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आत्मकथा (पंद्रहवाँ भाग)

   — कृष्ण बिहारी

 

शील सा’ब भी क्या आदमी थे!


दोपहर सवा एक बजे जब मैं अशोक के साथ स्टाफ–रूम में पहुँचा तबतक लगभग सभी अध्यापक आ गए थे। एक तरह से अध्यापक के रूप में शुरू होने वाली मेरी दूसरी पारी का पहला दिन। मैंने मिस्टर शील के हुलिये के बारे में अशोक से जितना जान लिया था उसके आधार पर उन्हें पहचानने में कोई गलती करने का सवाल नहीं था। अन्य अध्यापकों से मिलते–जुलते मैं चोर–दृष्टि से उनकी ओर भी देख लेता था।
खूब गेहुआं गोरा रंग, कसा हुआ शरीर, औसत भारतीय कद, अवस्था यही कोई चौंतीस–पैंतीस वर्ष, घने काले बाल, बड़ी चौकन्नी आँखें, चकमक पुतलियाँ, घनी भौंहें, आरक्त तो नहीं, गुलाबी–गुलाबी ओठ जो दिखते ही बता दें कि उनपर कभी सिगरेट ने विश्राम नहीं किया, छोटी किन्तु सघन काली मूंछें, ठुड्डी पर फ्रैंच कट काली दाढ़ी, तराशी हुई सीं, पहनावे के नाम पर सफारी सूट, सामने की टेबल पर एक प्लास्टिक का थैला जो भरा–भरा दिख रहा था। व्यक्तित्व में खिंचाव के साथ एक दुराव भी दिखता था जो शायद उनकी ओढ़ी हुई विशिष्टता थी या शायद प्राकृतिक रूप से उनके विकास–क्रम में उनसे चिपकती गई थी, एक आभिजात्य झलकता था। उसके विपरीत मैं, हर तरह से, सीकिया पहलवान, कंधों तक लम्बे बेतरतीब बाल, सिगरेट से काले हुए ओठ, पान और पान–पराग से पीले और लाल हुए दांत। 

मैंने कुछ समय खुद को संभालने में लगाया और दो–एक मिनट बाद उनके पास पहुँचकर बोला, “गुरू,ऐसा भी क्या हुआ कि नाराज हो गए... ” अभी मैं अपनी बात कह पाता इससे पहले ही मिस्टर शील ने मुझे लगभग रोकते हुए कहा, “आपने कल भी मुझे ‘गुरू’ कहा और... आज फिर... गुरू कहा मुझे...मैं गुरू हूँ आपका...आप गुरू शब्द का अर्थ जानते हैं...” उनका चेहरा हर शब्द के साथ भाव बदल रहा था। अभिव्यक्ति का इतना गजब नाट्य रूपांतरण मैंंने पहले भी कई बार कई जगहों पर देखा था मगर उन सबको देखते हुए चमत्कृत हुआ था। लेकिन मिस्टर शील को देखते हुए मैं हत्प्रभ था।अप्रत्याशित रूप से नई जगह पर एक शब्द ‘गुरू’ ने मुझे उनकी निगाह और उनके सोच में हर तरह से महत्त्वहीन बना दिया था। उन्होंने आगे कहा,“ शब्द ‘गुरू’ नहीं गुरु है...आप इतना भी नहीं जानते? जब भाषा के उचित ज्ञान और सामाजिक शिष्टाचार तक से आप अपरिचित हैं तो क्या पढ़ाएँगे बच्चों को?” उनके चेहरे पर प्रश्न ही प्रश्न दिखे। इसके बावजूद कि स्टॉफरूम में सबके सामने मिस्टर शील लगभग मुझे बेइज्जत ही कर रहे थे, मैंने सामान्य दिखने की कोशिश करते हुए माहौल को हलका बनाए रखने की नीयत से कहा, “गुरू...तो मैं आपको जीवन भर कहूँगा...और रही बात शिष्टाचार की तो भाषा के साथ–साथ उसे भी आपसे ही सीखूँगा...”
“देखिये, अपनी सीमाएँ मत भूलिये... मैं पुनः आपको सचेत कर रहा हूँ... मैं किसी को अपने साथ इतना अनौपचारिक होने का अवसर नहीं देता...” मुझे लगा कि मेरे सामने एक झक्की आदमी खड़ा है जो शायद समाज से ही वंचित रहा है। मेरे लिये बड़ी अटपटी–सी स्थिति थी। मैं अपनी विनम्रता को बहुत देर तक बेइज्जत होने नहीं देता मगर मौके को बदरंग होने से बचाने के लिये मैंने उनसे मुस्कराते हुए कहा, “परेशान न हों...मैं आपकी इज्जत को बट्टा नहीं लगाऊँगा...और शील साहब, आज से आपको कभी गुरू भी नहीं कहूँगा।...” 

