों को हमेशा के लिये अलविदा कह दिया...अब तो बस बराएनाम कानपुर में शायद साल-दो-साल में कभी कुछ समय के लिये दोस्तों का मन रखने के लिये बैठता जरूर हूँ मगर दिल से नहीं बैठता और सौ-दो-सौ रूपयों से ज्यादा नहीं हारता। जान-बूझकर भी हारता हूँ, दोस्त खेल में भी बार-बार याद जो दिलाते हैं... अरब से आए हो...कानपुर के दोस्तों के लिये बमुश्किल वक्त निकाल पाता हूँ। जबसे लिखने-पढ़ने की दुनिया को फैला लिया तबसे हिन्दुस्तान पहुँचने के बाद रचनाकारों से मिल पाने की कोशिश में ही सारी छुट्टियाँ निकल जाती हैं, खैर...

शील सा’ब भी शतरंज खेलते थे और किसी के साथ भी खेलते थे। उनके रिश्ते सबके साथ या तो बिल्कुल ही अपरिभाषित थे या पूरी तरह परिभाषित थे। समूचे मौन को अपनाए हुए उनका खेल चलता था। मजे की बात तब होती थी जब शील सा’ब और टी॰ ओ॰ मनी खेलते थे। होता यह था कि दोनों ही कुछ देर में यह बिल्कुल भूल जाते थे कि वे काले रंग की गोटियों से खेल रहे है या सफेद रंग की। वे अपने ही हाथी-घोड़े मारने लगते और जब कोई उन्हें बताता कि खेल में वे भयंकर भूलें कर रहे हैं तो उन्हें आश्चर्य होता था कि ऐसा कैसे हो सकता है...। मैं कभी समझ ही नहीं पाया कि पैदल, घोड़े और न जाने कौन-कौन एक फिट से कम के चौखटे पर जरा-सी देर में ही दूसरों के हाथों कैसे मर जाते हैं।

सामाजिकता के करीब आते हुए भी शील सा’ब जो दूरी अपने इर्द—गिर्द बनाए रखते थे वह अभेद्य होती थी।
उस दूरी को कम करने की कोशिश कोई दूसरा कैसे कर सकता था जब तक वह स्वयं कोई मौका नहीं देते...
वही आदमी बदल रहा था, मगर धीरे-धीरे...

स्कूल ग्राउण्ड में क्रिकेट खेलने के लिये सीमेण्ट की पिच बनी हुई थी लेकिन खेल कभी होता नहीं था। स्कूल में क्रिकेट के लिये कोई सामग्री भी नहीं थी। न केवल क्रिकेट के लिये बल्कि प्रायः सभी खेलों के लिये खेल सामग्री स्कूल में न तो उन दिनों थी और न आज है। इस मामले में यह स्कूल मुझे जितना दरिद्र दिखा उतना दूसरा कोई नहीं। बाद के अनुभवों में यह स्कूल मुझे प्रायः सभी मामलों में दरिद्र ही नहीं कंगाल भी दिखा,
बच्चे आज भी प्लेयिंग मैटीरियल अपने घर से लाते हैं, उन दिनों भी बच्चे फुटबॉल, वॉलीबॉल, बास्केट बॉल घर से ही लाते थे।
क्रिकेट की सामग्री लाना ‘ममनू’ था यानी मनाही थी।
क्या यह जानकर आश्चर्य नहीं होता कि जिस देश का खिलाड़ी सचिन तेण्डुलकर क्रिकेट की दुनिया का भगवान हो उसी देश के बच्चों के लिये विदेश में चल रहे किसी भारतीय मूल के स्कूल में क्रिकेट खेलने की मनाही हो?
यह बात बहस का मुद्दा हो सकती है...  

एक ऐसा स्कूल जिसमें लगभग चार हजार बच्चे पढ़ रहे हों उसमें एक भी म्यूजिक टीचर नहीं है। कहने को लगभग आधा दर्जन से ऊपर शिक्षक और शिक्षिकाएँ हैं जो खेल अध्यापक और अध्यापिकाओं के नाम पर नियुक्त हैं और उनके पास डी.पी.एड. वगैरह के डिप्लोमे भी हैं। एक एम.पी.एड. भी है लेकिन कोई भी स्पोर्ट्स के प्रति समर्पित नहीं दिखता। स्कूल का भाग्य ही साला ऐसी कुण्डली में है कि हर क्षेत्र में उसे प्रथम स्थान मिलता है। बच्चे खुद मेहनत करते हैं। पैरेण्ट्स उन पर पैसा खर्च करते हैं। लेकिन यह सब स्कूल स्तर पर ही है। स्कूल के सौभाग्य पर दुर्भाग्य की इससे बड़ी छाया क्या होगी कि सत्ताईस वर्षों के अपने वजूद में यह स्कूल अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तो क्या, राष्ट्रीय स्तर पर भी कोई छात्र या छात्रा नहीं दे सका जो खेल, कला, संस्कृति या विज्ञान के क्षेत्र में योगदान देकर यश पा सका हो।

ऐसे माहौल में एक दिन कुछ बच्चे किक्रेट बैट और बॉल घर से लाकर पी.टी. पीरियड में विकेट के एक स्टैण्ड में जुड़े तीन विकेट स्वीमिंग पूल के किनारे लगाकर खेल रहे थे। मैं भी शायद खाली था। उनके साथ खेलने लगा। तभी शील सा’ब भी आ गए। उन्होंने आश्चर्य से पूछा, “क्रिकेट का शौक आपको भी है?”
“हाँ...कुछ... कुछ...।” मैंने दो-चार शॉट खेले तो उन्होंने बल्ला माँग लिया और बोले, “क्रिकेट उनका प्रिय खेल है, अबूधाबी में भी वे कई क्लबों से खेलते रहे हैं लेकिन इधर साल-डेढ़ साल से उनका खेलना रूक गया है।”
उन्हें खेलते देखकर लगा कि क्रिकेट उन्होंने खेली है।
बच्चों को शायद कुछ बल मिल गया कि जब टीचर्स उनके साथ क्रिकेट खेल रहे हैं तो भला उन्हें बैट-बॉल लाने से कौन रोकेगा...

