हाथ झारि के चले जुआरी
रास्ते भर बातें हुई राजेश्वर से। उनके परिवार के बारे
में पता चला कि दो बेटे और एक बेटी है। बेटी बड़ी है और
नवीं कक्षा में पढ़ती है। बेटे क्रमशः सातवीं और
पाँचवीं कक्षा में हैं। मैंने उन्हें जब बताया कि 'आज'
अखबार में काम करता हूँ तो वे कुछ पल रूके फिर
उन्होंने कहा- शायद पूछा कहना ज्यादा सही होगा- "मेरे
एक रिश्तेदार भी 'आज' में ही काम करते हैं...। कैसे
हैं...?" जिनके बारे में उन्होंने पूछा उनके बारे में
कुछ कहने से पहले मैं भी संकोच का शिकार हुआ लेकिन फिर
अपने को रोक न पाने की दशा में मैंने उनसे कहा अखबार
में किसी के साथ उनकी बनती नहीं, मेरे साथ भी नहीं
बनती। राजेश्वर कुछ देर चुप रहे फिर उन्होंने कहा कि
उनका स्वभाव ही ऐसा है।
मुझे यह बात कहनी ही होगी कि अखबारों के हर दफतर में
कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो अपने अधिकार की समर्थता के
कारण परपीड़ा में सुख पाते हैं। वह जगह जो दुनिया के
लोकतंत्र की दुहाई देने का चौथा खम्भा है वहाँ भी
हिटलरी तानाशाही किसी न किसी रूप में बरकरार है।
राजेश्वर के वे रिश्तेदार भी ऐसे ही थे। किसी के लगे
आइटम को वे उसके जाने के बाद काट देते थे। सुबह अखबार
देखकर अपना आइटम कटा पाने पर कोफ्त होती थी। जो लोग
गुस्से को सह नहीं पाते थे वे उनसे न केवल उलझ जाते
बल्कि उनकी ऐसी तैसी कर डालते थे मगर वे थे कि अपनी
आदत से बाज नहीं आते थे। संपादक कम प्रबंधक भी उन्हें
कई बार झिड़क चुके थे मगर 'चोर चोरी से जाए हेराफेरी से
न जाए' वाली बात उनके चरित्र की विशेषता थी। कुछ देर
के लिए हमारे बीच एक चुप्पी पसर गई।
मैंने मन ही मन सोचा कि अपनी अव्यावहारिकता या मूर्खता
में एक ऐसे माहौल को बना दिया है जिसको उस वक्त नहीं
बनना चाहिए था। मगर ऐसा होने के पीछे भी एक कारण था।
संपादक विनोद शुक्ला जो स्वयं कभी कुछ नहीं लिखते थे
परन्तु यह अच्छी तरह जानते थे कि किससे क्या लिखवाना
है। किसी भी गलती को बरदाश्त नहीं कर पाते थे। गुस्सा
आने पर हाथ छोड़ देना उनकी आदत थी। अखबार में प्रायः
सभी उनसे पिट चुके थे और जो नहीं पिटे थे वे झिड़की तो
खा ही चुके थे। मैं दोनों से बचा हुआ था। लेकिन एक
मौका ऐसा आ ही गया जिसमें मेरी स्थिति खासी बिगड़ गई।
हुआ यह कि कानपुर की प्रसिद्ध लाल इमली मिल में उन
दिनों कोई अधिकारी श्री वरदराजन थे जिन्हें वर्ष में
शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम कराने का शौक था। नाद
ब्रह्मन् नाम की उनकी संस्था कार्यक्रम आयोजित करती
थी। उसी संस्था के तत्वाधान में कार्यक्रम था जिसकी
रिपोर्टिंग मुझे करनी पड़ी। अब यह तो याद नहीं कि मेरी
गलती से या कम्पोजीटर की गलती से कार्यक्रम की
रिपोर्टिंग के कैप्शन में नाद ब्रह्मन् की जगह नाद
ब्रम्हण चला गया जिसकी शिकायत श्री वरदराजन तक न केवल
पहुँचाई गई वरन उन्हें इतना भर दिया गया कि उनके ऑफिस
से शिकायत लेकर कोई आ भी गया। मैं जब रोज की तरह अखबार
के दफतर पहुँचा तो मेरी टेबल का माहौल दूसरा था।
फुसफुसाते हुए किसी ने कहा तो आज तुम्हारा भी नम्बर लग
ही गया...भइया के ऑफिस में 'बी आई सी' की 'पी आर ओ'
डेढ़ घण्टे से है... विनोदजी को सभी भइया कहते थे। अगर
वे किसी पर उग्र होते थे तो यह उनकी कार्यशैली का ढंग
था। मगर वे सभी को प्यार भी करते थे जो उनका स्वभाव
था।
पूरी बात समझने के बाद लगा कि बात बिगड़ गई है और उसे
बिगाड़ने में उन्हीं का हाथ है जो अपनी आदत छोड़ने को
तैयार नहीं। मेरा मन कुछ उखड़ सा गया कि साली इतनी सी
गलती की ऐसी सजा तो खैर हर हाल में मंजूर नहीं। मैं
अपनी सीट पर बैठा उस पल की प्रतीक्षा कर रहा था जब
भइया से सामना होगा। जाहिर है कि मेरा पक्ष कमजोर था।
मगर कमजोर पक्ष भी कभी कभी कैसे सबल हो जाता है इसका
उदाहरण वह दिन मेरी जिंदगी में यादगार बन गया। मेरी
आँखें भइया के ऑफिस पर चोर दृष्टि से पहुँच पहुँचकर
लौट रही थीं। जब वे ऑफिस से निकले तो उनके साथ एक
सुदर्शना युवती थी। जब वे मेरी टेबल के पास से गुजरे
तो मैंने ही उन्हें रोकते हुए कहा भइया...एक मिनट...
वे ठिठके। जाहिर था कि किसी बाहरी के सामने तो वे मुझे
कुछ नहीं कहते। जो होता वह पी आर ओ के जाने के बाद ही
होता। मैंने उनके पास पहुँचकर लगभग उनके कानों में कहा
अगर रिपोर्टिंग में गलती न हुई होती तो क्या यह आपके
ऑफिस में इतनी देर बैठती? उन्होंने एक नजर मुझे देखा,
मुस्कराए और कहा, लिखा करो...लिखा करो...
