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आत्मकथा (आठवाँ भाग)

   — कृष्ण बिहारी

 

सहार, सागर और मौसम

 

आत्मकथा लिखना आसान नहीं है। अपने आपको खोलना आसान नहीं है। अपने बारे में सच लिखना आसान नहीं है। यदि मैं यह कहूँ कि लिखना ही आसान नहीं है तो आपको मान लेना चाहिए। क्योंकि लिखने का अर्थ है खोना और सब कुछ खोना। बीवी, बच्चे, भाई–बहन, रिश्तेदार और मित्र। आप सबको खो देते हैं, क्योंकि आपके लेखन में ये सब किसी न किसी रूप में आते हैं और अगर आईने की तरह आप उन्हें उनके चेहरे दिखा देते हैं, वह भी बिना उनके ब्यूटी पॉर्लर गए तो निस्संदेह मुसीबत मोल लेते हैं। 

जब किसी रचनाकार के साथ अपने रिश्ते को जोड़कर उसके नजदीकी लोग देखते हैं तो रिश्ता भले ही ऊपर से मोहक दिखे, भीतर से नीम–सा कड़वा हो जाता है। कोई उसे चाहता नहीं है। बस, चाहने का दिखावा करता है। लेकिन यहीं यह हकीकत भी उभरती है कि रचनाकार ही कहाँ खुद को चाह पाता है। अपने आपको चाहते रहने की भी एक अवधि होती है। एक वक्त के बाद अपने आप से भी ऊब होने लगती है। रचनाकार को अपनों से अलग होकर जो दुनिया मिलती है, जिसमें वह पहचाना जाता है, वह उन अपरिचितों और बेगानों की होती है जो उसे एक बड़े संसार का अंग बनाते हैं। यही संसार लेखक का रचना संसार होता है- बड़ा और अपरिचित संसार। एक अकेलेपन की दुनिया। जिसके पात्र उसे अपने साथ जिलाते हैं। उसे पत्र लिखते हैं और बताते हैं कि उसकी रचनाओं में खुद को पाकर वे अपने होने को जान पाते हैं, या शायद यह कि लेखक के लिखे यथार्थ में उनका भोगा सच है। 

मुझे अनेक पत्र मिले हैं जो मेरे लिखते जाने का संबल बने हैं। कोई संकोच नहीं यह कहने में कि एक औसत जिन्दगी में किसी लेखक को जितना काम करना चाहिए, मैं उससे अधिक करना चाहता हूँ। पीछे मुड़कर देखता हूँ तो अपना किया काम दिखता भी है। मगर मैं संतुष्ट नहीं हो पाता क्योंकि हमेशा लगता है कि काम हुआ तो है, अच्छा भी हुआ है, मगर बहुत अच्छा अब तक नहीं हो पाया। शायद सभी लेखकों के साथ ऐसा होता हो कि उन्हें अपने लिखे में कुछ भी अच्छा न दिखता हो। आत्ममुग्धता जरूर होती है लेकिन रचनाकार की आत्ममुग्धता का प्रभामण्डल स्थायी नहीं होता। यदि ऐसा हो जाए तो अगली रचना का जन्म ही संभव न हो सके। मुझे यह भी लगता है कि रचनाकार आने वाले हर दिन के साथ और अकेला होता जाता है। यहाँ तक कि उसकी रचनाएँ भी लिख लिये जाने के बाद उसकी नहीं रह पाती हैं। वे तो जगत् की हो जाती हैं। उन्हें पढ़ते हुए लेखक को विस्मय होता है कि क्या उन्हें उसी ने लिखा है। खैर...

मैं सुबह सहार एयरपोर्ट गया। उसे देखने। टैक्सी छोड़ने के बाद मैं सड़क की रेलिंग से लगकर खड़ा हो गया। मेरी तरह बहुत से लोग चकित-से हवाई-जहाजों का उड़ना और उतरना देख रहे थे। उस जगह से साफ-साफ दिखता भी था...

हवाई जहाज उतरते थे–उड़ते थे। एक अजीब–सी ध्वनि से आसमान भीगा था। वह ध्वनि जब शहरों के ऊपर से गुजरती सुनी थी तो आतंकित करती हुई नहीं लगी थी। मगर सहार एयरपोर्ट पर बात कुछ अलग थी। यहाँ ध्वनियाँ बार–बार आवृत्ति–सी करती हुई कानों से गुजर रही थीं और मेरे भीतर एक सवाल घुमड़ रहा था कि इतना भारी जहाज उड़ता कैसे है? न्यूटन के गुरूत्वाकर्षण के नियम का यहाँ क्या हो जाता है? एक आतंक था जो मुझे अपनी यात्रा से पहले ही अपने वृत्त में ले चुका था...