वे लगभग रोज ही लाने लगे और मेरे तथा शील सा’ब के अलावा अशोक श्रीवास्तव, एस बी डे, कर्ण सिंह, ब्रीटो, गोविन्दन, अराना, जो फरनान्डीज, वेंकट रमण, राबर्ट आदि शिक्षकों के अलावा लैब असिस्टेण्ट डिमेलो, बस कण्डक्टर अकबर और बोस्तम भी कभी-कभी दो-दो हाथ दिखाते। एलेवेन्थ और ट्वेल्थ के कुछ छात्र भी उत्साही थे।

शील सा’ब पर एक जुनून सवार हो गया। उन्होंने स्कूल की क्रिकेट टीम बना ली और खुद उसके ओव्हर ऑल इंचार्ज हो गए। एस बी डे को उन्होंने उप-कप्तान बनाया।  
अपनी ओर से ५०० दिरहम का पहला चंदा दिया। जाहिर है कि सभी अध्यापकों ने पाँच-पाँच सौ दिरहम दिये। विजय ने भी। अकबर और बोस्तम के अलावा छात्रों से उन्होंने कभी कोई पैसा नहीं लिया। देखते ही देखते स्कूल की न केवल क्रिकेट टीम हो गई बल्कि उसके पास लगभग पचास हजार रूपयों की बहुत अच्छी क्रिकेट किट हो गई।
अब तो शील सा’ब हर शुक्रवार को दूसरे क्लबों के साथ लिमिटेड ओव्हर्स २० ओवरों का वन डे मैच रखने लगे।
तब मुझे पता चला कि संयुक्त अरब अमीरात में दौ सौ से ऊपर क्रिकेट टीमें हैं।

शारजाह में आयोजित होने वाले क्रिकेट टूर्नामेण्टों ने क्रिकेट के मामले में एक अजीब-सा यूफोरिया पैदा कर रखा था।
शुरू के कुछ हफ्ते तो ठीक-ठाक गुजरे लेकिन बाद में शील सा’ब दूसरे क्लबों के कई एक खिलाड़ी लाने लगे और कहते, “इन्होंने हिन्दुस्तान में रंजी खेला है... और ये गजब के स्पिनर हैं...” होते-होते हुआ यह कि स्कूल की आधी टीम बाहर बैठी होती और आधे खिलाड़ी जो बाहरी होते वे ग्राउण्ड में होते। यह स्थिति बहुत ही दुखद होती, असल में शील सा’ब हमेशा चाहते थे कि टीम जीते मगर वे यह भूल गए थे कि स्कूल की टीम आपस में खेलने और मनोरंजन के लिये बनी है न कि यू ए ई विजेता होने के लिये...टीम विजेता हो भी नहीं सकती थी। हम लोग प्रोफेशनल खिलाड़ी नहीं थे जबकि अन्य टीमों के कई खिलाड़ी केवल खेल के बल पर ही लिये गए थे।

धीरे-धीरे दरार पड़ती और बढ़ती गई। मैंने शील सा’ब से कहा कि आखिर के बचे हुए दो-चार ओव्हरों का खिलाड़ी मैं नहीं हूँ। मैं ओपेन करना चाहता हूँ अन्यथा मुझे नहीं खेलना...
उनको चुनौती-सी लगी। मैंने दो बार ओपेनर की हैसियत से बैटिंग की और दोनों बार उच्चतम रन २९ और ५२ बनाए। रिकॉर्ड बुक में ये स्कोर दर्ज हैं।

मगर क्रिकेट का सिलसिला लंबा नहीं चला। सभी खिलाड़ियों की आपत्ति के कारण बाहरी खिलाड़ी स्कूल टीम में खेलने से प्रतिबंधित हो गए। स्कूल टीम में जो टीचर्स थे वे तीस वर्ष की अवस्था को पार कर चुके थे। कुछ तो चालीस वर्ष से भी ऊपर थे। सबके रिफलेक्सेस स्लो हो चुके थे। इस कारण से चोट लगनी भी शुरू हुई और धीरे-धीरे लगभग सभी अध्यापक चोटिल होकर खेलने से तोबा कर बैठे। मगर शील सा’ब खेलना कैसे बंद कर देते? जब टीम में शिक्षक लगभग न के बराबर रह गए तो भी शील सा’ब ने टूर्नामेण्टों में भाग लेना बंद नहीं किया...टीम की एण्ट्री फीस खुद भरते। खिलाड़ियों को अपने खर्चे पर टैक्सी में ले जाते। हार-जीत कुछ भी हो, खिलाड़ियों को अपने घर ले जाते। उनकी पत्नी भुनभुनाते हुए खाना बनाती तो वे कहते, “जुआ मैं खेलता नहीं...कोई गलत आदत मुझमें है नहीं...बस, क्रिकेट का जनून है, बताओ, क्या गलत करता हूँ मैं?” बेचारी संध्या क्या कहती? शायद अपने पति को बदलते देख वह भी खुशी-खुशी क्रिकेट टीम की आवभगत करती, पूरी-सब्जी बनाती और खिलाती।

