अपनों
के बीच बेगानापन
एयरपोर्ट की औपचारिकताओं
से गुजरने की आखिरी कड़ी इमीग्रेशन से गुजरना था। लोग
कई पंक्तियों में खड़े थे। स्थानीय लोगों के लिये अलग
काउण्टर था। उसपर सिर पर गतरा बाँधे और अरबी पोशाक में
लोग खड़े थे जिन्हें देखकर अनुमान लगाना कठिन था कि कौन
कितना बड़ा अरबी है। मैंने जब काउण्टर से दृष्टि हटाकर
चारों तरफ देखना शुरू किया तो सामने शीशे की एक दीवार
दिखाई दी जिसके उस पार से कोई मुझे और बंगेरा को अपनी
ओर आने का इशारा कर रहा था।
मोहम्मद के साथ एयरपोर्ट से भावना रेस्तराँ और फिर
सुबह के नाश्ते के बाद स्कूल की ओर लौटते हुए मुझे
उसके साथ एक सघन भारतीयता का एहसास हुआ। दक्षिण
भारतीयों से सिक्किम में भी मुलाकात हुई थी मगर उन
मुलाकातों में अपनापन दूर-दूर तक नहीं दिखा था। केरल
और तमिलनाडु के शिक्षकों और शिक्षिकाओं की संख्या वहाँ
भी हजारों में थी। मगर एक दूरी थी जो संकेत से या
प्रतीकात्मक रूप से यह बता देती थी कि उत्तर भारत और
दक्षिण भारत के बीच एक अलंघ्य दूरी है और यह दूरी
मिटना आसान नहीं है। मैं ही नहीं मुझ जैसे बहुत से लोग
जो उत्तर भारतीय हैं, वे दक्षिण भारत के लोगों की
पहचान केवल मद्रासी के रूप में तब भी जानते थे और आज
भी जानते हैं। जबकि केरल और मद्रास के लोगों की अपनी
एक अलग पहचान है। मेरे एक दोस्त का आज भी यह कहना है
कि दक्षिण भारत के बहुसंख्यक लोग भारत के नागरिक भले
बने रहें मगर मन से वे कभी भारतीय नहीं होंगे चाहे
कितने भी संस्कार उनके हमसे मिलते ही क्यों न हों।
हिन्दू धार्मिक स्थलों पर जाने या गया में पिण्डदान
करने आने से ही कोई हिन्दू भारतीय नहीं हो जाता।
दोस्त का यह भी कहना है कि दक्षिण भारत के लोगों ने
मुगलों की गुलामी में या फिर अंग्रेजों के शासन में वह
दुख सहा ही नहीं जो उत्तर भारतीयों और बंगाल के लोगों
ने भोगा, इसलिये भारत के प्रति उनका नजरिया वह कैसे हो
सकता है जो हमारा है। सच पूछो तो देश में एक असली भारत
और एक नकली भारत मौजूद है। देश की राष्ट्र भाषा को
लेकर भी उनका नजरिया अगर अलग है तो इसके पीछे भी वही
भावना है कि दक्षिण भारत के लोग उत्तर भारत के लोगों
से अलग हैं। अलग ही नहीं वे सुपीरियर भी हैं, यह भावना
भी उनमें है। मगर दक्षिण भारतीय मोहम्मद के साथ एक
घण्टे के साथ ने मुझमें जितना अपनत्वी स्पर्श दिया वह
रोम-रोम को आह्लादित और आप्लावित करने वाला अनुभव रहा।
मुझे अगणित दक्षिण भारतीयों का स्नेह मिला है।
अपवादस्वरूप कटु अनुभव भी हुए मगर उन अनुभवों से
दो-चार कराने वालों को यदि मैं ‘भारतीय’ कहूँ तो शायद
यही शब्द ज्यादा सही होगा। क्योंकि, आदमी कहीं का हो,
उत्तर का या दक्षिण का, अगर वह खोंचड़ है तो अपनी
खोंचड़ी को साथ लिये हुए ही घूमेगा। भारतीयों की
मुश्किल यह है कि वे अपनी खोंचड़ी को नहीं छोड़ पाते,
उसके साथ दुनिया की यात्रा करते हैं और जहाँ मौका
मिलता है, उसका उपयोग करने से नहीं चूकते। ऐसा करके वे
शरमाते भी नहीं हैं।
मैं बताना भूल गया... नाश्ते का भुगतान करने के बाद
मोहम्मद ने मुझसे पूछा था, “पान लेगा?” मोहम्मद की
हिन्दी व्याकरण की मोहताज तब भी नहीं थी और आज भी नहीं
है।
“हाँ लेगा, जोड़ा लाना...तंबाकू...”
