दुविधाओं में गिन–गिनकर गुजरे दिन...
सुबह राजेश्वर कब ऑफिस
चले गए कुछ पता ही नहीं चला। रात नींद भी ठीक से नहीं
आई थी। जब आँख खुली और घड़ी पर निगाह गई तो काँटे ९ बजा
चुके थे। अपनी हालत पर शर्म आई कि दूसरे के घर में
इतनी देर तक खटिया तोड़ रहा हूँ। संकोच भी हुआ कि न
जाने क्या सोचें ये लोग घर में सननाटा था। जाहिर था कि
बच्चे स्कूल जा चुके थे।
मैं कॉलेज के दिनों से ही सुबह देर तक सोने का आदी रहा
हूँ। उन दिनों देर रात को घर लौटता और तब पढ़ना शुरू
करता जब सारी दुनिया गहरी नींद में जा चुकी होती। पढ़ना
बंद करता तो उस वक्त लोग दिशा–मैदान के लिये जाते
दिखाई देना शुरू हो जाते। टी एन ए की नौकरी में सुबह
जब दाज्यू उठाता तो भी आठ बजे होते। फिर अखबार की
नौकरी जब मिली तो देर रात तक बाहर रहना पड़ता और तब
सुबह जल्दी उठने का कोई प्रश्न ही नहीं होता था। लेकिन
ये बातें इस बात का परदा तो नहीं हो सकतीं कि आप
स्थितियों का खयाल किए बिना कहीं भी इस तरह का आचरण
करें। श्रीमती गंगवार ने मेरे जगने की हलचल को मुझसे
पहले महसूस किया और चाय का गर्म प्याला रखते हुए
बोलीं, "खूब सोए आप..."
-हाँ, बहुत देर जगा ही रहा...सुबह से कुछ पहले आँख
लगी...
घर की याद आ रही होगी...?
यादों से पीछा कब छूटता है, उनकी बात सच थी। मुझे बहुत
कुछ याद आया था। जब पहली बार सिक्किम जा रहा था तो घर
का वातावरण मेरे बहुत प्रतिकूल था। सभी चाहते थे कि
मेरी नौकरी किसी ऐसी जगह लगे कि अर्मापुर छूट जाए।
उनका ऐसा चाहना मेरे अर्मापुर छूटने से कतई संबन्धित
नहीं था। वे चाहते थे कि मैं अपनी प्रेमिका से दूर हो
जाऊँ तो वे कुछ ऐसा करें कि वह कमजोर पड़कर किसी अन्य
से विवाह करने पर सहमति ही न दे दे बल्कि कर भी ले।
हुआ भी कुछ वैसा ही। खैर, सिक्किम जाते हुए मेरी लम्बी
ट्रेन–यात्रा में मैं उसे बहुत–बहुत याद करता रहा था।
लेकिन राजेश्वर के घर में बीती रात में मैंने उस पिता
को भी याद किया जिनसे बरसों से कोई सीधा संवाद नहीं था
फिर भी जो मुझे छोड़ने के लिये पानी की टंकी वाले
चौराहे तक रिक्शे के साथ पैदल चलते हुए आए और मेरी
मुट्ठी में छह सौ रूपये थमाकर लौट गए थे। पिता–पुत्र
में क्या इतनी दुश्मनी और इतनी चाहत होती है! यह बात
मैं अब समझ पा रहा हूँ जब मेरे बेटे बराबर के हो गए
हैं। उनके प्रश्न मुझे चौंकाते हैं। उनकी बातें मुझे
हर्ट करती हैं। मैंने भी अपने पिता को हर्ट किया...।
यह सदियों से होता आया है। वर्तमान पीढ़ी अगली पीढ़ी को
समझना ही नहीं चाहती...मैं तब नहीं जान सका जब बाप
नहीं बना था। अब जान रहा हूँ जब बाप बन गया हूँ। बेटे
बाप को बहुत तकलीफ देते हैं। युद्ध में हराने का सुख
नहीं...युद्ध में जीत जाने का दुख वरना हमारी तो
परम्परा ही रही है, पुत्रात् शिष्यात् पराजयम्... मगर
इसके बावजूद हारने का दुख बरदाश्त क्यों नहीं
होता...शायद हराने के पीछे भावना ठीक नहीं...