मिस्टर शील को जैसे पहला दौर जीत लेने का गुमान और संतोष हुआ। इसतरह के किसी खेल में चित–पट का मुझे कोई शौक न तो पहले था और न आज है। व्यक्तित्व हनन के षडयंत्री तरीकों या पर पीड़ा की सुखानुभूति से चोर–सिपाही के दांव–पेंची रिश्ते मैंने कभी नहीं सीखे। पाँच साल अध्यापन में बिताई दुनिया छोड़कर अखबार की दुनिया में लगभग दो साल रहा था। पिछले सात वर्षों में कई मौकों पर अनुभव हुआ था कि अपने नाकारापन को छिपाने के लिये लोग चरित्र हत्या का खेल खेलते हैं। मेरा नुकसान करने की कोशिशें भी लोगों ने बखूबी कीं। मेरा नुकसान हुआ भी। लेकिन जैसा कि हमेशा होता है, कि ऐसी चालाकियों से मिली खुशियाँ स्थायी नहीं होतीं वैसा ही हुआ और मेरे शुभचिन्तक दुश्मनों को बहुत जल्द अपनी उपलब्धियों से हाथ धोना पड़ा। 

जब इस एपिसोड को लिख रहा हूँ तो एकदम ताजा–ताजा भुगता एक प्रसंग याद आ गया है। दो–तीन माह पहले एक पत्रिका के संपादक का पत्र मिला। लिफाफे पर छपे प्रकाशन के नाम ने तो मुझे चौंकाया ही। पत्र ने और अधिक चौंकाया। कहानी मांगी है। तीन वर्ष पहले मैंने इसी पत्रिका को कहानी भेजी थी और जब कई महीनों के बाद फोन पर उनसे जानना चाहा कि कहानी के प्रति उनकी राय क्या है तो उन्होंने कहा कि अश्लील कहानियों के लिये उनकी पत्रिका में कोई जगह नहीं है। मैं आगे उनसे कोई बात नहीं कर सका। तकलीफ भी हुई। भविष्य में कोई भी कहानी इस पत्रिका को न भेजने की कसम भी खाई मैं आत्म सम्मान का सौदा करके कहानीकार होना नहीं चाहता। मेरे कहानीकार से कोई सौदा कर भी नहीं सकता। इसके दो कारण है। एक तो यह कि कहानियों से मेरी रोजी–रोटी नहीं चलती और दूसरा यह कि स्वाभिमान मुझे विरसे में मिला है। मेरी वह कहानी देश की प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित हुई। खैर, मैंने फोन करके उनसे पूछा कि मेरी अश्लील कहानी को अपनी पत्रिका में जगह न देने की कसम खाए संपादक ने मुझसे कहानी किस आधार पर चाही है तो उन्होंने बताया कि बिना कहानी पढ़े ही उन्होंने अपनी राय मुझे किसी के गुमराह करने पर दी थी। किसी लेखिका ने पत्रिका कार्यालय में उनसे मिलकर कहा था, “ कृष्ण बिहारी... कृष्ण बिहारी क्या लिखता है... कचरा... अश्लील...उसकी कहानियाँ...” उन्होंने आगे कहा, “पिछले तीन वर्षों में मैंने विभिन्न पत्रिकाओं में आपकी कई कहानियाँ पढ़ी हैं...मुझे तो आपकी कहानियाँ अश्लील नहीं लगीं...कृपया, कहानी शीघ्र भेजें... अपने पिछले व्यवहार के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ...” मैंने अबतक इतना बड़ा कोई काम साहित्य में नहीं किया है कि कोई संपादक मुझसे क्षमा याचना करे। 