“जोड़ा क्या...?”
“जोड़ा माने, दो...मैं एक पान नहीं खाता, एक साथ दो
खाता हूँ...” शुरू के दिनों में भले ही एक पान खाया हो
मगर आदत हो जाने और पूरी तरह छूटने के दौरान कभी एक
पान खाया हो यह याद नहीं। और तंबाकू भी क्या...३२
नम्बर, ६४ नम्बर, १२० और ३००, सब एक साथ, किमाम ऊपर से
और उसके ऊपर से चूना, जिसने पान खाने के बाद ऊपर से
चूना नहीं लिया वह भी कोई पान खवैय्या है...एक पीक
थूकने के बाद सबकुछ अंदर...एक जोड़ा खाता था? बीस जोड़े
से कम नहीं होते थे दिन भर में...रात को सोते हुए भी
मुँह में पान। मैंने इससे पहले किसी भाग में लिखा है
कि मैं अतियों से गुजरा हुआ इंसान हूँ। जो कुछ भी मैं
जिन्दगी में करता रहा हूँ, मुझे बराबर यह लगता रहा कि
वह अधिक हो रहा है। असल में मुझे नशा हो जाता है और तब
वह सीमा ही हमेशा टूटती रही जिसे आत्मनियंत्रण कहते
हैं। लिखने को लेकर भी ऐसा ही है। एक नशा है मुझमें।
पत्नी कहती है कि आप हर काम इस तरह करते हैं कि जैसे
यदि आपने उसे नहीं किया तो कोई दूसरा आप से पहले कर
लेगा। लेकिन पान मसाले को लेकर एक ऐसी घटना क्या घटी
कि क्या पान और क्या पान मसाला, वर्षों से हाथ नहीं
लगाया। ओठों से लगाना तो दूर की बात है। लेकिन उस दिन,
उस शाम, पत्नी कभी कहती है कि उस शाम शराब और सिगरेट
का भी जिक्र अगर आ गया होता तो आप इन चीजों को भी
हमेशा के लिये छोड़ देते। मैं मुस्कराता हूँ भीतर ही
भीतर कि अच्छा हुआ जो इनका जिक्र नहीं आया वरना
जिन्दगी में बचता क्या? खैर...
मोहम्मद ने जोड़ा तंबाकू पान खिलाया था और बताया था कि
पान चोरी से मिलता है। सड़क पर थूकने से बचना है और
किसी कोने-अतरे की तलाश करके ही थूकना है। सुबह के दस
बज चुके थे जब वैन स्कूल गेट पर पॉर्क हुई। मुझे सभी
स्कूलों के भवन एक ही तरह के लगते हैं। सबका
आर्किटेक्चर एक जैसा। अब कुछ स्कूल फाइव स्टॉर होटलों
की तरह भी बनने लगे हैं। मगर अधिकांश का नक्शा या तो
यू शेप या एल शेप में दिखेगा। अगर स्कूल बड़ा हुआ तो वह
चौकोर शक्ल में भी हो सकता है। यह स्कूल तीन
कांप्लेक्स में था जिनमें से दो चौकोर थे और एक बड़े
कोष्ठक की शक्ल का। दोनों चौकोर ब्लॉकों के बीच में
ऑफिस था दोनों ब्लॉक दुमंजिले थे। तीसरा कांप्लेक्स के
जी ब्लॉक के नाम से जाना जाता था जिसमें जूनियर के जी
और सीनियर के जी की कक्षाएँ लगती थीं, वह भी दुमंजिला
था। ऑफिस में विजय से मुलाकात हुई। उसकी गर्मजोशी और
सहजता से विदेश में होने का वह अकेलापन याद ही नहीं
आया जो ऊपर से मजबूत दिखने वाले व्यक्ति को भी भीतर से