सचमुच मुझे रात में परिवार के हर सदस्य के चेहरे
कुहासी आँखों वाले लगते रहे। माँ–बाप, भाई–बहनों के
चेहरे। कैसे बिलगाव के क्षण उन चेहरों में थे। बीवी का
चेहरा भी। वह बहुत याद आई। कई कारणों से। बेटे अनुभव
की मासूमियत याद आती रही। और, यह भी कि पत्नी दूसरी
बार गर्भवती थी। मगर इन स्थितियों के बीच यह याद भी
उभरी कि सिक्किम जाते हुए मैंने बहुत बेचैनी में
कानपुर छोड़ा था और मुझे अपनी प्रेमिका की याद शिद्दत
से आई थी। मैं रास्ते भर यही सोचता जा रहा था कि बस
कुछ और दिन ही हमें अलग रहना है। आगे तो हमें एक होना
ही है। उस याद से उलट, बीती रात में एक अजीब–सी बात यह
हुई कि मैं बहुत देर तक उसके बारे में सोचता रहा कि
देखो, आज मैं विदेश जा रहा हूँ। तुमने साथ न छोड़ा होता
तो इस वक्त मैं तुम्हारी यादों में जा रहा होता। जा तो
मैं तब भी उसकी यादों के साथ रहा था मगर उन यादों में
न तो वह मिठास थी और न उतना दर्द...। अगर टीस थी तो वह
भी इस व्यंग्य के साथ कि इश्क वह खेल नहीं जिसे लौंडे
खेला करें या फिर चचा गालिब के शब्दों में 'यह इश्क
नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजै, इक आग का दरिया है और डूब
के जाना है...' वह तो डूबकर निकल गई और मैं डूबकर अब
भी उसे तलाशता हूँ...यही तलाश...क्या अंतहीन तलाश
कहलाती है? नहीं मालूम...मगर इतना जरूर कह सकता हूँ कि
मोहब्बत इंसान को कोलम्बस या फिर वास्को–ड–गामा बना
देती है, कुछ न कुछ मिलता जरूर है, अगर जो सही मोहब्बत
हो।
ऐसा कतई नहीं है कि मैं अपने वैवाहिक जीवन से पूरी तरह
संतुष्ट हूँ या पूरी तरह असंतुष्ट हूँ। पूरी तरह कुछ
भी नहीं होता। न संतोष और न ही असंतोष। कुछ न कुछ
जिन्दगी में अधूरा जरूर रहता है। ऐसा अगर न हो तो आदमी
अपने को समर्थ समझने की भूल कर बैठे। मेरा वैवाहिक
जीवन नब्बे प्रतिशत उन भारतीयों जैसा ही है जो लगभग एक
किस्म का जीवन जीते हैं। मैं उन दस प्रतिशत लोगों में
नहीं हूँ जो जब चाहे तब अपना बिस्तर पार्टनर बदल लेते
हैं। बिस्तर पार्टनर और बीवी में फर्क होता है। यह सब
काम जिन्दगी में हुए हैं लेकिन तब मेरी मानसिकता एक
धोखा खाए हुए पराजित और दूध से जले हुए असफल प्रेमी की
थी जिसे हर औरत बेवफा लगती थी और मैं छाछ को भी खूब
हिलाकर आजमा लेता था कि यह पीने के काबिल हो गया है।
बरतन बदलने के चक्कर में यही याद न रहा कि कितने बदल
गए। यह समझने में बहुत वक्त लगा कि...