आज जब यह लिख रहा हूँ तो भी यक़ीन से कह सकता हूँ कि
भइया शौकीन जरूर हैं मगर उनके चरित्र में कोई खोट है
ऐसा मेरा दिल नहीं मानता। राजेन्द्र राव तो खैर भइया
की कार्यशैली की बड़ी तारीफ करते हैं। हालाँकि मेरा सगा
छोटा भाई चि॰ रामनारायण त्रिपाठी भी बहुत से अन्य
लोगों की तरह मेरी बात से सहमत नहीं होता। वह भी जागरण
में भइया के साथ करीब १० वर्ष तक काम कर चुका है। मैं
शुरू के दिनों में विनोदजी के साथ काम करते हुए भी
करीब नहीं था। आज दूर रहकर भी करीब हूँ। उन दिनों उनके
साथ अखबार के संपादकीय विभाग के कुछ लोग बहुत करीबी
थे। पीना पिलाना प्रायः रोज ही होता था। एक बड़े अखबार
के संपादक के लिए ये बातें बहुत छोटी थीं। ऐसा तो उसके
स्टेटस सिंबल में था। मैं उन पॉर्टियों में शरीक होने
का मौका कभी नहीं पा सका जबकि मेरा मन भीतर से करता था
कि मैं भी उनके करीब हो जाऊँ। लेकिन वहाँ तो शैलेन्द्र
दीक्षित और दिलीप शुक्ल के साथ किसी नायकजी की जगह थी
जो विज्ञापन प्रबंधक थे। यह अलग बात है कि शैलेन्द्र
दीक्षित और दिलीप शुक्ल मुझे तब भी मानते थे और आज भी
मानते हैं लेकिन उम्र के हिसाब से ये लोग मेरे सीनियर
थे और अखबार की दुनिया में जमे हुए थे। बाद में तो
भइया के साथ मैंने अकेले शराब पी और उनके आमंत्रण को
अपने आमंत्रण में भी बदला। लेकिन यह तब हुआ जब मैं
अबूधाबी से छुट्टियों में गया। मेरी लेखकीय प्रगति से
उन्हें हमेशा खुशी मिली।
विनोदजी के हाथों मुझे पिटता हुआ न देख पाने का दुख
उनको जरूर हुआ होगा। लेकिन व्यक्ति और व्यक्ति में
अंतर होता है। राजेश्वर ने जैसे बातचीत के इस अध्याय
को ही भुला दिया। उन्होंने प्रसंग बदलते हुए पूछा
तुम्हारे रहने की व्यवस्था क्या है?
मैं तो सीधे बैंक ऑफ बड़ौदा मेकेंजी ऐण्ड मेकेंजी
बिल्डिंग जाऊँगा, वही लोग जानें...
नहीं, तुम मेरे घर ठहरोगे...अगली सुबह उनके पास
जाना...
राजेश्वर के उस प्रस्ताव पर मैंने न जाने कितनी बार
सोचा है। किसी अपरिचित से पहली मुलाकात। वह भी रेलवे
स्टेशन पर। उसके बाद बातों के दौरान उसके ही किसी
निकटतम के बारे में मेरी प्रतिक्रिया और फिर भी अपने
घर में मुझे एक अतिथि के रूप में ठहराने का स्वयं ही
प्रस्ताव। यह काम कोई बड़ा और बहुत बड़ा इनसान ही कर
सकता है। ट्रेन जब दादर पहुँचने वाली थी तभी उन्होंने
कहा यहीं उतरना है।
मैं उनके साथ ही उतर गया। ठीक याद नहीं कि कितना बज
रहा था। फिर भी शाम घिर आई थी। अँधेरा हो चुका था।
स्टेशन से बाहर निकलकर टैक्सी लेने के बजाय वे बस
स्टैण्ड पर खड़े हुए और कुछ ही पलों के बाद हम बस में
थे। बम्बई मैं पहली बार पहुँचा था। वहाँ की बस में
चलने का मेरा यह पहला अनुभव था जिसने मुझे चकित किया
था। बस आती थी और उतने ही यात्रियों को लेकर चल देती
थी जितनी सीट होती थी। सब कुछ कुछ सेकेण्डों में हो
जाता था। मैंने सोचा कि क्या यह उत्तर प्रदेश और बिहार
में नहीं हो सकता...?
शायद तबतक नहीं हो सकता जबतक उत्तर प्रदेश और बिहार के
नागरिक सभ्य नागरिक नहीं हो जाते। क्योंकि सरकारें या
कानून किसी को सभ्य क्या बनाएँगे वे तो खुद ही इन
लक्षणों से कोसों दूर हैं। सभ्य और सुसंस्कृत हो पाने
के लिए किसी विश्वविद्यालय में नहीं जाना होता बल्कि
अपने खानदान से यह गुण विरासत में पाना होता है। इस
गुण को पाने के लिए उच्च कुल में पैदा होना जरूरी
नहीं। जरूरी है इनसान बनकर जन्मना। इनसान बनकर बढ़ना।
खैर...
राजेश्वर मुझे साथ लिए हुए अपने घर पहुँचे। उन्होंने
कॉल बेल दबाई। ऐसे किसी मकान में पहुँचने का भी यह
मेरा पहला अनुभव ही था। कानपुर में या सिक्किम में तब
तक किसी अपने के मकान में मैंने कॉल बेल नहीं देखी थी।
दरवाजे में एक छेद भी था जिससे किसी ने भीतर से झाँका
और तब दरवाजा खोला जो खुलने के बाद भी एक चेन से जुड़ा
था। ये सारी बातें मेरे लिए नई थीं।
दरवाजा उनकी पत्नी ने खोला। मुस्कान के साथ। हल्के
साँवले रंग की लम्बी और स्लिम श्रीमती गंगवार अपने गोल
चेहरे और बड़ी बड़ी आँखों में प्रतीक्षा को जैसे एक अरसे
से बसाए हुए थीं। उन्होंने साड़ी पहनी हुई थी और आकर्षक
लग रही थीं। असल में उनमें एक सहज ग्रामीण या कह लें
कि कस्बाई सौन्दर्य था जो हर मध्यवर्गीय को अपनापन
दिखाते हुए अपने पड़ोस का लगता है। मकान में घुसते हुए
गंगवार ने कहा इन्हें तुम भी जानती हो, कृष्ण
बिहारी...जिनका लेख तुमने... वह अपना वाक्य पूरा कर
पाते उससे पहले ही श्रीमती गंगवार ने कहा कल का सुखिम
: आज का सिक्किम आपने ही लिखा है न... मुझे क्या किसी
भी लेखक को इससे बड़ी खुशी क्या मिलती कि वह पहचाना
जाता है। मेरे पास अपने पाठकों के लिए केवल विनम्रता
है। उनकी स्नेहसिक्त मोहब्बत मुझपर एक कर्ज़ है जो मैं
अपनी विनम्रता से ही लौटा सकता हूँ। रचनाकार में उसका
एक 'ईगो' होता है। यह मैं मानता हूँ लेकिन यह ईगो तो
सब में होता है। एक सच्चा रचनाकार इस ईगो के बावजूद
प्रायः जमीन पर होता है और जो नकली रचनाकार होते हैं
वे सबके सामने आसमान पर होते हैं। मैं ऐसे रचनाकारों