यदि टीम जीतती तो शील सा’ब जेण्ट्स स्टॉफ को मिठाई खिलाते। होली-दीवाली पर वे अकेले ही शहर की सबसे अच्छी दूकान से मिठाई ले आते और बाँटते। बाद में अध्यापकों ने यह सोचा कि उनपर अकेले ही आर्थिक बोझ नहीं पड़ना चाहिए। तब ऐसे मौकों पर हुए खर्च में सभी हिन्दू अध्यापक अपने-अपने हिस्से का भुगतान करने लगे। बाद में ईद-बकरीद और क्रिसमस के त्योहारों के अलावा जन्मदिन, विवाह की वर्षगाँठ, नौकरी में प्रमोशन या स्थायी होने पर, पति का प्रमोशन, किसी प्रतियोगिता में बच्चे की उपलब्धि पर, पब्लिक एग्जाम में सफल होने या मेडिकल अथवा आई आई टी में चुने जाने या लॉटरी निकलने, बेटे-बेटी के विवाह या फिर परिवार में किसी बच्चे के जन्म पर, ड्रॉयविंग लाइसेंस मिलने या नई कार खरीदने पर एक परम्परा ही बन गई कि हर समुदाय के लोग न केवल अपने त्योहारों पर बल्कि अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों पर पॉर्टी देने लगे। आलम यह हो गया कि आए दिन पॉर्टी होने लगी। इन पार्टियों ने भी कई चरित्रों के असली चेहरे खोल दिये। दिल जितना बड़ा, पॉर्टी भी उसी साइज की। मजे की बात यह कि सबसे अधिक आमदनी वालों के दिल इतने छोटे कि नापते हुए मिलीमीटर बड़ा हो गया। पॉटी देने की इस परम्परा का अंत कुछ ही दिनों पहले हुआ जब प्रबंधन की ओर से आदेश आ गया कि स्कूल के वर्किंग ऑवर्स में कोई पॉर्टी—शॉर्टी का आयोजन नहीं होगा... पॉर्टी अब भी होती है मगर अब पैकेट सिस्टेम हो गया है।

मैंने तब भी सोचा था और आज भी सोचता हूँ कि जब हम भारतीय हैं तो एक- दूसरे के त्योहारों को मिलकर क्यों नहीं मना सकते। कम से कम दीवाली-ईद -क्रिसमस और वैसाखी तो साथ मिलकर मनाए जा सकते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि यह संभव नहीं है, दुनिया इक्कीसवीं सदी में भी तीन सीढ़ियाँ चार दिन पहले पार कर चुकी है मगर उन खब्तियों का क्या किया जाए जो इस दुनिया में हमेशा बने रहेंगे, मजहब उनका कोई भी हो...
मेरा सोचना ध्वस्त हो जाता है जब मैं कूढ़मगजों से मिले अनुभवों से गुजरता हूँ।
ऐसा ही एक अनुभव-
एक बच्चे की ट्यूशन मिली। कक्षा चार का बच्चा। हिन्दी में बहुत कमजोर था। असल में उसने पहले कभी हिन्दी पढ़ी ही नहीं थी। दक्षिण भारतीय और तमिलियन होने के कारण वह एक वंचित भारतीय था जो देश की राज-काज की भाषा से सर्वथा अपरिचित था। दोष बच्चे का नहीं उसके ऊपर लदे उस निजाम का था जो हर हाल में बदतमीज था।
मैंने बच्चे को कुछ महीने पढ़ाया। उसने प्रगति भी दिखाई। लेकिन परीक्षा पास करने के बाद उसने पढ़ना बंद कर दिया। मैंने इसे एक सहज घटना के रूप में लिया। ऐसा होता ही है। दो वर्ष बाद वही बच्चा फिर मेरे पास जब पढ़ने के लिये आया तो वह सब कुछ भूल चुका था जो मैंने उसे कभी पढ़ाया था। मैंने पूछा कि ऐसा कैसे हो गया तो उसने बताया कि उसकी माँ ने उसे किसी दूसरी अध्यापिका के पास भेजा था।
मैंने उससे पूछा, “तुमने मेरे पास आना क्यों बंद कर दिया?”
“सर, माय मदर टोल्ड दैट यू ऑर नॉन मुस्लिम”
मैं हतप्रभ रह गया। मैंने उस बच्चे को पढ़ाने से मना कर दिया। आज खेद हो रहा है कि बच्चे की क्या गलती थी जबकि बच्चे ने ही अपनी माँ से कहा था कि हिन्दी पढूँगा तो ‘हिन्दी सर’ से ही पढूँगा।
“तुम अपनी माँ की पसंद के शिक्षक से ही पढ़ो”
मुझे उस बच्चे को पढ़ाना चाहिए था, आई कमिटेड अ ब्लण्डर।
इनसान से ऐसी गलतियाँ हो जाती हैं। मैंने हमेशा अपने छात्र को ही प्राथमिकता दी थी न कि उसके या अपने धर्म को, लेकिन उस वक्त क्यों खोपड़ी घूम गई।
निर्वाह तो सत्य का ही होना चाहिए था।
क्रिकेट का खेल जितने उत्साह से स्कूल में शुरू हुआ था उतनी ही दयनीयता से घिसटते-घिसटते फिर हमेशा के लिये बंद हो गया।
मगर शील सा’ब खेलना कैसे बंद करते...
उन्होंने बाहर के क्लबों से खेलना जारी रखा।
स्कूल टीम लगभग चार वर्षों तक अस्तित्व में रही। कभी उसके कप्तान कर्ण सिंह हुए तो कभी ब्रीटो तो कभी एस बी डे।

लेकिन जहाँ तक मुझे याद पड़ता है स्कूल टीम सन ८७ में बनी थी मगर उसके पहले ही क्रिकेट जगत में एक ऐतिहासिक घटना हो चुकी थी। सन १९८६ में शारजाह में खेले जा रहे वन डे क्रिकेट मैच की एक सीरीज के फाइनल में पाकिस्तान के खिलाड़ी जावेद मियाँ दाद ने मैच के आखिरी ओव्हर में चेतन शर्मा की आखिरी गेंद पर छक्का मारकर मैच जीतने के साथ ही न केवल इतिहास रच दिया बल्कि भारत और दुनिया भर में फैले भारतीयों को सदमे की-सी हालत में डाल दिया। उस मैच ने यह भुलाते हुए कि इसी चेतन शर्मा ने कभी शारजाह में हैट्रिक ही नहीं अपने नाम की थी बल्कि पाँच विकेट भी लिये था, चेतन शर्मा का क्रिकेट कैरियर ही खत्म कर दिया।
खेल में हार-जीत होती है। न हो तो परिणाम कैसे निकले। रिकॉर्ड कैसे बनें। लेकिन जावेद मियाँ दाद के छक्के ने तो जैसे एक शॉट में समूचे भारतीय गौरव को धूल चटा दी। खेल, कला, साहित्य, संस्कृति सबकुछ पर जैसे स्याही पुत गई हो। लगा कि जैसे देश का मनोबल ही ध्वस्त हो गया है।
मैं अगर गलत नहीं हूँ तो शायद हर क्रिकेट प्रेमी को ही नहीं बल्कि क्रिकेट के बारे में कुछ भी जानकारी न रखने वाले को भी जावेद मियाँ दाद का सिक्सर हमेशा के लिये न भूल सकने वाली याद बनकर रह गया है।