मेरे लिये आश्चर्य की बात यह थी कि जिस पत्रिका में अश्लीलता के आरोप में मेरी कहानी को जगह नहीं मिली थी उसी प्रकाशन की दूसरी पत्रिका ने पचीस वर्ष पहले मेरे एक लेख को कवर स्टोरी बनाकर छापा था। उस समय के हिसाब से वह सनसनीखेज लेख था।कहानी न छापने के पीछे संपादक के उस तर्क पर मैंने सोचा था कि एक प्रकाशन जो पचीस वर्ष पहले प्रगतिशील और तरक्कीपसंद रहा हो वही इक्कीसवीं सदी में दकियानूस कैसे हो सकता है। खैर, मैंने उन्हें कहानी भेज दी और वह प्रकाशित भी हो रही है। कृष्ण बिहारी तो वही है... कुछ भी तो नहीं बदला उसमें...

सच है, मैं कचरा लिखता हूँ। कचरा मुझमे है भी। लेकिन क्या करूँ ? कचरा उस समाज में भी है जिसमें मैं साँस लेता हूँ। यदि इस बदबू भरी घुटन को अपने फेफड़ों में उतारता हूँ तो दिल के बहुत करीब बसी इसी बस्ती की बातें ही तो लिखूँगा। अश्लीलता की मेरी परिभाषा भी लोगों से बहुत अलग है। मैं अपरिचित औरत के साथ भी नग्न सोने में तबतक अश्लीलता नहीं पाता जबतक वह बलात्कार न हो। मेरी दृष्टि में किसी को ठगना, धोखा देना, झूठे भरम में फंसाए रखना, दूसरे को मुर्गा या मुर्गी या फिर चूतिया बनाए रखना अश्लीलता है। मुझे कचरा बहुत सहज और सजावट बहुत कृत्रिम लगती है। अब यह मेरा दोष है कि मैं सजावटों को अपनी विषयवस्तु नहीं बना पाता। मेरे कई मित्रों ने मेरी रचनाओं को पढ़कर कहा है कि वैसा कुछ तो उन्हें कहीं भी दिखता नहीं। फिर उन्हीं मित्रों ने कुछ समय बाद कहा कि जो कुछ मैंने ‘फलां’कहानी में लिखा है वह उन्हें अपने बहुत करीब दिखा है। मैं अपने मित्रों से यह नहीं कह पाता कि जो तुम्हें देर में दिखता है वह किसी रचनाकार को पहले दिख जाता है... 

मैं उस तथाकथित लेखिका को नहीं जानता। साहित्य जगत का कोई भी नामचीन हस्ताक्षर यह कभी नहीं कह सकेगा कि कृष्ण बिहारी ने उसके बारे में उनसे एक वाक्य भी कहा हो। न तो प्रशंसा में और न निन्दा में... जब उसका कृतित्व जानता ही नहीं तो उसपर चर्चा कैसे? 

तरस उन संपादकों पर जरूर आता है जो बिना किसी तरह की जानकारी के किसी भी महिला को पलों में जानी–मानी लेखिका बना देते हैं। भले ही अगले पल वह अकाल–काल –कवलित हो जाए। हिन्दी में या किसी भी भाषा में लिखने वाली कोई भी लेखिका मेरी दोस्त नहीं है। कुछ से परिचय है। परिचय और दोस्ती का अर्थ और उसका निर्वाह मैं जानता हूँ। उसके आगे जाकर रिश्ते बनाने की कोशिश मैंने लेखिकाओं से कभी नहीं की। मैं विभागाध्यक्षों और रिसर्च गाइडों की उस मानसिकता से अपरिचित नहीं हूँ जो बॉलीवुड की तरह ही लड़कियों को सफलता के सपने दिखाते हुए ‘काउच’ तक ले जाते हैं। यह काउच हर क्षेत्र में है और साहित्य में भी है। दो–चार गीत कन्याओं को ‘प्रसाद’ में देकर बहुत से कवि जीवन भर उनका भोग लगा रहे हैं। क्या यह बात छिपी हुई है?