से बहुत दूर रहता हूँ जो खुद को खुदा समझते हैं और
दूसरों को हेय। लड़ने पर आमादा चरित्र लेखक का नहीं
होता। वह तो कन्विसिंग का तरीका अपनाता है। शायद यही
कारण है कि मेरा कोई दुशमन नहीं है। मैं किसी पॉर्टी
का मेनीफेस्टो नहीं हूँ कि उसकी जबान बोलूँ। मैं किसी
संगठन से जुड़ा नहीं हूँ। मैं किसी ब्रेकेट में बंद
नहीं हूँ मेरा मन जो कहता है मैं वही लिखता हूँ। मेरे
लिखने पर किसी का दबाव विचारधारा के रूप में शामिल
नहीं चाहे मेरे घर में दंगा ही क्यों न हो जाए...।
खैर, हम अभी कमरे में कुर्सियों पर बैठे ही थे कि
बच्चों ने नीचे ही एक मैट बिछाई और राजेश्वर को अपने
साथ बैठा लिया। शतरंज का खेल शुरू हो गया। मिसेज
गंगवार और गंगवार के बीच। बेटी बाप की ओर हो गई और
बेटे माँ की ओर। मैंने शतरंज के इतने बड़े प्रेमी आजतक
नहीं देखे। मुझे यह खेल कभी अच्छा नहीं लगा। खासकर
प्रेमचंद की कहानी शतरंज के खिलाड़ी पढ़ने के बाद तो इस
खेल से ऐसी अरूचि हो गई कि सत्यजित रे ने जब फिल्म
बनाई तो राजेन्द्र राव के बहुत जोर देने पर उनके साथ
ही फिल्म देखी। निस्सन्देह अच्छी फिल्म थी लेकिन इसने
भी मेरे मन में इस खेल के प्रति वितृष्णा भर दी। जबकि
मैं इससे भी निकृष्ट खेल ताश का और वह भी जुए का कभी
घनघोर नशेड़ची रह चुका था। बड़े कटु अनुभव से मैंने ताश
का खेल छोड़ा था। फिलहाल एक नए परिवेश में नए लोगों के
बीच मैं बैठा था और मेरे सामने शतरंज का वह खेल चल रहा
था जो मेरी समझ से बाहर था। काफी देर तक खेल चलता रहा।
इस बीच चाय आती रही। खाने में रोटी को छोड़कर सबकुछ
पहले से बना हुआ था। रोटियाँ जब बननी शुरू हुईं तो हम
खाने की मेज पर आए। राजेश्वर का घर अंधेरी में
मिलनधारा अपार्टमेण्ट में शायद दूसरे या तीसरे फ्लोर
पर था। सिंगिल बेडरूम फ्लैट। एक ड्राइंग कम डाइनिंग
रूम और एक बेड रूम। किचेन और ड्राइंग रूम के बीच
बॉथरूम था। जब हम खाना खा रहे थे तो गंगवार ने अपनी
पत्नी को संबोधित करते हुए कहा कृष्ण बिहारी को बताओ
कि हमारे घर से कितने लोगों ने विदेश जाने के लिए
इण्टरव्यू दिया और सभी चुन लिए गए, लेकिन...विदेश जाने
के बाद कोई हमारे घर नहीं आया।
मिसेज गंगवार ने तो नहीं बताया कि उनके घर में ठहरकर
कितने लोगों ने विदेश जाने के लिए साक्षात्कार दिए मगर
मुझे बड़ा अजीब लगा कि लोग कभी उनसे मिलने भी क्यों
नहीं आए। आज सोचता हूँ कि राजेश्वर की जबान क्या सचमुच
काली है कि उन्होंने जो मेरे सामने कहा वह मेरे लिए भी
तो सच ही हो गया। मैं ही सत्रह वर्ष में राजेश्वर के
घर कहाँ जा सका? मेरा आना जाना दिल्ली से हो गया।
बाम्बे मेरे लिए उलटा पड़ता था। एक बार मुझे बाम्बे
एयरपोर्ट पर करीब १२ घण्टे रूकना भी पड़ा और मैंने बहुत
कोशिश की कि फोन से ही संपर्क हो। लेकिन मैं उन्हें
खोज नहीं पाया। एक बड़ी अजीब बात भी उस खाने की मेज पर
याद आई थी। गैंगटोक में मैं जिस फ्लैट में रहता था
उसमें मुझसे पहले जितने भी लोग रहे वे सभी विदेश चले
गए। जब वह फ्लैट मुझे अलॉट हुआ और मैं उसमें रहने गया
तभी किसी ने कहा था कि आप भी विदेश चले जाएँगे। इस
मकान में जो भी आया वह विदेश चला गया। मुझसे पहले
उसमें मिस्टर पंत, मिस्टर रऊफ, .मिस्टर एस के
श्रीवास्तव और सुभाष चक्रवर्ती रह चुके थे। मैंने याद
किया कि सभी विदेश में थे और यह भी याद आया कि मैंने
एक कहानी भी लिखी थी "मकान नम्बर एक, किस्से अनेक"
जिसे वर्माजी को भेज दिया था और उन्होंने इलाहाबाद की
किसी पत्रिका में उसे छपवाया था जिसके पारिश्रमिक के
तीन सौ रूपयों में से आधा खुद रख लिया और आधा मुझे
देते हुए कहा था आज की दारू का पेमेण्ट तुम्हारी तरफ
से...उन्होंने मेरी मेहनत में से ही दारू पी थी। असल
में दारू हम दोनों की कमजोरी थी।
राजेश्वर के घर में उस रात सोते हुए न जाने क्या कुछ
दिमाग में घूमता रहा। नई जगह पर मुझे नींद नहीं आती।
शायद पूरी रात मैं जागता ही रहा। सुबह ऑफिस जाने से
पहले राजेश्वर ने मुझे बड़े कायदे से समझा दिया कि मैं
मेकेंजी ऐण्ड मेकेंजी बिल्डिंग के सामने बैंक ऑफ बड़ौदा
के कार्यालय में कैसे पहुँच सकता हूँ। बच्चे स्कूल चले
गए थे। राजेश्वर भी ऑफिस चले गए। मैं उस फ्लैट में
उनकी पत्नी के साथ अकेला रह गया। मैंने पहले ही कहा है
कि वे बहुत हद तक संयत और घरेलू महिला थीं। उनके प्रति
आदर का भाव ही जन्म सकता है। उन्होंने मुझे नाश्ता करा
दिया था। मुझ जैसे बेहद इण्ट्रोवर्ट और उन जैसी घनघोर
संकोची महिला के बीच किसी प्रकार के संवाद की कोई
गुंजाइश ही नहीं थी। बस, दो-चार वाक्य ही नाश्ते के
दौरान इधर–उधर हुए होंगे। उसके बाद किसी तरह दो घण्टों
का समय काटकर मैं साक्षात्कार के लिए जब निकलने वाला
ही था तो उन्होंने मेज पर चाय का प्याला रखते हुए कहा
आपको सफलता मिलेगी, चाय पीकर जाइए। मैंने चाय पी।
हमारे बीच कोई बातचीत नहीं हुई। मैं एक ब्रीफकेस के
साथ बाहर निकल पड़ा। ब्रीफकेस में मेरे प्रमाण पत्र और
मेरी प्रकाशित रचनाओं की ओरिजनल कटिंग्स थीं। मुझे
अशोक के पत्र से तो भरोसा था ही। अपने पर भी विश्वास