उसके बाद से होने वाले हर क्रिकेट मैच में भारत और पाकिस्तान की टीमें जहाँ कहीं भी खेलती हैं, हमेशा दबाव में खेलती हैं। जाहिर है कि भारत पर जहाँ हार जाने की मानसिकता हावी होती है वहीं पाकिस्तान पर मैच जीत लेने की आक्रामकता सवार रहती है। पाकिस्तान टीम के अपने भी कारण हैं। वहाँ की जनता अन्य किसी भी देश से खेल में मिली हुई हार को तो स्वीकार लेती है लेकिन भारत से हुई हार का बदला वे अपने खिलाड़ियों का अपमान करके निकालते हैं। जिनको ‘हीरो’ का दर्जा देते हैं उन्हीं की हालत मुहावरे की भाषा में भंगियों से भी बदतर कर देते हैं। प्रसिद्ध कप्तान वसीम अकरम और उसके परिवार का जिस तरह पाकिस्तानी अवाम ने अपमान किया उससे और क्या निष्कर्ष निकाला जाए...

असल में लोग भावुक हो जाते हैं और उन्हें धार्मिक आधार पर या देश के बँटवारे के आधार पर खेल के दौरान भी दुश्मनी नजर आती है। वे यह भूल जाते हैं कि दोनों देशों के सभी खिलाड़ी आपस में अच्छे मित्र हैं। एक-दूसरे के सुख-दुख में भागीदारी रखते हैं। इक्का-दुक्का प्रसंगों को भुला दिया जाए तो आमतौर पर खिलाड़ियों के रिश्ते बहुत सहज हैं लेकिन दोनों देशों के अवाम को शायद इसकी जानकारी नहीं और अगर है भी तो उन्हें ‘जीत’ के अलावा किसी और बात से मतलब नहीं...यदि कभी पाकिस्तानी टीम भारतीय टीम से शारजाह में हारी है तो उस शाम किसी टैक्सी में बैठने से पहले हर भारतीय इस बात की तसल्ली कर लेना चाहता है कि उसका ड्रॉइवर कोई पाकिस्तानी पठान तो नहीं है...

एक दिलचस्प बात और...
शारजाह का ही मैदान ऐसा है जहाँ भारत और पाकिस्तान के बीच हुए मुकाबलों में भारत को सर्वाधिक हार का उपहार मिला है। अम्पायरों पर आरोप लगते रहे हैं। कपिलदेव ने भी कभी कहा था कि भारत को शारजाह में नहीं खेलना चाहिए...
कुछ ऐसा वातावरण बनता गया कि सचमुच दोनों देशों ने एक-दूसरे की जमीन पर खेलने से साफ-साफ मना कर दिया। जब भी दोनों देशों की टीमें आमने-सामने हुईं तो किसी अन्य देश में ही। आज समाचारों में सुना कि १४ वर्षों के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच फिर से क्रिकेट के रिश्ते बहाल हो रहे हैं। भारतीय टीम १ मार्च २००४ को पाकिस्तान दौरे पर जाएगी शील सा’ब के क्रिकेट प्रेम ने ही इतनी बातें लिखवाईं। हालाँकि, मुझे लिखना उन बातों को था जो क्रम से चल रही थीं लेकिन बात चूँकि शील सा’ब जैसे विचित्र और अद्भुत् चरित्र की होने लगी तो मैंने सोचा कि उस व्यक्तित्व से संबंधित कोई पक्ष अछूता न रह जाए...

सन १९८८ में मैंने पत्नी और बच्चों को अपने पास लाना चाहा। रेजिडेंस वीजा के लिये आवेदन जमा करते समय यह प्रमाण-पत्र भी देना होता है कि आप फ्लैट ओनर हैं। यानी कि आपके पास परिवार को रखने के लिये जगह और छत है। पता नहीं क्यों निजाम लोगों को झूठ बोलने के लिये उकसाता और प्रेरित करता है। यू ए ई में कौन नहीं जानता कि जिसे कंपनी या सरकार द्वारा फ्लैट न मिला हो उसके लिये अकेले फ्लैट ले पाना, ले पाना मतलब साल भर के लिये किराए पर ले पाना भी स्वर्ग में सीढ़ी लगाने जैसा असंभव काम है। टू बेडरूम फ्लैट में शेयरिंग में तीन-तीन परिवारों को अबतक रहते देख रहा हूँ जबकि आज चार जनवरी २००४ है और किराए कुछ कम हो गए हैं लेकिन सन ८८ या उससे पहले तो बड़ी बदतर स्थिति थी, खैर... मुझे भी बिना टेनेंसी कांट्रैक्ट के वीजा के लिये आवेदन कर पाने की समस्या थी। शील सा’ब को जब पता चला तो उन्होंने अपने फ्लैट के नवीनीकरण के लिये कांट्रैक्ट मेरे नाम से बनवा दिया। छह महीने के किराए की धनराशि उन्होंने मेरे अकाउण्ट में जमा कराई और मेरा चेक फ्लैट ओनर को देकर टेनेंसी काण्ट्रैक्ट मेरे नाम का बनवाकर मुझे दे दिया।