निरन्तर तोड़ता रहता है। मैंने उसके ऑफिस में चाय और
सिगरेट पी। लगभग छह वर्षों बाद उससे मुलाकात हुई थी
मुलाकात में भावुकता का होना लाजिमी था।
उसने अशोक को बुलवाया और फिर मुझे उसके हवाले कर दिया।
उसी समय मैंने स्कूल में ज्वायनिंग रिपोर्ट दी और
स्कूल में टीचर्स के इनकमिंग रजिस्टर पर हस्ताक्षर
किए। अशोक मुझे अपने कमरे पर ले गया जो के जी ब्लॉक की
पहली मंजिल पर था। कमरा बड़ा था। उसने बताया कि स्कूल
वीजा पर भारत से आए शिक्षक कैम्पस में ही अबतक रहते आए
हैं लेकिन अगले सत्र से सबको बाहर शहर में रहना पड़ेगा।
जो अध्यापिकाएँ भारत से लाई गई हैं वे सब एक थ्री
बेड-रूम फ्लैट में शेयर करती हैं। टीचर्स को शेयरिंग
अकोमडेशन ही दिया गया है। उसने मुझे यह भी बताया कि
मैं मिस्टर थपलियाल का सब्स्टीच्यूट हूँ वह अचानक
इस्तीफा देकर चला गया तो एक जगह हुई और विजय ने उससे
कहा कि अगर कृष्ण बिहारी आना चाहे तो उसे बुलाओ। उसी
के बाद सारी प्रक्रिया शुरू हुई। मेरे बारे में सबको
पता है कि अखबारों और हिन्दुस्तान की पत्रिकाओं में
निरन्तर लिखता रहा हूँ, सभी उत्सुकता से इंतजार कर रहे
हैं। लोग यह भी समझ रहे हैं कि हम दोनों विजय के आदमी
हैं।
“यहाँ भी इण्डिया जैसी राजनीति है क्या...?”
“उतनी तो नहीं...मगर वहाँ से कम भी नहीं...”
“मिस्टर थपलियाल क्यों गए यहाँ से...?”
अशोक ने जो बताया वह जिस्मोंजाँ को झकझोर देने वाला
वाकया था। थपलियाल यहाँ काम करते हुए बहुत खुश थे।
बैचलर स्टेटस पर आए थे। तब उनका बेटा लगभग दो वर्ष का
था। जब वार्षिक अवकाश पर गए तो उनके तीन वर्षीय बेटे
ने उन्हें अपने बेड-रूम में लेटने ही नहीं दिया। इतना
ही नहीं, उसने अपने दादाजी से रो-रोकर यह शिकायत की कि
यह कौन आदमी है जो मेरी माँ को परेशान कर रहा है?
थपलियाल के लिये यह प्रश्न सहज उत्तर दे पाने का नहीं
था। उन्हें लगा कि गल्फ के पैसों को एक तरफ करके ही वे
बेटे और बीवी को पा सकते हैं और अगर यह कोशिश उन्होंने
नहीं की तो उन सबको खो देंगे। उन्हें इस्तीफे के अलावा
और कोई रास्ता नजर नहीं आया। उन दिनों किसी और को कोई
और रास्ता नजर आ भी नहीं सकता था। फेमिली वीजा केवल
उन्हीं लोगों को मिलता था जिनकी तन्ख्वाह मोटी हुआ
करती थी। और, मोटी तन्ख्वाह अध्यापकों की दुनिया में
कभी रही है क्या? थपलियाल को अपने बेटे को अपना बना
पाने की जो कीमत देनी पड़ी, मैं समझता हूँ कि वह कम ही
थी... वह बहुत सही वक्त पर बिना गल्फी हुए यहाँ से चले
गए और आज शायद गाजियाबाद मे वेल सेटेल्ड हैं। अगर पचास
की उम्र में जाते तो कहाँ सेटेल हो पाते?