था कि साक्षात्कार हुआ तो चुना ही जाऊँगा।
बस पकड़कर मैं मेकेंजी ऐण्ड मेकेंजी बिल्डिंग के पास
पहुँचा। आज एकदम साफ साफ याद तो नहीं है लेकिन वह जगह
बाम्बे वी टी स्टेशन और टाइम्स ऑफ इण्डिया के ऑफिस से
करीब थी। इसे मैंने अपनी दूसरी यात्रा में जाना। बैंक
आफ बड़ौदा में कोई अधिकारी श्री सुखतांकर थे—
प्रफुल्लचित्त। मुझसे बहुत प्रेम से मिले और बोले कि
आपके बारे में स्कूल की चिट्ठी मिल चुकी है। इण्टरव्यू
तो बस औपचारिकता है। उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। आपका
चुनाव हो चुका है। उन्होंने मुझे बैंक के एक कमरे में
बैठने को कहा। चाय वगैरह वहीं आई। करीब एक घण्टे बाद
दो तीन अधिकारी से लगने वाले लोग आए। शायद उन्हें
बुलवाया गया था। एक कमरे में जब वे सब लोग बैठ गए तो
फिर मुझे वहाँ बुलवाया गया। मुझे याद पड़ता है कि उनमें
से किसी की हिन्दी अच्छी नहीं थी। किसी ने विषय से
संबंधित एक भी प्रश्न नहीं पूछा। एक सवाल था कि आप
विदेश में हिन्दी किस तरह पढ़ाएँगे। जवाब शायद यही दिया
था कि पहले वहाँ पहुँचकर उन स्थितियों से वाकिफ तो हो
लूँ जिनमें मुझे पढ़ाना है।
पन्द्रह बीस मिनट बातें हुईं। चाय और सिगरेट पी गई।
किसी ने अपने पैकेट से सिगरेट ऑफर की थी। मैंने
धन्यवाद के साथ अपना ब्राण्ड कैपसटन निकाल लिया था।
मुझे बताया गया कि नियुक्ति पत्र अगले दस दिनों में
मिल जाएगा। वीजा मिलने में जो समय लगे वही मेरी
प्रतीक्षा होगी। उन्होंने मुझसे पासॅपोर्ट की फोटोकॉपी
माँगी जो मेरे पास नहीं थी। जब पॉसपोर्ट ही नहीं बना
था तो फोटोकॉपी कहाँ से होती। असल में जब अशोक से
सूचना मिलने के बाद अबूधाबी इण्डियन स्कूल से
कम्यूनिकेशन में देर होती गई तो एक उदासीनता ने मुझे
उस दिशा में सोचने से रोक रखा था। अब जब बात यहाँ तक
पहुँच गई तो मुझे पॉसपोर्ट के बारे में कुछ तो कहना ही
था। मैंने उनसे कहा कि प्रॉसेस में है। मिलते ही भेज
दूँगा। एक तरह से निश्चिंत सा मैं मेकेंजी ऐण्ड
मेकेंजी बिल्डिंग से बाहर निकला। अब मेरे सामने कानपुर
लौटने का कार्यक्रम था। बम्बई में रूकने का कोई औचित्य
नहीं था। मैंने बाम्बे वी॰ टी॰ से कानपुर वापसी का
आरक्षण कराया। एक शहर जो मेरे लिए उस समय भी अजूबा था
और आज भी अजूबा है। उसे देखने की बात मन में जरूर थी।
मगर उतावलापन नहीं था। कोई बेकली नहीं थी। पता नहीं
कैसा तो एक खालीपन था उन दिनों जो हर ओर से निरासक्त
किए था। मैं बिना कहीं घूमे सीधे राजेश्वर के घर आया।
टैक्सी में बैठे हुए सड़क पर से ही जो बम्बई दिखी वही
मेरे लिए एक अलग सी विचित्रता लिए थी। राजेश्वर के घर
में पहुँचते ही मैंने उनकी पत्नी और बच्चों को बताया
कि रात की ट्रेन से वापस कानपुर जा रहा हूँ। आपने जो
कहा था कि इस घर से जिसने भी विदेश जाने के लिए
साक्षात्कार दिया वे सभी सफल रहे तो मैं भी उनकी
पंक्ति में शामिल होने जा रहा हूँ।
शाम को करीब छह बजे राजेश्वर वापस लौटे। मेरी सफलता के
प्रति वे मुझसे अधिक आश्वस्त थे। उन्होंने प्रसन्नता
व्यक्त की। उनकी इच्छा थी कि मुझे बम्बई देखनी चाहिए
थी। दो–तीन दिन बाद का टिकिट कराना था। मैंने बम्बई
भ्रमण को बाद के लिए टाल दिया जो अबतक टला हुआ है। रात
आठ से पहले मैं बाम्बे वी टी के प्लेटफॉर्म पर था। एक
जन समुद्र मेरे चारों ओर था जिसमें आदमी की कोई औकात
नहीं थी। ट्रेन जब प्लेटफॉर्म पर आ लगी तो मैं अपनी
बर्थ पर पहुँचा। कम्पार्टमेंट में एक अलग नजारा था।
उसमें रॉयल नेपाल के दो सिपाही एक नेपाली को हथकड़ी
लगाए हुए जमे थे। अखबार में काम करने के कारण इस तरह
के दृश्यों से मैं दो चार हो चुका था। खला यही कि इतनी
लम्बी यात्रा में इन्हीं मुसाफिरों के साथ सफर तय करना
होगा। अभी ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़ती इससे पहले एक नवजवान
लड़के ने कम्पार्टमेण्ट में प्रवेश किया। उसकी भी बर्थ
मेरे साथ थी। कुछ समय तक एक स्वाभाविक चुप्पी रही उसके
बाद जब मैंने उससे बातें शुरू की तो पता चला कि वह भी
कानपुर जा रहा है। उसकी ससुराल कानपुर में है और शादी
के बाद पहलीबार जा रहा है। वह एयरफोर्स में काम करता
है। पत्नी कानपुर में प्रसव के लिए गई है।
ट्रेन जब चल पड़ी तो रॉयल नेपाल के दोनों सिपाहियों ने
शराब की बोतल खोल ली। यह दृश्य आँखों को तो सुहावना लग
सकता था मगर दिल को बेहद तकलीफ देनेवाला था। वे दोनों
पिये जा रहे थे और अपनी नेपाली में टुल्ल हो रहे थे।
मैं पाँच साल के करीब सिक्किम में नेपालियों के बीच रह
चुका था। नेपाली समझता भी था। थोड़ी बहुत बोल भी लेता
था मगर उस वक्त सब कुछ बेकार था। मैंने एयरफोर्स के
जवान से पूछा कि क्या उसके पास कुछ नहीं है। वह बोला
कि इससे पहले की यात्राओं में वह हरदम रखता रहा है मगर
पहलीबार ससुराल जाने के कारण इस बार उसके पास कुछ नहीं
है। एक मायूसी सी हमारे बीच थी। मैंने मन ही मन कहा कि
यह यात्रा भी साली यादगार ही हो गई। एक कोफ्त सी हो
रही थी। ट्रेन जब भुसावल पहुँची तो एक लड़का चाय की
पुकार के साथ घुसा। मैंने उसे रोका तो वह बोला क्या
माँगता?