मोहब्बत में बुरी नीयत से कुछ भी सोचा नहीं जाता
कहा जाता है उसे बेवफा मगर समझा नहीं जाता।
मगर जब समझ में आया कि जो राह मैंने चुनी है उसमें
विनाश तो मेरा ही होना है। ऊपर से भी और भीतर से भी।
तो, रास्ता बदला। कितना भी परम्पराभंजक हो लूँ...कितना
भी आधुनिक हो लूँ...कितना भी इस उक्ति...
लीक–लीक गाड़ी चलै लीकहिं चलैं कपूत
लीक छांड़ि तीनों चलैं, शायर सिंह सपूत।
के साथ आँखमिचौली खेलूँ, हकीकत यही लगी कि खुद को
सँभालूँ। आखिर, उसने भी तो मुझे हमेशा जीवित देखना
चाहा था— क्रियाशील। वैसे भी एक भारतीय आदमी की तरह ही
मेरी भी मानसिकता है। हो सकता है थोड़ी अलग हो। हो सकता
है कि मैं कुछ ज्यादा आजाद खयाल होऊँ। लेकिन ज्यादा
फर्क नहीं है। परिवार को बचाए रखना मेरी प्राथमिकता
है। यदि यह बात न होती तो मुझे शादी ही नहीं करनी थी।
मैं जिससे प्रेम करता था, करता हूँ...उससे शादी हो
जाती तो जिन्दगी कैसी होती, यह अलग ही प्रश्न है। मगर
उससे शादी न हो पाने की यह कसक तो उठती ही है कि उसने
मुझे बताए बिना यह कदम क्यों उठा लिया। मैंने बहुत बाद
में मिलने के बाद और फिर सैकड़ों अवसरों पर मिलते हुए
भी उससे यह कभी नहीं पूछा कि जो कुछ उसने किया वह किस
कारण से। आखिर, मेरे पास भी दो वक्त की दाल–रोटी का
इन्तजाम तो हो ही गया था।
किस्मत भी अपना रोल प्ले करती है। शायद मेरे मामले में
किस्मत जीत गई और मैं हार गया। मैं यह सवाल पूछकर उसे
शर्मिन्दा और बेइज्जत नहीं करना चाहता। जिसे संसार में
सबसे अधिक माना हो उसका मान घटाना कितना बेहूदा कृत्य
होगा, कुछ मजबूरियाँ रही होंगी वरना कोई यों ही बेवफा
नहीं होता, मैं तो उसे बेवफा भी नहीं कहता, यही तो
दर्द है जो कसक बनी हुई बसी है...
दुनिया भर की यादों के साथ रात गुजरी थी तो नींद कहाँ
से जल्दी आती?
तैयार होकर मैं जब एयर इण्डिया के नरीमन प्वाइंट ऑफिस
के लिये निकला तो साढ़े दस बज रहे थे। बस से जाने और
भटकने की बजाय मैंने टैक्सी कर लेना ही श्रेयस्कर
समझा। बम्बई को देखने का एक अलग अनुभव हो रहा था। अपनी
पिछली यात्रा में मैं लगभग 'लॉस्ट–सा' था और चौबीस
घण्टों में ही कानपुर वापस हो लिया था जबकि इस बार
वापस होने की जगह आगे जाने की यात्रा करनी थी।
बम्बई की सड़कों पर जो जीवन दिखा वह आँखें खींचने वाला
लगा। अपनी पिछली यात्रा में मैं भौंचक–सा था। लेकिन इस
बार तो जहाँ था उसे ही देखते हुए आगे बढ़ना था। कानपुर
के दिल की धड़कन मुझे बाम्बे के सामने बहुत ही धीमी–सी
लगी। स्त्री–पुरूष, युवक–युवतियाँ, यातायात और सड़कों
के किनारे बनी इमारतें सब कुछ कानपुर से नितांत अलग