यह तो बाद में जाना कि जहाज जब धरती छोड़ता है तो वह केवल अपने वजन को लेकर ही नहीं उठता। उसके भीतर सैकड़ों यात्री और उनका सामान भी होता है। लगेज के अलावा हैण्ड बैगेज। वह भी टनों में होता है। हजारों गैलन ईंधन भी होता है। मुझे इक्कीसवीं सदी की इस वैज्ञानिक दुनिया में भी विमान का धरती छोड़ना एक करिश्मा ही लगता है। मैं लगभग दो घण्टे सहार एयरपोर्ट पर टेक–ऑफ और लैंडिंग देखता रहा। डर के साथ रोमांच जुड़ा हुआ था। बाद में यह भी पढ़ा कि सबसे सेफ एयर ट्रैवल है और लगभग एक लाख यात्री हर वक्त आसमान में होते हैं, मगर यह सब तो बहुत बाद की बात है।

दोपहर होने से पहले मैं फिर रेस्तराँ में आ गया। अपनी शरणगाह में। हर तरह के विभ्रम से मुक्त होने की मेरे लिये फिलहाल वही एक जगह थी...

रेस्तराँ में खासा वक्त गुजारने के बाद मैंने जूहू बीच के लिये टैक्सी ली। धूप उस समय भी चमकीली थी जब मैं जूहू बीच पर पहुँचा। सागर पहली बार मेरे सामने था। आँखें भौंचक खुली रह गईं। फिल्मों और चित्रों में देखा हुआ सागर और आँखों के सामने के असीम जल–विस्तार में कोई साम्य नहीं था। यह प्रकृति का करिश्मा नहीं तो और क्या है? किसी चीज को बिना देखे उसके बारे में लगाए गए अनुमान क्या इससे विलग होते हैं कि हाथी दृष्टिहीनों के लिये एक खम्भे की तरह होता है। सागर को पहली बार देखते हुए मेरे पास जो सुना–सुनाया अनुभव था, वह दृष्टिहीन का था। और जब मैंने सागर को प्रत्यक्ष देखा तो मेरे मुँह से अप्रयास जो वाक्य निकला- “माइ गॉड...यह सागर है...”

कानपुर में बरसात के दिनों देखी हुई गंगा का भीषण और भयावह रूप यह बताता था कि सागर इससे कुछ बड़ा होगा। अपने एक परिचित और बिहारी–परिवार से यह सुन चुका था कि पटना में महेन्द्रू घाट पर गंगा का पाट हर जगह से अधिक चौड़ा है। महेन्द्रू घाट पर पानी में चलने वाले जहाज चलते हैं। आदि–आदि। लेकिन गंगा के देखे हुए भीषण रूप से बड़ी परिकल्पना मन में नहीं थी। मेरा गाँव गोरखपुर जिले में आमी नदी के किनारे है। तीन ओर से मेरा गाँव ‘कुंडाभरथ’ आमी से घिरा है। लगभग हर साल बाढ़ आती है। पानी मीलों फैल जाता है। फसल नष्ट हो जाती है। गाँव के लोग एक–दूसरे को लगभग बताते हुए पूछते हैं-“नदिया समुन्दर हो गइल हो?” मैंने आमी की बाढ़ देखी है— कई साल, मगर सागर को अपनी आँखों में भर–आँख समेटते हुए मैंने सोचा कि यदि मेरे गाँव की आमी नदिया सचमुच कभी समुन्दर हो जाए तो मेरा गाँव कहाँ होगा? इससे पहले ऐसा आश्चर्य तब हुआ था जब पहली बार मैंने सिलीगुड़ी से गैंगटोक जाते हुए हिमालय को देखा था। चित्रों में देखे हुए पहाड़ और कश्मीर की वादियों का भरम टूट गया था। रामधारी सिंह “दिनकर” की कविता “मेरे नगपति, मेरे विशाल” और गोपाल सिंह ‘नेपाली’ की हिमालय को लेकर लिखी हुई कविताएँ याद आई थीं। हिमालय को देखते हुए. “इस पार हमारा भारत है, उस पार चीन–नेपाल देश” का अर्थ अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ समझ में आया था। मेरा मानना है कि बच्चों को प्रकृति के रूपों से अवश्य मिलवाना चाहिए। जितना ही इस मामले में विलम्ब होगा उतना ही प्रकृति को लेकर उनके भीतर अधकचरापन रहेगा।