बात शील साहब की हो रही थी... मैं उनके पास से हट गया। कई शिक्षकों ने मुझसे जो कहा उसके अनुसार वे झक्की, खब्ती, आत्मकेन्द्रित और अपने ही खोल में बंद रहने वाले व्यक्ति हैं। बेहतर है कि उनसे कम–से–कम संबँध रखूँ... मैंने स्वयं भी निर्णय किया कि इस आदमी से खुद को दूर ही रखना है।
लेकिन क्या सोचा हुआ हमेशा हू–ब–हू वैसा हो पाता है?
उस दिन जब स्कूल में बच्चों की प्रार्थना–सभा खत्म हुई और सभी अध्यापक हॉल से वापस स्टाफरूम की ओर आ रहे थे तो शील साहब तेजी से मेरे पास आए...
“सुनिए...” उन्होंने कहा। मैं चौंका कि अब यह आदमी और क्या सुनाना चाहता है... मैंने उनके चेहरे पर नजरें गड़ा दीं...
“देखिये, मैं गल्फ में पाँच साल से हूँ...आप कल आए हैं...यहाँ आने का आपका उद्देश्य क्या है ?. पैसे कमाना...कैसे कमाएँगे? वेतन से क्या होता है...? सुनिए, मैं एक नम्बर आपको देता हूँ... नोट कीजिए... फोन कीजिए...मेरी क्लॉस का बच्चा है...उसे ट्यूशन चाहिए... मुझसे बार–बार कह रहे हैं... लेकिन...फरवरी के महीने में मैं नई ट्यूशन नहीं लेता...मार्च में एक तारीख से परीक्षाएँ हैं... फरवरी में जो लोग ट्यूशन के लिये कहते हैं वे एक तरह से रिश्वत देते हैं...ऐसी ट्यूशनें मैं कभी नहीं लेता... आप के पास समय भी है और आपको पैसा भी चाहिए... मेरी बात सुनिए, तीन सौ पचास दिरहम से कम मत लीजिएगा और...सप्ताह में केवल तीन दिन एक घण्टा... बस, पढ़ाइए और पैसे लीजिए...दो–तीन ट्यूशनें मैं और दिला दूँगा...वेतन को हाथ लगाने की जरूरत नहीं...” 

मैं मिस्टर शील के चेहरे की ओर देख रहा था और सोच रहा था कि मेरे सामने कितना दुहरा चरित्र है !
मैंंने उनसे कहा, “शील साहब...मैं यहाँ नौकरी करने आया हूँ... ट्यूशन पढ़ाने नहीं...”
“आपकी मर्जी...वैसे, अच्छा होगा कि आप उन्हें फोन कर लें और ट्यूशन आज से ही शुरू कर दें... मैं उन्हें फोन कर दूँगा...”
 वह आगे बढ़ लिये। मैंने समझा कि बात खत्म हो गई। मगर बात खत्म कहाँ हुई। बात तो बढ़ती ही चली गई और तब खत्म हुई जब सचमुच उसे खत्म नहीं होना था...

