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आत्मकथा (नवाँ भाग)

   — कृष्ण बिहारी

 

हिन्दुस्तान छूटने से पहले की रात


वक्त कितना भी ठहर जाए किन्तु घड़ी के काँटे कभी नहीं ठहरते। ठहरा हुआ वक्त भले ही भारी हो जाए मगर बोझिल दुनिया की गतिविधियाँ हस्बमामूल चलती रहती हैं। तत्कालीन बम्बई में मेरे वे दिन और वे रातें गुजर ही गईं जिनमें जीना मेरे लिये लगभग असहनीय था। कभी–कभी जिन्दगी को जीना पड़ता है। मैं यह सोचते हुए जी रहा था कि घर ही वापस हो लूँ और फिर लौट आऊँ। 

लेकिन तब जगत के ताने कानों को छीलते थे और पिघले हुए इस्पात की तरह कानों में उतरते थे मगर जब हिन्दुस्तान को छोड़ने की रात आ पहुँची तो एकबार सचमुच यह लगा कि वापस कानपुर लौट चलूँ। कोई जरूरत नहीं विदेश जाने की। वह भी ऐसे देश में जिसके बारे में सैकड़ों बातें वहाँ पहुँचने के पहले ही सुनाई जा चुकी थीं। उन्हीं दिनों शारजाह में किसी को पत्थर मार–मार कर मार डालने की सजा पर अमल भी हो गया था। यह खबर अखबारों की हेड लाइन बनी हुई थी मन किसी मकाम पर ठहरता ही नहीं था। यदि मैं राजेश्वर के घर की बजाय किसी लॉज में ठहरा होता तो शायद ऊहापोह की अवस्था में घर वापस जाने का फैसला कर लेता भले ही वह अपमानजनक होता। राजेश्वर की ओर से हमेशा मेरा उत्साह ही बढ़ाया गया। उनमें मुझे एक केयरिंग बड़े भाई–सा व्यक्तित्व दिखा। यह उनके फ्लैट में बिताई आखिरी रात को खुलकर उजागर हुआ।

लम्बी यात्राओं के पहले मैं पूरी तरह ब्लैंक हो जाता हूँ। कुछ पता नहीं होता कि जा कहाँ रहा हूँ। यात्रा से पहले कोई प्लॉन भी नहीं बनाता कि यात्रा सुगम हो। ले–देकर एक आरक्षण ही होता है मेरे पास। कभी–कभी तो वह भी नहीं। जब कभी किसी अपरिचित गंतव्य पर पहली बार जा रहा होता हूँ तब तो और भी विचित्र अवस्था होती है। मैं लगभग खामोश हो जाता हूँ। यह तो पहली हवाई यात्रा और पहली विदेश यात्रा थी। इस यात्रा में पर्यटक या पत्रकार बनकर जाना और घूम–घामकर या असाइनमेण्ट पूरा करके एक सीमित समय में लौटना नहीं था बल्कि एक अध्यापक की नौकरी करनी थी और जाने कब लौटना था...

मैंने शाम को रेस्तराँ के मैनेजर को धन्यवाद देते हुए विदा ले ली थी। वह बहुत सदाशय व्यक्ति था। उसने मुझसे कहा, “पैसों की कमी हो तो मैं देता हूँ...बाद में भेजना...” मैंने उसके इस व्यवहार पर खुद को भीतर तक भीगा हुआ पाया। उसे विनम्रतापूर्वक मना करते हुए यदि कुछ सोचा तो सिर्फ यह कि यदि ईश्वर मुझे कुबेर का खजाना भी दे दे तो वह भी कम पड़ जाएगा। इसलिये नहीं कि वह सब मैं खुद पर उड़ा दूँगा। बल्कि इसलिये कि पास में पैसे होते हुए मैं आवश्यकताओं को अधूरा नहीं छोड़ सकता। इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आवश्यकता अपनी है, दोस्त की है, दुश्मन की है या किसी अनजान की है। दुनिया तो आखिर इन्हीं से बनती है तो धन किसपर खर्च हो...रेस्तराँ के मैनेजर से अलग होते हुए मैं भावुक हो उठा था। वैसे ही जैसे कानपुर छोड़ते हुए मित्रों से, परिवार से अलग होते हुए हो उठा था। सोचा था कि जब भी बाम्बे आऊँगा मैनेजर से अवश्य मिलूँगा। लेकिन वह सोचा हुआ आज तक पूरा कहाँ हुआ? कोई नितांत अपरिचित भी मेरा अपना क्यों हो उठता है यह अब तक अनसुलझी गुत्थी है और कोई बहुत पास होते हुए भी नितांत अपरिचित बना रहता है...क्यों? यह भी एक अनसुलझी गुत्थी है...खैर...बात तो उस रात की हो रही है जो अपने आप में यादगार बनी हुई है।