मैं भिखारी नहीं हूँ...यह बताओ कि कुछ पीने को मिलेगा?
क्या माँगता? उसने फिर पूछा। मुझे लगा कि इस माँगता
शब्द के रूढ़ अर्थ को छोड़ना होगा। मैंने कहा शराब...
तीस का पचास में मिलेगा।
ले आओ...
पैसे...
मैंने उसे पचास रूपये दिए जिन्हें लेकर वह ट्रेन से
उतर गया। जब उसे आने में देर होने लगी तो लगा कि वह
ठगकर चला गया। यहाँ तक कि ट्रेन भी रेंगने लगी और तभी
न जाने कहाँ से वह भूत प्रेत की तरह कम्पार्टमेण्ट में
आया और बोतल थमाकर फिर चलती ट्रेन से कूद गया। बेईमानी
में ईमानदारी है यह बात इससे बेहतर किसी उदाहरण से समझ
में नहीं आएगी। मैंने भुसावल को गोआ बना दिया था। लड़का
रम का हॉफ दे गया था। उसे मैंने एयरफोर्स के जवान के
साथ पिया। बात पीने की नहीं सुकून की और जिद पूरा करने
की थी। लगा कि सचमुच सुकून मिला। कहाँ सामने पीते हुए
रॉयल नेपाल के सिपाही और कहाँ प्यासे लोग...मगर उन
सिपाहियों की बोतलों के सामने मेरा मंगाया हुआ हॉफ
भारी पड़ गया था।
कानपुर पहुँचकर मैंने सबको बता दिया कि चुनाव हो चुका
है। कुछ दिनों में चला जाऊँगा। पासॅपोर्ट बनवाने का
झमेला शुरू हुआ। नहीं मालूम था कि देश के पॉसपोर्ट
ऑफिस भ्रष्टाचार के अड्डे हैं। रण्डी के दलाल नौजवान
औरत के नाम पर आपको बुढ़िया से मिलाने की ईमानदारी दिखा
सकते हैं मगर पॉसपोर्ट ऑफिस के दलाल आपका पैसा खाकर भी
काम समय पर करा दें तो बड़ी बात होगी। मैं तो अखबार का
आदमी होने के नाते बहुत बड़ा आदर्शवादी बनता था। मुझे
उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। दलालों के सामने बड़े-बड़े
लोगों की औकात गुम हो जाती है। मैं तो मामूली आदमी था।
लखनऊ का पॉसपोर्ट ऑफिस उन दिनों दलालों का अड्डा बना
हुआ था। मेन गेट पर ताला सुबह ही लग जाता था। दलाल के
माध्यम से ही पॉसपोर्ट बनते थे। उनकी भाषा में हर
पॉसपोर्ट एक केस हुआ करता था। मैं उनका केस नहीं बना
इसलिए मेरा पॉसपोर्ट भी नहीं बन रहा था। हर दिन सुबह
पाँच बजे मैं अपनी मोटरसायकिल से कानपुर से लखनऊ जाता
और शाम के पाँच बजे दफ्तर बंद होने पर असफल कानपुर
लौटता। कभी कभी तो इतनी देर हो जाती कि रात दो तीन बजे
हाइवे की बिना रोशनी वाली सड़क पर भूत की तरह गाड़ी
चलाते हुए लौटता। एक दिन जब पॉसपोर्ट ऑफिस की
कार्यशैली से बहुत तंग आ गया तो सारी शराफत छोड़ते हुए
अफसर के कमरे में घुस गया। वहाँ जो गदर कटा उसका अंजाम
यह हुआ कि मेरा पॉसपोर्ट मेरी आँखों के सामने बना। मैं
देख रहा था कि गंदी हैण्डराइटिंग में पॉसपोर्ट के कॉलम
भरने वाली महिला मेरा नाम गलत लिख रही थी। उसने बिहारी
में 'आई' की जगह 'ई' लिखा लेकिन मैंने उसे रोका नहीं।
हालाँकि उसे गलत नाम लिखते हुए मैंने देखा था लेकिन
जल्दी में न तो मैं सोच सका और न इतनी तमीज थी कि
पॉसपोर्ट जैसे महत्वपूर्ण दस्तावेज को गलत नहीं होना
चाहिए। सिर्फ एक अक्षर गलत होने की वजह से मुझे उस समय
बड़ी जद्दोजहद से गुजरना पड़ा जब तीन साल बाद मैंने
पत्नी और बच्चों के वीजा के लिए आवेदन किया।
पॉसपोर्ट की फोटोकॉपी मैंने अबूधाबी इण्डियन स्कूल को
भेज दी। यह बात सितम्बर ८५ की है। कायदे से मुझे इसी
समय ज्वॉयन करना था मगर पॉसपोर्ट न होने के कारण वैसा
सम्भव नहीं हुआ। अब अखबार के दफतर में भी प्रायः सबको
मालूम हो गया कि मैं जल्द ही चला जाऊँगा। नियुक्ति
पत्र तो जैसा साक्षात्कार के समय बताया गया था उसके
हिसाब से दस दिनों में मिल भी गया था। अखबार में लोगों
से अबूधाबी के बारे में पूछता तो किसी के पास आथेन्टिक
जानकारी नहीं थी। सब दुबई और शारजाह तो जानते थे मगर
अबूधाबी के बारे में कुछ बता नहीं पाते थे। कुछ का
कहना था कि भूलकर भी अरब के किसी देश में मत जाओ। बड़े
कड़े कानून हैं। पानी तक तो मिलता नहीं। शराब क्या खाक
मिलेगी। औरत को देखने के लिए तरस जाओगे। नाना प्रकार
की बातें होतीं। मैं रोज ही प्रतीक्षा करता कि आज वीजा
मिलेगा...आज वीजा मिलेगा...मगर दिन फिर निराशाजनक रूप
से बीतने लगे। जो कुत्ता मैंने खरीदा था उसकी वजह से
घर का माहौल और कसैला हो रहा था। घर में उन दिनों ऐसी
गाय थी जो कुत्ता देखकर भड़क उठती थी। अगर दुही जा रही
होती और कुत्ते को देख लेती तो कूदने लगती और सारा दूध
गिर जाता। स्थिति इतनी बिगड़ गई कि घर की शांति के लिए
कुत्ते को निकालना जरूरी हो गया। मैंने दफ्तर में बात
की तो साथ ही काम करने वाले दिनेश श्रीवास्तव ने उसे
पालने की इच्छा व्यक्त की। मैंने उससे कहा कि अगले दिन
सुबह दस बजे आकर ले जाए।
रात को प्रेस से घर आकर मैंने पत्नी को बताया कि कल
कुत्ता चला जाएगा। दिनेश के घर में पलेगा। लेकिन सुबह
न जाने क्या हुआ कि मैंने पत्नी से कहा कि जब दिनेश आए
तो कह देना कि उन्होंने तो इस विषय में कुछ घर में कहा
नहीं। चाय पिलाकर विदा कर देना। असल में कुत्ते को
किसी को देने की मानसिकता ही नहीं बन पा रही थी। एक
लगाव मुझे उससे था वह छूट नहीं पा रहा था। दिनेश जब
आया तो मैं घर में ही था मगर मैं उससे मिलने बाहर नहीं
निकला। वह चाय पीकर मायूस सा वापस चला गया। लेकिन उसके
जाने के बाद एक अपराधबोध ने मुझे घेर लिया। मैंने ही
उसे बुलाया था। करीब सोलह किलोमीटर दूर से वह कुत्ता
लेने मेरे बुलाने पर ही आया था। मुझे लगा कि मैंने
बहुत घृणित व्यवहार किया है। जब घर में कुत्ते को रख
पाना संभव नहीं है तो क्यों न उसे किसी ऐसे को दे दूँ
जो प्यार से पाले। जहाँ वह घर के एक सदस्य की तरह देखा
जाए। मेरे घर में कुत्ते को सहज स्नेह मिल पाना संभव
ही नहीं था। शाम को अखबार के दफतर में पहुँचकर सबसे
पहले मैंने दिनेश से माफी माँगी। वह कुत्ते के प्रति
मेरे लगाव को समझ भी गया और शायद इसीलिए ज़रा भी बुरा
नहीं माना। मैंने फिर उसे अगले दिन न केवल बुलाया
बल्कि साथ जाकर कुत्ते को उसके घर तक पहुँचा दिया। हर
अगले दिन के साथ दिनेश बताता कि कुत्ता घर में सबके
साथ एडजस्ट कर गया है। इतना प्यारा है कि सभी उसे
चाहते हैं। बिल्कुल उल्टी बात थी कि वही प्यारा कुत्ता
मेरे घर में अनवांटेड होकर निकला था। खैर...