था। लड़कियों के पहनावे और फैशन को देखकर लगता कि मैं
किसी दूसरे लोक में आ गया हूँ। कोई स्वीकार करे या न
करे किन्तु मुझे यह मानने में कोई शर्म नहीं है कि
मध्यवर्ग में पले युवक उन युवतियों से सहमे–सहमे रहते
हैं जो दिमाग से भले ही पैदल हों मगर पहनावों में
आधुनिक दिखती हों। मन में एक लालसा होती है कि आधुनिक
युवती से प्यार हो। और वैसा हो नहीं पाता तो
आधुनिका–सी दिखने वाली युवती से बात करने की हिम्मत भी
मध्यवर्गीय लड़के नहीं कर पाते। मैंने मन ही मन सोचा कि
मेरे शहर की लड़कियाँ कब ऐसी होंगी। आत्मविश्वास से
लबरेज। मेरे शहर की लड़कियाँ तो छुई–मुई और बहुत
शर्मीली–सी थीं। शलवार–कुर्ते में ऐंठी और दुपट्टे में
लिपटी, सिमटी और सकुचाई...।
जन–समुद्र के रेले में होती हुई टैक्सी जब उस सड़क पर
पहुँची जिससे नरीमन प्वाइंट दिखने लगा तो जैसे एक नई
दुनिया सामने थी। समुद्र के पीछे कुहरे में डूबी
गगनचुम्बी इमारतों की एक बस्ती सामने थी। उस जैसी
बस्ती मैंने स्वप्न में भी पहले कभी नहीं देखी थी। मैं
पहाड़ों पर लगभग पाँच साल रह चुका था। इस मौसम से मेरी
पुरानी पहचान थी। कमरों में बादल घुसते देखा था।
पहाड़ों का वजूद कुहरे में ढँकते देखा था। लकड़ी के
मकानों को धुन्ध में भीगते देखा था मगर अट्टालिकाओं को
तुहिन–कणों से नहाते पहलीबार देख रहा था। चाँदनी में
इमारतें निर्वसन नहा रही थीं। बेपर्दा और बेपरवाह।
नरीमन प्वाइंट को देखने के बाद ही कल्पना में
सिंगापुर, टोकियो, न्यूयार्क, कैलीफोर्निया और दुनिया
के मशहूर टॉवर दिमाग में घूमे थे। नरीमन प्वाइंट पर
जितनी ऊँची और खूबसूरत इमारतें दिखीं, मैंने सिक्किम,
कानपुर या दिल्ली में भी नहीं देखी थीं। मैं मुग्ध था
उस दृश्य पर। उस भीगे–से दिखने और भिगानेवाले वाले
मनोहारी मौसम में सबकुछ मन को सुख देने वाला लग रहा था
लेकिन मुझे यह कहाँ मालूम था कि अगले कुछ पल ही मनोदशा
को सर्वथा बदल देंगे। कभी–कभी मौसम भी प्राकृतिक
जरूरतों की पुकार कर बैठता है। एयर इण्डिया के ऑफिस के
सामने जब टैक्सी खड़ी हुई तो मुझे बहुत जोर से प्रसाधन
जाने की इच्छा हुई। प्रकृति की यह पुकार ऐसी थी कि
मुझे अपने टिकट के बारे में पता करने से पहले कहीं खुद
को खाली कर लेना जरूरी लगा। यह शायद किसी नए स्थान को
देखने का नतीजा भी हो सकता था। घबराहट भी एक कारण हो
सकती थी। स्पष्ट कारण बता पाना आज भी मेरे लिये
मुश्किल है। मैं टैक्सी ड्रॉइवर को पेमेण्ट करने के
बाद जब एयर इण्डिया के दफ्तर में घुसा तो जो व्यक्ति
सबसे पहले मिला उससे मैंने 'यूरिनल' के बारे में ही
पूछा-