मैं अपनी दार्शनिकता और भावुकता के उस दायरे में से निकलने की कोशिश में लगा जो मुझे वर्तमान से काट रही थी। मैंने सोचा कि अभी तो सिर्फ सागर और सागर के आस–पास को देखो। गोवा के ‘बीचेज’ के बारे में तो कितना सुना हुआ था कि गोवा मजेदार जगह है। किस मामले में? कि औरतें सुलभ हैं? यह सुनी–सुनाई बात दिल पर खुदी हुई–सी नक्श थी। जो कोई भी तब तक गोवा घूमा हुआ मिला था उसने बहुत बढ़ा–चढ़ाकर बताया था कि यार. औरतें तो गोवा में ऐसे मिलती हैं कि पूछो मत... 

बिना सचाई को भुगते कि औरत तो कहीं की भी सुलभ हो सकती है और कहीं की भी दुर्लभ। मजबूरी प्रादेशिकता का कवच नहीं पहनती। मगर उन दिनों यही मन में बसा हुआ, सुना हुआ सच था कि किसी गोवन औरत को अप्रोच भर कर दो तो वह पहलू में होगी। गोवन औरत में भी दुनिया की ही औरत होती है, यह समझ नहीं थी। और यह भी कि कहीं की भी हर औरत सुलभ नहीं होती। यह बात तो उनके संपर्क में आने पर ही मालूम पड़ी।

मेरे सामने चमकीली धूप को ओढ़ते–बिछाते लोगों का जमघट था। मेरे लिये परिदृश्य ही नया था। रोज आने–जाने वालों की भीड़। कभी–कभी आने वाले लोगों का ताँता। विदेशी पर्यटक। जवान जोड़े। हाथों में हाथ लिये एक–दूसरे में पूरी तरह खोए जिस्म। आत्माएँ न जाने कहाँ होंगी? क्या दुनिया है? फोटो खिंचवाते और फोटोग्रॉफरों को पता लिखाते लोग... पोलोराइड कैमरे से तुरंत फोटो लेते लोग... उनमें प्रेमी–युगल भी, नव–विवाहित दम्पति भी...  

और ऐसे दृश्य भी कि दुनिया को भूले हुए युगल जिनके जिस्म पर मात्र कुछ इंच कपड़े थे, जिस्म का कुछ हिस्सा ही ढँका था, उसे ढँकने भर से क्या कुछ ढँका रह जाता है?

मैंने मन से चाहा था कि उनके जिस्म पर वे कपड़े भी नहीं होने चाहिए थे। जब देखना और दिखाना पूरा हो तो पूरा होना चाहिए। उन युवतियों का लगभग पूरा जिस्म नंगा था जो दुनिया से खुद को काटकर सागर की लहरों में उतरी हुई थीं। दो–चार इंच कपड़े क्या ढँकते हैं और कितना ढँकते हैं, उन युवतियों को फर्क ही नहीं पड़ता था कि कौन उन्हें देख रहा है। उनकी सुडौल देहयष्टि ने मुझे वासना की आँधियों में बाँध लिया, आँधियों में मैं अकेला था।

सुन्दरता मेरी कमजोरी है और सुन्दर औरत तो और भी। मगर हर सुन्दर औरत के साथ सेक्स–संबंध बनाने की ही इच्छा हो, ऐसी बात भी नहीं। हर सुन्दर औरत मेरे संपर्क में आकर मुझसे दैहिक स्तर पर जुड़ना चाहती है ऐसा कोई भरम भी नहीं पालता। अपने रिश्ते में मैं बेहयाई को हथियार नहीं बनाता। अश्लील नैतिकता के सहारे औरत पर भावुकता के तीर नहीं छोड़ता। उसके कंधों पर ‘व्यर्थ' सिर टिकाने की कोशिश नहीं करता। संबंध अगर बनाए भी हैं तो व्यवसाय की तरह नहीं। और अगर कहीं व्यावसायिकता से पाला पड़ा भी तो खुद को खरीदार की हैसियत से बचा ले गया। औरत को कौन खरीद सकता है? उसे खरीदने का दावा करने वाले डींग मारते हैं। हकीकत में वे उसके पास से खुद को बेचकर लौटते हैं। 