शील साहब का व्यक्तित्व दुहरा ही नहीं, तिहरा कहें, चौहरा कहें या कोई और शब्द अगर उसे विस्तार या अर्थ दे सकता हो तो वह कह लें। जो पता चला उसके अनुसार स्कूल में आए हर नए शिक्षक को पहली ट्यूशन शील साहब ने दिलवाई थी। विषय चाहे जो रहा हो। हर टीचर की जड़ शील साहब ने काटी थी। चाहे सामने ऐसा किया हो या पीठ पीछे। प्रिंसिपल विजय कौल के बाद स्कूल के शिक्षकों में मिस्टर शील ही पहले अध्यापक थे जिन्होंने अपनी पत्नी के लिये उन दिनों रेजीडेंस वीजा प्राप्त किया था जो कि स्थितियों के हिसाब से तब मिलना ही नामुमकिन था। जहाँ सभी शिक्षक स्कूल कैम्पस में रहते थे वहीं मिस्टर शील स्कूल की ओर से बिना एक पैसा हाउस अलाउंस पाए अपनी जेब से कई हजार रूपये हर महीने खर्चते हुए शहर में किसी फ्लैट में एक कमरा और किचेन सुविधा लेकर वर्षों रहे थे और जब मैं पहुँचा तब स्वयं एक तीन बेड रूम फ्लैट खुद किराए पर लेकर अपने रहनेभर की जरूरत का हिस्सा काम में लाते हुए बाकी हिस्से को एग्ज्क्यूटिव बैचलरों को किराए पर दिये हुए थे। उनकी शादी के चार वर्ष हो चुके थे मगर कोई बच्चा नहीं हुआ था। उनकी पत्नी भी स्कूल में बालिकाओं की शिफ्ट में हिन्दी अध्यापिका नियुक्त हो गई थीं। ट्यूशन, जैसा कि उनका स्वभाव था उसके अनुसार उन्हें मिलनी ही थीं। वे कमजोर बच्चों को फेल करने में यखीन करते थे। उनका मानना था कि यदि गणित और विज्ञान में बच्चे फेल होकर बाखुशी ट्यूशन पढ़ते हैं तो हिन्दी में ही क्या कमी है कि बच्चे ट्यूशन न पढ़ें ? उनका अपना तर्क था और बोदा नहीं था। हिन्दी में भी व्यापार के स्तर पर ट्यूशन थी लेकिन कोई भी छात्र या छात्रा बाखुशी नहीं पढ़ता था। हिन्दी सड़ी मछली की तरह पूरे शहर में दुर्गन्ध फैलाए हुए थी। और यह सब हिन्दी के चंद एक अध्यापक और अध्यापिकाओं की वजह से हुआ था। शिक्षा–मंत्रालय की ओर से ट्यूशन पढ़ाने की मनाही के बावजूद यह कारोबार मकड़ी के जालों की तरह जमीन के ऊपर नहीं बल्कि काफी नीचे तक अपनी जड़ें जमा चुका था। 

मिस्टर शील अपने साथ प्लास्टिक का एक बड़ा थैला अपने पास हरदम रखते थे। उस थैले में किसी न किसी कक्षा की क्लॉस वर्क की या फिर तुरंत हुए किसी टेस्ट की कांपियाँ और टेस्ट रिकॉर्ड होता था। यानी कि उनके द्वारा पढ़ाए जा रहे बच्चों की पूरी कुण्डली उनके पास हमेशा होती थी। स्टॉफरूम में भी वे कभी खाली नहीं बैठते थे। हमेशा कापियाँ चेक करते। थैला उनके साथ घर तक जाता और वापस आता था। कहने वाले मुस्कराकर कहते थे कि यदि शील साहब कभी अपनी पत्नी के साथ अंतरंग क्षणों में भी होते होंगे तो उसकी निहायत व्यक्तिगत जरूरत पर कहते होंगे, “पहले कॉपियों पर नम्बर दे लूँ फिर...। तुम्हें...।” लोग बताते कि शील साहब जितने खोंचड़ हैं उनकी पत्नी उतनी ही सुशीला और विनम्र। लोगों का कहना सही था। लड़कियों की पाली में सभी शिक्षिकाएँ मिसेज शील की प्रशंसिका थीं। मिस्टर शील का अनुमान था कि अन्य शिक्षक उनसे इसलिये जलते हैं कि वह अकेले ऐसे शिक्षक हैं जो अपनी पत्नी के साथ हैं। कुछ हद तक यह सही भी हो सकता है लेकिन यह पूरा सच नहीं था। 