उसी कुत्ते ने दिनेश के घर में अचानक ऐसी स्थिति पैदा
कर दी कि शायद जिन्दगी में उस परिवार में कभी कोई
कुत्ता पाला नहीं जाएगा। एक सुबह दिनेश बहुत परेशान
हालत में मेरे घर आए। बोले चलो...। देखो...कुत्ते को
क्या हो गया...माँ, बहन, बीवी और पिताजी को काट चुका
है, बस...मैं बचा हूँ...। मैं तुरंत उसके साथ चल पड़ा।
वहाँ जाकर देखा तो कुत्ता पागल हो चुका था...पहले तो
कुत्ते को मारा गया और उसके बाद शुरू हुई इंजेक्शन की
खोज...
कानपुर के किसी अस्पताल में सुई नहीं थी। स्वास्थ्य
मंत्री नरेन्द्र सिंह से भी मुलाकात की गई। पूरे उत्तर
प्रदेश में कहीं भी इंजेक्शन नहीं था। पता चला कि
बाम्बे जाना होगा। वहाँ चंद्रा ऐण्ड चंद्रा फॉर्मेसी
में इंजेक्शन हैं। बिचारे का पूरा परिवार इंजेक्शन
लगवाने बाम्बे गया।
मैं बीतते दिनों के साथ मायूस हो रहा था। कभी लगता कि
वीजा बहुत जल्द मिल जाएगा और कभी लगता कि यह सब हवा
में चले तीर का नतीजा है। कुछ होना हवाना नहीं है।
शायद अक्टूबर की बात होगी। शाम को जब मैं दफ्तर पहुँचा
तो टेबल पर दो चार लोग कुछ ज्यादा ही दिखाई दिए।
श्यामजी दीक्षित जो क्राइम रिपोर्टर थे, मुझे देखते ही
बोले आओ यार...देखो पण्डितजी, इस लड़के का भाग्य
बताओ... मैंने देखा एक बीस बाईस साल का साँवला सा युवक
कुल्हड़ से चाय पीते हुए कई लोगों से घिरा था। मेरे
माथे की ओर देखते हुए बोला विदेश जाने का योग है मगर
कुछ बाधा भी है... १२ फरवरी से पहले नहीं जा सकते।
पहले तो मैं उसके विदेश से संबंधित कुछ भी कहने पर
चौंका फिर लगा कि हो सकता है मेरे पहुँचने से पहले
श्यामजी या किसी और ने उससे इस प्रसंग में चर्चा की
हो। लेकिन जब उसने यह कहा कि १२ फरवरी से पहले कोई योग
नहीं है तो एक बार फिर उसी तरह हँसी आई जैसी अपनी शादी
के संबंध में सुनी भविष्यवाणी से हुई थी। एक मन था जो
बोला कि केवल वीजा मिलने की देर है, लोग तो सितम्बर
में ज्वॉयन भी कर चुके हैं।
दूसरा मन था जो कह रहा था कि शायद कुछ भी नहीं होगा...
भारतीय मानस ही कुछ ऐसा है जो किसी को हतोत्साहित करने
में ज्यादा खुशी पाता है। मुझतक भी लोगों के कटाक्ष
पहुँचने लगे थे कि अरब वरब जाने की बात शिगूफे के
अलावा कुछ नहीं है। इन बातों से मुझे तकलीफ होती थी।
लोगों का मक़ सद ही यही था। मुझे अर्मापुर में जानने
वाले तो बहुत थे मगर उनमें शुभचिंतकों की संख्या कम
थी। या शायद अधिक रही भी हो तो भी अधिकांश को हँसी
उड़ाना ही आता था। प्रतीक्षा में सुख मिलता है मगर यदि
प्रतीक्षा अंतहीन हो जाए तो दुख भी बहुत देती है।
उन दिनों अशोक को लिखे मेरे पत्र यदि उसके पास हों तो
उन पत्रों से मेरी सामाजिक़ आर्थिक और मानसिक दयनीयता
का सही चित्रण मिल सकता है। मैंने उसे लिखा था कुछ भी
करो, अब यहाँ से निकालो मुझे, असहनीय स्थिति है...अशोक
क्या कर सकता था। जो कुछ उससे हो सकता था उसने किया ही
था। उससे अधिक उसके अधिकार में नहीं था। कभी-कभी हम
किसी के उपकार को भी कितने हल्के ढंग से लेते हैं।
इतना ही नहीं यदि उसके द्वारा किए जा रहे प्रयत्नों के
बाद भी काम के बनने में देर लग रही हो तो हम यह तक सोच
लेते हैं कि शायद वह कुछ कर ही नहीं रहा। अशोक ने जवाब
में लिखा कि काम अपने समय से ही होगा। बाकी विजय से
कुछ कहने सुनने का कोई फायदा नहीं है। इमीग्रेशन विभाग
से जैसे ही वीजा मिलेगा वैसे ही विजय उसे भेज देगा।
मेरे सामने प्रतीक्षा के अलावा सचमुच कोई और चारा नहीं
था।
उन्हीं दिनों आज अखबार में खलबली मच गई। मालिक और
विनोदजी में कुछ हुआ होगा। विनोदजी ने नौकरी छोड़ दी।
उनके नौकरी छोड़ने से पहले जब उन्हें मैंने बताया कि
मेरा अबूधाबी के एक स्कूल में जॉब हो गया है तो
उन्होंने मुझे अपने कंधे तक उठा लिया और प्रेस के गेट
तक लाते हुए कहा कृष्ण बिहारी अब कभी जीवन में मुझसे
नौकरी माँगने मत आना... वे मुझे प्रेस के बाहर तक उसी
तरह ले गए थे। मैं समझता हूँ कि इससे अच्छा फेयरवेल
किसी को भी आज अखबार में अबतक नहीं मिला होगा। विनोदजी
के जाने के बाद प्रेस का माहौल ही बिगड़ गया। कानपुर
टेबल के सभी लोगों ने काम करना बंद कर दिया। असली कारण
क्या था यह आजतक नहीं समझ सका. शायद विनोदजी के पक्ष
में यह सब हुआ। समझौते के लिए शार्दूल विक्रम गुप्त
बनारस हेड ऑफिस से आए। रात के एक बजे मेरी उनसे
मुलाकात हुई। उन्होंने मुझसे कहा कि आप झाँसी चले
जाएँ। मैंने कहा न तो मैं झाँसी जाऊँगा और न ही आपके
अखबार की किसी और ब्रांच में भविष्य में काम करूँगा...