मेरे सामने जो दुनिया थी वह उन्मुक्त थी। आज तो नहीं लगता है क्योंकि अनुभव बढ़ गए हैं। पर उस शाम जूहू बीच की देखी दुनिया ने जिस्म और जान को आंदोलित कर दिया था। एकदम मुक्त–से घूमते जोड़े और कहाँ छोटे शहरों में कोने तलाशते प्रेमी–युगल। घुटकर रह जाते हैं प्रेमी। उनके ख्वाब भी कहाँ ऐसे हो पाते हैं? वे तो बस इतना चाहते हैं कि बस उनका प्रिय उन्हें मिल जाए। बाकी की जिन्दगी वे हर तरह के अभावों के बावजूद साथ–साथ गुजार देंगे। उन्मुक्त आकाश में विचरने की उनकी इच्छाएँ कब ध्वस्त हो जाती हैं, उन्हें पता ही नहीं चलता। बहुत पुराना गीत यादों में से फुदककर बाहर आ गया है- “ये है बाम्बे मेरी जान...” दुनिया में भारतीय प्रेम की मिसाल मिलना दुर्लभ है। नए जमाने की बात तो बेवकूफी के सिवाय कुछ भी नहीं है। प्रेम का कारूणिक रूप अभिज्ञान शाकुंतल से लेकर आज की किसी नई कहानी तक वही सार्वभौम है जो सृष्टि के प्रारंभ से शुरू हुआ। प्रेम के भारतीय स्वरूप का स्कैनर दुनिया के किसी देश में नहीं है। जो प्रेम को खो देता है. उससे बड़ा कंगाल नहीं और जो प्रेम को अपनी यादों में बसाए रहता है उससे बड़ा कोई धनी नहीं।

मैंने भी तो यही सोचा था। मेरी प्रेमिका ने भी तो यही सोचा था— जी लेंगे, कैसे भी। मगर यह कैसे भी, किसी न किसी सामाजिक मर्यादा से बँध गया होगा। तभी तो वह बिछड़ गई। न जाने क्या हुआ होगा उसके साथ उन पलों में जब उसने मुझे भूल जाने का निर्णय लिया होगा मगर पहली बार समुद्र को देखते हुए और उसके असीम विस्तार को आत्मा तक महसूसते हुए मुझे वह भी उन्मुक्त नहाती हुई दिखाई दी। अपनी अनावृत्त काया के साथ। पहली बार। हकीकत यह भी कि मेरी बीवी भी उसके समानान्तर दिखी। कहती हुई कि “एक चेहरा, एक वजूद अब मैं भी हूँ, आपकी जिन्दगी में...” मैंने खुद से कहा कि हाँ और यह ‘होना’ अब हकीकत है और सोचा कि इस मन की भी बलिहारी है। जब कुछ सोचना चाहिए तब नहीं सोचता और जब कोई संभावना नहीं बची है तो प्रेमिका को निर्वसन देखने का खयाल जन्म ले रहा है।

समुद्र में मोटर बोट घूम रही थीं। लोग उनपर भी बैठकर समुद्र की छाती रौंद रहे थे। यह सब बीच पर नियमित आने वालों के लिये सामान्य–सी बात रही होगी मगर मेरे लिये तो किसी स्वप्न–लोक का अंश था जो पहली बार नमूदार हुआ था। कुछ आशिक पतंगों के भी थे और कुछ शायद पहलीबार घोड़े पर बैठे थे। एक सौन्दर्य था जो आँखों के आगे पहली बार आया था। मगर लौटना तो था ही। एक बार जी–भरकर उस नीले विस्तार को अपनी आँखों में बसाकर समुद्र के दूसरे छोर को तलाशने की असफल कोशिश की। शायद समुद्र से मैं यह कहना चाहता था कि तुम्हारे दूसरे किनारे की उस दुनिया को देखने निकल पड़ा हूँ। यह अलग बात है कि मैं वास्को–ड–गामा नहीं हूँ, फिर भी मैं उस किनारे पहुँचूँगा जरूर, जहाँ कुछ न कुछ तो जरूर होगा।

बीच पर ही पाव–भाजी खाया। खाया क्या, उसे आधे से अधिक फेंकना पड़ा। मुझे उसमें कोई स्वाद ही नहीं मिला। मेरे लिये तो वही बात हुई कि बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो कतरा–ए–खूँ निकला। कभी–कभी बहुचर्चित चीजें कितना अर्थहीन कुतूहल जगाए रखती हैं। पाव–भाजी के विषय में मेरी उत्सुकता भले ही खण्डित हुई हो मगर सागर को देखने के बाद मेरा कुतूहल और बढ़ा। कभी–कभी कुछ बातें अचानक भी यादों में कौंधती हैं। जाने कहाँ ये बातें दबी–दबी रहती हैं और जब–तब उभरती हैं तो चौकाकर छोड़ती हैं। ऐसी ही एक बात तबकी उभरी जब मैं सिक्किम छोड़ रहा था। मैंने कहा था- “प्रकृति को देखने की अदम्य प्यास है मुझमें, हिमालय तो यहाँ आकर देख लिया... अब सागर और रेगिस्तान देखने की इच्छा है।” उस समय अपने साथियों के बीच बोलते हुए यह कहाँ मालूम था कि सागर और रेगिस्तान देखने का अवसर इतना पास–पास मिलेगा।