अशोक ने बताया कि मिस्टर टी ओ मानी भी यहाँ है। उनको
भी लोग विजय का ही आदमी मानते हैं।
मैं इस नई जानकारी से चौंका था। टी. ओ मानी मेरे साथ
टी एन ए में काम कर चुके थे। कभी मेरे जूनियर थे लेकिन
यहाँ वे मेरे ही नहीं बल्कि अशोक के भी सीनियर थे।
टी॰ओ॰ मानी के बारे में बड़ी भ्रामक बातें टी एन एकेडमी
में काम करते समय भी फैली थीं। वे केरल प्रांत के रहने
वाले थे। उनसे मेरे रिश्ते बड़े सूखे-से थे। हालाँकि,
एक समय तिब्बत रोड पर हमें एक बिल्डिंग में फ्लैट भी
मिले थे। इसके बावजूद टी ओ मानी के इर्द-गिर्द एक
रहस्य था जो कभी मिटा नहीं। उनके पारिवारिक जीवन के
बारे में कोई कुछ भी नहीं जानता था। टी एन एकेडमी में
जब इन्होंने ज्वॉयन किया तो स्कूल अपने समय के सबसे
बुरे दौर से गुजर रहा था। स्कूल के प्रिंसिपल मधु सूदन
सिंह को शिक्षा मंत्रालय ने प्रमोशन देकर विभाग का
डॉयरेक्टर बना दिया। यह तो बाद में पता चला कि
मंत्रालय उन्हें स्कूल से हटाना चाहता था। एक राजनीति
के तहत शायद प्रमोशन ही वह रास्ता बचा था जिसे प्रशासन
अपनाते हुए बदनामी से बच सकता था। मिस्टर सिंह कई
वर्षों तक स्कूल के प्रिंसिपल रह चुके थे। उनके
व्यक्तित्व में एक आभा थी जो मैंने बहुत कम
प्रधानाचार्यों के चेहरे और उनके काम-काज और जीवन-शैली
में देखी है। मुझे टी एन एकेडमी ने जब इण्टरव्यू किया
था तो उस बोर्ड में वह भी थे। जब मुझे उनके
स्थानान्तरण का पता चला तो मैंने उनसे मिलकर कहा, “आप
मुझे भी अपने साथ ले चलें, या अपने प्रभाव का उपयोग
करते हुए मुझे किसी और स्कूल में लगवा दें, आपके जाने
के बाद यहाँ काम करने का मेरा दिल ही नहीं होगा।”
उन्होंने बहुत समझाया मगर मैं नहीं माना। तब उन्होंने
नोयडा स्थित एक स्कूल ए पी जे के प्रिंसिपल मिस्टर
सुभाष अरोड़ा या शर्मा के नाम एक पत्र लिखकर मुझे दिया
जिसे लेकर मैं उनसे मिला भी परन्तु उन्होंने जिस वेतन
की पेशकश की वह इतना कम था कि उसपर काम करना एक घुटन
को जन्म देना था। उससे लगभग चार सौ रूपये अधिक तो मुझे
टी एन एकेडमी में मिल रहे थे मैंने वापस गैंगटोक आकर
मिस्टर सिंह को बताया तो उन्होंने फिर आश्वस्त किया कि
जब वह गैंगटोक में हैं तो फिर मेरे नर्वस या उदासीन
होने कोई जरूरत नहीं है।किसी भी समस्या पर मैं उनसे
मिलकर समाधान पा सकता हूँ।
असल में मिस्टर सिंह मुझे बहुत मानते थे और यह तय था
कि उनके जाने के बाद जो भी नया प्रिंसिपल आता उसके साथ
वैसे सम्बंध तो होने नहीं थे। मुझे अपने विषय में
स्वतंत्र रूप से काम करने की जो आजादी थी वह दूसरे
प्रिंसिपल से मिलनी भी नहीं थी। मैं अपने सब्जेक्ट में
ठीक था यह बात मिस्टर सिंह को किसी ने बताई नहीं थी
बल्कि वे स्वयं जानते थे। मेरी कक्षा में आकर पिछली