मुझे कभी-कभी ताज्जुब होता है कि जिस आदमी ने मेरी ज्वायनिंग के पहले दिन ही मेरी रात खराब कर दी थी वही आदमी जिन्दगी में इस कदर कैसे शामिल होता गया कि न केवल मैं उसकी इज्जत करने लगा बल्कि वह खुद भी मेरा सम्मान करने लगा।
कभी-कभी कुछ रिश्तों की सघनता को नापने का न तो कोई पैमाना होता है और न ग्रॉफ...
शील सा’ब ने जो टेनेंसी काण्ट्रैक्ट मुझे बनवाकर दिया था उसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ी। मेरी पत्नी और बच्चों का वीजा मेरे निजी संपर्कों की वजह से मिल गया। मैंने अपनी आत्मकथा की शुरुआत में ही लिखा है कि ‘वास्तों’ में मेरा बहुत यकीन कभी नहीं रहा लेकिन जबतक दुनिया है तबतक वास्ते रहेंगे...वीजा पाने की नाकामियों के बीच निहायत आकस्मिक रूप से मुझे वीजा मिल गया। अचानक एक वास्ते की वजह से ही। इस प्रसंग को समय आने पर लिखूँगा।

सन १९९० में अप्रैल के आखिरी हफ्ते में ईद की छुट्टियाँ चल रही थीं। २६ तारीख थी। वक्त यही कोई साढ़े बारह का था। मैं व्हिस्की का एक पेग बनाकर बस घूँट भरने वाला ही था कि स्कूल से मोहम्मद का फोन आया, “सर, कानपुर से एक टेलीग्राम आया है, प्रिंसिपल को दिखाया तो उन्होंने कहा कि मेसेज दे दो”
तबियत झनझना गई। उन दिनों फोन की सुविधा आजकल जैसी नहीं थी और मिडिल क्लास परिवारों में तार सुखद समाचार लेकर नहीं आते थे।
“पढ़ो, क्या लिखा है?”
“फादर सीरियस...कम सून”
तार छोटे भाई ने किया था। यक-ब-यक जिन्दगी का परिदृश्य ही बदल गया,
मैंने अपने मित्र प्रदीप सिंह के घर कानपुर फोन किया। उन दिनों मित्रों में उसके घर पर ही फोन था और बहुत पुराने पारिवारिक संबंध होने के कारण यह विश्वास भी था कि मेरे घर का सही समाचार इसी परिवार से मिल सकता है।
फोन से पता चला कि बाबूजी को लिवर कैंसर हो गया है और आखिरी स्टेज में पहुँच गया है। मैं क्या कोई भी व्यक्ति जो मेरे बाबूजी को जानता होगा उसे कभी यकीन नहीं आ सकता था कि एक संयमित जीवन जीने वाले को ऐसा कुछ हुआ होगा...पिता ने कभी नशा-पानी नहीं छुआ था।

मेरे खानदान में तबतक मेरे सिवा किसी ने शराब-सिगरेट को हाथ नहीं लगाया था। इधर एक साल पहले अपने सबसे छोटे साले से सुना कि मेरा सबसे छोटा भाई बहुत पीने लगा है। मैंने सबसे पहला काम भाई को फोन करने का किया कि अगर यह सच है तो यह हरकत बंद होनी चाहिए।

इस वर्ष उससे मिलते ही पहला सवाल भी यही किया कि शराब का क्या हुआ?
जो उसने बताया और जो कुछ उसके दोस्तों से पता चला वह यह कि उसने शराब छोड़ दी है। मेरे साथ वह कई दिन रहा भी मगर उसे शराब पिए मैंने नहीं देखा। डॉक्टरों की राय है कि उसे शराब को हाथ भी नहीं लगाना है। भाई शराब नहीं पीता था। उत्तर प्रदेश का अच्छा एथिलीट था। तैराकी का शौकीन भी। छह फुटा जवान। स्वास्थ्य और शरीर के प्रति स्कूली जीवन से ही सजग भी। मैंने अपने होश में अपने परिवार में उससे स्वस्थ अबतक किसी को नहीं देखा। ईश्वर उसे मेरी बुरी नजर से बचाए। पिता जीवन भर बहुत स्वस्थ रहे सिवाय जीवन के आखिरी एक माह को छोड़कर। मगर भाग्य क्या सबको सुख ही देता है। भाई की शादी गलत हो गई। पत्नी के रूप में जो जीवन-साथिन उसे मिली, उसने पहले तो संयुक्त परिवार का जीवन बरबाद किया फिर अपना जीवन बरबाद किया। १९९९ से मायके में पड़ी है, दहेज उत्पीड़न का आरोप लगाकर चली गई। उसके माता-पिता और भाइयों ने भी उसका मन बढ़ाया। फल यह हुआ कि हँसने-मुस्कराने और हर तरह से बेफिक्र रहने वाले एक नौजवान का जीवन नष्ट हो गया। कुण्डली मिलाने के बाद शादी हुई थी, क्या मिला... मेरे शब्दों में ‘घण्टा’ मिला। मैंने भाई से कहा है कि वह अपनी शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिये स्वतंत्र है। किसी भी स्त्री के साथ रहे या विवाह भी कर ले तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं। लेकिन अबतक उसने शादी नहीं की है, शायद अब करेगा भी नहीं। कभी-कभी एक तिक्त अनुभव जिन्दगी पर भारी पड़ जाता है, हालाँकि, ऐसा होना नहीं चाहिए। एक प्रयोग के असफल होने पर प्रयोगशालाएँ बंद नहीं की जातीं। जिन्दगी की प्रयोगशाला तो वैसे भी नहीं।

दुर्भाग्य यह भी कि कहने के लिये वह एक बच्ची का बाप भी है जबकि उसकी पत्नी यह भी आरोप लगा चुकी है कि उसका पति नपुंसक भी है। ससुराल पर आरोप लगाने वाली बदतमीज लड़कियाँ यह आरोप जरूर लगाती हैं। मैंने अपने कई मित्रों को दहेज अधिनियम की क्रूरता का शिकार होते देखा है जो अपने बेटों की शादी के बाद नारकीय यातनाओं से गुजरे हैं। राकेश बाजपेयी और रामचन्द्र ‘नेमी’ अपनी बहुओं की जिस क्रूरता का शिकार हुए हैं उसे याद करके दिल दहल जाता है। दहेज अधिनियम और हरिजन विरोधी ऐक्ट बंदर के हाथ में उस्तरा बन गया है। सरकार को चाहिए कि अपनी बुद्धि का सदुपयोग करके इस विधेयक में सुधार करके इतना हक तो लड़के वालों को दे कि वे अपना पक्ष भी गिरफ्तारी से पहले रख सकें, लेकिन यहाँ तो पूरे परिवार...यहाँ तक कि कुत्ते-बिल्ली और उस तोते तक की गिरफ्तारी के लिये गैर जमानती वारण्ट है जो उस परिवार में पल रहा हो जिसमें आई कोई हरामजादी नव-वधू थाने पहुँचकर दहेज उत्पीड़न का झूठा आरोप ही लगा दे।