बतानेवाले ने जो दिशा और जगह बताई मैं उसी तरफ बढ़ गया।
जब मैंने एक टॉयलेट को खोला तो मेरी रूह फना हो गई।
कमोड पर एक औरत थी। ईमानदारी की बात, मैंने इसके सिवाय
कुछ नहीं देखा कि कमोड पर एक औरत बैठी थी। वह जवान थी
या अपनी जवानी खो चुकी थी। नंगी थी या अधनंगी। गोरी थी
या काली। वैसे इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता। जो भी हो,
मेरी नजरें उठी ही नहीं। एक नजर में जो दिखा वह यह कि
अपने एक हाथ में शीशा लिये वह दूसरे हाथ से ओठों पर
लिपिस्टिक ताजी कर रही थी। मैं पीछे लौटा और तब बोर्ड
देखकर कि मर्दों और औरतों के क्यूबिकल्स अलग–अलग हैं,
मर्दों वाले क्यूबिकल में गया।
जब मैं प्रसाधन से बाहर निकला तो दृश्य ही दूसरा था।
गलियारे और बाथरूम के दरवाजे पर सात–आठ नौजवान
लड़के–लड़कियों का एक समूह, समूह तो मैं उसे नही कह
सकूँगा, एक झुण्ड खड़ा मिला। समूह सभ्य होता है। झुण्ड
नहीं। मुझे वह औरत दिखाई पड़ी जो कमोड पर बैठी दिखी थी।
मैंने उसे कपड़ों से पहचाना। वह चौबीस–पचीस वर्ष की
युवती थी। उसने अपने साथ के झुण्ड को मुझे इशारे से
दिखाकर शायद यह बताया कि यही वह आदमी था जो बाथरूम में
घुसा था। उसके ऐसा बताने पर एक दूसरी युवती ने मुझे
सुनाकर कहा, मारना था न...अ.. दो चप्पल... ये शब्द
मेरे कानों तक तैर आए थे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि मैं सीमाहीन हद तक संकोची हूँ
लेकिन मैं कायर नहीं हूँ। मैंने उस झुण्ड के पास जाकर
और उन दोनों युवतियों की ओर देखकर कहा, दो चप्पल मारकर
देखो तो मुझे...अगर तुम्हारा चेहरा हमेशा के लिये न
बिगाड़ दिया तो तुम भी क्या याद करोगी? बाथरूम का
दरवाजा अपने यार के लिये खुला रख छोड़ा था? उस झुण्ड के
चेहरे पर लकवा मार गया था। मेरा यह रूप उनके लिये
हउवा–सा था, उस झुण्ड के चेहरे पर लकवा मार गया था।
मेरा रस्टिक रूप उनके लिये हउवा–सा था... हालाँकि,
हमारे बीच संवादों का आदान–प्रदान अंग्रेजी में हुआ
था।
कभी–कभी सोचता हूँ कि अंग्रेजी का अच्छा होना मेरे
लिये फायदेमंद रहा है। यह पिता की देन है। उन्होंने
शुरू से ही मुझपर बहुत मेहनत की और जबतक उनका वश चला
उन्होंने मुझे अंग्रेजी पढ़ाई, मौखिक। यह उसी का नतीजा
है कि मैं जितनी अच्छी अंग्रेजी बोल लेता हूँ उतनी ही
खराब लिखता हूँ लेकिन हिन्दुस्तानियों के सामने लिखी
हुई नहीं, बोली हुई अंग्रेजी ही प्रभाव छोड़ती है, उसने
अपना प्रभाव बखूबी छोड़ा था।
मुझे खेद है कि मैंने उनके साथ वैसा व्यवहार किया
लेकिन क्या उस लड़की को भी भीड़ जुटानी चाहिए थी? मैं
अगर सिर झुकाए गुजरता तो उसने निश्चित ही मेरे सम्मान