अपनी आवश्यकता भर का पैसा मेरे पास था। राजेश्वर के फ्लैट पर लौटने पर एकबार फिर कैफियत देनी पड़ी कि दिन–भर कहाँ रहा...रात का खाना खाने के बाद मैंने अपना सामान सूटकेस में रखने की कोशिश शुरू की। पैकिंग की मेरी कोशिश नाकाम देखते हुए राजेश्वर ने कहा, “तुम छोड़ो, मैं रखता हूँ...कपड़े भी ठीक से रखना नहीं आता, पता नहीं तुम वहाँ कैसे रहोगे...”

जो कुछ उस चटक लाल रंग के छोटे सूटकेस में नहीं आ रहा था वे किताबें और पत्रिकाएँ थीं जिन्हें मैंने बाम्बे में खरीदा लेकिन पढ़ा नहीं था। पढ़ लिया होता तो उन्हें छोड़ना आसान था। कुछ किताबें राजेश्वर ने भी दी थीं। मेरे कपड़े और शैक्षणिक प्रमाण–पत्र तो बढ़ने से रहे थे। राजेश्वर मेरा सूटकेस ठीक कर रहे थे। मैं उन्हें इस मामले में क्या कहता। परिवार में बड़ा लड़का होकर जन्म लेना जहाँ बहुत–सी बातों की जिम्मेदारी सिखा देता है वहीं बहुत-सी छोटी-छोटी बातों को सीखने से बहुत दूर कर देता है।

सूटकेस में कपड़ों और प्रमाण–पत्रों के साथ किताबों, पत्रिकाओं को भी रखने के बाद उन्होंने मेरा पॉसपोर्ट, वीजा की फोटोकॉपी पी टी ए थॉमस कुक से ली हुई यू ए ई की करेंसी एक छोटे–से बैग में रखते हुए कहा, “ये जरूरी पेपर हैं। हवाई यात्रा के दौरान इन्हें सँभालकर रखना होता है। यह बैग हमेशा हाथ में रहे। एकबार सामान से भरा सूटकेस कहीं छूट जाए या चोरी हो जाए तो वह सब सामान फिर हो जाएगा लेकिन अगर पॉसपोर्ट खो गया तो समझो कि महीनों की जहमत भुगतनी पड़ेगी, बहुत से लफड़ों से गुजरना होगा तब कहीं जाकर मुश्किल हल होगी, जो आर्थिक नुकसान होगा वह तो होगा ही...” छोटे से उस वी आई पी में राजेश्वर ने मेरी दुनिया बड़े कायदे से समो दी जिसे लेकर मुझे नई दुनिया के रास्ते पर बढ़ना था। जो काम उन्होंने बड़ी सहजता से कर दिया वही मुझसे इसलिये नहीं हो पा रहा था कि मैं स्वयं में असहज था। पॉसपोर्ट आदि सँभालकर रखने की उनकी हिदायत पर मैंने स्वीकृति में सिर हिला तो दिया मगर उनके कहे शब्दों की क्रूरतम सचाई का अनुभव तब हुआ जब अपने एक सहयोगी का पॉसपोर्ट खो जाने पर उसकी यातना को भुगतने के एहसास को सुना यह काफी बाद की घटना है जिसका जिक्र मैं समय आने पर करूँगा। जब हर तरह से निश्चिंत होकर राजेश्वर सोने के लिये अपने कमरे में जाने लगे तो उनके साथ बच्चे भी उठे मैंने उनके बच्चों से हाथ मिलाते हुए कहा, “सुबह जब तुम लोग सोकर उठोगे उससे पहले मैं चला जाऊँगा...” ऐसा कहते हुए गला भर आया और उस मोह का एहसास हुआ जो अपने बच्चों से अलग होते हुए किसी माँ–बाप को होता है। आँखें पनिया गईं। राजेश्वर ने स्थिति सँभाली। “ये सब तुम्हें जाते हुए भी मिलेंगे। अब सो जाओ। तुम्हें जल्दी उठना भी है...” 