मेरा परिवार इन यातनाओं से जल्दी निजात पा गया और कोई मुकदमा भी नहीं चला। अब तो भाई की शादी के सात साल भी निकल गए। यातनाओं से निजात भी भाई की वजह से मिली। यदि भाई ने साहस का परिचय न दिया होता और अगर वह भी घर के सभी लोगों की तरह सामाजिक लोक-लाज के कारण खामोश होता तो हमारे घर के हर सदस्य का -माँ से अविवाहित बहन तक, अब तक आए दिन सार्वजनिक रूप से अपमान होता रहता। लेकिन छोटे भाई के एक वाक्य ने उसकी ससुराल के लोगों को सीधा कर दिया। उससे मिलने उसकी ससुराल के गुण्डे लखनऊ में वहाँ पहुँच गए जहाँ वह तेरह वर्षों से अपने बल पर रहा था। भाई ने उन सबसे कहा था, “लखनऊ से तुम सबको जिन्दा वापस जाने दे रहा हूँ, यह मेरी शराफत है, मुकदमा दर्ज कराओ और हमारे परिवार के सभी निर्दोष सदस्यों को गैर जमानती वारण्ट के तहत गिरफ्तार कराओ...मगर याद रखना कि जिस दिन छूटूँगा उस दिन तुम्हारे घर में किसी को जीवित नहीं छोड़ूँगा जो लाशों को श्मशान तक ले जाए...पुलिस ही सबपर मिट्टी का तेल छिड़ककर एक साथ अंतिम संस्कार करेगी।”

वो दिन और आज का दिन हमारे दरवाजे पर भाई के ससुराली गुण्डे फिर नहीं आए वरना हर हफ्ते दरवाजे पर आकर गाली-गलौज कर जाना सामान्य बात हो गई थी...
भाई ने शराब को शायद कमजोर क्षणों में सहारा बना लिया।
मगर मैं भाई को ही नहीं दुनिया में किसी को भी अपनी तरह कमजोर नहीं देख सकता।
मैं कभी नहीं चाहूँगा कि कोई कमजोरी के क्षणों में हिम्मत हार बैठे और शराबी बने...
पिता की बीमारी के बारे में जानकर मैं लड़खड़ा उठा।
मैंने सीधे स्कूल के लिये टैक्सी पकड़ी कि प्रिंसिपल से पॉसपोर्ट ले सकूँ।  इस बीच पत्नी ने अशोक और मेरे एकाध मित्रों को फोन कर दिया। जब मैं पॉसपोर्ट लेकर लौटा तो फ्लैट पर कई सहयोगी अध्यापकों के साथ शील सा’ब भी थे। उन्होंने रात की फ्लाइट से टिकिट की बुकिंग भी करा दी थी और जरूरत भर के पैसे लेकर भी आए थे। अन्य मित्र भी मेरी भरपूर सहायता के साथ खड़े थे। उन सबमें किसी को यह कहाँ पता था कि जिस पिता की बीमारी के बारे में सुनने के बाद से ही मैं विचलित और घबरा उठा हूँ उस पिता से मेरे संबंध कितने रूखे थे।

अपनी एक कहानी ‘अनचाहा सफर’ में मैंने अपने और पिता के रिश्ते को जिस तरह लिखा है उस यातना को हम दोनों ने सीमाओं के पार तक भुगता है। पिता मेरे दुश्मन नहीं थे। बस, हर वक्त पिता थे। कभी दोस्त नहीं हो सके।
असाध्य बीमारी के कारण उन्हें बचना नहीं था और वे बचे भी नहीं। मैं कानपुर से जब वापस लौटा तो फिर शील सा’ब मेरे सामने थे। निःशब्द...
शील सा’ब में ये परिवर्तन हो रहे थे मगर इन सबके बावजूद हर कोई उन्हें कोई अपने करीब आने देने से बचता था।
उनके बारे में कोई भी इसके अलावा कुछ नहीं जानता था कि वे दो बच्चियों के बाप और हिन्दी शिक्षिका संध्या के पति हैं।
जो लोग उनके बारे में कुछ अधिक जानते थे वे उनके कुछ गुणों-दुर्गुणों को जानते थे...
मगर जो दुर्गुण थे उन्हें शील सा’ब अपनी कमियाँ नहीं मानते थे।
सन १९९१ में जब मैं अपनी वार्षिक छुट्टियों में कुछ पहले ही भारत से लौटा तो शील सा’ब भी स्कूल में मिल गए। उन्होंने मुझसे कहा कि उन्होंने रिजाइन कर दिया है। मस्कट में उन्हें भविष्य में उप-प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्ति के आश्वासन के साथ फिलहाल अपने विषय में सुपरवाइजर पद का ऑफर मिला है।

मैंने उन्हें समझाया कि पति-पत्नी दोनों ही अबूधाबी में हैं और एक तरह से जमे हुए हैं। ऐसे में इस तरह का निर्णय लेना कितना फायदेमंद होगा, उसपर अच्छी तरह से सोच लें। लेकिन शील सा’ब ने बताया कि ‘प्रधानाचार्य' होना उनके जीवन का वह मकसद है जो अबूधाबी में रहते हुए पूरा नहीं होगा। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि मस्कट में स्कूल उन्हें फ्री और फर्निश्ड फ्लैट, पत्नी को भी जॉब, फेमिली के लिये हर वर्ष एयर टिकिट, बच्चों की फ्री एड्यूकेशन, मेडिकल सुविधाएँ तथा पाँच ट्यूशन्स अपनी ओर से देगा। उन्होंने जो कहा था वह उन्हें लिखित में मिला था। मुझे वह ऑफर कहीं से भी बुरा नहीं लगा। हमारे स्कूल में तो यह सब तब भी सपना था और आज भी सपना है,
शील सा’ब को मिला ऑफर तो फैण्टास्टिक था।