लोग उद्योगपतियों से डरते हैं। पता नहीं क्यों मैं
उद्योगपतियों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देख पाता।
तो...
मुझे तीन माह का वेतन दीजिए, मैं रिजाइन कर देता हूँ,
या आप मुझे वेतन देकर टर्मिनेट कर दें।
उन्होंने तीन माह के वेतन का तुरंत भुगतान करवा दिया।
जिस अखबार में सबका बाउचर पेमेण्ट होता हो वहाँ
इस्तीफा या बरखास्तगी का कोई औचित्य नहीं था। मेरी
नौकरी तो छूट गई मगर मैं पल में ही रंक से राजा बन गया
था। मेरी जेब में पैंतालीस सौ रूपये थे।
मैं घर की ओर जब चल रहा था तो फिलहाल किसी भी नौकरी का
खयाल नहीं था।
विनोदजी ने जागरण लखनऊ ज्वॉयन कर लिया।
मैं उनसे मिलने लखनऊ गया और मैंने उन्हें बता दिया कि
आज छोड़ दिया है और अब मैं अबूधाबी जाने की ही राह देख
रहा हूँ।
८५ गुजर गया। जो पैसे प्रेस से मिले थे उसमें से २५००
रुपये मैंने माँ को दे दिए थे और दो हजार बीवी को।
बीवी को दिए पैसों में से ही मोटरसायकिल और मेरे
पेट्रौल का खर्च मिल रहा था। कबतक चलता। कभी कभी
श्यामनंदन वर्मा की ओर से होती। कभी किसी का काम कराने
के बहाने वर्माजी उससे पैसे ले लेते तो कभी गुप्ता
होटल के मालिक से मिले पैसों से शराब खरीदी जाती।
गुप्ता का मुकद्दर ही कुछ खराब था। उसके होटल में काम
करने वाले लड़कों में से कोई न कोई या तो किसी मामले
में पकड़ा जाता या फिर वह खुद गुप्ता के खिलाफ ही पुलिस
में पहुँच जाता। गुप्ता रात-बिरात भागा हुआ वर्माजी के
घर आता और वे मुझे जगाते। उनका केस सुलझाने का मतलब था
कि एक हफ्ते की दारू का इंतजाम। थानेवाले मेरा सम्मान
इसलिए करते थे कि कई वर्ष पहले थानेदार राम अवतार जयंत
के बेटे को मैं ट्यूशन पढ़ा चुका था। उनके जाने के बाद
भी थाने पर मुझे मास्टरजी का दर्जा मिला रहा। जब अखबार
ज्वॉयन किया तो मास्टरजी के साथ अखबारनवीस का दर्जा और
जुड़ गया। आज लगभग तीस साल बाद भी अर्मापुर थाने में
मैं मास्टरजी के रूप में जाना जाता हूँ। गोकि, तब के
लोग न जाने कहाँ कहाँ स्थानान्तरित हो गए हैं लेकिन हर
साल कानपुर जाने के कारण थाने से संपर्क अब भी बना हुआ
है। अब जहाँ मैं कानपुर में रहता हूँ उस जगह और
अर्मापुर के रास्ते में थाना पड़ता है। जब मैं चारों ओर
से दुर्भाग्य से घिरा था, मुझे शराब की आदत हो गई थी
लेकिन मैं किसी से बलात शराब नहीं ले सकता था। ऐसा
करना मेरी नैतिकता के खिलाफ था। शराब पीते हुए भी मैं
शराबी के तमगे से उन दिनों दूर था। दिन में एकाध बीयर
पी लेता, शाम को वह भी रात नौ बजे के बाद एक क्वार्टर
व्हिस्की। यही मात्रा शुरू में भी शुरू हुई थी जो
सिर्फ एक साल को छोड़कर अबतक बनी हुई है लेकिन एक साल
तो शायद शराब ही सबकुछ हो गई थी, खैर...
ऐसे हालातों में जनवरी के मध्य में स्कूल का एक पत्र
मिला कि पॉसपोर्ट में इमीग्रेशन क्लीयर्ड नॉट
रिक्वॉयर्ड का स्टैम्प लगा होना चाहिए। यह स्टैम्प
दिल्ली अथवा बम्बई में पॉसपोर्ट ऑफिस में लगेगा। इस
स्टैम्प के लिए बी ए अथवा एम ए की डिग्री दिखानी होगी।
क्लीयरेंस के बिना देश छोड़ने में मुश्किल होगी।
मुझे दिल्ली भागना पड़ा। स्टैम्प पॉसपोर्ट पर लग गया।
लेकिन आजतक यह बात समझ में नहीं आई कि जब डिग्री देखकर
ही यह स्टैम्प लगना था तो लखनऊ में ही क्यों नहीं इसे
लगाया गया। असल में हमारे देश में खाने कमाने का जरिया
हर काम में अधिकारी छोड़े रखते हैं।
फरवरी की ६ तारीख को स्कूल का तार मिला "कलेक्ट पी॰
टी॰ ए॰ फ्रॉम एयर इण्डिया ऑफिस नरीमैन प्वाइंट बाम्बे"
जैसे सब्र का बाँध टूट गया हो। लेकिन बीवी ने कहा ८
तारीख को शादी की साल गिरह है, आप ९ को चले जाएँ। जैसे
इतने दिन की देरी हुई वैसे दो दिन और सही। मैंने ९
फरवरी का आरक्षण कराया। जिन दोस्तों तक बात पहुँच सकती
थी उनतक समाचार पहुँचा दिया। मैं राजेन्द्र राव से
नहीं मिल सका, यद्यपि उन्हें पता था कि मेरा बाहर जाने
के लिए चुनाव हो चुका है। लेकिन कोई प्रगति न होने से
वे भी निराश से थे।
९ फरवरी ८६ को कानपुर प्लेटफॉर्म पर मुझे विदा करने के
लिए एक हुजूम था। श्यामनंदन वर्मा, प्रदीप सिंह, कवि
रामचंद्र 'नेमी', मशहूर गीतकार और कवि श्री श्रीप्रकाश
श्रीवास्तव, हरिश्चन्द्र त्रिपाठी, ठाकुर शशिभूषण
सिंह, मुरलीधर शर्मा, ए एन श्रीवास्तव, हरवंश सिंह,
राजीव रंजन सिन्हा, भाई छोटेलाल हेड मॉस्टर, अखबार के
मेरे साथी, कानपुर के और भी कई कवि, पिताजी के ऑफिस के
कई लड़के स्वामीनाथ यादव और गोपी के अलावा कुछ और जो
मेरे सहपाठी रह चुके थे तथा छोटे भाई के कुछ दोस्त सभी
फूल मालाएँ लेकर आए थे जो इस बात को स्पष्ट कर रहा था
कि मैं विदेश जा रहा हूँ।
दिल भर-भर आ रहा था। यह दूसरी बार हो रहा था। ऐसा ही
दृश्य कभी रात दो बजे कई साल पहले तब हुआ था जब मैं
पहली बार सिक्किम जा रहा था।
माथे पर टीका गले में मालाएँ। दोस्तों की बाँहों के
घेरे। भाइयों की भरी आँखें दिल को सँभलने नहीं दे रही
थीं।
मैंने घर से निकलते ही बाबूजी को रोक दिया था कि वे
मुझे छोड़ने के लिए स्टेशन जाने की तकलीफ न उठाएँ। वे
अर्मापुर की पानी की टंकी तक लगभग पौन किलोमीटर पैदल
रिक्शे के साथ साथ आए थे। जब उन्हें लगा कि अब मुझे
जाना चाहिए तब उन्होंने मेरी हथेलियों में ६०० रूपये
रख दिए थे और वहीं रूक गए थे।
स्टेशन से जब ट्रेन चल पड़ी तो मुझे बहुत जोर से हूक
उभरी। शायद ठीक वैसी ही जब यह पता लगा था कि मेरी
प्रेमिका ने शादी कर ली। क्या अपने शहर से भी ऐसी ही
मोहब्बत होती है?
सबकुछ पीछे छूट रहा था और मैं एक अज्ञात स्थान के लिए
आगे बढ़ रहा था।
काफी देर तक मैं दरवाजे के पास खड़ा रहा। बीवी, बच्चा,
दोस्त, घर्-परिवार सब मेरी भीगी आँखों में गड्ड मड्ड
होते रहे और वह प्रेमिका भी उभरती रही जिसने मेरे साथ
वायदे करके किसी और के साथ शादी कर ली थी। वक्त कभी
कभी बहुत तकलीफ देता है, जिन लोगों ने कभी किसी से
प्रेम नहीं किया है या करके भी अपनी जिन्दगी में
स्वीकार नहीं पाते उनके दोमुँहेपन पर मुझे केवल घृणा
ही हो सकती है...मैं तो अपने प्रेम के इस तरह छिटक
जाने पर लगभग पागल हो गया था। मुझे तब भी समझ में नहीं
आया था कि उसने मुझे बिना बताए किसी और से शादी क्यों
कर ली? और अब बीस साल बाद जबकि उससे फिर बहुत अच्छे
पारिवारिक संबंध हैं तो भी मैंने कभी नहीं पूछा कि
जीवन में वह चक्रवात आया तो क्यों? शायद अब ऐसे सवालों
का वक्त नहीं रहा।
जब मैं कम्पॉर्टमेण्ट में अपनी सीट पर आकर बैठा तो कुछ
मिनिट के बाद किसी ने मुझसे कहा भाई जान! विदेश जा रहे
हैं क्या?
मैंने तब पहली बार कंपार्टमेण्ट पर नजर डाली। सभी
मुस्लिम थे। शायद वे कई परिवार थे जिनके मर्द मेरे
वाले कंपार्टमेण्ट में थे और महिलाएँ साथ वाले डिब्बे
में बैठी थीं। मैंने पूछनेवाले से कहा हाँ...
कहाँ जा रहे हैं जनाब?
अबूधाबी...
पहली बार जा रहे हैं...?
जी...
तो, जब लौटेंगे तो हिन्दुस्तान तो आपको कचरा नजर
आएगा...
उस आदमी की बात सुनकर गुस्सा सा आया। यह क्या हिमाक़त
हुई कि अपने देश को कचरा कहो। मैं चुप ही रहा। थोड़ी
देर बाद उसके साथ के लोगों ने ताश का पैकेट निकाल
लिया। उसी ने मुझसे कहा मुँह लटकाए हुए जाने की कोई
जरूरत है क्या...ताश खेलिए...
मैंने बहुत मना किया कि मैं ताश नहीं खेलता लेकिन उसने
मुझे ललचा ही लिया। मैं एक बात अपने अनुभव से बताता
हूँ कि यदि कोई कभी किसी आदत का शिकार रह चुका है तो
भविष्य में भी उस आदत से चोट पा सकता है। मैंने अपने
साथ ताश के खेल में हुई दो दुर्घटनाओं के आधार पर कसम
खा रखी थी कि भविष्य में कभी जुआ नहीं खेलूँगा लेकिन
उस यात्रा में कसम टूट गई। मुस्लिम परिवार के वे सभी
लोग कुशल पत्तेबाज थे। मैं अपने पास के सारे पैसे हार
गया। खेल फिर भी चलता रहा। मेरे पास इतने पैसे भी नहीं
बचे कि मैं सिगरेट का एक पैकेट खरीद पाता। रास्ते भर
उन लोगों के पास खाने के लिए बहुत सामान था। सूखा भुना
गोश्त, कबाब और मुर्गा, रूमाली रोटियाँ और बिरयानी,
फलों की टोकरी थी। रास्तेभर जब भी वे खाते तो मुझे भी
शामिल करते रहे पर सिगरेट के लिए मैं तरस गया। जुआ
खेलने की अपनी भूल पर भी भीतर ही भीतर पछता रहा था।
मेरी चिन्ता यह भी थी कि आगे मैं बाम्बे में सवारी का
खर्च कैसे उठाऊँगा?
दादर पर जब मैं उतरने को हुआ तो उस आदमी ने जिसने मुझे
जुआ खेलने को उकसाया था अपने साथियों में से किसी से
कहा हसन भाई, इस लड़के के सारे पैसे वापस करो...
मैं करीब साढ़े आठ सौ रूपये हारा था। उन्होंने मेरे
सारे पैसे दिए और उस आदमी ने जिसने मुझे जुए के लिए
उकसाया था। कहा- "आपके पास रत्ती भर अक्ल नहीं
है...कोई किसी के उकसाने पर जुआ खेलता है? ये नम्बर
नोट कीजिए...हमारे कई लोग दुबई में हैं, कभी कोई जरूरत
पड़े तो उन्हें फोन कीजिएगा...
कितने लोगों को ऐसे लोग सफर में मिलते हैं। मेरा दिल
भर आया। मैं उनकी इस करूणा का मूल्य क्या कभी चुका
पाऊँगा...?
जब दादर रेलवे स्टेशन पर उतरा तो मेरी दशा वही
थी...हाथ झारि के चले जुआरी...हालाँ कि पैसे मेरे पास
आ गए थे...
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