सीट पर बैठकर वे कभी-कभी तो पूरा पीरियड बिता देते थे।
हर प्रिंसिपल साहित्यानुरागी नहीं होता। मिस्टर सिंह
थे।
मैंने बेमन से काम करना शुरू किया। जिस नए प्रिंसिपल
ने उनकी जगह ज्वॉयन किया उनका नाम डॉ० एम एम जॉन था।
पता नहीं कि आज वे जीवित भी हैं या नहीं। लेकिन जितने
दिन वे मेरी जानकारी में जिंदा रहे उन्होंने मुझे दुख
ही दिया। मैंने पहले कहीं लिखा है कि जिनके नामों में
एम की ध्वनि प्रमुख रही है उन्होंने मुझे सुख तो किसी
प्रकार का नहीं दिया। दुख देने वालों में मधु सूदन
सिंह भी शामिल हुए। मगर मैंने उनसे कभी ऐसा दुख पाने
की कल्पना भी नहीं की थी।
डॉ० जॉन बेहद काले-कलूटे, बेडौल, गंजे और पाँच फुट से
भी छोटे थे। उनकी खाल काली ही नहीं मोटी भी थी। आँखों
पर चश्मा था। उन्होंने पहली एसेम्बली ली और
अध्यापक-अध्यापिकाओं के साथ पूरे स्कूल को संबोधित
करते हुए कहा, “उनका रंग-रूप जो ईश्वर का दिया हुआ है
उसे पाने में उनका कोई हाथ नहीं है लेकिन वे बहुत
अच्छे निगेटिव हैं जिसका पॉजिटिव बहुत आकर्षक है।”
मेरे खयाल में सभी को उनकी यह बात बहुत अच्छी लगी होगी
शायद ही किसी ने सोचा होगा कि अपने कद-काठी और रंग-रूप
को लेकर उनकी कुण्ठा ही उस वक्त बोल रही थी। स्टॉफ ने
उनके संबोधन में एक सरलता महसूस की। स्टॉफ के वे लोग
तो बहुत ही प्रभावित दिखे जो मधु सूदन सिंह से खार खाए
हुए थे।
गोरे और आकर्षक व्यक्तित्व के ऊपर फ्रैंच-कट दाढ़ी में
मधु सूदन सिंह की आँखों पर काला चश्मा जितना फबता था
उसके आगे डॉ० जॉन का कोई वजूद नहीं बनता था लेकिन नए
अधिकारी को उत्सुकता से देखने और एकदम से उसे पहले
वाले से अच्छा समझने की जो जल्दी हर विभाग में होती
है, वही टी एन एकेडमी में भी हुई। सुबह डॉ० जॉन ने
प्रार्थना-सभा को संबोधित करते हुए एक सम्मान अर्जित
किया था लेकिन, वह सारा तिलस्म उसी दिन, उसी शाम को न
केवल ताश के पत्तों की तरह ढह गया बल्कि आने वाले दिन
भयावह हो गए।
स्कूल में चलन था कि महीने में एक या दो शनिवार को जैम
सोशल का आयोजन हॉल में होता था। मुझे यह तो पता नहीं
कि यह परम्परा कबसे चली आ रही थी। मगर यह एक स्वस्थ
परंपरा थी। सीनियर डॉर्म के लड़के और लड़कियाँ तथा
अध्यापक और अध्यापिकाएँ सात बजे शाम से रात लगभग दस
बजे तक साथ-साथ रिकॉर्डेड गानों के टेप बजने पर
नाचते-गाते थे। अध्यापक-अध्यापिकाएँ ड्रिंक्स भी लेते
थे। वे अपने कमरों से ड्रिंक्स लेकर आते थे या जरूरत
महसूस होने पर वापस अपने कमरों पर जाकर ड्रिंक्स लेकर
फिर आ जाते थे। कभी कोई सीन क्रियेट हुआ हो, इसकी याद
मुझे नहीं है। कोई अध्यापक अगर अधिक शराब पी लेता था
तो भी उसके आचरण को लेकर कैम्पस में दूसरे दिन कोई
