भूमिका-
"सागर के उस पार से, इस पार से" की रूपरेखा कानपुर
स्थित अमर उजाला अखबार में संपादक और कवि वीरेन डंगवाल
के ऑफिस में उपजी थी। मैं उनसे जब मिला तो यह जानकर
अच्छा लगा था कि वे मुझे नाम से जानते हैं और उन्होंने
मेरी कहानियाँ पढ़ी हैं।
पहली मुलाकात में ही उन्होंने आग्रह के साथ कहा कि आप
हमारे लिये भी लिखिये। मैंने उन्हें बताया कि अखबारों
में मैं केवल "दैनिक जागरण" के लिये ही लिखता हूँ।
हालाँकि कभी "आज" में लगभग दो साल तक नियमित काम भी
किया है। यह सही है कि मैंने ऐसी कोई कसम नहीं खाई थी
कि मैं केवल जागरण में ही लिखूँगा। एक अच्छे संपादक की
विशेषता ही यही है कि वह लेखक से रचना प्राप्त कर ले।
इस मामले में मुझे डॉ॰ जयनारायण, श्रोत्रिय जी और
दैनिक जागरण के श्री राजेन्द्र दुबे बहुत सजग और सफल
संपादक नजर आते हैं। श्री दुबे तो इतना दबाव बढ़ा देते
हैं कि रचना दिये बिना राहत नहीं मिलती। उन्होंने
मुझसे सचमुच एक ऐसा काम करवा लिया कि अगर उनका दबाव न
होता तो शायद मैं उसे न करता। यह उनका आदेशमूलक सस्नेह
आग्रह ही है कि मैं उन्हें एक के बाद एक ऐसी कहानियाँ
दे रहा हूँ जिसमें केन्द्रीय पात्र बच्चा होते हुए भी
समाज और वातावरण प्रमुख है।
श्री डंगवाल को फिलहाल तो मैंने उस दौरान लिखे कुछ
व्यंग्य लेख दिये और फिर कई मुलाकातों में यह तय हुआ
कि खाड़ी में रहने वाले एशियाई मूल के लोगों के बारे
में धारावाहिक स्तम्भ की शुरूआत करूँ। बात हो गई थी और
मेरे पास लिखने के लिये भरपूर सामग्री भी थी मगर मेरी
दिक्कत यह थी कि छुट्टियों से वापस आने के बाद
डंगवालजी से संपर्क मुझे ही करना होता था। वह भी फोन
पर कभी बात हो पाती और कभी नहीं। उन्होंने मेरे कई लेख
छापे मगर न तो उनकी सूचना दी और न ही अपने कार्यालय
में किसी को यह जिम्मेदारी दी कि वही रचनाकारों को कम
से कम उनकी प्रकाशित रचनाओं की कटिंग भेजे। इस मामले
में बहुत से संपादक संवेदना शून्य हैं। मुझे "अमर
उजाला" में प्रकाशित अपने लेखों के बारे में हमेशा
दूसरों से पता चला। एक कविता कवि मान बहादुर सिंह पर
भी प्रकाशित हुई थी। उसकी पाण्डुलिपि भी मेरे पास नहीं
है। खैर जो भी हुआ वह इस कृति का निमित्त तो हुआ ही।
इस प्रोजेक्ट पर काम करने के बारे में जब मैंने
गंभीरता से सोचा तो मुझे लगा कि एक ऐसी दुनिया जिससे
मैं पूरी तरह अपरिचित था और मेरी तरह ही बहुत से लोग
अनजान हैं। साथ ही जिस दुनिया के बारे में बड़ी अजीब
धारणाएँ फैली हैं, क्यों न उसे ही अपने लिखने की विषय
वस्तु बनाया जाए। अबूधाबी में मैंने पहली मलयालम फिल्म
"अकरे" देखी। इससे पूर्व केवल एक मलयालम फिल्म सन
७६–७७ में देखी थी लेकिन वह में "मन का आँगन" शीर्षक
से हिन्दी में डब की गई थी। फिल्म एक नई थीम को लेकर
बनी थी और युवक–युवतियों में इस फिल्म को लेकर बहुत
क्रेज था। मैंने भी वह फिल्म देखी थी, खैर बात "अकरे"
की हो रही है तो इस शीर्षक का अर्थ है कि उस पार की
घास ज्यादा हरी दिखती है। जबरदस्त फिल्म थी। इस फिल्म
ने चमक–दमक वाले संसार से मेरा मोहभंग पहले दिन ही कर
दिया, मगर, भाग्यप्रारब्ध कुछ तो होता होगा कि सत्रह
वर्ष यहाँ निकल गए। जब इस विषय पर लिखना शुरू किया तो
सबसे उपयुक्त शीर्षक "अकरे" ही लगा। इसके कुछ भाग लखनऊ
से प्रकाशित होने वाले "जनसत्ता" ने छापे और कुछ वहीं
से प्रकाशित होने वाली पत्रिका "शब्दसत्ता" ने
प्रकाशित किए। यह सब सुशील सिद्धार्थ ने किया।
इसकी कुछ किश्तें प्रकाशित हो चुकी थीं जब मैं अपनी
अगली छुट्टियों में लखनऊ गया तो "जनसत्ता" कार्यालय
में प्रतिभा कटियार ने कहा कि आपका स्तम्भ "अकरे" बहुत
प्यारा है। यह मेरी आत्मकथा नहीं है। वैसे भी आत्मकथा
में आत्म जैसा कुछ भी होता नहीं। उसमें भी दूसरे ही
शामिल होते हैं। और अगर इसे आत्मकथा जैसा ही माना जाए
तो यह बताना मेरा उत्तरदायित्व हो जाता है कि यह उसका
दूसरा भाग है। यह भी क्या बात हुई कि अगर आत्मकथा लिखी
जाए तो उसकी शुरूआत मध्य से हो।
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