शील सा’ब बहुत खुश थे। वह मस्कट से ही आए थे। और, फिर मस्कट ही जा रहे थे। बस, स्कूल दूसरा था। मगर था इण्डियन स्कूल ही। उनका इस्तीफा मंजूर हो गया, होना ही था। विजय उन लोगों से डरता है जो उससे ज्वलंत सवाल कर सकते हैं। और, सवाल भी वही कर सकते हैं जो ज्वॉयनिंग डेट के आधार पर उससे सीनियर हैं। मेरा अपना अनुभव कहता है कि विजय दिल से यह चाहता है कि वे लोग तो स्कूल से चले ही जाएँ जो ज्वायनिंग डेट के आधार पर उससे पहले से स्कूल में हैं। ऐसा चाहने के पीछे उसकी अपनी कमजोरियाँ हैं।

शील सा’ब चाहते थे कि उनका ‘फेयरवेल’ बहुत अच्छा हो। उन्हें भी स्कूल एसेम्बली को संबोधित करने का अवसर मिले। यह सबकुछ वे जबरदस्ती चाहते थे। ऐसा कैसे हो सकता है कि इन चीजों के लिये कोई अपनी शर्तें डिक्टेट करे। मगर शील सा’ब यह सबकुछ मेरे कंधे पर बंदूक रखकर कर रहे थे। मैं भावुक इनसान हूँ। कमजोर भी। मगर ‘टफ’ भी हूँ। स्कूल में शील सा’ब से पहले भी कुछ पुराने शिक्षकों ने स्कूल से इस्तीफा दिया था। वे सभी ईसाई थे। स्कूल के उप-प्रधानाचार्य भी ईसाई थे। जाहिर था कि कुछ अधिक लगाव के साथ उन्होंने स्कूल से जाने वाले अध्यापकों के लिये ‘फेयरवेल’ आयोजित किया था। शील सा’ब को लग रहा था कि कहीं हिन्दू होने की वजह से उन्हें उस तरह का फेयरवेल न दिया जाए जो उनसे पहले के शिक्षकों को मिल चुका था।

शील सा’ब का फेयरवेल स्कूल में भी और स्कूल के बाहर अलग से भी बहुत अच्छी तरह आयोजित किया गया। स्कूल के फिजिकल एड्यूकेशन टीचर जयपाल राज के घर में डिनर के साथ फेयरवेल पॉर्टी आयोजित हुई थी।  स्कूल में फेयरवेल पॉर्टी और शील सा’ब की एक पूरे दिन की गतिविधियों का वीडियो कैसेट मैंने अजय अशोक नामक छात्र से बनवा दिया था।

शाम को जयपाल राज के घर में होने वाली स्पेशल पॉर्टी के लिये मैंने शराब का प्रबंध भी कर दिया। शील सा’ब शराब नहीं पीते थे लेकिन और सभी लोग तो पीते थे। शराब का शौकीन होते हुए भी मैं उस पॉर्टी में शरीक नहीं हुआ।
मैं अपने स्वाभिमान की कीमत पर शराब का घूँट गले से नीचे नहीं उतार सकता...
शील सा’ब ने माँगकर ‘फेयरवेल’ लिया था।
आज के जमाने में क्या किसी से माँगकर ‘नमस्ते’ लिया जा सकता है?”
शील सा’ब आखिर मस्कट चले ही गए। बहुत सारी यादों को छोड़कर...मगर मुकद्दर...
अभी एक साल भी नहीं बीता कि उनकी दुनिया को ग्रहण लग गया।
मस्कट में दो मंदिर हैं। पता नहीं किस मंदिर में उन्होंने एक दिन प्रवचन दिया,
अगले ही दिन सी आई डी रिपोर्ट के आधार पर स्कूल के प्रिंसिपल ने उन्हें इस्तीफा देकर ओमान से निकल जाने का मित्रवत सुझाव दिया। शील सा’ब ने मुझे इस मामले के बारे में कुछ भी नहीं बताया सिवाय इसके कि वे भारत जा रहे हैं और अपना सारा सामान मेरे पते पर कॉर्गो से भेज रहे हैं। सारा घटनाक्रम मुझे बाद में पता चला।

शील सा’ब हिन्दी समर्थक थे। शील सा’ब हिन्दू समर्थक थे। मैं ऐसे समथर्कों को सह सकता हूँ मगर शील सा’ब फितरती थे और फितरती लोगों से मेरी...आत्मा सुलगती है। यदि आपको किसी मजहब से इतनी ही दुश्मनी है तो उसके घेरे में आकर नौकरी करने की क्या जरूरत है।
शील सा’ब दिल्ली चले गए सपरिवार और अपना सारा सामान मेरे पते पर भेज गए।
एक कमरे में परिवार को लेकर किसी तरह रहने वाला मैं उनकी गृहस्थी के सामान को कहाँ और कैसे रखता?
मैंने एक कमरा किराए पर लिया। सामान उसमें रखा। कुछ सामान अपने पास तो कुछ किसी दूसरे के घर में। कुली, पिक-अप और कमरे का किराया अलग..भाग-दौड़ अलग। घर में जो तनाव व्याप गया वह अलग। इसके अलावा शील सा’ब के भारत से फोन पर फोन कि इस नम्बर पर हूँ, फोन करूँ...
फोन करने पर शील सा’ब फोन रखना ही भूल जाएँ।
मेरा फोन बिल सुरसा के मुँह की तरह फैलने की जगह बढ़ता जाता...