चर्चा नहीं होती थी। न तो टीचर को उसके कमरे पर
पहुँचाने वाले छात्र कोई लिबर्टी लेते थे। सिगरेट
स्टॉफरूम में महिला अध्यापिकाएँ भी पीती थीं। बड़ा ही
कैजुअल वातावरण था।
उस शाम भी एक सोशल का प्रबंध किया गया। शारीरिक
अस्वस्थता, शायद बुखार था जिसकी वजह से मैं उस शाम
सोशल में शरीक नहीं हुआ। सवा आठ बजे के करीब एक
शिक्षिका मँगला परमार मेरे फ्लैट पर आई और उसने मुझसे
उसके घर तक छोड़ आने की बात की। वह घबराई हुई भी थी।
उसने बताया कि लड़के और लड़कियों ने हंगामा कर दिया है।
प्रिंसिपल के खिलाफ नारेबाजी हो रही है। मँगला
सत्ताईस-अट्ठाईस साल की साँवली सी सुन्दर युवती थी।
केमिस्ट्री पढ़ाती थी। गैंगटोक में अपने भाई और भाभी के
साथ रहती थी। उसकी शादी नहीं हुई थी। किसी बंगाली युवक
से प्यार करती थी जो उसके भाई और भाभी को पसंद नहीं
था। मेरे फ्लैट पर उसका आना-जाना था। हम अच्छे दोस्त
थे। इससे ज्यादा कोई बात मेरे उसके बीच नहीं थी। लेकिन
जब वह टी एन ए छोड़कर चली गई तो उसके किसी पत्र का
उत्तर देते हुए मैंने लिखा था कि पीले कागजों पर खत
नहीं लिखने चाहिए। बाद में उसने किसी कॉमन दोस्त को
लिखा कि वह समझ ही नहीं पाई कि मेरे दिल में उसके लिये
इतनी भावुक जगह है। मैंने यह जानने के बाद अपने दिल को
टटोला कि वहाँ मँगला के लिये क्या था, क्या है, खैर...
उस शाम बुखार में जब मैं अपने फ्लैट से उसके साथ निकला
तो कैम्पस की अवस्था देखना ही प्राथमिकता थी। मँगला को
तो मैं दाज्यू के साथ भी उसके घर भेज सकता था। दाज्यू
तो पहले दिन से ही मेरे साथ रह रहा था।
कैम्पस अँधेरे में डूबा था। सीनियर छात्र-छात्राएँ
नारे लगा रहे थे। ईदी अमीन...गो बैक...ब्लैकी गो
बैक...
कैम्पस में पुलिस आ गई थी। शायद टी एन ए के इतिहास में
ऐसा पहली बार हुआ था। जब मैं मँगला को उसके घर के पास
तक छोड़कर वापस कैम्पस में आया तो भी दृश्य बदला नहीं
था। सुबह तक कैम्पस में वे सभी नारे यहाँ-वहाँ लिखे
दिखाई पड़े। वातावरण में एक तनाव था। अध्यापक कुछ भी
बोलने से गुरेज कर रहे थे। मैं सचमुच नहीं जानता था कि
वास्तव में मामला क्या था। करीब बीस दिनों तक स्कूल
सुबह शुरू होते ही बंद हो जाता था। जैसे ही थोड़ा शोर
होता वैसे ही डॉ० जॉन चपरासी को छुट्टी की घण्टी बजाने
का आदेश देता। हॉस्टेल वाले छात्र अपने कमरों में चले
जाते और डे स्कॉलर अपने घरों को।
इस मामले में सबकुछ रहस्यमय ढंग से आगे बढ़ता रहा। मेरे
पास थिनले नामक एक सीनियर छात्र आया करता था। उसकी
रुचि राजनीति में थी। वह कभी मेरा छात्र भी नहीं रहा
था। लेकिन उसका मेरे पास आना-जाना जारी था। लड़कों में
उसकी पैठ थी। पता नहीं कैसे शिक्षा-मंत्रालय में यह
बात घर करती गई कि छात्रों को भड़काने के पीछे