शाम ढल चुकी थी, हवाएँ तेज होने लगीं। हवा जितनी तेज होती, लहरें उतनी ही जोर से किनारों से टकरातीं। अचानक न जाने क्यों यह खयाल आता कि सीमाओं से परे कोई भी नहीं है। न तो यह सीमाहीन समुद्र और न ही इसकी शक्ति–प्रदर्शन करती लहरें। कितना ही शोर मचा लें, कितना ही सिर टकरा लें, रहना एक दायरे में ही होगा। दायरे से मुक्ति नहीं है... इनसान कहीं भी हो ले, रहेगा वह भी दायरे में ही। मैंने रेस्तराँ के लिये टैक्सी ले ली। कुछ पलों बाद पानी बरसने लगा था। सड़क पर चलने वालों ने छाते खोल लिये थे। सिर छातों में ढक गए। धड़ दिख रहे थे, रेस्तराँ में दिन–सा नीम अँधेरा था। एक टेबल पर अधिकार जमाते हुए मैंने एक लार्ज व्हिस्की का आर्डर दिया।

जब रेस्तराँ से निकला तो भी पानी बरस रहा था। तेज। राजेश्वर का फ्लैट यही कोई एक फर्लांग पर था। मैं भीगते हुए चल पड़ा। मुझे अपने मित्र और कानपुर के बहुत प्यारे गीतकार श्रीप्रकाश श्रीवास्तव की बहुत मशहूर गजल ‘बरसात’ के शेर याद आए –
बरसात हो रही है शहर भीग रहा है
रंगीन पत्थरों का नगर भीग रहा है। 
पानी के ये छींटे सड़क पे दौड़ती कारें
ये किसका लहू है जो इधर भीग रहा है।
सब पूछते हैं आज यहाँ देखकर मुझे
ये कौन है जो छोड़के घर भीग रहा है। 

मुझे श्रीप्रकाश की बहुत–बहुत याद आई। हिन्दुस्तान में लोग उसे दूसरा “नीरज” कहते थे। कवि–सम्मेलनों में वह मंच लूटता था। मुक्तक, गीत और गज़ल कहते हुए उसका चेहरा इतना मासूम होता था कि दाद खुद ही निकल पड़ती थी। वह बींसवी सदी के उत्तरार्ध का सबसे कोमल और मासूम शायर था। हालात ने उसे शराबी बना दिया और शराब ने उसे दुनिया से छीन लिया। मेरा शहर कानपुर उसे बचा नहीं पाया। मेरे शहर के रचनाकार उसे सहेज नहीं पाए। मेरा शहर इस मामले में बड़ा बेरहम है। लेकिन यह बाद की बात है। जब मुझे उसकी गज़ल याद आई और वह याद आया तब तो वह सेहतमंद था। जब मैं सिक्किम जा रहा था तब भी वह रात के दो बजे मेरे दरवाजे पर था जबकि उसका घर मेरे घर से दस किलोमीटर दूर था। उसके पास सायकिल ही सवारी थी। वह कोई दूसरी सवारी चला ही नहीं सकता था। और जब मैं अबूधाबी के लिये निकला तब भी वह मेरे साथ था। मैं क्या कोई भी इस भयावह कल्पना को सोच ही नहीं सकता था कि श्रीप्रकाश को गले का कैंसर एकदम से ले उठेगा। यह कहना कि उसे बीड़ी और शराब ने मार दिया, पूरा सच नहीं होगा। बीड़ी–शराब पीने वाले भी दुनिया में लम्बी उम्र पाते हैं। श्रीप्रकाश जैसे इंसानों को सँभालने का काम खुद भगवान को करना चाहिए। इतने निर्दोष इंसान को जालिम दुनिया के हवाले करने के अपराध से ईश्वर भी नहीं बच सकता। मैं श्रीप्रकाश के बारे में इसी स्तम्भ में कभी आगे लिखूँगा। जब तक राजेश्वर के फ्लैट पर पहुँचा, पूरा भीग चुका था।

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