को दो चप्पलें मार दी होतीं।
आज सत्रह–अठारह साल बाद वे दोनों युवतियाँ न जाने कहाँ
होते हुए कितने बच्चों की माँ हो गई होंगी। लेकिन
उन्हें वह दिन और वे पल तो नहीं ही भूले होंगे।
क्योंकि मैं भी उन पलों को आजतक कभी भूल नहीं सका। मैं
किसी का अपमान नहीं करता। लेकिन कोई मुझे अपमानित करे,
यह सह भी नहीं सकता। मेरे संपर्क में आने वाले लोग इस
मामले में बहुत सतर्क रहते हैं, उन्हें रहना भी चाहिए
क्योंकि मेरी दुनिया जो मेरे आस–पास की है वह खूब
जानती है कि इस आदमी के साथ कायदे से पेश आना चाहिए
अन्यथा इसके मुखर व्यवहार को झेलना होगा जो शायद
कर्णप्रिय न हो। मैं संकोची पहले था। अब भी हूँ। लेकिन
कोई अपनी सीमा का अतिक्रमण कर जाए, यह बरदाश्त नहीं
होता, खैर...।
उस घटना के बाद सँभलने में कुछ वक्त लगा। मन उद्विग्न
हो गया था। बम्बई की जिन लड़कियों को सड़क पर देखकर
मैंने चाहा था कि मेरे शहर की लड़कियाँ भी वैसी क्यों
नहीं हो जातीं? उसी शहर और उन लड़कियों के बारे में पल
भर में ही धारणा बदल गई और मैंने चाहा कि न तो मेरा
शहर बम्बई की तरह हो और न मेरे शहर की लड़कियाँ कभी
बम्बई की लड़कियाँ हों, मेरे शहर की लड़कियों का
सौन्दर्य उनके संकोच में ही अद्वितीय दिखता है। यह
हेकड़ी तो रूपवती को भी कुरूपा बना देती है। हालाँकि,
धारणाओं को पलों में न तो बनना चाहिए और न बिगड़ना, मगर
भावनात्मकता का आप क्या करेंगे? यह उबाल न हो तो जीवन
ही उबाऊ हो जाए।
पी टी ए कलेक्ट करने से संबँधित काउण्टर अलग था। मैं
उस पर लाइन में खड़ा हुआ। जब मैं संबंधित टेबल पर
पहुँचा तो जो जानकारी मिली वह न केवल निराश करनेवाली
थी बल्कि चौंकाने वाली भी थी, आपकी फ्लॉइट १७ फरवरी को
सुबह सात बजे है, तीन घण्टे पहले एयरपोर्ट पर रिपोर्ट
करना होगा। मेरा सिर घूम गया। क्या करूँगा मैं एक
हफ्ते? और फिर अचानक 'आज' अखबार में मिले उस ज्योतिषी
का भी खयाल आया जिसने कहा था कि १२ फरवरी से पहले आप
हिन्दुस्तान से बाहर नहीं जा सकेंगे। क्या लोग सचमुच
भविष्य बता सकते हैं? एक बीस–बाईस वर्ष का लड़का जिसने
अखबार के दफ्तर में मुझे देखते हुए ही कहा था कि विदेश
जाने का योग है मगर १२ फरवरी सन ८६ से पहले नहीं...कुछ
बाधा है। आज न जाने वह कहाँ होगा। न जाने कितने लोग
दिशा–शूल वगैरह पर विश्वास करते हैं मगर मेरे साथ यह
अपने आप होता रहा है...बिना विश्वास किए परिस्थितियाँ
बताती रही हैं कि आजमा लो, जोर हमपर...ऐसा क्यों होता
है ? हकीकत है कि मैं आजतक किसी ज्योतिषी के चक्कर में
स्वयं कभी नहीं उलझा लेकिन भविष्य बताने वाले लोग
मुझसे टकराते रहे हैं...