अध्यापकों का हाथ है। मंत्रालय ने बाईस शिक्षकों को इस
घटना के लिये शक के घेरे में ले लिया। इस सूची में
सबसे ऊपर मेरा नाम था। उसका, जो घटना के दिन अस्वस्थ
होने के कारण वहाँ मौजूद ही नहीं था। लेकिन इसमें हैरत
की कोई बात नहीं थी। कभी-कभी लोकप्रियता भी आपके
विपक्ष में होने का कारण बनती है। हिन्दी अध्यापक होने
के बावजूद मैं स्कूल में पहचाना जाता था। बच्चे मुझे
प्यार करते थे। सबसे बड़ी बात कि भूतपूर्व प्रिंसपल
मधुसूदन सिंह मुझे इतना अधिक चाहते थे कि दूसरे
प्रिंसिपल को मैं उनका सबसे बड़ा विरोधी समझ में आया।
आए दिन वे मुझे तंग करने लगे और मेरे जवाबों को अपने
ऊपर हमला। उन्होंने अपने घर पर हुए पथराव का जिम्मेदार
तक मुझे बनाया। उनकी बेटी और बेटा मेरी कक्षाओं में
थे। बच्चे उनसे बोलते तक नहीं थे। मुझे तकलीफ होती थी
कि बेचारे निर्दोष बच्चों का क्या कसूर है कि वे
असहनीय उपेक्षा झेल रहे हैं। उनकी माँ भी मानसिक रोगी
लगती थी। मैं उनके घर पर पथराव क्यों करवाता। मुझे ऐसा
करके क्या मिल जाता। लेकिन जब डॉ० जॉन ने मुझे बेतरह
तंग करना शुरू किया तो एक दिन झल्लाकर मैंने कहा भी,
“पथराव तो मैंने नहीं किया या करवाया लेकिन एसेम्बली
में सरे-आम मार जरूर सकता हूँ”
सूची में जिन अध्यापक-अथ्यापिकाओं के नाम थे उन्हें
मंत्रालय में बुलाया गया। सबसे ऊपर मेरा नाम होने के
कारण मुझे सबसे पहले कमरे में जाना पड़ा। मंत्री महोदय
के सामने अधिकारियों के सवालों के उत्तर देते हुए मैं
बिल्कुल सामान्य था। जैसे सवाल थे वैसे जवाब उन्हें
मिले। मुझे नहीं मालूम था कि मेरी बातें रिकॉर्ड हो
रही हैं। जब टेप का कैसेट ‘खटाक' की ध्वनि के साथ खत्म
हुआ तो मैं चौंका। शिक्षा-मंत्रालय यह रास्ता अपनाएगा
इसका अनुमान नहीं था। लेकिन मैं इतना सहज ढंग से उनके
सामने प्रस्तुत् हुआ था और तर्कों से डॉ० जॉन को गुड
फॉर नथिंग साबित करके बाहर निकला। बाहर जितने लोग थे
मैंने उनसे कहा कि कुछ भी कहते हुए सजग रहें, टेप
रिकॉर्डर छिपाकर सोफे के नीचे रखा है...
सबको मंत्रालय में प्रस्तुत होना पड़ा। परिणाम, चौदह
अध्यापकों को टर्मिनेट और आठ को विक्टिमाइज किया गया।
मैं विक्टिमाइजों की श्रेणी में था। निकाले गए
शिक्षकों में मेरा मित्र फिलिप भी था। टी ओ मानी की
नियुक्ति उसी के स्थान पर अंग्रेजी शिक्षक के पद पर
हुई थी। निश्चित था कि मानी को देखकर मुझे फिलिप की
याद आती। संबँधों में किसी ऊष्मा के होने का प्रश्न ही
नहीं था।
एक बार मानी ने मुझसे पूछा भी था कि स्टॉफ के लोग
उन्हें ‘अछूत’ क्यों समझते हैं?
मैंने उन्हें स्पष्टरूप से बताया कि यह कैसे संभव है
कि कोई अपने मित्रों को भूलकर उन लोगों को स्वीकार ले
जो उनके स्थानापन्न हैं?