जब मैंने बल्ब का स्विच ऑफ किया तो रात के उस अकेलेपन में सिर्फ मैं और अँधेरा एक साथ रह गए। यदि उस अँधेरे को माइनस लिविंग बीइंग मान लिया जाए तो अपने विगत के साथ, यादों के साथ एक तन्हा इंसान बिस्तर पर लेटे छत को खुली आँखों अपलक देखते हुए सो रहा था। आदमी अपनी यादों के साथ कितना धनी और कितना कंगाल होता है। इसका पता ऐसे ही पलों में चलता है।

बीते सप्ताह में जो कुछ गुजरा वह हर तरह से मेरे लिये नया था मगर जो कुछ जिन्दगी में पहले घट चुका था उससे भी अलग हो पाना आसान कहाँ था। एक सिरे से घर–परिवार, दोस्त–दुश्मन सभी याद आ रहे थे। कहना कठिन है मगर स्वीकारना उससे भी कठिन कि दुश्मन भी दोस्तों से बढ़कर याद आए। मलाल–सा हुआ कि फानी–सी जिन्दगानी में दुश्मनी किस लिये? यह कहना कहीं से भी जग–हँसाई नहीं होगी कि बीवी और बेटे की याद ने एक ऐसी हलचल दिल में मचा दी कि आगे जाने के खयाल से ही दहशत का आलम भर उठा था। मैंने सोचा कि दुश्मन को भी ईश्वर घर से बेघर न करे। अपनों से अलग न करे, अपनों से बिछड़कर कुछ मिलता नहीं। और, जो मिलता है वह खो चुके की बराबरी कभी नहीं कर पाता... आज लगभग दो दशक बाद जब इसे लिख रहा हूँ तो यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इन वर्षों में मैंने खोया ही खोया है। पाया कुछ भी नहीं। न नवजात बच्चों को गोद में ले सका और न दुनिया छोड़ जाने वालों को कंधा दे सका। आदमी की जिन्दगी क्या इतनी–सी ही है? क्या उसका होना सिर्फ इसीलिये है कि वह अकेले जी ले। सुख के साथ, अपने दुख के साथ? क्या कोई जी सकता है अपने सुखों और दुखों के साथ अकेले? 

मैं हमेशा रात की यात्रा चाहता हूँ। इसके पीछे मात्र यही कारण है कि सुबह–सुबह जब चलना होता है तो मुझे सारी रात नींद नहीं आती। यहाँ अल्ल–सुबह यानी कि सुबह चार बजे ही घर से निकलना था तब कहीं तीन घण्टे पूर्व सहार एयरपोर्ट पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाता। मैंने सोचा था कि सुबह समय से तैयार होने के बाद टैक्सी स्टैण्ड जाकर टैक्सी ले आऊँगा।

रात के सरकते हुए एक–एक पल इस बात की गवाही दे रहे थे कि अपने मुल्क से मोहब्बत आदमी की पैदाइश के साथ ही उससे हमेशा के लिये जुड़ जाती है। उससे अलग होते हुए समय उसे एक अनिवर्चनीय वेदना होती है। कुछ ऐसी बेचैनी होती है कि जिसमें रात नहीं कटती। मुझे एक मशहूर शेर याद आया-
एक हूक–सी दिल में उठती है एक दर्द जिगर में होता है।
मैं रात को उठकर रोता हूँ जब सारा आलम सोता हूँ।
 