उन्होंने फोन पर मुझसे कहा कि किसी भी तरह उन्हें अबूधाबी में या यू ए ई के किसी स्कूल में अपवाइंट कराऊँ। मेरे लिये यह काम आसान नहीं था। उन्होंने अपना बायो-डाटा और पासपोर्ट की कॉपी के अलावा जो कुछ भी जरूरी प्रमाण-पत्र थे, वे सब मेरे पास भेज दिये। मैंने अपनी सीमाओं में जहाँ तक संभव था उनकी नौकरी के लिये बात की। बात कहीं बन नहीं रही थी। कोई भी स्कूल हिन्दी के लिये वीजा देकर हिन्दुस्तान से अध्यापक या अध्यापिका लाने के लिये तैयार नहीं था। सभी किसी ऐसी अध्यापिका को नियुक्त करते और करना चाहते जो अपने पति या बाप के वीजा पर हो।

स्कूल वीजा दे इसका मतलब उनके सारे खर्चे भी दे जो फॉरेन काण्ट्रैक्ट पर देने पड़ते हैं। मसलन, दो साल में एकबार वतन जाने का टिकिट, हाउस रेण्ट, हेल्थ कॉर्ड और मेडिकल आदि के खर्च के अलावा हर तीन साल पर वीजा लगने का खर्च। भारतीय, पाकिस्तानी, बाँग्लादेशी और श्रीलंकन स्कूलों का प्रबंधन इतना कमीना है कि स्टेज से शिक्षकों को नोबल प्रोफेशन से जुड़ा बताकर सिवाय उनका खून चूसने के और कुछ उनके बारे में नहीं सोचता। उन्हें मनुष्य ही नहीं समझता तो उनकी आवश्यकताओं के बारे में क्या सोचेगा। जिस बदतर हालात में एशियन शिक्षक अपने देश में या विदेश में रह रहे हैं उस नरक के बारे में लिखना भी एक नरक को जीना है।

मैं उन शिक्षकों और शिक्षिकाओं की बात कर रहा हूँ जो सरकारी दामाद या प्रबंधन की सालियाँ नहीं हैं। मैं उनकी बात कर रहा हूँ जिनकी नौकरी पर रोज दुधारी तलवार लटकती रहती है और जिन्हें हर तरह के समझौते करने पड़ते हैं। मै यह सोचकर हैरान होता हूँ कि एशियन स्कूलों में समान योग्यता वाले अध्यापक और प्रधानाचार्य या उप-प्रधानाचार्य या मुख्याध्यापक या कि प्रबंधन से जुड़े लोगों की सुविधाओं में जमीन-आसमान या आकाश-पाताल का अंतर खाड़ी के देशों में क्यों है? और, अगर है भी तो अरबी स्कूलों में क्यों नहीं है? सरकार क्यों नहीं हस्तक्षेप करती कि यदि तुम शिक्षकों को ठीक से नहीं रख सकते, उनके साथ मनुष्यता नहीं बरत सकते तो स्कूल क्यों चला रहे हो? सरकार को ऐसे स्कूलों में ताला मार देना चाहिए। क्या कोई यकीन कर सकता है कि ऐसे-ऐसे स्कूल हैं जिनमें शिक्षक और शिक्षिकाएँ सुबह पाँच बजे से रात के बारह बजे तक अपनी...

अध्यापकीय जीवन की इस नारकीय यातना पर मैं कभी अलग से लिखूँगा...
जिस भाग्य पर सबसे कम यकीन करता हूँ., शायद वही प्रबल है...
अबूधाबी के एक स्कूल ‘शेरवुड एकेडमी’ में शील सा’ब की बड़ी इज्जत थी। मैंने पहले ही लिखा है कि वे बड़े मेहनती शिक्षक थे और उनकी यह पहचान अबूधाबी में थी। उस स्कूल ने पहले उनकी और बाद में मेरी सेवाएँ भी अपने हिन्दी शिक्षकों और शिक्षिकाओं को हिन्दी पढ़ाने और नए ढंग से ट्रेण्ड करने के लिये ली थीं जो कि दक्षिण भारतीय होते हुए भी हिन्दी पढ़ा रहे थे।

मैंने सोचा कि उनसे बात की जाए। यद्यपि स्कूल की प्रतिष्ठा शहर में तो बहुत थी मगर उसके शिक्षकों की हालत बहुत खराब थी। स्कूल लोकल अप्वाइण्टमेण्ट कम से कम करता था और हिन्दुस्तान से जिन शिक्षकों और शिक्षिकाओं को लाता था उनकी छाती पर मूँग दलता था। इन सारी दुखद बातों को जानते हुए भी मैं उस स्कूल में गया और उनके प्रबंधन से निवेदन किया कि यदि स्कूल हिन्दी-विभाग को सचमुच सुधारना चाहता है तो शील सा’ब को नियुक्त करे। हिन्दी हार्ट—बेल्ट के किसी योग्य शिक्षक की नियुक्ति करे तो स्कूल और बच्चों का भला होगा। इस काम के लिये शील सा’ब के अलावा दूसरा कौन उनके लिये उपयुक्त होगा? स्कूल शील सा’ब को नियुक्त करने पर जब राजी हो गया तो मैंने उनसे यह भी निवेदन किया कि उनका वेतन उससे कम नहीं होना चाहिए जो उन्हें अबूधाबी इण्डियन स्कूल में आखिरी महीने में मिला था।

स्कूल ने कहा कि वह बेसिक तो उन्हें नहीं दी जाएगी मगर वेतन को अन्य कई सुविधाओं से जोड़कर उस स्तर के करीब पहुँचा दिया जाएगा जो उन्हें पहले अबूधाबी में मिल चुका है। मेरे लिये यही बहुत था कि मैं उनका अपवाइण्टमेण्ट अबूधाबी में करा सका। यह खुशी दुगनी थी कि कम से कम उन्हें इस वेतन पर काम करने में कोई कुण्ठा नहीं होगी और, स्कूल ने यह आशा भी दिलाई कि जब शील सा’ब यहाँ आ जाएँगे तो उनकी पत्नी के लिये भी जो बन सकेगा, वह किया जाएगा।

मैंने शील सा’ब को यह समाचार दे दिया।

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