मिस्टर मानी सचाई समझ गए थे। वे भूटान में किसी स्कूल
में काम करते थे और वहाँ से टी एन ए में आए थे। जब तक
टी एन ए में रहे तबतक उनका व्यक्तित्व दबा-दबा और
संदेह के घेरे में रहा। अबूधाबी इण्डियन स्कूल में
उनकी नियुक्ति भी भाग्य का खेल ही थी। उन्होंने ही
बताया था कि एक बार ट्रेन में उनकी मुलकात विजय से हुई
थी। तब विजय टी एन ए में ही था। उसने उनका पता नोट कर
लिया था। उनके बीच पत्राचार चलता रहा था। जब विजय
अबूधाबी आया तो उसने उन्हें अंग्रेजी अध्यापक के पद पर
नियुक्त कर लिया। अशोक और टी ओ मानी के उस साक्षात्कार
की भी बड़ी जबरदस्त कहानी है जो उन्होंने अबूधाबी आने
के लिये दिया। बहरहाल, मैं उस वर्तमान पर आता हूँ जो
मेरा अतीत बन चुका है मगर स्मृतियों में कल की बात की
तरह हरदम कौंधता रहता है। बंगेरा को भी शेयरिंग
अकोमडेशन मिली।
असल में मुझे सितम्बर १९८५ में ज्वॉयन करना था लेकिन
मेरे पास तो जुलाई ८५ में साक्षात्कार देते समय
पॉसपोर्ट ही नहीं था। फिर वीजा कैसे प्रॉसेस होता...
मैं तो एक कुत्ते को पालने के लिये इण्टरव्यू देने की
उस जहमत से भी बचना चाहता था जो इस बात की गारण्टी
लिये हुए था कि मेरी नौकरी होनी ही है।
के जी कॉम्पलेक्स के ऊपर जहाँ टीचर्स रहते थे वहाँ एक
सननाटा था। अशोक ने बताया कि सभी ‘पार्किंग’ पर गए
हैं। पार्किंग का अर्थ ट्यूशन है। उसे भी जाना था मगर
मेरे आने के कारण वह नहीं गया। उसने बताया कि ट्यूशन
में वेतन से अधिक पैसे मिल जाते हैं। स्कूल में
छात्रों की पाली सवा एक बजे से लगती है। साढ़े बारह तक
सब पार्किंग से लौट आते हैं। एक बीस पर एसेम्बली होती
है। मैं उसके साथ एसेम्बली में गया। मेरा परिचय कराया
गया। उसके बाद मैंने विजय से कहा कि पढ़ाने का काम कल
से, आज आराम करना चाहता हूँ। थका हूँ। उससे यह कहने के
बाद अशोक के साथ स्टॉफरूम में आ गया। वहाँ अन्य
शिक्षकों से मुलाकात हुई। वाइस प्रिंसिपल ने मुझे टाइम
टेबल दिया। उनसे मैंने मार्च में होने वाली परीक्षा का
पाठ्यक्रम लेने के बाद उन प्रश्नपत्रों को भी देखा जो
पूछे जाने थे। यह सब सामग्री देखकर मैं कमरे पर लौट
आया। मुझे एक अच्छी नींद की जरूरत थी। शाम को अशोक ने
मुझे जगाया। हमने मेस में जाकर साथ चाय पी। उस दौरान
अशोक ने जो बताया उससे ज्वॉयनिंग का मजा बदमजा हो गया।
एक हिन्दी शिक्षक मेरे बोल-चाल के रवय्ये से बेहद खफा
हो गए थे और दूसरी हिन्दी शिक्षिका जिनका मैं
सव्स्टीच्यूट था, उन्होंने मुझपर अयोग्य अध्यापक होते
हुए उन प्रश्नपत्रों को ‘आउट’ करने का आरोप लगा दिया
था जो मैंने वाइस प्रिंसिपल से लेकर इसलिये देखे थे कि
बच्चों को अगले दिन से मॉडेल प्रश्न-पत्र के रूप में
मिलते-जुलते प्रश्न कराऊँगा। ये दोनों भारतीय थे। मेरे
लिये अपने मगर इनका बेगानापन हद दर्जे का टुच्चापन
दिखा गया। |