कुछ वैसी ही हूक उठती और मैं बिस्तर पर बैठ जाता। मुझे लगा कि लेटकर सोने की कोशिश में यादें चैन नहीं लेने देंगी। लेटने से तो आँखों के आगे एक रील ही घूमने लगती है। नॉन–स्टॉप। बहुत से लोगों को यह बात कुछ अजीब–सी लगेगी कि विदेश जाने के सुनहरे मौके को भी मैंने बेकार के भावुक क्षणों की भेंट चढ़ा दिया। लेकिन वहीं यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि यह घटना क्रम मेरे जीवन का हिस्सा है और घर–परिवार और दोस्तों–दुश्मनों तथा देश से विलग होते हुए आपके रिश्ते उनसे कैसे हैं। मैंने ऐसे भी भारतीयों को आगे देखा जिनके भीतर दिल नहीं, माँस के लोथड़े की जगह पत्थर का टुकड़ा है। वे भारत में अपनी छुट्टियाँ बगैर माँ–बाप और दोस्तों से मिले किसी फाइव स्टार होटेल में गुजारकर लौट आते हैं और, बड़े गर्व से साथ के लोगों को बताते नहीं थकते कि किस खुंदस को निकालने के चक्कर में वे अपने घरवालों से बिना मिले ही चले आए। दुनिया है, लोग हैं, चरित्र हैं। लेकिन यह असामाजिकता जो परिवार से शुरू हो चुकी है इस दुनिया को किस मकाम पर ले जाएगी।

सुबह सवा तीन बजे बिस्तर छोड़ दिया मैंने। लाइट जलाई। राजेश्वर कमरे में आए, “जग गए?”
“हाँ”
“चाय बनाकर बच्चों को जगाता हूँ”
“इतनी सुबह उन्हें मत जगाएँ”
“क्या बात कर रहे हो? बिना मिले ही चले जाओगे?”
“नहीं...ऐसी बात नहीं...मैं तो उनकी रूटीन न डिस्टर्ब हो इसलिये...”
जबतक राजेश्वर ने चाय बनाई तबतक बच्चे भी जग गए। उस सुबह सबने साथ चाय पी।
तैयार होकर जब मैं टैक्सी लेने के लिये निकलने को हुआ तो राजेश्वर भी साथ हो लिये। हम दोनों चुप–से स्टैण्ड की ओर बढ़ रहे थे। लौटते समय टैक्सी में राजेश्वर बोले, “मेरे घर में अगर कोई तकलीफ हुई हो तो उसे हमेशा के लिये भूल जाना...”
“यह तो कोई बात नहीं हुई...और अगर कहना जरूरी ही हो तो मुझे कहना चाहिए कि मेरी वजह से लगभग एक सप्ताह आप सभी बँधे–बँधे रहे...लेकिन कृतज्ञता ज्ञापित करके उपकार को छोटा और खुद को एहसान फरामोश साबित करना नहीं चाहता, मैं समझता हूँ कि इस विषय पर हमें बात ही नहीं करनी चाहिए”

हम फिर चुप हो गए। टैक्सी बिल्डिंग के नीचे आ लगी। दो मिनट से भी कम समय में मय–सामान मैं टैक्सी में था। हिलते हाथों ने जो विदाई दी वह कितनी लम्बी हो गई। अठारह साल होने को आ रहे हैं दुबारा भेंट ही नहीं हुई। राजेश्वर रिटायर होने वाले होंगे। लगभग पंद्रह साल की बिटिया थी। अब तैंतीस के आस पास होगी। सबकुछ समय से हुआ होगा तो राजेश्वर के बच्चे अब बच्चे वाले हो चुके होंगे और राजेश्वर दादा–नाना बन चुके होंगे। ईश्वर करे कि सब कुछ समय से और ठीक हुआ हो। मेरा विश्वास है कि ऐसे लोगों के साथ सबकुछ ठीक ही होता है। ठीक होना ही चाहिए। सुबह होने न होने के बीच टैक्सी एयरपोर्ट की ओर भाग रही थी और मेरा मन टॅग ऑफ वार के बीच खिंच रहा था। दोनों तरफ कभी पीछे का सिरा खिंच उठता तो कभी आगे का। एक ओर अतीत था और दूसरी ओर पूरी तरह अनजाना, अस्पष्ट, अनभुगता हर एक पल...

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