एक बार मिस्टर शील बीमार पड़े। स्कूल के अध्यापक उन्हें देखने उनके फ्लैट पर पहुँचे तो वह बिफर पड़े, “ किसने बुलाया आप लोगों को ? चले आए देखने...” लोग उपेक्षित महसूस करते हुए लौट आए और भविष्य में यह तय किया कि उनके मर जाने पर भी कोई उन्हें देखने नहीं जाएगा।
लोगों के मुँह से ऐसे सच क्यों निकल जाते हैं ? मरे बैल के चाम सों लौह भसम हो जाय...मगर शील साहब को किसी की बद्दुआ नहीं लगी...
मैंने सुना कि एक बार पहले भी बीमार पड़ने पर उन्हें सेंट्रल अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था। उन दिनों स्कूल की वार्षिक परीक्षाएँ चल रही थीं। शील साहब ने अपनी कक्षाओं की कॉपियाँ प्रिंसिपल से कहकर अस्पताल में ही मँगवा कर जांचीं। लोग उन्हें खब्ती कह सकते हैं लेकिन कितने अध्यापक होंगे जो इस हद तक कत्र्तव्यपरायण हो सकते हैं। शील साहब का यह काम किसी अन्य अध्यापक को भी दिया जा सकता था और एमरजेंसी में उसे करना भी पड़ता मगर अपना काम उन्होंने खुद किया हिन्दी भाषा में उनकी जान बसती थी। हालाँकि उन्हें पढ़ने का कोई शौक नहीं था यह जानते हुए भी कि मैं हिन्दी की कई पत्रिकाओं में लिखता हूँ, वे मेरा और पत्रिकाओं की हिन्दी का मखौल उड़ाने का कोई मौका नहीं चूकते। कहते, “आप लोगों ने और ‘इन’ लोगों ने हिन्दी में उर्दू का जो घाल–मेल करने का षडयंत्र और कुचक्र चला रखा है उसका जो दुष्परिणाम होगा वह हमारी हिन्दी को खा जाएगा...यह ठीक नहीं है...आप लोग सरल हिन्दी के नाम पर भाषा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं...” आदि–आदि आरोप लगाना उनका संस्कार बन गया था। जब भी वे ‘इन लोगों’ की बात करते तो आँख से, शरीर से या जो भी माध्यम उन्हें उपयुक्त लगता उससे मुस्लिम शिक्षकों की ओर इशारा करते। वे घनघोर मुस्लिम विरोधी थे मगर यहीं यह बात समझ में नहीं आती थी कि फिर वे इस्लामिक देश में नौकरी करने क्यों आए? पहले ओमान और फिर अबूधाबी। विदेश निकलने के पहले वे मेयो कॉलेज अजमेर में काम कर चुके थे। 

मैंने मिस्टर शील के दिये फोन नम्बर पर संपर्क नहीं किया। मेरे ऐसा करने पर उन्होंने दुबारा मुझसे कहा, “ आप नहीं करेंगे तो कोई दूसरा कर लेगा...मैंने तो आपके भले के लिये ही कहा था... यहाँ पैसा कमाना ही उद्देश्य होना चाहिए...।”
पहले ही दिन मिस्टर शील ने मुझे अपनी भड़ास से परिचित कराया था और उसी दिन अपनी पहली कक्षा जो पाांचवी ‘अ’ में थी, बच्चों के साथ एक परिचय का दौर गुजारने के बाद जब मैंने उन्हें एक पाठ पढ़ाने के बाद एक शब्द ‘मकबरा’ का अर्थ ‘समाधि’ या ‘यादगार’ बताने के बाद उनसे एक वाक्य बनाने को कहा तो उत्साह में कई बच्चों ने हाथ उठाए। मुझे बहुत खुशी हुई कि बच्चों ने मेरा पढ़ाया हुआ ठीक से समझ लिया। मैंने एक बच्चे को वाक्य सुनाने के लिये खड़ा किया तो वह बोला, “अम आपका समादी बनाएगा...” उसके वाक्य ने मुझे इसतरह हिला दिया कि सिर से पाँव तक केवल सिहरन ओर कंपन ही अस्तित्व में थीं।

क्या मैं यहाँ मरने के लिये आया हूँ ? मेरा बेटा...मेरी बीवी...मेरे मां–बाप...मेरे भाई–बहन...उफ्फ... बच्चे के मुँह से निकला वाक्य क्या सचमुच सच होगा ? जो भी हो, उस बच्चे के वाक्य ने मुझे भीतर तक दहला दिया था... मैंने क्लॉस छोड़ दी। उसके बाद दिन में चार पीरियड और भी विभिन्न कक्षाओं में लेने थे। किसीतरह दिन पूरा हुआ...    

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