मैंने पी टी ए कलेक्ट किया और फिर एक सिरे से सोचा कि
क्या किया जाए? एक मन हुआ कि कानपुर ही लौट जाऊँ।
अखबार के कोटे में टिकिट भी तुरंत मिल सकता था। जनता
डिब्बे में बैठकर भी जा सकता था। लेकिन कानपुर में कुछ
महीनों में जो ताने और व्यंग्य विदेश जाने को लेकर
मिले थे उससे मन इतना दुखित हो चुका था कि वापसी की
स्थिति ही नहीं बनती थी। वरना मैं २६ घण्टों में घर पर
हो सकता था। बीवी और बच्चों से मिल सकता था। अपनों के
पास होना बहुत बड़ी ताकत देता है। लेकिन भारतीय
मानसिकता ही कुछ ऐसी है कि किसी यात्रा से अधूरे लौटने
पर न जाने कितने अधूरे प्रश्न जन्म ले लेते हैं।
माला–फूल लेकर कानपुर से विदा हुआ था। वापस जाने की
बात सोचना ही घन की तरह मस्तिष्क में बजने लगता था।
उससे जोर से वे कटूक्तियाँ उभरती थीं जो अपने लोगों ने
उगली थीं। सुनाने वालों ने तो यहाँ तक सुना दिया था कि
अरब–वरब जाने की बात हवाई महल है।
मैंने तय किया कि किसी भी हालत में कानपुर वापस नहीं
जाऊँगा। एक हफ्ते की बात है। जब इतने दिन निकल गए तो
यह वक्त निकल भी जाएगा। लेकिन फिर खयाल तंग करने लगा
कि दो–चार घण्टे या एक रात का वक्त निकालना हो तो कहीं
भी निकल सकता है। किसी के घर में एक हफ्ते का वक्त
निकालना बहुत मुश्किल होगा। मेरे पास पैसे भी इतने
नहीं थे कि किसी 'लॉज' में ठिकाना ढूँढा जाए। फिर भी
मैंने तय किया कि 'बैंक ऑफ बड़ौदा' चलकर अपनी स्थिति
बताई जाए और देखा जाए कि आगे की व्यवस्था क्या है।
मैं बैंक ऑफ बड़ौदा के अधिकारी श्री सुखतांकर से मिला।
अद्भुत जीव। हरदम प्रसननवदन। मुझे देखकर बहुत खुश हुए।
शायद सबको देखकर होते होंगे। उन्होंने कहा, आपके बारे
में सूचना आ गई है, आप १७ तारीख को अबूधाबी जा रहे
हैं, एक शिक्षक और हैं जो आपके साथ ही जाएँगे।
मुझे लगा कि एक से दो भले। मैंने पूछा,कहाँ हैं वे?
अपने किसी रिश्तेदार के घर ठहरे हैं।
क्या उम्र होगी उनकी?
यही कोई फोर्टी फाइव प्लस, उनका नाम सीताराम बंगेरा
है, मिलेंगे उनसे?
रहने दीजिए... राम और कृष्ण एक साथ...बहुत मुश्किल
है...मैंने सोचा। मुझे कोई रूचि न लेते देख सुखतांकरजी
भी मामले को आगे नहीं ले गए। उनसे बातचीत में जो पता
लगा वह यह कि अबूधाबी इण्डियन स्कूल की नियुक्तियों पर
जाने वालों को फ्लॉइट से पहले ठहराने की कोई व्यवस्था
नहीं है। क्या ऐसा होना चाहिए? व्यवस्था क्यों नहीं
है? स्कूल दरिद्र है क्या? न जाने कितने सवालों के साथ
घिरा था मैं। अब मेरे सामने जो वक्त था उसे बिताने की
समस्या पहली थी। कम पैसों में एक सप्ताह गुजारना। वह
भी एक ऐसे शहर में जहाँ रात भी बिना दारू के गुजरे, एक
अग्नि–परीक्षा से कम नहीं था, कैसे बीतेंगे आने वाले
दिन...
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