समकालीन कहानियों में इस सप्ताह
प्रस्तुत है
स्वाती तिवारी की कहानी-
मृगतृष्णा
आसमान
छूने की मेरी अभिलाषा ने मेरे पैरों के नीचे से जमीन भी खींच
ली, पर तब ... मैं जमीन को देखती ही कहाँ थी। मैं तो ऊपर टँगे
आसमान को ताकते हुए अपना लक्ष्य पाना चाहती थी। तब अगर कुछ
दिखाई देता था तो वह था केवल दूर-दूर तक फैला नीला आसमान, जहाँ
उड़ा तो जा सकता है, पर उसका स्पर्श नहीं किया जा सकता है।
ऊँचाइयों का कब स्पर्श हुआ है जब हाथ उठाओं वे और ऊँची उठ जाती
हैं--मरीचिका की तरह। एक भ्रम की तरह आसमान जो नीला दिखता है
पर कैसा है, कौन जानता है? जमीन कठोर हो, चाहे ऊबड़-खाबड़, पर
उसका स्पर्श हमें धरातल देता है, पैरों को खड़े रहने का आधार।
पर यह अहसास तब कहाँ था? मैं तो जमीन के इस ठोस स्पर्श को
पहचान ही नहीं पाई। अंदर-ही-अंदर आज यह महसूस होता है कि जमीन
से सदा जुड़े रहना ही आदमी को जीवन के स्पंदन का सुकून दे सकता
है। आज दस वर्षों बाद उसी शहर में लौटना पड़ रहा है, याद है
मुझे वह भी नए साल की शुरुवात का दिन था। अरुण नया साल खूब
उत्साह और उल्लास के साथ जश्न
आगे...
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राजा चौरसिया का व्यंग्य
नववर्ष की हार्दिक शुभकामना
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पूर्णिमा वर्मन का आलेख
संक्रांति और पतंगों की उड़ान
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पंडित आशुतोष की पुराणकथा
श्रीराम की पतंग जो स्वर्ग तक गयी
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पुनर्पाठ में डॉ.गणेशकुमार पाठक
मकर संक्रांति एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण |